कोरोना महामारी के वैश्विक प्रसार के बाद दो महत्त्वपूर्ण चीजें एक समानुपात में बढ़ी हैं–– कोरोना महामारी से निपटने में अमरीका की असफलता और चीन के खिलाफ अमरीका की उग्रता। दक्षिणी चीन सागर विवाद इसी एकतरफा उग्रता का परिणाम है और लगता है कि जैसे यह दूसरे शीत युद्ध का प्रस्थान बिन्दु हो।

अभी हम दक्षिणी चीन सागर विवाद के दूसरे चरण से रूबरू हैं। पहला चरण 2017 में आया था। जब चीन ने अन्तरर्राष्ट्रीय न्यायालय के फैसले को मानने से इनकार कर दिया था। चीन ने न्याय प्रक्रिया में भी हिस्सा नहीं लिया था। उसका तर्क था कि यह विवाद इस न्यायालय के दायरे में ही नहीं आता।

पहले चरण में चीन हावी था और इस क्षेत्र में और ज्यादा मजबूत होता गया। चीन के साथ विवाद के दूसरे वास्तविक पक्ष वियतनाम, मलेशिया, फिलिपीन्स, ताइवान, ब्रूनेई चीन के साथ आपसी बातचीत से मुद्दे को हल करने का रास्ता अपनाकर चुप बैठ गये थे। अमरीका, आस्ट्रेलिया और भारत जो इस विवाद में पक्ष भी नहीं थे, वे भी आखिरकार बेआबरू होकर टकराव से बाहर निकले। ये देश इस क्षेत्र में मुक्त–नौपरिवहन चाहते हैं।

कोरोना, हाँगकाँग, उईगर मुसलमान जैसे मुद्दों पर मार्च के महीने से ही चीन के खिलाफ अमरीका लगातार गैर–जिम्मेदाराना और उग्र बयानबाजी कर रहा था। बाद में ब्रिटेन भी उसके साथ मिलकर बयानबाजी करने लग गया। बयानबाजी से आगे बढ़ते हुए जून के महीने में अमरीका ने अपना जंगी बेड़ा दक्षिण चीन सागर में घुसा दिया। अप्रैल और मई में इस क्षेत्र में चीन का वियतनाम और मलेशिया के साथ टकराव हुआ था, जो यहाँ आये दिन की बात है। इसी बहाने से अमरीका मुक्त–नौपरिवहन का अलमबरदार बनकर दुबारा यहाँ घुसा है। संयोग से, लद्दाख में चीन से चोट खाये भारत का सहयोग मिल जाने से उसकी राह और आसान हो गयी। 

अमरीका कई बार कह चुका है कि वह इस क्षेत्रीय झगड़े में नहीं घुसेगा लेकिन मुक्त–नौपरिवहन के रूप में उसने ऐसा कुतर्क गढ़ लिया है जिससे उसे चीन के खिलाफ खेमेबन्दी में मदद मिलती है। कमाल यह है कि विवादित द्वीपों के पास अपने जंगी जहाज और विमान तैनात करके वह चीन पर क्षेत्र के सैन्यकरण का आरोप लगा रहा है।

यूरोपीय उपनिवेशक दुनिया में जहाँ भी गये, वहाँ सीमा विवाद का असाध्य रोग बाँटकर आये। इनकी गुलामी से आजाद हुए देश आज तक सीमाई झगड़ों में उलझे हुए हैं। दक्षिण चीन सागर विवाद भी उसी का एक नमूना है। इस सागर में मौजूद स्पर्टली और पार्सन्स द्वीप समूहों के द्वीपों तथा चट्टानों पर क्षेत्र के सारे देश अपना–अपना दावा करते हैं। इनमें से अधिकतर पर चीन काबिज है। चीन 2012 से इन पर नागरिक बस्तियाँ बसा रहा है। इनके प्रशासनिक केन्द्र के रूप में वूडी द्वीप पर साँसा शहर बसाया गया। पार्सन्स द्वीप समूह के द्वीपों को अलग प्रदेश का दर्जा दे दिया। यहाँ स्कूल, बैंक, अस्पताल, बाजार जैसी नागरिक सुविधाएँ सालों से चालू हैं। स्पर्टली द्वीप समूह के द्वीपों पर चीन ने विश्व के सैन्य निर्माण और इंजीनियरिंग का सबसे बड़ा कारनामा करते हुए सेटेलाइट और हवाई निगरानी प्रणाली, मिसाइल प्रणालियाँ, उच्च क्षमता की रडार प्रणालियाँ, हवाई पट्टियाँ, आयुध भण्डार स्थापित किये हैं।

