डॉलर की तुलना में रुपये की कीमत तेजी से गिरती जा रही है। एक डॉलर 83 रुपये के बराबर हो गया। देश के आर्थिक विशेषज्ञों ने ही नहीं, जनता ने भी इस पर चिन्ता व्यक्त की। संसद में भी सवाल उठा लेकिन वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण ने संसद में यह कहकर कि रुपया कमजोर नहीं हो रहा है बल्कि डॉलर मजबूत हो रहा है, इसे एक बेहूदा मजाक में तब्दील कर दिया।

जब बिल्ली सामने आती है तो कबूतर अपनी आँखे बन्द करके सोचता है कि खतरा टल गया, नतीजा हमेशा यही होता है कि वह बिल्ली का भोजन बन जाता है। डॉलर और रुपये के रिश्ते के मामले में हमारी सरकार भी इसी कहावत को चरितार्थ कर रही है। सरकार तो इस बेहद संजीदा मामले पर अपना रुख जाहिर कर चुकी है, लेकिन इस मुद्दे पर गम्भीरता से विचार करना जरूरी है।

डॉलर सभी के लिए जरूरी है

अमरीका अक्सर ही अपने विरोधी देशों पर तरह–तरह के आर्थिक प्रतिबन्ध लगाता है या लगाने की धमकी देता है। वास्तव में, प्रभावी प्रतिबन्ध लगाने की यह क्षमता उसे वैश्विक मुद्रा के रूप में डॉलर के वर्चस्व ने ही प्रदान की है।

जिस तरह सभी मालों का बाजार है, वैसे ही मुद्रा का भी बाजार है। मुद्राओं का बाजार मालों के बाजार से बहुत बड़ा है। 2021 में विदेशी मुद्रा बाजार में हर रोज लगभग 6,000 अरब डॉलर से ज्यादा का व्यापार हुआ था, जबकि रोज केवल 62 अरब डॉलर के माल का व्यापार हुआ था।

मुद्राओं का दाम भी माँग–पूर्ति से तय होता है। जिस तरह मालों की कीमत तय करने में एकाधिकारी ताकत का इस्तेमाल होता है, वैसे ही मुद्रा के मामले में भी होता है। डॉलर की ताकत का पहले एक आधार होता था–– सोने से उसकी समतुल्यता, लेकिन यह सम्बन्ध टूटने के बाद भी डॉलर का वर्चस्व बने रहना एकाधिकारी धौंस पट्टी के कारण ही है।

क्यूबा के दिवंगत राष्ट्रपति, फिदेल कास्त्रो ने एक बार बताया था कि “हर दिन 3000 अरब डॉलर का सट्टा कारोबार किया जा रहा है। विश्व व्यापार से इसका क्या रिश्ता है ? एक साल में कुल मिलाकर 6,500 अरब डॉलर का विश्व व्यापार होता है, जिसका अर्थ है कि जिन शेयर बाजारों की बढ़ोतरी के बारे में आप इतना सुनते हैं, उनमंे हर दो दिनों में डॉलर की लगभग उतनी ही सट्टेबाजी होती है जितना एक साल में कुल विश्व व्यापार होता है।”

दुनिया के सभी देशों की अपनी–अपनी मुद्राएँ हैं, कुछ देशों ने साझी मुद्रा भी बनायी है, जैसे–– यूरोपीय संघ के देशों की साझी मुद्रा यूरो है। इन मुद्राओं का प्रभाव केवल अपने राष्ट्र या क्षेत्र तक सीमित है। इसके विपरीत डॉलर का प्रभाव वैश्विक है। दुनिया की सभी मुद्राओं की विनिमय दर डॉलर में ही मापी जाती है। दुनिया की सभी मुद्राओं का आपसी विनिमय डॉलर के माध्यम से ही होता है। इसके अलावा दुनिया का अधिकतर आयात–निर्यात, निवेश, कर्ज और उसका भुगतान डॉलर में ही होता है।

डॉलर दुनिया के बाजारों और बैंकों का जीवन–रक्त है। अन्तररष्ट्रीय स्तर पर 80 फीसदी माल व्यापार और 90 फीसदी मुद्रा व्यापार डॉलर में होता है। अलग–अलग देशों के बैंकों के बीच वैश्विक वित्तीय भुगतान नेटवर्क पर भी डॉलर का ही प्रभुत्व है और इसके जरिये होने वाले कुल स्विफ्ट भुगतान का 40 फीसदी डॉलर में ही होता है। बैंकों के बीच वैश्विक व्यापार के लिए दिया जाने वाला 80 फीसदी वित्त डॉलर में दिया जाता है।

