एक फरवरी को बर्मा में सेना ने फिर से सत्ता पर जबरन कब्जा जमा लिया। उसने बन्दूक की नोक पर नेशनल लीग फॉर डेमोक्रेसी (एनएलडी) की सरकार को उसकी बची–खुची आंशिक सत्ता से भी बेदखल कर दिया। हालाँकि, सत्ता पूरी तरह एनएलडी के पास नहीं थी, सेना के साथ उसकी साझा सत्ता थी। फिर भी इसे सैन्य तख्तापलट ही कहना पड़ेगा क्योंकि एनएलडी की सरकार और उसकी मुखिया आंग सान सू क्यी चुनाव के रास्ते सत्ता में आयी थी और सत्ता हड़पने वाला जनरल मिन ऑंग हालिंग और दूसरे सैन्य अधिकारी चुनाव के जरिये भर्ती नहीं हुए हैं।

बर्मा में तख्तापलट पर विभिन्न देशों की अलग–अलग प्रतिक्रिया आयी। अपनी समृद्ध प्राकृतिक संसाधनों, जटिल घरेलू राजनीति, अस्थिर अन्तर्राष्ट्रीय रिश्तों और भू–रणनीतिक स्थान के कारण बर्मा में तख्तापलट चीन और इसीलिए अमरीका के लिए भी बहुत महत्त्वपूर्ण है। तख्तापलट पर बर्मा की सैन्य सरकार के खिलाफ, अमरीका और उसके खेमे के देशों ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में कार्रवाई का प्रस्ताव रखा, लेकिन चीन और रूस ने उस पर वीटो कर दिया। अमरीका और उसके सहयोगी देशों ने लोकतंत्र की रक्षा की दुहाई दी जबकि चीन और रूस का मानना है कि बर्मा के आन्तरिक मामले में हस्तक्षेप हालात को और खराब कर देगा। यही राय दक्षिणपूर्वी एशियाई देशों के संगठन, आसियान की है, जिसका बर्मा भी सदस्य है। इस संगठन के देश भी बर्मा के खिलाफ किसी सामूहिक कार्रवाई के सवाल पर एकमत नहीं हुए। बर्मा के दूसरे सबसे महत्त्वपूर्ण पड़ोसी देश भारत का रवैया सबसे खराब रहा। तख्तापलट के तुरन्त बाद उसने भी सेना को लोकतंत्र की नसीहत दी थी लेकिन बाद में रूस–चीन के साथ खड़ा हो गया। 27 मार्च को बर्मा के सैन्य दिवस की परेड में भारत के प्रतिनिधियों ने भी जनरल मिन ऑंग हालिंग की मेहमाननवाजी का मजा लिया।   

नवम्बर 2020 में हुए चुनाव में एनएलडी ने आंग सान सू क्यी के नेतृत्व में 80 प्रतिशत मत हासिल करके सरकार बनायी थी। 2015 के चुनाव में एनएलडी ने इससे भी बड़ा बहुमत हासिल किया था। इतने बड़े बहुमत के बावजूद सेना से सत्ता साझा करने की एनएलडी की अपनी चाहे जो मजबूरी हो लेकिन बर्मा की जनता मजबूर नहीं है। उसे सेना की तानाशाही और सत्ता में हिस्सेदारी दोनों ही स्वीकार नहीं है। जनता अपने प्रतिनिधि खुद चुनने का अधिकार और इस अधिकार का पूरा सम्मान चाहती है, भले ही उसने एनएलडी के समझौतापरस्त, सत्ता लोलुप नेता चुने हों। अपने इसी अधिकार की रक्षा के लिए बर्मा की जनता बेखौफ होकर सेना की गोलियों और बमों का सामना कर रही है।

बर्मा की सेना ने अपने ही देश की जनता के खिलाफ हथगोले, राकेट लांचर और यहाँ तक कि बम वर्षक विमान तक इस्तेमाल करके जघन्य अपराध को अंजाम दिया है। जिन प्रदर्शनकारियों पर सरकारी हथियारबन्द गिरोहों ने हमले किये, उन की अगली कतार में छात्र, मजदूर, डॉक्टर, वकील और एथेनिक समुदायों की जनता शामिल है। फरवरी के महीने से ही मजदूरों ने कारखाने ठप्प कर रखे हैं और छात्रों ने कालेजों, विश्वविद्यालय पर ताले जड़ दिये हैं। इनका अनुसरण करते हुए कर्मचारी भी जबरदस्त हौसले से मैदान में डटे हैं। लगभग तीन चैथाई कर्मचारियों ने सेना की सत्ता के लिए कोई भी काम करने से इनकार कर दिया है। एथेनिक समुदायों के लड़ाकों ने अपने साधारण हथियारों से सेना के खिलाफ मोर्चा सम्भाल रखा है, इसके बावजूद कि सू क्यी ने इनके साथ वादा–खिलाफी की थी। 2017 में रोहिंग्या एथेनिक समुदाय के सेना द्वारा किये गये नरसंघार को अभी बहुत ज्यादा दिन नहीं बीते हैं। उस वक्त सू क्यी की सरकार सेना के साथ खड़ी थी। एथेनिक समुदायों के हथियारबन्द संघर्ष ने सेना को देश में छितरा जाने के लिए मजबूर किया है जिससे शहरों के प्रदर्शनकारियों को बहुत मदद मिली है।

