22 अगस्त को बम्बई उच्च न्यायालय के औरंगाबाद बेंच ने दिल्ली के निजामुद्दीन में मरकज में शामिल हुए तबलीगी जमात के 29 सदस्यों के खिलाफ दर्ज मुकदमों को खारिज कर दिया।

लॉकडाउन से ठीक पहले मार्च के पहले और दूसरे सप्ताह में निजामुद्दीन मरकज में हजारों देशी–विदेशी नागरिक शामिल हुए थे। अचानक लॉकडाउन के चलते बहुत से लोग तो वहीं फँस गये जबकि बहुत से जमाती देश के अलग–अलग हिस्सों में जा चुके थे। देश के तमाम दूसरे नागरिकों की तरह तबलीगी जमात में शामिल रहे ये लोग भी अलग–अलग जगह फँस गये। कोरोना से निपटने में सरकार को अपनी नाकामियों को छिपाने के लिए तबलीगी जमात के रूप में एक आसान शिकार मिल गया। सरकार का भोंपू बन चुके प्रिण्ट और इलेक्ट्रानिक मीडिया के बडे़ हिस्से ने तमाम कानूनों और कौमी एकता के तमाम मूल्यों को ताक पर रखकर तबलीगी जमात के साथ–साथ पूरे मुस्लिम समुदाय के खिलाफ दुष्प्रचार किया। हद यह थी कि उन्हें षडयंत्रकारी और कोरोना बम की संज्ञा दी गयी। केन्द्र की भाजपा सरकार की यही मंशा थी।

जब तबलीगी जमात के साथ ही पूरे मुस्लिम समुदाय के खिलाफ माहौल बन गया तो केन्द्र सरकार तथाकथित ‘कोरोना बम’ को डिफ्रयुज करने के लिए अबतरित हुई। देश के अलग–अलग राज्यों में पहुँचे जमातियों के खिलाफ कठोर कानूनों के तहत मुकदमें दर्ज करने के आदेश जारी किये गये। 22 अगस्त बम्बई उच्च न्यायालय ने 29 जमातियों के खिलाफ महाराष्ट्र पुलिस द्वारा दर्ज ऐसे ही मुकदमे को खारिज किया है।

55 पेज के अपने आदेश में न्यायालय ने सरकार और मीडिया पर कुछ बेहद गम्भीर टिप्पणियाँ की हैं। हालाँकि हमारे इस बहुरंगी देश पर बेहयाई इस कदर हावी है कि जिनके खिलाफ न्यायालय ने बोला, उन पर ऐसी बातों का कोई खास फर्फ नहीं पड़ता। फिर भी, न्यायालय द्वारा कही गयी बातों पर गौर करना इसलिये जरूरी है कि कम से कम यह सरकार और मीडिया के चरित्र पर एक आधिकारिक बयान है।

पीठ ने अपने आदेश में कहा है कि महामारी या विपत्ति के समय सरकार एक बलि का बकरा ढूँढने की कोशिश करती है और हालात बताते हैं कि सम्भवतया इन नागरिकों को बलि का बकरा बनाने के लिए चुना गया था।

न्यायालय ने माना है कि राज्य सरकार ने राजनीतिक मजबूरी के चलते इन नागरिकों के खिलाफ मुकदमा दर्ज किया था। इसका अर्थ है कि आज सत्ता की राजनीति इतनी पतित हो चुकी है कि राजनीतिक लाभ के लिए लोगों को झूठे मुकदमों में कैद कर लेना उसका चरित्र बन गया है।

न्यायालय ने यह भी माना है कि हमारे देश में कानून सबके लिए एक जैसा नहीं है, सरकार ने अलग धर्म और अलग देश के नागरिकों के साथ अलग तरह का बर्ताव किया है।

प्रिण्ट और इलेक्ट्रानिक मीडिया को कड़ी फटकार लगाते हुए न्यायालय ने कहा है कि मीडिया ने इन लोगों के खिलाफ दुष्प्रचार का अभियान चलाया जिससे ऐसा माहौल तैयार हुआ, मानो देश में कोरोना के संक्रमण के लिए यही लोग जिम्मेदार हों। इससे हुए नुकसान के लिए पश्चाताप किया जाना चाहिए और क्षतिपूर्ति के लिए सकारात्मक कदम उठाये जाने चाहिए।

न्यायालय ने अपना फैसला सुना दिया है। लेकिन क्या बात सिर्फ इतनी ही है। जिस नुकसान के लिए पश्चताप की बात न्यायालय ने की है आखिर वह नुकसान क्या था?