दक्षिण चीन सागर से सटे बाकी देशों का केवल चीन के साथ ही विवाद नहीं है बल्कि उनके आपसी विवाद भी है, जो मामले को और पेचीदा बना देते हैं। भले ही इसका एक कारण चीन की जबरदस्त ताकत और बाकी देशों की चीन पर निर्भरता हो, लेकिन मौजूदा हालात में सभी देश विवाद का समाधान आपसी बातचीत के जरिये ही चाहते हैं और वे इस क्षेत्र में अमरीका की दखलंदाजी नहीं चाहते। इसीलिए अमरीका को मुक्त–नौपरिवहन का मनगढन्त तर्क उछालना पड़ा। क्या आज की दुनिया में यह सम्भव है कि किसी देश के समुद्री क्षेत्र से बिना रोक–टोक गुजरा जा सके?

दक्षिण चीन सागर विवाद के इस दूसरे चरण में भी पहले की तरह अमरीका, आस्टेªलिया, भारत और जापान मुक्त–नौपरिवहन की सबसे ज्यादा वकालत कर रहे हैं। यह मुक्त–नौपरिवहन और कुछ नहीं चीन को घेरने की कोशिश है, जिसमें ये एक वे बार नाकाम हो चुके हैं। आज जिस क्वाइड (क्वाडीलेटरल सिक्योरिटी डाईलॉग–– अमरीका, आस्टेªलिया, भारत और जापान का एक अनौपचारिक रणनीतिक मंच) के दम पर चीन की नाक में दम करने के दावे किये जा रहे हैं वह एक पुरानी पिटी हुई योजना है। पहली बार यह योजना जापानी प्रधानमंत्री शिंजो आबे की पहलकदमी पर 2007 में अस्तित्व में आयी थी। कारवाँ अभी चला भी नहीं और ये गुबार की बातें, क्वाइड को बने अभी एक साल भी नहीं हुआ था कि इसमें फूट पड़ गयी। 2007 में ही आस्ट्रेलिया अलग हो गया था। कुछ दिनों बाद भारत और जापान भी अलग हो गये।

2017 में, दक्षिण चीन सागर विवाद के पहले चरण के बाद क्वाइड को पुनर्गठित किया गया। आसानी यह थी कि अभी–अभी भारत ने डोकलाम में चीन से चोट खायी थी और जापान के साथ संकाकू द्वीप के मामले पर चीन का टकराव तेज हो गया था। क्वाइड में इस बार फूट तो नहीं पड़ी लेकिन यह बिना कोई खास प्रभाव छोड़े बस्ताखामोशी में चला गया। वजह वही थी, कोई भी चीन के साथ सीधा टकराव नहीं चाहता था।

इसके बाद भारत ने बार–बार दोहराया कि वह किसी देश के खिलाफ किसी भी रणनीतिक गठबन्धन में शामिल नहीं होगा। भारत के पूर्व सुरक्षा सलाहकार शिव शंकर मेनन ने कहा था कि भारत के लिए आदर्श स्थिति यह है कि वह अमरीका और चीन के साथ उससे भी ज्यादा नजदीकी कायम करे जितनी इन दोनों के बीच है।

अब दक्षिण चीन सागर विवाद के दूसरे चरण में क्वाइड को लेकर फिर से बड़े–बड़े दावे किये जा रहे हैं। लेकिन कम से कम भारत और जापान का तात्कालिक स्वार्थ साफ दिखायी दे रहा है। भारत चीन पर दबाव का फायदा लद्दाख में उठाना चाहता है। इसकी हालत अजीब है। इसने दक्षिण चीन सागर में जंगी जहाज भेजा है लेकिन खुलकर यह नहीं कह सकता कि चीन ने लद्दाख में जमीन कब्जायी है, चीन के साथ शंघाई सहकार और ब्रिक्स में महत्त्वपूर्ण भूमिका में भी है। जापान ने दुनिया की उथल–पुथल और इस विवाद का फायदा उठाकर 135 अरब डॉलर के हथियार सौदे किये हैं।

दक्षिण चीन सागर इतना महत्त्वपूर्ण क्यों है?