सत्ता हथियाने के बाद से ही सेना ने एनएलडी के सभी बड़े नेताओं को नजरबन्द कर रखा है। सेना के बर्बर दमन के बढ़ते जाने और अन्तरराष्ट्रीय स्तर से कोई खास मदद मिलने की सम्भावना खत्म हो जाने के बाद एनएलडी ने एथेनिक समूहों से मदद की गुहार लगाई थी। थोड़े गिले–शिकवे के बाद 10 बड़े एथेनिक समूह सेना के खिलाफ व्यापक संघर्ष छेड़ने के लिए तैयार हो गये। इनमें केरेन, काचिन, वा और शान समूह प्रमुख हैं जिनके पास लगभग 16,000 लड़ाकों की सेना है। केरेन नेशनल यूनियन और रेस्टोरेशन काउंसिल ऑफ शान स्टेट ने स्वीकार किया है कि “हमने हजारों विपक्षी कार्यकर्ताओं को शरण दी है–––– और व्यावहारिक कारणों के चलते हमने 2015 में सरकार के साथ हुए शान्ति समझौते को भी तोड़ दिया है।–––– मार्च के अन्त में केरेन राज्य में हवाई हमला करके सेना ने खुद शान्ति समझौता तोड़ दिया था, ऐसे में एकतरफा ढंग से शान्ति समझौते का पालन नहीं कर सकते थे।”

पिछले 5 सालों की सत्ता के दौरान सू क्यी सेना की अल्पसंख्यक एथेनिक समूह विरोधी नीतियों के साथ खड़ी रही। इसके बावजूद बर्मा के इतिहास में यह पहली बार हो रहा है कि प्रभुत्वशाली और बहुसंख्यक (कुल आबादी का 60 प्रतिशत) बामार एथेनिक समूह, जिससे सू क्यी समेत बर्मा के तमाम शासक आते हैं, और दूसरे अल्पसंख्यक एथेनिक समूहों के बीच एकता कायम हो रही है। निश्चित तौर पर सैन्य तख्तापलट ही इस नाटकीय बदलाव के लिए जिम्मेदार है। यंगून और मनडाले जैसे बड़े शहरों की सड़कों पर प्रदर्शनकारियों के हाथों में सू क्यी और एथेनिक समूहों के बैनर साथ–साथ दिखाई दिये हैं।

सेना विरोधी प्रदर्शनकारियों के नेताओं और प्रमुख एथेनिक समूहों के नेताओं ने एक समानान्तर नागरिक सरकार की स्थापना की है। इसने 2008 से लागू सेना के बनाये हुए संविधान को खारिज कर दिया है और इसकी जगह एक ऐसा संविधान लागू करने पर सहमति जताई है जो अल्पसंख्यक एथेनिक समूहों को भी समान नागरिक अधिकारों और अवसरों की गारंटी देता हो। यह आन्दोलन की प्रगतिशीलता का सर्वाेच्च बिन्दु है। हालाँकि यह इतना आसान नहीं है। समूहों के बीच आपसी मतभेद बहुत ज्यादा हैं और यह कदम एनएलडी के राजनीतिक एजेण्डे से आगे का है। इसे लागू करने के लिए एक अलग राजनीतिक पार्टी की जरूरत है जो बर्मा में मौजूद नहीं है और एनएलडी आज के साम्राज्यवादी दौर में जिस एकाधिकारी पूँजीपति वर्ग की नुमाइन्दगी कर रही है, वह वर्ग खुद जनता की व्यापक एकता और पहलकदमी से खतरा महसूस करता है।

बर्मा का सैन्य संविधान

बर्मा का संविधान सेना को राष्ट्र का संरक्षक होने का अधिकार देता है। महत्त्वपूर्ण मंत्रालय और संसद के 25 प्रतिशत पद सैन्य अधिकारियों के लिए आरक्षित हैं। 2015 के चुनाव में एनएलडी को 86 प्रतिशत मत मिले थे। इसके बावजूद सत्ता पर इसका पूर्ण अधिकार नहीं था। रक्षा, गृह और सीमा सम्बन्धी मामले जैसे महत्त्वपूर्ण मंत्रालय सेना के पास थे। एनएलडी नेता सू क्यी एक ब्रिटिश नागरिक की पत्नी होने के चलते खुद राष्ट्रपति के पद से वंचित थी और उनके लिए अलग से स्टेट काउंसलर का पद एनएलडी सरकार को गढ़ना पड़ा था। सेना के लिए आरक्षित 25 प्रतिशत पदों के साथ ही 2015 के चुनाव में सेना की राजनीतिक पार्टी, यूडीएसपी को ऊपरी और निचले सदन में 11 और 30 पद हासिल हुए थे। कम से कम 75 प्रतिशत सांसदों की सहमति से ही बर्मा के सैन्य संविधान में कोई संशोधन हो सकता है यानी सेना की इच्छा के बिना इसमें कोई संशोधन सम्भव नहीं है।

इसके अलावा, संविधान की धारा 417 सेना को आपातकाल के नाम पर सत्ता अपने हाथ में ले लेने का अधिकार देती है। इसी संवैधानिक अधिकार का इस्तेमाल करके सेना ने एक फरवरी को सत्ता अपने हाथ में ली है। लोकतंत्र की झण्डाबरदार सू क्यी इसी संविधान को स्वीकार करके सत्ता में हिस्सेदार बनी थी और इसी ने उससे हिस्सेदारी छीन ली। लोकतंत्र के नेताओं के बौनेपन और सत्ता लोलुपता की ऐसी मिसालें इतिहास में भरी पड़ी हैं।

