दिवाली का त्यौहार आने वाला है। लेकिन देशवासियों को इस दुख भरे साल में दो बार दिवाली मनाने का मौका मिला। घरों की साफ–सफाई और कार्तिक माह की फसल आने की खुशी में मनाया जाने वाला यह त्यौहार अब महज त्योहार नहीं रहा, बल्कि धर्म विशेष की पहचान से जोड़ा जाता है। इसकी टेस्टिंग लॉकडाउन में दो बार हुई। एक बार जब देश के सर्वाेच्च पद पर आसीन व्यक्ति के मन की जिज्ञासा का ख्याल रखते हुए दीया जलाकर करोड़ों देशवासियों ने प्रकाश तरंग उत्पन्न की। खैर, यह अथाह ऊर्जा कोरोना का बाल भी बाँका न कर सकी, पर इसने हर मोहल्ले में ऐसे कुछ लोगों को चिन्हित करने में आसानी कर दी जिन्होंने हिन्दू–हृदय सम्राट के मन की बात की अवहेलना की। दिवाली मनाने का दूसरा सुनहरा मौका पाँच अगस्त की शाम राम मंदिर का भूमिपूजन करके दिया गया। इस बार असर उतना व्यापक नहीं रहा जितना इसका प्रचार–प्रसार किया गया। फिर भी देश के कोने–कोने में राशन भले न पहुँचा हो पर लोगों को यह कहते हुए सुना गया–– “लॉकडाउन में राम मंदिर बना दिया। आज तक कोई नहीं कर पाया। और अब ये लॉकडाउन तब तक रहेगा जब तक मथुरा में भी मस्जिद तोड़कर कृष्ण मंदिर न बना दिया जाय।”

तीन हजार करोड़ की सरदार पटेल की मूर्ति (स्टेचू ऑफ यूनिटी) को हिन्दू हृदय सम्राट ने भुना लिया। आज यह तथ्य झूठ–सा लगता है कि सरदार पटेल ने आरएसएस के कार्यकर्ता गोडसे द्वारा गाँधी की हत्या के बाद आरएसएस को आतंकवादी संगठन घोषित करके इस पर प्रतिबन्ध लगाने को कहा था। स्टेच्यू ऑफ लिबर्टी की अपार सफलता के बाद राम मन्दिर एक बड़ा प्रयोग है और जनता के बड़े हिस्से को अपने दायरे में खींच लेगा। लॉकडाउन में अर्थव्यस्था के ठप हो जाने से शहरी मजदूर और निम्न मध्यम वर्ग में व्यवस्था के खिलाफ गुस्सा पैदा हुआ था। लॉकडाउन से पहले कई बड़े किसान आन्दोलन हुए थे। इससे लग रहा था कि सरकार के समर्थकों में कमी आना तय है। इसी बीच  हिन्दू हृदय सम्राट ने आपदा को अवसर में बदला। गाँव के किसानों को दो–दो हजार रुपये की तिमाही किस्त देना शुरू किया गया। बीपीएल कार्ड धारकों को राशन की मात्रा और बढ़ाने के बजाय किसानों को भी राशन दिया गया। ज्यादातर किसानों ने इसे या तो अपने जानवरों को खिलाया या गाँव के गरीबों को ऊँची कीमतों पर बेचा। सरकार के खिलाफ शहर से पलायित गुस्सायी भीड़ का मुकाबला गाँव की सुप्त अवस्था में पड़ी उस अतिरिक्त आबादी से हुआ जिसे हिन्दू हृदय सम्राट ने चन्द सिक्के फेंककर अपनी ओर कर लिया था।