इसके चलते दुनिया का जो भी बैंक अमरीका के प्रतिबन्धों की नाफरमानी करता है अमरीका उसके डॉलर के इस्तेमाल पर रोक लगाकर उसे सबक सिखा देता है। 2015 में फ्रांसीसी बैंक, बीएनपी परिवास ने अमरीकी प्रतिबन्धों के खिलाफ जाकर क्यूबा, ईरान और सूडान के अन्तररष्ट्रीय सौदों में बिचैलिये की भूमिका निभायी थी। इस बैंक ने अमरीका को 9 अरब डॉलर का जुर्माना देकर नाफरमानी की कीमत चुकायी।

दुनिया की सभी सरकारों, केन्द्रीय बैंकों, व्यापारिक समूहों को अपना मुद्रा भण्डार डॉलर में ही रखना पड़ता है। नेता, अभिनेता, खिलाड़ी और दूसरे सभी धनाढ्य भी अपनी काली या सफेद कमाई को डॉलर में ही सुरक्षित रखना चाहते हैं। दुनिया के सभी केन्द्रीय बैंकों में जमा कुल विदेशी मुद्रा भण्डार का 65 फीसदी अमरीकी डॉलर में है। अमरीका से होड़ कर रहा चीन भी अपने मुद्रा भण्डार में एक हजार अरब डॉलर सुरक्षित रखे हुए है।

डॉलर की बढ़ती माँग और अमरीकी वर्चस्व

अमरीका के केन्द्रीय बैंक फेडरल रिजर्व की 2017 की एक रिपोर्ट के मुताबिक कुल अमरीकी डॉलर के 70 फीसदी का इस्तेमाल अमरीका के बाहर होता है। 100 डॉलर के 60 फीसदी नोट अमरीका की जमीन से बाहर ही रहते हैं। अमरीका खुद डॉलर में जितना व्यापार करता है बाकी देश उससे पाँच गुणा करते हैं। वास्तव में, वैश्विक वित्तीय तंत्र पर अमरीका का नियंत्रण, मुद्राओं और मालों का वैश्विक व्यापार, मुद्रा भण्डारों में बढ़ोतरी तथा काले धन का बढ़ता पहाड़ डॉलर की माँग में लगातार बढ़ोतरी की गारंटी कर देते हैं।

1976 में फ्रांस के वित्तमंत्री ने कहा था कि डॉलर के वर्चस्व से अमरीका बेहिसाब फायदा उठाता है। असल में, बात इससे बहुत आगे बढ़ चुकी है। आज तो अमरीका के मुद्रा छपाई का कागज भी डॉलर के भाव बिकता है और उसकी हर नयी कतरन सट्टा बाजार के जरिये हजारों और नयी कतरनों के बिकने की गारन्टी कर देती है। इसके चलते दुनिया पर अमरीकी साम्राज्यवाद की आर्थिक जकड़बन्दी और मजबूत होती गयी है।

डॉलर की कुल आपूर्ति का 70 फीसदी हिस्सा अमरीका से बाहर इस्तेमाल होता है और उसकी माँग हमेशा बनी रहती है। इससे अमरीका को भारी संख्या में डॉलर छापने की छूट मिल जाती है। ज्यादा डॉलर छापने से उसकी घरेलू कीमतों में कोई खास बढ़ोतरी (मुद्रास्फीति) नहीं होती और कभी भुगतान सन्तुलन का संकट भी पैदा नहीं होता।