एनएलडी और सेना के बीच संघर्ष लोकतंत्र बनाम तानाशाही के बीच का संघर्ष नहीं है, जैसा कि प्रचारित किया जा रहा है, बल्कि यह बर्मा के सबसे बड़े पूँजीपतियों के दो गुटों के बीच का संघर्ष है। इसमें एक की नुमाइन्दगी एनएलडी करती है और दूसरे की सेना। सू क्यी और उनकी पार्टी एनएलडी कहीं से भी लोकतंत्रवादी नहीं है और ना ही आज के नवउदारवादी दौर में वह हो सकती है। सेना की तरह ही सू क्यी भी एथेनिक समुदायों की स्वायत्ता और सबके लिए समान नागरिक संहिता के खिलाफ हैं। उनके हाथ भी रोहिंग्या मुसलमानों के खून से रंगे हैं। लोकतंत्र के किसी भी चेतनाशील समर्थक के लिए यह भूलना नामुमकिन है कि सेना द्वारा रोहिंग्या मुसलमानों के नरसंहार पर अन्तरराष्ट्रीय न्यायालय में चले मुकदमे में सू क्यी ने किस बेशर्मी से सेना का बचाव किया था। इस नरसंहार में हजारों की संख्या में कत्ल और बलात्कार की घटनाएँ हुर्इं, 7 लाख से ज्यादा रोहिंग्या मुसलमान देश छोड़ने के लिए मजबूर हुए थे।

लोकतंत्र के खिलाफ खड़े सैन्य अधिकारी

बर्मा के सैन्य अधिकारी शासक वर्ग का एक सर्वाधिक प्रभावशाली हथियारबन्द आर्थिक गिरोह है। बर्मा एकाधिकारी नौकरशाह पूँजीवाद का एक क्लासिकल उदाहरण है। देश के दो सबसे बड़े आर्थिक समूह म्यांमार इकोनॉमिक होल्डिंग्स लिमिटेड और म्यांमार इकोनामिक कारपोरेशन पूरी तरह सैन्य अधिकारियों के नियंत्रण में हैं। बैंक, बीमा, खनन, विनिर्माण, टेलीकम्युनिकेशन, टिम्बर, कृषि, कुल मिलाकर अर्थव्यवस्था का कोई ऐसा क्षेत्र नहीं है जिसमें इन एकाधिकारी कम्पनी समूहों का कारोबार ना हो। इनके मुनाफे से होने वाली आय सैन्य अधिकारियों के धनाढ्य होने का सबसे आसान स्रोत है। देश के चोटी के दस पूँजीपति या तो सेना के अधिकारी रहे हैं या फिर सेना के साथ उनके करीबी पारिवारिक और आर्थिक रिश्ते हैं। देश का सबसे बड़ा पूँजीपति थिएन शेन सेना का पूर्व जनरल और राष्ट्रपति है। मौजूदा जनरल हालिंग का बेटा भी देश के चोटी के पूँजीपतियों में से है।

सैन्य शासकों को अरबपति बनानेवाली आर्थिक नीतियों ने बर्मा की जनता को कंगाल बना दिया है, इसका जिक्र हम आगे करेंगे। इन आर्थिक नीतियों की सहायक संकीर्ण मानसिकता की राजनीति के चलते बर्मा एक अन्तहीन जातीय संघर्ष में फंँसा हुआ है और आजादी के 70 साल बाद भी एक सुगठित राष्ट्र नहीं बन पाया है। अभी तक यह भी तय नहीं है कि इसके नागरिक कौन–कौन होंगे। शासक वर्ग आन्तरिक संघर्ष को अपने लिए वरदान मानता है।

बर्मा की जनता 135 एथेनिक समूहों से मिलकर बनी है। बामार एथेनिक समूह सबसे बड़ा है। इसकी आबादी बर्मा की कुल आबादी का 60 प्रतिशत है और बाकि 40 प्रतिशत में दूसरे सभी समूह हैं। इनमें से बहुत से अल्पसंख्यक एथेनिक समूहों को बर्मा के शासक विदेशी मानते हैं। इनका कोई नागरिक अधिकार नहीं है। यह किसी सम्पत्ति पर अपना अधिकार नहीं जता सकते, यहाँ तक कि अपने समूह से बाहर शादी भी नहीं कर सकते। ब्रिटिश औपनिवेशिक शासकों ने फूट डालो राज करो की नीति के तहत समूहों के पिछड़ेपन का फायदा उठाकर उनके बीच की कबिलाई दुश्मनी को लगातार बढ़ावा दिया। 1948 में आजादी के बाद सत्ता में आये देशी शासकों ने भी इसी नीति को आगे बढ़ाया और समूहों के बीच के मतभेदों को दूर करने की कोशिश करने के बजाय इसे और ज्यादा जटिल बनाया।

बर्मा की सबसे पहली राजनीतिक पार्टी, कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ बर्मा ने जनता की एकता के लिए काम किया था लेकिन आजादी के पाँच साल बाद ही 1953 में कम्युनिस्ट पार्टी को गैरकानूनी घोषित कर दिया गया। उस समय यह देश की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी थी। केवल किसानों में ही इसके दस लाख कार्यकर्ता थे। 1962 में नागरिक सरकार का तख्तापलट करके सेना ने सत्ता हथिया ली और कम्युनिस्टों के कत्लेआम का अभियान शुरू कर दिया। पार्टी का काम मुख्य भूमि से एथेनिक समूहों के सीमावर्ती क्षेत्रों में खिसक गया और बर्मा में आन्तरिक संघर्ष शुरू हो गया।

