‘द केरल स्टोरी’ के बहाने हिन्दी फिल्मों के भगवाकरण पर एक टिप्पणी
फिल्म समीक्षा राजेश कुमार5 मई 2023 को ‘द केरल स्टोरी’ फिल्म रिलीज हुई। फिल्म में पात्रों ने निश्चय ही बहुत मेहनत की है। उन्होंने एक काल्पनिक चरित्र को भरपूर जीने की कोशिश की है। फिल्म जिस दुष्प्रचार को फैलाने के उद्देश्य से बनायी गयी, उसमें लगभग सफल भी रही है। कर्नाटक चुनाव में खुद प्रधानमंत्री ने अपने भाषण में फिल्म का हवाला दिया। पर असल में फिल्म न तो दर्शक का मनोरंजन करती है, न हँसी मजाक, न कोई अच्छा संगीत, न सामाजिक सौहार्द की बात, न ही देश की आम बेटियों का संघर्ष इसमें शामिल है। फिल्म एक कुंठित मानसिकता से निर्देशित लगती है और देखने वाले को भावनात्मक तरीके से अपने दायरे में खींचकर उसके मन में एक डर का साया खड़ा कर देती है। फिल्म देखने के बाद किसी भी आम आदमी को अल्पसंख्यकों के बारे में एक सन्देह पैदा होगा।
दूसरी तरफ धार्मिक अन्धभक्ति में सराबोर लोगों ने फिल्म देखकर राहत की साँस ली और उन्हें यकीन हुआ कि पिछले कई सालों से देश, इतिहास और समाज के बारे में वे व्हाट्सअप पर जो ज्ञान हासिल कर रहे थे वह एकदम सही है। भाजपा के द्वारा उछाले गये ‘लव जिहाद’ जैसे मुद्दे को जब जनता ने कोई तवज्जो न दी, सुप्रीम कोर्ट से भी फटकार मिली, तो इस फिल्म के माध्यम से उसे सीधे लोगों के मन–मस्तिष्क में उड़ेलने की कोशिश की गयी। फिल्म निर्देशक ने फिल्म में दर्शकों की भावनाओं को काबू करने पर पूरी मेहनत की है, लेकिन वह तथ्य पर थोड़ा–सी मेहनत कर लेता तो तमाम आलोचकों के कलम की स्याही और निर्देशक की थोड़ी इज्जत भी बच जाती। केरल की साढ़े तीन करोड़ की आबादी में से निर्देशक अपने रहनुमाओं के इशारे पर उन अपवाद उदाहरणों को खोज कर लाता है जिससे केरल को बदनाम किया जा सके। अपने राजनीतिक एजेंडे को लागू करने के लिए केरल की लड़कियों के असली संघर्ष के समानान्तर किसी काल्पनिक चक्रव्यूह की रचना करना महज एक कुत्सित मानसिकता का प्रतिबिम्ब नहीं तो और क्या है?
फिल्म में केरल से बत्तीस हजार लड़कियों को अतिवादी संगठन आईएस में भर्ती करने का दावा किया गया है। निर्देशक सुदीप्तो सेन इस दावे का श्रेय कई सालों के अपने रिसर्च को देते हैं, पर ये दावे राष्ट्रीय सुरक्षा एजेंसी के आँकड़ों के सामने खोखले साबित हो़ते हैं। 2021 में राष्ट्रीय सुरक्षा एजेंसी ने कहा था कि आईएस से प्रेरित “आतंकी हमलों, साजिश और फंडिंग” के 37 मामलों से जुड़े 168 लोगों को गिरफ्तार किया गया था। भारतीय अधिकारियों ने यह भी कहा है कि आईएस में शामिल होने वाली केरल की चार महिलाएँ अफगानिस्तान की जेल में थीं। इसके अलावा बाकी लोग देश के अन्य इलाकों से थे। उसके बाद केरल से किसी और शख्स के आईएस में भर्ती होने की रिपोर्ट नहीं है। फिर भी केरल को बदनाम करने के लिए इसका नाम जानबूझकर ‘द केरल स्टोरी’ रखा गया। केरल लम्बे समय से संघ की आँखों में चुभता आया है। पाकिस्तान के बाद संघ को केरल में ही सबसे ज्यादा प्रताड़ित हिन्दू नजर आते हैं।
खैर, यह फिल्म घृणा प्रचार की घिनौनी मुहिम की महज एक बानगी है। 2009 के बाद से हिन्दी फिल्मों का तेजी से भगवाकरण किया जा रहा है। इससे पहले भी फिल्मों पर राजनीतिक प्रभाव रहता था, लेकिन फिल्में मुख्य रूप से मनोरंजन करने और धर्म निरपेक्षता, अन्तरजातीय विवाह, किसानों के संघर्ष और मध्यम वर्गीय नौजवानों के संघर्ष को दिखाती थीं। राजनीति उनमें बहुत बारीकी से गुंथी होती थी। पर अब जो देखने को मिल रहा है उसमें लगता है जैसे फिल्म में सीधे आरएसएस और भाजपा का घोषणा पत्र फिल्माया जा रहा हो। सिनेमा स्टडीज के प्रोफेसर रजनी मजूमदार ने कहा है