जब समाज का एक हिस्सा दीया–बाती में ही मस्त हो गया, तो सम्राट ने समझ लिया कि उसकी जड़ी–बूटी काम कर रही है। फिर उसने अपना असली रंग दिखाना शुरू किया। कोरोना में देश की स्वास्थ्य व्यवस्था की असलियत सबके सामने है। फिर भी राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन के यूनियन बजट में 390 करोड़ की कटौती कर दी गयी। दिल्ली में ऐप पर अस्पतालों में बेड उपलब्ध दिखाये जा रहे हैं। जमीनी हकीकत है कि मरीजों को बेड की कमी की वजह से भर्ती नहीं किया जा रहा है। दिल्ली कोरोना से संक्रमित देश का तीसरा सबसे बड़ा राज्य है। जब यहाँ कोरोना संक्रमितों की संख्या एक लाख पार कर गयी तो लोगों की आँखों से स्वास्थ्य व्यवस्था की असलियत का पर्दा भी हट गया। मुख्यमंत्री के लाख ऐलान करने पर भी प्रवासी लोगों का पलायन नहीं रुका। लॉकडाउन की शुरुआत में पलायन में दिहाड़ी मजदूर और बहुत कम वेतन पाने वाले लोग शामिल थे। अब कई दशक से दिल्ली में रह रहे लोगों का पलायन भी शुरू हो गया है।

प्रेमचन्द जी का कथन

“साम्प्रदायिकता सदैव संस्कृति की दुहाई दिया करती है, उसे अपने असली रूप में निकलते हुए शायद लज्जा आती है, इसलिए वह संस्कृति की खाल ओढ़कर आती है।”

दिल्ली से देश के दूर–दराज इलाकों के लिए जाने वाले घरेलू  सामानों से लदे ट्रक इसके गवाह हैं। मणिपुर का एक परिवार अपना सामान ट्रक में लादकर पाँच दिन की लम्बी कार यात्रा पर निकल गया। दक्षिणी दिल्ली के जय हिन्द कॉलोनी में रहने वाली पश्चिम बंगाल की साजिदा ने अपना सामान ट्रक में लाद दिया है। वह खुद अपने बच्चों सहित ट्रेन से जा रही है। ऐसी घटनाएँ रोज सैकड़ों की संख्या में हो रही हैं। लेकिन यह मीडिया में चर्चा का विषय नहीं है क्योंकि इससे हिन्दू हृदय सम्राट की जो एक विराट छवि बनी है उसे क्षति पहुँच सकती है। अगर मीडिया ने दिखाया कि देश में सैकड़ों बच्चे भूख से दम तोड़ रहे हैं, हजारों परिवार विस्थापित हो रहे हैं, लाखों की रोज नौकरियाँ छूट रही हैं, आत्महत्या आम परिघटना हो गयी है, तो कोरोना के ऊपर हिन्दू हृदय सम्राट की विजय का क्या होगा? कोरोना रूपी राक्षस से सम्राट ने एक महाबली की तरह मुकाबला किया है इस छवि को नुकसान पहुँच जाएगा।

इसके अलावा कोरोना में छात्रों की स्कूली पढ़ाई प्रभावित हुई है। सच भी है। स्कूलों में पढ़ाये जाने वाले पाठ्यक्रम को कम करने का निर्णय लिया गया। चुन–चुन कर पाठ्यक्रम में से उन अध्यायों को हटाया गया जो सत्ता से सवाल करने का हौसला देते थे। यह कुछ उसी तर्ज पर हुआ जैसे देश में चुन–चुनकर उन लोगों को या तो जेल में ठूँस दिया या कत्ल करवा दिया गया जिन्होंने सत्ता का पर्दाफाश किया और सवाल खड़े किये। इनमें नरेन्द्र दाभोलकर, पनसारे और वरिष्ठ महिला पत्रकार गौरी लंकेश प्रमुख हैं। जॉर्जटाउन यूनिवर्सिटी में सामाजिक विज्ञान के प्रोफेसर गौरव जे पठानिया का कहना है–– “सामाजिक आन्दोलनों ने सत्ता में बैठे लोगों से सवाल करके इतिहास बदला है। अगर हम आन्दोलनों की कहानी नहीं पढ़ाएँगे तो हम अपनी ऐतिहासिक समस्याओं के मूल कारणों को नहीं समझ सकते। आन्दोलन ऐसा नया ज्ञान, साहित्य, नेता, गीत और कला पैदा करते हैं जो चली आ रही व्यवस्था को चुनौती दे सके। ऐतिहासिक तथ्यों को छेड़कर या प्रतिबन्ध लगाकर हम ऐसे खतरनाक रास्ते तैयार कर रहे हैं जो वैज्ञानिक ज्ञान से हमें काट देगा।”