1980 तक बर्मा का आन्तरिक संघर्ष मुख्यत: विचारधारा पर ही केन्द्रित रहा। इस संघर्ष के दौरान एथेनिक समूहों में सशस्त्र दस्ते गठित हुए। इसकी काट के लिए सेना ने इन्हीं समूहों के बीच से हत्यारे दस्ते तैयार किये। भारत में सलवा जुडूम शायद इन्हीं से सीख लेकर बनाया गया था। 1980 के दशक में भारी फूट बिखराव के बाद कम्युनिस्ट पार्टी खत्म हो गयी। इसके साथ ही विचारधारा पर केन्द्रित संघर्ष भी कभी ना खत्म होनेवाले जातीय संघर्ष में तब्दील हो गया। बर्मा के सैन्य शासकों ने इस आन्तरिक संघर्ष का इस्तेमाल सत्ता के कवच के रूप में किया। बहुसंख्यक बामार समूह के अन्दर ऐसा उन्माद भरा गया कि दूसरे समूहों का दमन ही उसके लिए देशभक्ति का पर्याय बन गया। इस आत्मघाती देशभक्ति के उन्माद में बामार आबादी अपने दमन उत्पीड़न से आँख फेरे रही।

1988 के बाद बनी सैन्य जुंटा की सरकार ने देश के सार्वजनिक संस्थानों का निजीकरण और जातीयता के मुद्दे को नये सिरे से तूल देना एक साथ शुरू किया। परिणामस्वरूप जातीय संघर्ष तेज होते गये। आज कैरेन, वा, शेन जैसे 20 बड़े एथेनिक समूहों के पास अपनी सशस्त्र सेना और राजनीतिक पार्टियाँ हैं लेकिन इनकी पहचान अब विचारधारा नहीं बल्कि इनकी जातीयता है। अब इनकी मुख्य माँग शोषकों से मुक्ति नहीं बल्कि अपने समूह के लिए अधिक स्वायत्तता है। सेना ने एथेनिक समूहों पर केन्द्रित गाँव स्तर के सुरक्षा दस्ते से लेकर हजारों लड़ाकों की संख्या वाले सैकड़ों सशस्त्र दस्ते भी तैयार किये हैं। यह प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से उसी के नियंत्रण में हैं। इन्हें सेना आर्थिक मदद देती है। सेना ने 23 सीमा रक्षक बल इन्हीं के बीच से बनाये हैं। बहुत से ऐसे दस्ते भी हैं जो अलग–अलग कारणों से खुद–ब–खुद बने हैं। इनका आपस में और सेना के साथ दोनों स्तरों पर अन्तहीन संघर्ष चलता रहता है।

एनएलडी का जन्म और चरित्र

सेना की तरह ही एनएलडी भी देश के एकाधिकारवादी पूँजीपतियों के तुलनात्मक रूप से कमजोर गुट की और नये उभरे पूँजीपति वर्ग की प्रतिनिधि है। इसका उद्भव एक नाटकीय घटनाक्रम में 1988 के आन्दोलन से हुआ था। 1962 के तख्तापलट के बाद सैन्य शासन ने समाजवाद के नाम पर नौकरशाही पूँजीवाद की नीतियाँ अपनायी थीं। इन नीतियों के परिणामस्वरूप बर्मा में दो नये वर्ग पैदा हुए। पहला, एकाधिकारी नौकरशाह पूँजीपतियों का एक वर्ग तैयार हुआ जिसकी मुट्ठी में एक ही साथ आर्थिक, राजनीतिक और सैन्य, तीनों ताकतें थीं, दूसरा, छोटे पूँजीपतियों का एक वर्ग तैयार हुआ जिसकी अपनी कोई राजनीतिक पार्टी नहीं थी। इन नीतियों से 1980 के दशक की शुरुआत में ही बर्मा आर्थिक संकट में फँस गया। संकट इतना विकराल था कि खाद्य पदार्थों और रोजमर्रा की जरूरी चीजों की कीमतें नियंत्रण से बाहर हो गयीं। ग्रामीण परिवार अपनी आय का 75 प्रतिशत से ज्यादा भोजन पर खर्च करने को मजबूर हुए और 86 प्रतिशत परिवार गरीबी रेखा से नीचे चले गये। समाज का बड़ा हिस्सा खरीदारी की क्षमता से वंचित हो गया जिससे निम्न स्तर के स्थानीय उत्पादन को भी खपाना मुश्किल हो गया। अर्थव्यवस्था को काबू करने के लिए सैन्य सरकार ने 1985 और 1987 में दो बार नोटबन्दी की, बैंकों में जमा रकम की निकासी पर रोक लगायी और रकम की जब्ती की लेकिन हालात पर काबू नहीं पाया जा सका।

जनता के साथ–साथ सैन्य अधिकारियों, खासतौर पर रिटायर्ड सैनिकों का एक हिस्सा और नया उभरता पूँजीपति वर्ग भी सैन्य सरकार से नाराज हो गया। देश में जबरदस्त जनआन्दोलन भड़क उठा। आन्दोलन खड़ा करने में सबसे बड़ी भूमिका कम्युनिस्ट पार्टी की थी लेकिन आन्तरिक और बाह्य संकटों के चलते पार्टी 1988 तक आते–आते बहुत तेजी से बिखरकर खत्म गयी।