किसी जघन्य अपराध की याद मिट जाने के लिहाज से चार–पाँच महीने बहुत लम्बा वक्त नहीं होता। तबलीगी जमात के बहाने से अप्रैल के शुरू में किसी तरह सरकार के जरखरीद मीडिया ने दुष्प्रचार की आँधी चलाकर पूरे मुस्लिम समुदाय को ‘कोरोना बम’ पर्यायवाची बना दिया था, यह हम सबको अच्छी तरह याद है।

हमें यह भी याद है कि इसके बाद कैसे जगह–जगह मुस्लिमों को अपमानित किया गया। इन्टरनेट के जरिये हम तक पहुँचे वे तमाम वीडियो आज भी हमारे दिमाग में तैर रहे हैं जिनमें लाचार, बेबस गरीब सब्जी बेचने वाले और फल बेचने वाले मुस्लिमों की स्थानीय भाजपाई लम्पटों द्वारा बर्बर पिटाई के दृश्य थे। हमें इन्हीं लम्पटों द्वारा उन मुस्लिमों को पीट–पीट कर अधमरे कर दिये गये लहूलुहान जिस्म भी याद हैं जिन पर ‘थूकने का आरोप था।’ हमारे आस–पास ही गली–मुहल्ला सड़क हर जगह पुलिस नहीं, भाजपाई लम्पट मुस्लिमों के कागजात चेक करते उन्हें धमकाकर भगाते, पीटते दिख जाते थे। अस्पताल में भर्ती कोरोना सक्रमित तबलीगी जमात के लोगों की बहुत गन्दी छवि प्रस्तुत की गयी, यहाँ तक कि कुछ स्वास्थ्य कर्मियों द्वारा उनके उपचार से मना करने की भी खबर आयी। और क्या–क्या याद किया जाये, फेहरिस्त बहुत लम्बी है और इन्हें गिनाना यहाँ हमारा मकसद नहीं है।

इस दौरान जो मुस्लिम नागरिक सरकार और उसके मीडिया द्वारा प्रायोजित शारीरिक मानसिक उत्पीड़न के शिकार हुए उनके नुकसान की भरपाई कैसे होगी। उनके तो केस भी दर्ज नहीं किये गये। क्या अब भी भारत को अपना मादरे वतन मानने की उनसे उसी तरह उम्मीद की जाये जैसी पहले की जाती थी और जिस पर वे हमेशा खरे उतरे। कोरोना से निपटने की नाकामियों को छिपाने के लिए सरकार और मीडिया के गठजोड़ ने एक समुदाय को निशाना बनाने का जो काम किया है, क्या यह देश के संविधान और आपसी भाईचारे के खिलाफ जघन्य अपराध नहीं है। क्या यह पूरे देश की जनता और मानवता के खिलाफ अपराध नहीं है।

फिर एक बार दोहराने की जरूरत है, न्यायालय ने नुकसान के लिए ‘पश्चाताप’ करने की बात कही है। समाज की एकता पर चोट पहुँचाइये संविधान की धज्जियाँ उड़ाइये, एक समुदाय को ‘कोरोना बम’ कहकर पुकारिये, बली का बकरा बनाइये, मारिये–पीटिये और अब सब कुकर्म करके थक जायें फिर ‘पश्चाताप’ कर लीजिये। चाहे तो गंगा भी नहा लीजिये। हालाँकि पश्चाताप करने की भी दूर–दूर तक कोई सम्भावना दिखाई नहीं देती।

दूसरी बात क्षतिपूर्ति के लिए सकारात्मक कदम उठाने की है। एक सकारात्मक कदम सरकार उठा चुकी है। अप्रैल के अन्त में इस मुद्दे पर अरब देशों की डाँट खाने के बाद भारत सरकार ने एक सकारात्मक कदम उठाया था। हम सबके मोबाइल फोन पर एक नयी सरकारी धुन बजनी शुरू हो गयी थी–– कोरोना महामारी हैं यह जाति धर्म नहीं देखती।

बाकी की क्षतिपूर्ति पूरे देश की जनता करेगी, हमारी आने वाली पीढ़ियाँ करेंगी, और जरूर करेंगी। इतिहास कभी अपना काम अधूरा नहीं छोडता।