कि “दक्षिणपंथी अपनी ताकत दिखा रहे हैं और अपने एजेंडे के अनुरूप वे कुछ फिल्में बनाने में कामयाब भी रहे हैं।” सिनेमा से अच्छा प्रचारक तो कोई संघ चालक नहीं हो सकता। इसलिए संघ की हमेशा दबी हुई इच्छा रही है कि हिन्दी फिल्में उसकी यह कमान सम्भाले। नाम न छापने की शर्त पर मुम्बई के एक आरएसएस पदाधिकारी ने टाइम मैगजीन को एक इण्टरव्यू में कहा, “हम केवल शुरुआत कर रहे हैं। आप आने वाले समय में इनमें से कई और देखेंगे। हमने बॉलीवुड के निर्देशकों और पटकथा लेखकों से चर्चा शुरू कर दी है कि हम हिन्दुस्तान के अपने विचार को कैसे आगे बढ़ा सकते हैं। ––– सिनेमा हमारी बात कहे इसके लिए उसे प्रेरित किया जाये।”
पिछले दो सालों में एक दर्जन से ज्यादा फिल्म हिन्दुत्ववादी और अन्धराष्ट्रवादी विचारधारा को फैलाने के लिए बड़े परदे पर रिलीज हो चुकी हैं जैसे–– ‘कश्मीर फाइल्स’, ‘गाँधी गोडसे एक युद्ध’, ‘सम्राट पृथ्वी राज’, ‘रामसेतु’, ‘कोडनेम–तिरंगा’, ‘ब्रह्माश्त्र भाग एक––शिवा’, ‘स्वतंत्र वीर सावरकर’, ‘एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर’ और विवेक ओबेराय की ‘पीएम नरेन्द्र मोदी’ आदि। दर्जनों रिलीज होने की कतार में हैं जैसे करण जोहर की ‘ए वतन मेरे वतन’, सिद्धार्थ मल्होत्रा के अभिनय में ‘योद्धा’, पौराणिक कथा रामायण के किसी हिस्से पर ‘आदिपुरुष’, अन्नू कपूर की ‘मैं दीन दयाल हूँ’। नितिन गडकरी ने 2024 में आरएसएस के सौ वर्ष पूरे होने पर बायोपिक ‘डॉक्टर हेडगवार’ को गाँव–गाँव दिखाने की बात की है।
अजीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी में सिनेमा स्टडीज के प्रोफेसर श्रीनिवास एसवी ने कहा कि फिल्मों में अब प्रोपगेंडा का नया ट्रेंड सामने आ रहा है। “फिल्म राम सेतु भगवा ब्रिगेड के सांस्कृतिक घोषणापत्र की तरह लगती है, जिसमें हर चीज से ज्यादा आस्था पर जोर दिया गया है।” “यह फिल्म स्पष्ट रूप से सेतुसमुद्रम परियोजना से सम्बन्धित विवाद के इर्द–गिर्द राजनीतिक लामबन्दी पर आधारित है और यह धार्मिक उन्माद को बढ़ाने का एक प्रयास है।” उन्होंने कुमार अभिनीत इस वर्ष की सम्राट पृथ्वीराज की भी तीखी आलोचना की। श्रीनिवास ने कहा, “फिल्म में हिन्दू राजा पृथ्वीराज चैहान के सम्बन्ध में एक विभाजनकारी और भगवाकृत इतिहास दिखाया गया है।” “फिल्म में दिखाया गया है कि चैहान ने मुहम्मद गोरी को मार डाला, लेकिन कोई गूगल सर्च भी करे तो पता चलता है कि गोरी को उसके ही आदमियों ने मार डाला था।”
इसके अलावा, दुनिया भर में भगवा एजेंडे से सराबोर ‘कश्मीर फाइल्स’ की थूकम फजीहत ही हुई थी। फिर भी हद तो यह है कि तथ्यात्मक रूप से हर बार गलत साबित होने पर भी संघी निर्देशक जहर फैलाने से बाज नहीं आ रहे हैं। असल में उनका काम फिल्म बनाकर अपनी कला का प्रदर्शन करना है ही नहीं। वे एक खास एजेंडे के आधार पर लोगों के दिलों में नफरत घोलने का काम कर रहे हैं। इतिहास को अपने पक्ष में मोड़ने की असफल कोशिश कर रहे हैं।
अमर अकबर अन्थोनी, बोम्बे, रिफुजी, वीरजारा जैसी हिन्दू–मुस्लिम एकता वाली फिल्में अब भूल जाइए। उनके दिन लद गये। अब अच्छे दिन आ गये हैं, इसलिए बॉलीवुड अब नफरत, झूठ, दुष्प्रचार और गद्दार लोगों की जीवनी पर आधारित फिल्में बना रहा है। इतिहास को तोड़–मरोड़कर दिखाया जा रहा है। यह हिन्दी फिल्मों का बेहद खतरनाक टेªण्ड चल रहा है। यही हाल रहा तो हिन्दी भाषी जनता के जेहन में और साम्प्रदायिक जहर घुल जायेगा। समाज का ताना–बाना टूटेगा। हिन्दू–मुस्लिम एकता जर्जर हो जायेगी। धर्म निरपेक्ष और प्रगतिशील शक्तियों को सोचना है कि इनका मुकाबला कैसे करें।
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