1988 में शासक वर्ग के एक हिस्से में नाराजगी थी और जनआन्दोलन भी जबरदस्त था लेकिन इनकी रहनुमाई करनेवाली कोई राजनीतिक शक्ति बर्मा में मौजूद नहीं थी। इन्हीं नाटकीय हालातों में नेशनल लीग फॉर डेमोक्रेसी (एनएलडी) का जन्म हुआ। यह एक ऐसा खिचड़ी समूह था जिसमें सेना के रिटायर्ड अधिकारियों से लेकर संशोधनवादी वामपंथी तक शामिल थे। इसीलिए यह कोई पार्टी नहीं “लीग” थी लेकिन नेतृत्व मुख्यत: सैनिक अधिकारियों के ही हाथ में था। इसने 1988 के आन्दोलन को लोकतंत्र के लिए आन्दोलन का नाम दिया। ब्रिटेन में एक प्रोफेसर के साथ वैवाहिक जीवन बिता रही सू क्यी उन दिनों अपनी बीमार माँ की देखभाल के लिए बर्मा आयी हुई थी। सू क्यी संयुक्त राष्ट्र संघ में काम कर चुकी थी, कुछ पश्चिमी नेताओं से सम्पर्क था, राष्ट्रपिता जनरल आंग सान की पुत्री थी और वैचारिक स्तर पर एनएलडी के घटकों में मध्यम स्थान पर थी। शायद इसीलिए बर्मा की राजनीति का कोई अनुभव ना होने के बावजूद इन्हें अध्यक्ष बना दिया गया। जिस सू क्यी ने आन्दोलन में हिस्सा भी नहीं लिया था, वहीं आन्दोलन का चेहरा बन गयी।

एनएलडी में इतनी वैचारिक और सांगठनिक ताकत नहीं थी कि वह जनआन्दोलन को आगे ले जाये। सेना ने आन्दोलन का बर्बर दमन किया, तीन हजार से ज्यादा आन्दोलनकारियों की हत्या की और हजारों को जेल में डाल दिया। जनरल ने विन ने सत्ता सैन्य जुंटा के हाथ में सौंप दी। 1990 में हुए चुनाव में 81 प्रतिशत मतों के साथ एनएलडी ने जबरदस्त जीत हासिल की, लेकिन सैन्य जुंटा ने सत्ता छोड़ने से इनकार कर दिया। 1990 में गठन के लगभग 2 साल बाद ही एनएलडी पर प्रतिबन्ध लग गया और सू क्यी को घर में ही नजर बन्द कर दिया गया। लेकिन इस आन्दोलन से एनएलडी और सू क्यी बर्मा की राजनीति में एक लोकतंत्रवादी के रूप में स्थापित हुर्इं। 1991 में सू क्यी को शान्ति का नोबेल पुरस्कार देकर एक अन्तरराष्ट्रीय हस्ती बना दिया गया।

बर्मा में 2010 में फिर चुनाव हुए और जनरल थियन सेन के नेतृत्व में सेना की पार्टी एसएनडीपी की सरकार बनी। नयी सरकार ने सेना के बनाये संविधान को लागू किया। इस सरकार ने पश्चिमी देशों की इच्छा के मुताबिक बर्मा का तथाकथित जनवादीकरण किया। एनएलडी समेत सभी विरोधी पार्टियों पर से प्रतिबन्ध खत्म कर दिये गये, अभिव्यक्ति की आजादी का अधिकार बहाल कर दिया गया और सबसे महत्त्वपूर्ण यह कि अधिकतम विदेशी निवेश हासिल करने के लिए अर्थव्यवस्था के बचे–खुचे खिड़की–दरवाजे भी खोल दिये गये। सू क्यी के बिना ही बर्मा धन्ना सेठों के मन मुताबिक लोकतंत्र बन गया।

2015 में बर्मा में एनएलडी की सरकार बनी। इस सरकार ने आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक क्षेत्र में कोई जनहितैशी कदम नहीं उठाया। सैन्य शासकों के साथ असहज महसूस करने वाले पूँजीपतियों के हित साधने और उन्हें अपने पीछे गोलबन्द करने में एनएलडी जरूर कामयाब रही। थियन सेन की सरकार का झुकाव अमरीका की ओर था, एनएलडी की सरकार बर्मा को फिर से चीन की ओर ले गयी। एथेनिक समुदायों की समस्या और बर्मा की जनता की कंगाली की समस्या पर एनएलडी और सैन्य शासकों के रुख में अब कोई खास अन्तर नहीं रह गया।

बर्मा की बदहाल जनता

लोकतंत्र को लागू करना या जनता के जीवन स्तर को ऊँचा उठाना बर्मा के शासक वर्ग के दोनों गुटों में से किसी के लिए भी चिन्ता का विषय नहीं है। दोनों ही गुटों पर वर्ग स्वार्थ इतना हावी है कि अपने ही वर्ग के दूरगामी हितों के बारे में सोचना भी इनके लिए मुमकिन नहीं है। लगभग पाँच दशक के सैन्य शासन और पाँच साल के एनएलडी के शासन के दौरान सेना और एनएलडी जनता की शिक्षा, चिकित्सा या सामाजिक हित का कोई महत्त्वपूर्ण काम करने में नाकाम रही हैं।