कोई भी बैंक जब कर्ज देता है तो दो चीजें सबसे महत्वपूर्ण होती हैं–– ब्याज दर और डिफाल्ट रिस्क (कर्ज के डूबने का जोखिम)। दोनों का आपस में रिश्ता भी है। ब्याज दर जितनी ज्यादा होगी डिफाल्ट रिस्क उतना ही बढ़ जायेगा। भारी संख्या में डॉलर छापने की छूट के चलते फेडरल रिजर्व अमरीकी बैंकों, वित्तीय संस्थानों, कम्पनियों आदि को लगभग शून्य ब्याज दर पर कर्ज देता है। इससे डिफाल्ट रिस्क बहुत कम हो जाता है। इसके बावजूद अगर कोई कर्ज डूब गया तो डॉलर के वैश्विक फैलाव के चलते अमरीकी अर्थव्यस्था पर इसका बहुत कम प्रभाव पड़ता है। साथ ही बहुत ज्यादा माँग का फायदा उठाकर, अमरीकी फेडरल रिजर्व नये डॉलर छापकर इसकी काफी हद तक पूर्ति कर लेता है या ब्याज दर बढ़ाकर दुनिया में फैले डॉलर को वापस अमरीका में खींच सकता है। नतीजतन, फेडरल रिजर्व के लिए डिफाल्ट रिस्क नाममात्र का रह जाता है। यह सुविधा अमरीका के अलावा किसी देश के केन्द्रीय बैंक के पास नहीं है।

चालू खाता घाटा बाकी देशों की तरह अमरीका को परेशान नहीं करता। इससे दूसरी मुद्राओं की तुलना में डॉलर की विनिमय दर भी नहीं गिरती। अमरीका में ब्याज दर बढ़ते ही डॉलर तेजी से अमरीका में आता है जिससे बाकी देशों में उसकी माँग और बढ़ जाती है। नतीजतन, दूसरी मुद्राओं से डॉलर की विनिमय दर बढ़ जाती है जिससे चालू खाते के घाटे का नकारात्मक प्रभाव नियंत्रित हो जाता है और साथ ही फेडरल रिजर्व को नयी मुद्रा जारी करके घाटे की पूर्ति करने की सुविधा भी मिल जाती है।

उपरोक्त कारणों से डॉलर सम्पत्ति जमा करने का सबसे भरोसेमन्द और सुरक्षित साधन बना हुआ है। डॉलर में भरोसे और सुरक्षा के दम पर अमरीका वैश्विक पूँजी बाजार में अपने बॉण्ड बेचकर अरबों डॉलर का कर्ज आसानी से हासिल कर लेता है। यह कर्ज उसे बाकी देशों की तरह चुकाना नहीं पड़ता है, वह कुछ ज्यादा डॉलर छापकर कर्जदाता को भुगतान कर देता है।

तीसरी दुनिया के देशों पर शिकंजा

आईएमएफ और विश्व बैंक की जमा राशियों में अमरीका का बड़ा हिस्सा है और इन पर अमरीका का ही नियंत्रण है। सभी देशों को इनमें अपना हिस्सा डॉलर में ही जमा करना पड़ता है। इसके अलावा ये दोनों संस्थाएँ डॉलर में ही कर्ज देती और वसूलती हैं। खासतौर पर तीसरी दुनिया के देशों को हमेशा ही कर्ज की जरूरत रहती है इसके चलते भी उनको हमेशा डॉलर की जरूरत रहती है।

अमरीकी पूँजी का दुनिया पर वर्चस्व कायम रखने और संकटों से उसकी रक्षा करने में डॉलर का मौद्रिक वर्चस्व बहुत उपयोगी है। अमरीकी पूँजीपति अपनी कम्पनियों के जरिये न्यूनतम ब्याज दर पर कर्ज पाकर उसे पूरी दुनिया में निवेश करते हैं। यह विदेशी निवेश देशी पूँजी से गठजोड़ करके, दुनिया के कोने–कोने से श्रम की लूट को खींचकर लगातार अमरीका में लाता है। इस संचित पूँजी के साथ फेडरल रिजर्व से मिले नये सस्ते कर्ज को मिलाकर अमरीकी वित्तपति फिर ऊँची ब्याज दर पर दुनिया में कर्ज बाँटते हैं और वैश्विक सम्पदा का पहले से ज्यादा बड़ा हिस्सा लूटकर अमरीका ले आते हैं। यह चक्र निरन्तर चलता रहता है और दुनिया के बड़े हिस्से में कंगालिकरण और अमरीका में पूँजी का पहाड़ लगातार बढ़ता जाता है।