दक्षिण चीन सागर दुनिया का दूसरा सबसे अधिक व्यस्त समुद्री मार्ग है। दुनिया के कुल समुद्री व्यापार का एक तिहाई, लगभग 3000 अरब डॉलर इससे होकर गुजरता है। चीन के कुल आयात का 40 प्रतिशत और ऊर्जा आयात का 80 प्रतिशत इसी रास्ते से आता है। इस क्षेत्र में पेट्रोलियम और प्राकृतिक गैस के बड़े भण्डार मौजूद हैं। अनुमान है कि यहाँ 7–7 अरब बैरल से लेकर 28 अरब बैरल तक का तेल भण्डार और 266 लाख करोड़ क्यूबिक फीट गैस भण्डार मौजूद है। यह क्षेत्र चीन और दुनिया के समुद्री व्यापार की जीवन रेखा के साथ–साथ एक ऐसी चाबी है जिसकी ताकत के दम पर चीन दुनिया से मोल–भाव कर सकता है। चीन निश्चित रूप से इस क्षेत्र में अमरीका से अधिक फायदा उठाता रहा है, लेकिन पूरी तरह से इसकी चाबी अभी न चीन और न ही अमरीका की जेब में है।

भूराजनीतिक और सामरिक रूप से महत्त्वपूर्ण इस क्षेत्र के लिए अमरीका और चीन के बीच टकराव लम्बे समय से जारी है। 2011 मेंं तत्कालीन अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने चीन के साथ सीधे टकराव से बचते हुए उसे घेरने की कोशिश की थी। आर्थिक मोर्चे पर अमरीका ट्रांस पैसेफिक पार्टनरशिप (टीपीपी) में शामिल हुआ और सामरिक मोर्चे पर पूर्वी एशिया शिखर सम्मेलन में। बराक ओबामा की योजना को एक ओर हटाकर ट्रम्प ने चीन के साथ सीधे टकराव का रास्ता चुना। ट्रम्प के पूर्व सलाहकार स्टीव बेनन ने इसके बारे में कहा था कि यह दो अंसगत व्यवस्थाएँ हैं। एक पक्ष को जीतना ही है और दूसरे की हार निश्चित है। कोरोना महामारी से पहले यह टकराव कुछ साल दूर दिखायी दे रहा था लेकिन महामारी ने इसे अमरीका और चीन के दरवाजे पर ला पटका।

महामारी की शुरुआत से ही अमरीका बेतुके तर्कों के आधार पर लगातार कोरोना के लिए चीन को दोषी ठहरा रहा है। अपनी लम्पटता का प्रदर्शन करते हुए अमरीकी राष्ट्रपति ट्रम्प ने कोरोना वायरस को चीनी वायरस का नाम दिया। कोरोना से निपटने में ज्यों–ज्यों अमरीका की असफलता बढ़ती गयी, त्यों–त्यों चीन के खिलाफ उसका जबानी हमला तेज होता गया। अप्रैल में अमरीकी रिपब्लिकन पार्टी के सांसदों की एक सभा में 57 पेज का एक ज्ञापन बाँटा गया था। इसका आधार वाक्य था “ट्रम्प का बचाव मत करो चीन पर हमला करो।” इसमें यह सलाह भी दी गयी थी कि रिपब्लिकन राजनीतिज्ञों को चीन को कोरोना वायरस के वैश्विक प्रसार का दोषी ठहराना चाहिए। इसके साथ ही वायरस के इलाज के लिए जरूरी चिकित्सा उपकरणों, दवाओं, जाँच किट जैसे दूसरे सामानों की जमाखोरी करने का आरोप भी चीन के मत्थे मढ़ना चाहिए।