बर्मा की कुल आबादी 5.4 करोड़ है। देश का औद्योगिकीकरण बहुत निम्न स्तर का है। देश में कुल मात्र 5 लाख औद्योगिक मजदूर हैं। इससे 10 गुना, लगभग 50 लाख बर्मी मजदूर विदेशों में निम्न स्तरीय प्रवासी मजदूर के रूप में खटते हैं। इनमें से अधिकतर अवैध तरीके से विदेश गये हैं। शासक इन्हें विदेशी मुद्रा हासिल करने का अच्छा स्रोत बताते हैं। विश्व बैंक का अनुमान है कि इन अभागों द्वारा देश में भेजी गयी रकम बर्मा के सकल घरेलू उत्पाद का 3.2 प्रतिशत है। बर्मा के नागरिक खासतौर पर एथेनिक समूहों से आने वाले नागरिक सेना के दमन के चलते भारी संख्या में देश छोड़ने को मजबूर हुए हैं। लगभग 10 लाख बर्मा वासी विदेशों के शरणार्थी शिविरों में कैदियों का जीवन बिता रहे हैं।

प्राकृतिक सम्पदा के मामले में बर्मा एक धनी देश है। शानदार इमारती लकड़ी, उपजाऊ जमीन के साथ–साथ यहाँ की मिट्टी में प्रचुर मात्रा में खनिज मौजूद हैं। बर्मा के पास तेल और गैस के अच्छे भण्डार हैं। प्रकृति ने बर्मा को बेशकीमती रत्नों की सौगात भी दी है और यह दुनिया के अगुआ रत्न उत्पादक देशों में शामिल है। कहने को बर्मा की 70 प्रतिशत आबादी किसान है, लेकिन ठेका खेती ने उनमें से अधिकतर को कम्पनियों का कारिन्दा बना दिया है। यहाँ बागवानी ज्यादा होती है, लेकिन इससे होने वाली आय का लगभग 90 प्रतिशत हिस्सा निवेशक हड़प जाते हैं। बर्मा के किसानों के हिस्से में कंगाली और कृषि रसायनों से बंजर हो चुकी जमीन और दूषित पर्यावरण ही आता है। नतीजतन किसान आबादी का एक हिस्सा उजड़कर मजदूरों में तब्दील हुआ, लेकिन उसे खपाने के लिए देश में उद्योग नहीं हैं। उजड़े हुए किसानों की इस आबादी ने पहले से तंगहाल मजदूर आबादी पर श्रम की आरक्षित सेना का बोझ और ज्यादा बढ़ाया। जिसके चलते बर्मा दुनिया के सबसे सस्ते श्रम के देशों में शामिल हो गया। लगभग मुफ्त में श्रम बेचने के बावजूद भी जब मजदूरों को अपने देश में काम नहीं मिलता तो गैर कानूनी तरीकों से सीमा पार करके विदेशों में मजदूरी करने के लिए मजबूर होते हैं।

शासक वर्ग की नीतियों का परिणाम है कि कभी चावल और इमारती लकड़ी का दुनिया का सबसे बड़ा निर्यातक देश रहा बर्मा आज दुनिया के सबसे सस्ते मजदूरों का सबसे बड़ा निर्यातक देश बन गया है। बर्मा की 10 प्रतिशत से ज्यादा आबादी यानी 55 लाख लोग विदेशों में निम्न स्तरीय मजदूरी करते हैं। सेना द्वारा एथेनिक समूहों के दमन ने बर्मा को दुनिया में सबसे ज्यादा शरणार्थी निर्यात करने वाला देश भी बनाया है। बर्मा की दो प्रतिशत से ज्यादा आबादी दूसरे देशों के शरणार्थी शिविरों में कैद है।

बर्मा के मैदान में अमरीका चीन को नहीं पछाड़ सकता

बर्मा एक तरफ चीन से सटा है और दूसरी ओर इसकी सीमा बंगाल की खाड़ी और हिन्द महासागर में खुलती है। आजादी के बाद सत्ता किसी की भी रही हो लेकिन बर्मा के शासकों के साथ चीन के रिश्ते हमेशा अच्छे बने रहे। केवल 2008 से 2014 तक का एक छोटा सा दौर था जब चीन के बजाय अमरीका की ओर रहा। 1989 के बाद जब बर्मा के शासकों ने बन्द अर्थव्यवस्था की कुछ खिड़कियाँ खोली तो निवेश के लिए पश्चिमी शासकों ने बर्मा से राजनीतिक बदलावों की माँग की। पश्चिमी देशों को सैन्य जुंटा की सरकार पर भरोसा नहीं था। वे उसे पूरी तरह चीनपरस्त मानते थे। इसीलिए सत्ता और अर्थव्यवस्था पर एकाधिकारी सैन्य पूँजीपतियों की पकड़ ढीली करवाना चाहते थे। बर्मा के शासकों को यह स्वीकार नहीं था। वह अमरीकी प्रतिबन्धों को और कुछ समय तक झेलने के लिए तैयार थे।