नवउदारवाद ने तीसरी दुनिया की कमजोर अर्थव्यवस्थाओं को विदेशी निवेश पर निर्भर बना दिया है। इन अर्थव्यवस्थाओं में लगभग सारा विदेशी निवेश डॉलर में आता है। अमरीका ब्याज दर में बदलाव करके कमजोर अर्थव्यवस्था वाले देशों में डॉलर की आवाजाही को नियंत्रित करता है। इसलिए इन देशों में डॉलर का प्रवाह हमेशा अनिश्चित बना रहता है। नतीजतन, डॉलर को रिझाने के लिए लगातार जनविरोधी और आत्मघाती फैसले लेना और वित्तीय पूँजी के इशारों पर नाचना तीसरी दुनिया के पूँजीवादी शासकों की मजबूरी बन गयी है।

यह मजबूरी इन देशों के शासक वर्गों को परेशान नहीं करती बल्कि इनका मुनाफा बढ़ाती है। पूँजीपतियों की राष्ट्रभक्ति मण्डी में पैदा होती है और वहीं विसर्जित होती है। अपनी सीमित पूँजी और पिछड़ी तकनीक के दम पर ये अपने देशों की मेहनतकश जनता और प्राकृतिक संसाधनों को कभी भी उतना नहीं निचोड़ सकते थे जितना साम्राज्यवादी अमरीकी वित्तीय पूँजी के साथ गठजोड़ करके। इस साझी लूट में बहुत छोटे हिस्से के तौर पर ही ये जितना पा लेते हैं वह निश्चित तौर पर पहले की तुलना में अधिक है, नहीं तो ये नवउदारवाद को इतनी आसानी से कभी स्वीकार न करते।

दूसरी ओर, तीसरी दुनिया की मेहनतकश जनता पर इसकी दोहरी मार पड़ती है। साम्राज्यवादी वित्तीय पूँजी इन देशों में समाज सुधार के लिए नहीं, बल्कि ज्यादा मुनाफा कमाने और जनता की सम्पत्ति को लूटने के लिए आती है। वह तीसरी दुनिया के अल्पविकसित और कम मजदूरी दर वाले समाजों में अत्याधुनिक तकनीक उतारती है जिससे श्रम की उत्पादकता तो बहुत ज्यादा बढ़ जाती है, लेकिन मजदूरी नहीं बढ़ती। नतीजतन, श्रम की लूट में बेतहाशा बढ़ोतरी होती है, जिसमें अपनी–अपनी हैसियत मुताबिक हिस्सा लेकर देशी–विदेशी पूँजीपति मालामाल होते हैं।

साम्राज्यवादी देशों की वित्तीय पूँजी को रिझाने के लिए उसे अतिशय मुनाफे की भी गारन्टी दी जाती है। इसके साथ–साथ तीसरी दुनिया के पूँजीवादी शासक सार्वजनिक सम्पत्तियों का निजीकरण तथा जन सुविधाओं और सब्सिडियों में कटौती करते हैं। इससे जनता की संचित सम्पदा लगभग मुफ्त में निजी पूँजीपतियों के कब्जे में आ जाती है। मेहनतकश जनता की जिन्दगी बरबाद होती है और छोटे पैमाने के उत्पादन, खासकर खेती में लगे लोग उजड़ते हैं।

डॉलर का वर्चस्व कैसे कायम हुआ

दूसरे विश्व युद्ध में सोवियत संघ ने फासीवाद के दैत्य को कुचलकर दुनिया की हिफाजत की थी और एक महान ताकत बनकर उभरा था। उसने साम्राज्यवाद को पीछे हटने पर मजबूर कर दिया था। सोवियत रूस की घेराबन्दी और साम्राज्यवादी लूट को जारी रखने के लिए साम्राज्यवादी एक झण्डे के नीचे आये। पश्चिमी यूरोप के साम्राज्यवादी–– ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी आदि युद्ध में तबाह हो गये थे, वे नेतृत्व नहीं कर सकते थे। अमरीका ने युद्ध में दोनों पक्षों को हथियार और कर्ज बाँटकर भरपूर मुनाफा कमाया  और एक बड़ी साम्राज्यवादी ताकत बन गया, साम्राज्यवादी उसके झण्डे तले एकत्र हुए।