इस रणनीति पर अमल करते हुए अमरीकी विदेश मंत्री माइक पोम्पियो ने उग्र और गैर–जिम्मेदाराना बयानबाजी के मामले में ट्रम्प को भी पीछे छोड़ दिया। उन्होंने चीन के बारे में कोई भी बयान देने में कम्युनिस्ट शब्द का एक विशेषण की तरह इस्तेमाल किया। चीन के लिए हमेशा कम्युनिस्ट चीन, चीन की कम्युनिस्ट सरकार जैसे शब्दों का इस्तेमाल किया। वह अच्छी तरह जानते हैं कि इस शब्द का अमरीकी और यूरोपीय जनता पर कैसा असर होता है। हद यह थी कि उन्होंने चीन की कम्युनिस्ट पार्टी को वैश्विक आतंकवाद से भी बड़ा खतरा बताया। मामले को सामरिक रंग देते हुए उन्होंने कहा कि दक्षिण चीन सागर में चीन के सभी दावे गैर–कानूनी हैं।

शुरू में लगा था कि राष्ट्रपति चुनाव में ट्रम्प के डेमोक्रेट प्रतिद्वन्दी जोय बिडेन, कोेरोना वायरस से निपटने में अमरीकी प्रशासन की असफलता को ढकने के लिए चीन के खिलाफ किये जा रहे इस पाखण्डपूर्ण दुष्प्रचार का पर्दाफाश करेंगे। उन्होंने ऐसा नहीं किया। इसके विपरीत उन्होंने चीनी खतरे को और ज्यादा बढ़ा–चढ़ा कर पेश किया, चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग को ठग और जन–संहारक कहा तथा ट्रम्प की इस खतरे से तुरन्त नहीं निपटने के लिए आलोचना की। इससे स्पष्ट हो गया कि चीन के खिलाफ बयानबाजी चुनावी जुमले से आगे बढ़कर अमरीकी शासक वर्ग की नीति का हिस्सा बन गया है।

अमरीकी रक्षा सचिव और भूतपूर्व रक्षा लॉबिस्ट मार्क एस्पर साल के शुरू से ही कह रहा था कि अमरीका को अफगानिस्तान, सोमालिया और मध्यपूर्व से बाहर आ जाना चाहिए, ताकि सारी ताकत चीन के खिलाफ केन्द्रित की जा सके। उसका बयान था कि इन सभी जगहों से अपने सैनिकों को मुक्त करके हम या तो उन्हें आराम करा सकते हैं या चीन से मुकाबले के लिए एशिया–प्रशान्त क्षेत्र में तैनात कर सकते हैं, ताकि हम सैनिकों को युद्ध अभ्यास और प्रशिक्षण देकर अपने सहयोगियों को आश्वस्त कर सके। दक्षिण चीन सागर में आज हम मार्क एस्पर की कही बातों को वास्तविक रूप लेते देख रहे हैं। अभी तो यही लगता है कि सामरिक क्षेत्र में अमरीका और चीन वास्तविक टकराव के लिए अभी तैयार नहीं है।

अन्तरराष्ट्रीय सम्बन्धों के विद्वान रिचर्ड फॉक का कहना है कि चीन के साथ छुटपुट झड़प के वास्तविक युद्ध में बदल जाने का खतरा था। अमरीका और चीन दोनों ही यह नहीं चाहते। ऐसे में एक ही विकल्प था कि एक बहुआयामी शत्रुता वाला शीत युद्ध छेड़ा जाये जो अन्तरराष्ट्रीय सम्बन्धों पर अमरीकी प्रभुत्व बरकरार रख सके।

दक्षिण चीन सागर विवाद ने नये तरह के शीत युद्ध पर आधिकारिक मुहर लगा दी है। इसका अर्थ है कि दोनों देश खेमेबन्दी करेंगे। अमरीका–ब्रिटेन और चीन–रूस के रूप में दो खेमे बन भी गये हैं। ये अपनी मुख्य भूमि पर टकराव नहीं करेंगे, बल्कि दुनिया के दूसरे हिस्सों में टकराव को जन्म देंगे। एक–दूसरे के मुनाफे हड़पेंगे और अपने–अपने नुकसान की भरपाई दुनिया भर की जनता को लूटकर करेंगे।