 बर्मा आर्थिक और रणनीतिक दोनों तरह से चीन के लिए बेहद महत्त्वपूर्ण था। दक्षिणी चीन के औद्योगिक क्षेत्र बर्मा के रास्ते आसानी से हिन्द महासागर से जुड़ सकते थे। इस जुड़ाव से चीन को खाड़ी के देशों, मध्य पूर्व के देशों और यूरोपीय देशों के साथ जोड़ने वाला व्यापारिक मार्ग छोटा हो सकता था। मालवाहक जहाजों को मलक्का जलडमरू और दक्षिण चीन सागर से होकर नहीं आना पड़ता और चीन का नौपरिवहन खर्च घटता। इसके अलावा बर्मा चीन के तैयार माल का अच्छा बाजार और कच्चे माल का, खासतौर पर तेल, गैस और धातु खनिजों का स्रोत भी हो सकता था। मौके का फायदा उठाकर चीन ने बर्मा में ढाँचागत परियोजनाओं और खनन में भारी–भरकम निवेश करना शुरू किया। इसके साथ ही दोनों देशों के बीच व्यापार भी तेजी से बढ़ा। 1989 में दोनों देशों के बीच लगभग 32 करोड़ डॉलर का व्यापार हुआ था, जिसमें चीन को 6 करोड डॉलर का लाभ हुआ। 2008 में द्विपक्षीय व्यापार 8 गुना बढ़कर 2.6 अरब डॉलर हो गया और चीन का लाभ 20 गुना बढ़ा। डेढ़ दशक में ही बर्मा के शासकों को लगने लगा कि वह चीन के आर्थिक गुलाम बनते जा रहे हैं। तकनीक और पूँजी के लिए एक ही महाशक्ति पर निर्भर होकर उन्होंने अपनी सौदेबाजी की ताकत गवाँ दी है तो उन्होंने अमरीका की और झुकना शुरू किया।

2010 में फिर से चुनाव हुए और थिएन शेन के नेतृत्व में सेना की पार्टी, स्टेट पीस एण्ड डेवलपमेंट पार्टी की सरकार बनी। सत्ता सम्भालते ही उन्होंने पश्चिमी साम्राज्यवादी देशों की पसन्द के फैसले धड़ाधड़ लेने शुरू किये। अर्थव्यवस्था के दरवाजे पूरी तरह खोल देने की उदारवादी आर्थिक नीति अपनायी। एनएलडी समेत सभी विरोधी पार्टियों पर से प्रतिबन्ध खत्म कर दिये गये। अभिव्यक्ति की आजादी का अधिकार बहाल कर दिया गया। बर्मा तुरन्त पश्चिम के लिए पवित्र बन गया। 2011 में अमरीकी गृह मंत्री हिलेरी क्लिंटन ने बर्मा की यात्रा की। अगले ही साल राष्ट्रपति बराक ओबामा भी बर्मा की यात्रा पर आये। यह किसी अमरीकी राष्ट्रपति की पहली बर्मा यात्रा थी। इसके साथ ही बर्मा का राजनीतिक महत्त्व पश्चिमी दुनिया में स्थापित हो गया। पहली बार बर्मा में अमरीका का दूतावास खुला। बर्मा की सत्ता में पकड़ बनाने की आर्थिक के अलावा दूसरी वजह थी चीन की घेराबन्दी। 2012 में चीन को घेरने के लिए अमरीका ने “पाइवेट टू ईस्ट एशिया” क्षेत्रीय रणनीति पर काम शुरू कर दिया था। 2014 में बराक ओबामा ने फिर से बर्मा की यात्रा की।

अमरीका के प्रति वफादारी के प्रदर्शन के लिए 2011 में बर्मा के शासकों ने चीन के 3.6 अरब डॉलर के निवेश से बन रही ‘माई जो’ जल विद्युत परियोजना पर निर्माण कार्य बन्द करवा दिया। चीन को लेपदुंग में ताम्बा खनन से भी रोक दिया गया। अमरीका को खुश करने के लिए चीन के येनान प्रान्त को बर्मा के रखाइन प्रान्त से जोड़ने वाली और हिन्द महासागर तक चीन की सीधी पहुँच सुनिश्चित करने वाली रेलवे लाइन पर काम रुक गया। चीन को सबसे बड़ा झटका तब लगा जब बर्मा ने क्यांग फू बन्दरगाह से चीन के कुनमिंग तक जाने वाली गैस और तेल की समानान्तर पाइप लाइनों का निर्माण भी अधर में लटका दिया। इन पाइप लाइनों से चीन के हाइड्रोकार्बन आयात में काफी कमी आनी थी। चीन घाग शिकारी की तरह मौके के इन्तजार में चुपचाप बैठ गया। उसे बर्मा के शासकों के चरित्र की अमरीका से ज्यादा समझ थी।

2014 आते–आते बर्मा–अमरीका के मधुमास का आवेग शिथिल पड़ गया। अमरीका बर्मा में मात्र 33 करोड़ डॉलर का प्रत्यक्ष निवेश करके सिंगापूर और चीन से बहुत पीछे रहा और चीन की तरह कोई ढाँचागत निर्माण नहीं कर सका। बर्मा की आर्थिक, सामाजिक और उसकी भौगोलिक स्थिति ने शासक वर्गों को चीन से अस्थायी दूरी बनाने की इजाजत नहीं दी। चीन बर्मा का सबसे बड़ा पड़ोसी, पारम्परिक और आसान दोस्त और व्यापारिक साझेदार था। भारत की चपाती और पश्चिम की गुड़िया कही जाने वाली सू क्यी 2015 में चुनाव जीतने के तुरन्त बाद चीन की यात्रा पर चली गयी। अगले ही साल बर्मा के राष्ट्रपति यू तिन क्याव ने चीन की यात्रा की। इसके बाद ही दोनों देशों के राजनयिकों की आपसी यात्राओं की झड़ी लग गयी। 2015 में ही चीन फिर से बर्मा का सबसे बड़ा व्यापारिक साझेदार बन गया। सभी लंबित परियोजनाओं का काम फिर से शुरू हुआ और पूरा हुआ। इसके अलावा चीन की महत्त्वकांक्षी ओबीओआर के क्षेत्रीय गलियारों के लिए चीन और बर्मा के बीच कई द्विपक्षीय और बहुपक्षीय समझौते हुए। बर्मा से चीन को होने वाला निर्यात रॉकेट की रफ्तार से बढ़कर 7.7 अरब डॉलर पहुँच गया। बर्मा के शासक इससे बड़ा सपना नहीं देख सकते थे। इसके अलावा अन्तरराष्ट्रीय मामलों में चीन मजबूती से बर्मा के साथ खड़ा रहा।