 कोरोना के बहाने उन अध्यायों को इसलिए पाठ्यक्रम से हटाया गया, ताकि हिन्दू हृदय सम्राट की रही–सही बाधा भी दूर हो जाये। एक झलक देखिए–– संघीयवाद, नागरिकता, राष्ट्रवाद, धर्मनिरपेक्षिता, भारतीय लोकतंत्र, सामाजिक ढाँचा और विश्व इतिहास से विभिन्न संस्कृतियों के अध्याय हटा दिये गये। यानी सभी धर्म, संस्कृति और जातियों के प्रति समान भाव पैदा करने वाले अध्याय हटा दिये गये। धर्मनिरपेक्षता के सिद्धान्त की जड़  खोदने का इससे बेहतरीन नमूना और क्या हो सकता है? इस पहलू का विपक्ष और देश के बौद्धिक वर्ग द्वारा जितनी विरोध होना चाहिए था, उतना दिखा नहीं।

वास्तव में लम्बे समय से आरएसएस के एजेण्डे में धर्मनिरपेक्षता को नेस्तनाबूद करना रहा है। इस पर आईटी सेल द्वारा हमला कर–करके एक कॉमन सेन्स पहले ही तैयार किया जा चुका है। आज साम्प्रदायिकता को प्रश्रय देने वाले, जिनके हृदय पर सम्राट राज कर रहे हैं, सेकुलर (धर्मनिरपेक्ष) शब्द को गाली की तरह इस्तेमाल करते हैं। भीड़ में सेकुलर की तरफ ऐसे देखा जाता है जैसे उसने देश का, नीरव मोदी और विजय माल्या से ज्यादा नुकसान किया हो।

इस तरह की नफरत और भेदभाव के भरोसे सम्राट दो दिन भी राज न कर पाते। अगर उन्हें भरपूर आर्थिक सहयोग पहुँचाने वाले न होते। उनके लिए भव्य रैलियों का आयोजन कराने वाले, बेहतरीन पोशाक उपहार में देने वाले और विदेशों में साथ घूमने वालों की भी उनकी छवि बनाने में बहुत बड़ी भूमिका है। पीएम केयर फण्ड के कर्ताधर्ता स्वयं सम्राट हैं, जिनकी अपील मात्र पर देश के पूँजीपतियों ने इस फण्ड में दिल खोलकर चन्दा दिया। प्रधानमंत्री राष्ट्रीय राहत कोष में पिछले पाँच साल में जितना चन्दा जमा हुआ उसके तीन गुने से भी ज्यादा पीएम केयर फण्ड में कोरोना काल में जमा हुआ। एक नया खाता खुलने का इतना व्यापक असर देश के उस पूँजीपति वर्ग पर पड़ा, जिसे अपनी फैक्ट्रियों में मजदूरों से जानलेवा परिस्थितियों में कम वेतन पर काम कराने का कानूनी अधिकार मिल गया है। उनका हृदय नया खाता देखते ही इतना उदार हो गया कि उनसे देश की तकलीफ देखी न गयी। क्या रिलाइंस, टाटा और अडानी सब में दान देने की होड़ लग–सी गयी है?

शायद वे समझ गये थे कि सम्राट के मन में कुछ बड़ा करने का कीड़ा कुलबुला रहा है। वह बड़ा क्या था आज हम सबके सामने है। शिक्षा के निजीकरण का रोडमैप तैयार हो गया। रेलवे में निजीकरण शुरू हो गया। स्टेशन और एयरपोर्ट तो जैसे सब्जी मण्डी में आलू की तरह बिक रहे हैं, रही–सही सरकारी कम्पनियों को भी के बाजार में उतारने के लिए झाड़–पोंछ की जा रही है। इस तरह एक तरफ बहुसंख्यक आबादी को साम्प्रदायिकता की बूटी पीला दी गयी है। दूसरी तरफ वर्षों की मेहनत से देश की मेहनतकश आबादी ने जो संसाधन निर्मित किये उनको नीलाम करके सम्राट ने अपनी विजय पताका लहरा दी है। सम्राट के गालों पर दिन–ब–दिन लाली आ रही है और वे ह्रष्ट–पुष्ट हो रहे हैं। गरीब मेहनतकश की हालत पस्त है। उनके पास एकजुट होकर सम्राट की झूठी छवि का पर्दाफाश करने के अलावा कोई चारा नहीं भी तो नहीं बचा।