चिरन्तन जारी वैश्विक मन्दी और नवउदारवादी मॉडल की विकृतियों के अलावा दुनिया का इस नये संकट की दहलीज पर ले जाने वाला एक कारक वैश्वीकरण के दौर में हुआ चीन का तेज आर्थिक विकास भी है। पिछले डेढ़ दशक के दौरान चीन का आर्थिक विस्तार चीन और अमरीका समेत पश्चिमी दुनिया को फायदा पहुँचाने वाला रहा है। चीन जितनी तेज रफ्तार से बढ़ रहा था उतनी ही रफ्तार से अमरीका और दूसरे विकसित देशों की कम्पनियों के मुनाफों में भी बढ़ोतरी हो रही थी। चीन के सस्ते कुशल मजदूरों की मेहनत की लूट और पर्यावारण तथा सुरक्षा सम्बन्धित कठोर नियमों की गैर मौजूदगी से विकसित देशों ने चीन के मुकाबले कई गुना फायदा उठाया, लेकिन एक हद से आगे निकलने के बाद अमरीका का चीन से आर्थिक रिश्ता तोड़ना नामुमकिन–सा हो गया। 2011 में एक रात्रिभोज में राष्ट्रपति ओबामा ने स्टीव जॉब्स से पूछा था–– क्या एप्पल अपने आईफोन अमरीका में नहीं बना सकता। स्टीव का जवाब स्पष्ट था–– ये नौकरियाँ अब अमरीका नहीं आ सकतीं। पश्चिमी दुनिया चीन के सस्ते कुशल श्रम के आगे लाचार है।

 जब तक चीन ने खुद को दुनिया का कारखाना बनाये रखा तब तक सभी बहुत खुश थे। सभी जगह चीनी मॉडल की तारीफों के पुल बाँधे गये। लेकिन 2015 के बाद जब चीन परिमार्जित उन्नत तकनीकी अर्थव्यवस्था में बदलने लगा तो बाजार पर कब्जे को लेकर अमरीका और विकसित पश्चिमी दुनिया के सामने एक नयी भू–राजनीतिक चुनौती खड़ी हो गयी। इसके बाद चीन के साथ दुश्मनाना व्यवहार शुरू हो गया। अमरीकी खेमे द्वारा चीन पर पश्चिम की तकनीक चुराना, मुद्रा–मूल्यों से छेड़छाड़, अन्यायपूर्ण व्यापार सम्बन्ध, भू–राजनीतिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण क्षेत्रों पर कब्जा, उईगर मुसलमानों का दमन, हाँगकाँग में दमन जैसे आरोप लगाये गये।

रिर्चड फॉक का यह भी मानना है कि वास्तव में पश्चिम को चिन्तित करने वाला मुद्दा यह था कि राजनीतिक अधिनायकवाद और काफी हद तक राज्य नियंत्रित आर्थिक गतिविधि के जरिये चीन ने पूँजीवाद को इस ढंग से अपनाया है कि यह पश्चिम के विकसित पूँजीवादी देशोें को चुनौती देने की हालत में आ गया है।

यह चीनी पूँजीवाद की ऐसी विशेषता है जिसेे हासिल करना पश्चिमी दुनिया के लिए लगभग असम्भव है। इसके अलावा नव उदारवादी दौर में पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्थाएँ और खास तौर पर पश्चिमी अर्थव्यवस्थाएँ चीन की अर्थव्यवस्था के साथ इतनी गहरायी से जुड़ गयी हैं और उसके सस्ते श्रम कौशल पर इतनी ज्यादा निर्भर हो गयी हैं कि उससे पूर्ण सम्बन्ध विच्छेद नामुमकिन–सा हो गया है। लेकिन पश्चिमी ताकतें मुख्य रूप से अमरीकी सरकार दुनिया पर चीन के बढ़ते प्रभाव को रोकना भी चाहती है। ट्रम्प की ताजपोशी के बाद से चीन और अमरीका के बीच चल रहा आर्थिक टकराव इसी का नतीजा है।