पश्चिमी मीडिया द्वारा गढ़ी गयी आम धारणा के विपरीत, बर्मा में तख्तापलट से चीन खुश नहीं है। वास्तव में, वह बर्मा में पश्चिमी हस्तक्षेप नहीं चाहता। पश्चिमी हस्तक्षेप का अर्थ बर्मा में नाटो सेना की मौजूदगी है जिसे चीन, रूस और यहाँ तक कि भारत भी स्वीकार नहीं करेगा। दक्षिण पूर्वी मामलों के विशेषज्ञ स्विस्तिक स्त्रेंजियो ने बीबीसी को दिये एक इण्टरव्यू में कहा था कि “बर्मा की स्थिति पर चीन का रुख अन्तर्राष्ट्रीय हस्तक्षेप के प्रति उसके पूर्ण अविश्वास के चलते है। एनएलडी और आंग सान सू क्यी के साथ रिश्ते बेहतर करने के लिए उसने बहुत बड़ा निवेश किया हैं। वास्तव में, सेना की सत्ता में वापसी का अर्थ है कि अब चीन को उन संस्थाओं से दुबारा रिश्ता जोड़ना पड़ेगा जो ऐतिहासिक रूप से चीन के उद्देश्यों को सर्वाधिक सन्देह से देखते हैं।”

बर्मा गृहयुद्ध की ओर नहीं जायेगा

सोशल मीडिया और संचार के दूसरे साधनों पर अपने प्रभुत्व के चलते बर्मा में तख्तापलट का जिम्मेदार चीन को ठहराने में अमरीका काफी हद तक सफल हुआ है, लेकिन उसे इतने से ही सन्तोष करना पड़ेगा। मौजूदा वैश्विक परिस्थितियों में सैन्य हस्तक्षेप तो क्या बर्मा पर कठोर आर्थिक प्रतिबन्ध लगाना भी अमरीका के लिए मुश्किल है। उसने अभी तक केवल कुछ सैन्य अधिकारियों और दो कम्पनियों पर प्रतिबन्ध लगाये हैं। बर्मा में घुसने के दूसरे तरीके, “पाइवेट टू ईस्ट एशिया” को ओबामा शासन की सबसे बड़ी मूर्खता कहकर अमरीकी शासक बहुत पहले ही खारिज कर चुके हैं। बर्मा में अभी कोई ऐसा राजनीतिक समूह भी नहीं है जिसे बढ़ावा देकर अमरीका पैर रखने की जगह पा सके। चीन, रूस और भारत तीनों बर्मा में बाहरी हस्तक्षेप के खिलाफ हैं और इनकी मर्जी के बिना यह हो भी नहीं सकता।

एनएलडी और सेना दोनों में चीन के लिए भरपूर समर्थन है। चीन 2013 से ही एथेनिक समूहों के बीच के संघर्षों में मध्यस्त की भूमिका निभा रहा है। एथेनिक आबादी मूलत: बर्मा के सीमाई इलाकों में बसती है। अपने आर्थिक हितों के अनुरूप, चीन वहाँ शान्ति चाहता है। वह बर्मा का सबसे बड़ा व्यापारिक साझेदार और विदेशी निवेशक है। मौजूदा हालात में बर्मा के शासक चीन से दूरी नहीं बना सकते हैं। इसलिए बर्मा के मैदान में चीन को पछाड़ना अमरीका के लिए सम्भव नहीं है।

बर्मा का मौजूदा सत्ता संघर्ष देश के सबसे धनी, एकाधिकारी पूँजीपतियों के दो गुटों के बीच का संघर्ष है। इनमें से एक का प्रतिनिधित्व एनएलडी करती है और एक का सेना। बर्मा में लोकतंत्र लाना, एक एकीकृत राष्ट्र का निर्माण करना, जनता की बदहाली दूर करना इनका मकसद नहीं है। इनमें से कोई भी गुट सत्ता को पूरी तरह अपने हाथ में ज्यादा देर तक रखने में सक्षम नहीं है। सम्भावना है कि कुछ दिनों बाद दोनों में समझौता हो जायेगा। बर्मा में एनएलडी जनआन्दोलन को आगे नहीं ले जा सकती और सेना के पास आन्दोलनों को कुचलने का लम्बा अनुभव है।

जनता की लोकतंत्र की चेतना सू क्यी से बहुत आगे है। जनता ने उस संविधान को ही खारिज कर दिया है जिसे स्वीकार करके सू क्यी ने चुनाव लड़ा था। वह जनआन्दोलन को आगे नहीं बढ़ा सकती, इसके उलट उनकी धार को कुन्द करेगी, जैसा 1988 के आन्दोलन के साथ किया था। विडम्बना यह है कि 1988 की तरह ही आज भी जनता की अगुवाई करने के लिए कोई संगठित राजनीतिक ताकत मौजूद नहीं है। इस ताकत की गैरमौजूदगी में जनान्दोलनांे की लहरें उठती रहेंगी और टूटती रहेंगी। उम्मीद है बर्मा की जनता के जनसंघर्षों के बीच से उस ताकत का जन्म जल्दी ही होगा, जो वहाँ आमूल–चूल परिवर्तन की लहर पैदा करेगी।