1944 में डॉलर के वर्चस्व वाली एक अन्तरराष्ट्रीय मौद्रिक प्रणाली तैयार करने के लिए अमरीका में ब्रेटनवुड सम्मलेन किया था। इसमें डॉलर को एक केन्द्रीय मुद्रा के रूप में स्वीकार करने पर जोर दिया गया। अमरीका ने डॉलर को स्वर्ण मानक से जोड़ने का प्रस्ताव रखा और एक ओंस सोने के बदले 35 डॉलर देने की गारन्टी दी। सोवियत संघ के अलावा सम्मलेन में शामिल बाकी सभी 43 देशों ने इसे स्वीकार कर लिया। 1948 में युद्ध से तबाह यूरोप के पुनर्निर्माण के लिए अमरीकी ने मार्शल प्लान शुरू किया। 1950 के दशक में अमरीका एक वित्तीय महाशक्ति बन गया और दुनियाभर में उसकी पूँजी निर्यात में अभूतपूर्व वृद्धि हुई। इसी दौरान डॉलर ने भी एक वैश्विक मुद्रा का रूप धारण कर लिया।

पहले कोरिया युद्ध और फिर वियतनाम युद्ध ने अमरीकी अर्थव्यवस्था की जड़ें हिला दी थीं। अमरीका ने स्वर्ण मानक को धता बताते हुए भारी मात्रा में डॉलर छापे थे। जब दूसरे देशों ने अपने जमा डॉलरों के बदले अमरीका से सोना माँगना शुरू किया तो राष्ट्रपति निक्सन ने बेगैरत होकर डॉलर के बदले सोना देने से इनकार कर दिया। असल में, डॉलर इतनी भारी मात्रा में छापे गये थे कि अमरीका खुद नीलाम होकर ही उनके बराबर सोना दे सकता था। यह दुनिया के आर्थिक इतिहास की सबसे बड़ी जालसाजी थी। असल में वैश्विक मुद्रा के रूप में डॉलर का दर्जा उसी दिन खत्म हो जाना चाहिए था।

1970 के दशक के अन्त तक दुनिया का शक्ति सन्तुलन अमरीकी नेतृत्व वाले साम्राज्यवादी खेमें के पक्ष में झुकने लगा। इसी दौरान 1978 में पेट्रो डॉलर की शुरुआत हुई और अमरीका दुनिया के तेल व्यापार के लगभग सारे लेन–देन के लिए डॉलर की बाध्यता थोपने में कामयाब रहा। डॉलर का वर्चस्व फिर से बढ़ने लगा। 1990 तक सोवियत खेमे का पतन हो चुका था और अमरीका के नेतृत्व में एक ध्रुवीय दुनिया बन गयी थी। दुनिया के लगभग सभी देश अमरीकी साम्राज्यवाद की राह प्रशस्त करने वाले नवउदारवाद को स्वीकार कर चुके थे या इसके लिए तैयार हो रहे थे। नवउदारवाद को स्वीकार करने का अर्थ डॉलर के वर्चस्व को स्वीकार करना भी था। 1994 में ड्यूश बैंक के मुख्य अर्थशास्त्री नोर्बेर्ट वाल्टर ने कहा था कि “डॉलर सिर्फ एक मजबूत मुद्रा नहीं है। यह एक मजबूत महाद्वीप का प्रतिबिम्ब है जिसमें सैन्य, राजनीतिक और आर्थिक शक्ति शामिल है।”

नवउदारवाद की नीतियाँ साम्राज्यवादियों के बीच लम्बे विचार–विमर्श के बाद तैयार की गयी थीं और टकराव को कम से कम करने का प्रयास किया गया था। अब दुनिया में कोई ऐसी ताकत नहीं थी जो अमरीका और डॉलर के वर्चस्व को शिकस्त दे सके।

नवउदारवाद ने डॉलर को देवता बना दिया

डॉलर और रुपये के रिश्ते की बहस को एक बेहूदा मजाक में तब्दील करके वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण ने वास्तव में इस मुद्दे पर अपनी बेबसी जाहिर की थी। डॉलर महाप्रभु को खुश करनेवाली नीतियों पर वे खुद रोज हस्ताक्षर करती हैं। नवउदारवाद ने विश्व पूँजीवाद के मन्दिर में डॉलर महाप्रभु की प्राण प्रतिष्ठा की है। इस आराध्य देव के सामने नतमस्तक हुए बिना आज तीसरी दुनिया के शासक आगे नहीं बढ़ सकते। भारत के शासकों का हाल भी यही है। आजकल ये रोज ही विदेशी निवेशकों के नाराज होने की चिन्ता जाहिर करते हैं लेकिन ऐसा हमेशा से नहीं था।