कोरोना परिघटना ने दुनिया पर चीन का प्रभाव बढ़ाने की सम्भावना को और ज्यादा मजबूत कर दिया। कोरोना का पहला शिकार बनने के बावजूद चीन तेजी और आसानी से संकट के बाहर आ गया जबकि यूरोप और खास तौर पर अमरीका इस संकट से निपटने में नाकाम रहे। इसने चीन के पक्ष में ऐसी परिस्थिति पैदा कर दी, जिससे अमरीका हार भी नहीं मान सकता और निपट भी नहीं सकता। इस परिस्थिति की जटिलता को व्यक्त करते हुए ‘अमरीका चीन सम्बन्ध केन्द्र’ के निदेशक ओरवेल शेल ने कहा, हम रिश्तों की एक खतरनाक और तीव्र्र गिरावट में फँस गये हैं जो बेवजह नहीं है। टकराव की गम्भीरता विशिष्ट और समाधेय चुनौतियों की दीवार लाँघकर व्यवस्थाओं और मूल्यों के टकराव में पहुँच गयी है।

अमरीका चीन व्यापार काउंसिल के प्रमुख केग एलन का कहना है कि हम दो महाशक्तियों की इस टकराव से चिन्तित हैं जो कुल वैश्विक आर्थिक उत्पादन के 40 प्रतिशत का प्रतिनिधित्व करती हैं। अगर हम एक–दूसरे पर चिल्लाते रहे और दरवाजे बन्द करते रहे तो दुनिया बहुत अस्थिर हो जायेगी और व्यापार असम्भव हो जायेगा।

वास्तव में आर्थिक टकराव में भी चीन अमरीका का एक हद से आगे बढ़ना सम्भव नहीं है। ज्यादा सम्भावना यही है कि आर्थिक टकराव कुछ सालों तक जारी रहे। जब तक चीन का दुनिया पर निर्णायक प्रभाव स्थापित न हो जाये।

बहुत ही कम समय में विश्व स्तर पर आये इन तीखे बदलावों ने एक नयी विश्व परिस्थिति को जन्म दिया है। दक्षिण चीन सागर विवाद ने इसे प्रमाणित किया है। अमरीका और चीन के रूप में दो विरोधी महाशक्तियाँ आमने–सामने हैं और खेमेबन्दी कर रही हैं। इन दोनों ही महाशक्तियों ने साम्राज्यवादी आर्थिक उदारवाद और वैश्वीकरण को अपनाया है लेकिन यह वैश्वीकरण पुराना पड़ चुका है। मौजूदा अन्तरविरोध इसी वैश्वीकरण की पैदाइश है। यह इनका समाधान नहीं कर सकता और इससे आगे का रास्ता न चीन के पास है और न ही अमरीका के। इन दोनों के बीच का संघर्ष मुख्य रूप से आर्थिक क्षेत्र में रहने वाला है। ऐसा स्पष्ट दिखायी दे रहा है कि दोनों में से कोई भी महाशक्ति पूर्ण सैन्य टकराव नहीं चाहती। आज वैश्विक पूँजीवाद जिस भयावह आर्थिक संकट की गिरफ्त में है और देशों के बीच टकराव बढ़ रहे हैं, चीन और अमरीका के बीच बाजार की छीना–झपटी और इसे लेकर बढ़ता भू–राजनीतिक टकराव इसकी मूल समस्या की गत्थी को सुलझा नहीं पायेगा।

यह परिस्थिति विश्व समीकरण में आ रहे बदलावों की ओर स्पष्ट संकेत दे रही है। कोरोना पूर्व दुनिया और बाद की दुनिया के समीकरण साफ तौर पर भिन्नता लिए उभर रहे हैं। ऐसी परिस्थिति निश्चय ही यथास्थिति को तोड़कर दुनिया को दो कदम आगे बढ़ायेगी। यह प्रगतिशील ताकतों के विस्तार की सम्भावनाआंे को भी जन्म जरूर देगी।