आजादी के बाद भारत ने आत्मनिर्भर विकास की जो नीति अपनायी थी वह डॉलर की गुलामी से काफी हद तक मुक्त थी। निश्चय ही बाहरी कारकों ने भी इस नीति को सहारा दिया था। डॉलर के प्रभुत्व से बचने के लिए इस नीति में कई तरीके अपनाये गये थे। डॉलर के अनाप–शनाप खर्च पर रोक लगायी गयी थी और इसे किफायत से खर्च किया जाता था। विदेश व्यापार के मामले में आयात प्रतिस्थापन नीति अपनाकार ज्यादा से ज्यादा वस्तुओं का उत्पादन अपने देश में ही करने की कोशिश की जाती थी। आयात को हतोत्साहित करने के लिए आयातित उपभोक्ता मालों पर भारी तटकर लगाया जाता था। साम्राज्यवादी सूदखोरों से बड़े कर्ज लेने के बजाय तीसरी दुनिया के ही मित्र देशों से थोड़ा–थोड़ा कर्ज लेकर काम चलाया जाता था। इन देशों के साथ व्यापार अपनी मुद्राओं में या माल के बदले माल देकर करने की कोशिश की जाती थी।

मुद्रा व्यापार और सट्टेबाजी पर कठोर सरकारी नियंत्रण था। विदेशी पूँजी को भारत में आकर मुनाफा लूटने की खुली छूट नहीं थी। अगर कोई विदेशी कम्पनी भारत में आकर कारोबार करती थी तो उसे कठोर सरकारी नियंत्रण में रुपये में ही कारोबार करना होता था। भ्रष्टाचार उस समय भी था, कला धन तब भी पैदा होता था लेकिन उसकी मात्रा बहुत कम थी और उसे विदेशी बैंकों में जमा करवा देना लगभग नामुमकिन था।

इन नीतियों के चलते भारत की अर्थव्यवस्था डॉलर के वर्चस्व से मुक्त रही और आत्मनिर्भर विकास के रास्ते पर आगे बढ़ी। 1990 के बाद जब भारत के शासकों ने नवउदारवाद अपनाया तो इन तमाम नीतियों को ख़त्म करना यानि अपनी आत्मनिर्भरता को त्यागना शर्त के तौर पर स्वीकार किया। व्यवस्था को निजीकरण और उदारीकरण के अनुकूल बनाने के लिए ढाँचागत समायोजन कार्यकर्म चलाया गया और वैश्वीकरण की सहूलियत के लिए विदेश व्यापार में निर्यात प्रोत्साहन नीति अपनायी गयी। ये दोनों ही देश को आत्मनिर्भर के बजाय परनिर्भर बनाते हैं और अर्थव्यवस्था में हमेशा डॉलर झोंकते रहने की शर्त पर ही जारी रह सकते हैं।

आज हालात यह है कि भारत की अर्थव्यवस्था वैंटिलेटर पर पड़ी हुई है और डॉलर का प्रवाह उसकी आक्सीजन है। जैसे ही डॉलर के प्रवाह में कमी आती है मरणासन्न अर्थव्यवस्था मृतप्राय होने लगती है। डॉलर के प्रवाह को कायम रखने के लिए उसके साम्राज्यवादी मालिकों की शर्तों के मुताबिक जनता की सुविधाओं में कटौती और लूट में बढ़ोतरी करनी पड़ती है ताकि डॉलर की भारी मुनाफे के साथ वापसी सुनिश्चित हो जाये। जब अमरीका अपनी सुविधा मुताबिक ब्याजदर बढ़ाकर डॉलर को वापस खींचना शुरू कर देता है तो अर्थव्यवस्था की सांसे फिर उखड़ने लगाती हैं। शासक और कड़ी शर्तें स्वीकार करके डॉलर के साम्राज्यवादी मालिकों को खुश करते हैं। यही चक्र लगातार चलता रहता है। डॉलर की माँग, जनता की कंगाली और देश की गुलामी लगातार बढती जाती है।

डॉलर के इस साम्राज्यवादी कुचक्र से निकालने का एक मात्र रास्ता यह है कि आत्मनिर्भर विकास की नीतियों को आज के दौर के मुताबिक विकसित करके फिर से लागू किया जाये। लेकिन क्या आज के शासकवर्ग इसके लिए तैयार होंगे ?