आईआईटी दिल्ली के इकोनोमिक्स के प्रोफेसर जयन जोस थॉमस का ‘द हिन्दू’ में लेख छपा, आसान और जानकारी बढ़ाने वाला। यहाँ उसके कुछ महत्वपूर्ण बिन्दुओं पर चर्चा की जा रही है।

थॉमस लिखते हैं, “भारत में मजदूरों की तनख्वाह बढ़ानी चाहिए, इससे उपभोग बढ़ेगा। ज्यादा उत्पादन करने के लिए ज्यादा मजदूरों को काम पर रखना होगा। इससे हर हाथ को काम मिल जाएगा। बेरोजगारी खत्म हो जायेगी और आर्थिक वृद्धि भी हासिल होगी।” उन्होंने अपनी बात के पक्ष में तर्क देते हुए लिखा कि द्वितीय विश्व युद्ध के बाद यूरोप ने भी यही मॉडल अपनाया था। युद्ध और मन्दी से पीड़ित लोगों को अच्छी तनख्वाहें दी गयीं और एक बार फिर पूँजीवाद का सुनहरा दौर शुरू हो गया।

थॉमस ने भारत के शहरी उपभोक्ता वर्ग की हालत का जिक्र करते हुए लिखा, 64.4 प्रतिशत टिकाऊ सामान का उपभोग सिर्फ 5 फीसदी अमीरों द्वारा किया जाता है। निचली 50 फीसदी गरीब आबादी सिर्फ 13.4 फीसदी सामान का उपभोग करती है।

थॉमस ने एक और आँख खोल देने वाला तथ्य दिया है कि 2018 की रिपोर्ट के अनुसार भारत के कुल 47–15 करोड़ मजदूरों में से सिर्फ 12.3 प्रतिशत को ही नियमित तनख्वाह और सामाजिक सुरक्षा मिलती है।

प्रोफेसर थॉमस ने काफी मेहनत से आँकड़े जुटाये और बड़ी नेकदिली से इच्छा जतायी कि पूँजीवाद अगर तनख्वाह बढ़ा दे तो समस्या का समाधान हो जायेगा। पर यह पूँजीवाद ही है, जिसने एक बार फिर अपने एक नेकदिल प्रोफेसर को निराश किया। हम जानते हैं कि पूँजीवाद अपनी पैदाइश से ही सस्ते श्रम की ख्वाहिश करता आया है। सस्ता श्रम और कच्चे माल की तलाश में समुद्र में खतरनाक यात्राएँ की गयीं। देशों को गुलाम बनाया गया और दो–दो विश्व युद्ध लड़े गये। अर्थव्यवस्था के उत्पादन–उपभोग के आदर्श सम्बन्ध की कलई तो बहुत पहले ही खुल गयी और उससे निकलकर पूँजी का एक बडा हिस्सा, आज शेयर बाजार में सट्टेबाजी में लगा है और परजीवी जोंक की तरह लोगों का खून पी रहा है। पिछले सौ साल में तकनीक की उन्नति की बदौलत मजदूरों की उत्पादकता हजारों गुना बढ़ गयी, पर इसका फायदा सिर्फ पूँजी के मालिकों ने उठाया और मजदूरों को गरीबी के दलदल में और ज्यादा धकेल दिया। दरअसल बेरोजगारी और गरीबी के दम पर पूँजीपति मजदूर वर्ग पर राजनीतिक और सामाजिक बढ़त बनाये रखता है, वह इन्हें कभी खत्म नहीं कर सकता।

आज दुनिया भर में करोड़ों मजदूरों के हाथ खाली हैं। पूँजीपति वर्ग काम देने के बजाय उनके संवैधानिक अधिकारों को भी एक–एक कर छीन रहा है। वह श्रमशक्ति के ऊपर न्यूनतम खर्च कर रहा है। दुनिया भर की सरकारों ने पूँजीपतियों के हित में कर्मचारियों की पेंशन, स्वास्थ्य और अन्य सुविधाएँ खत्म कर दी हैं या निकट भविष्य में जल्द खत्म करने की योजना है। श्रम कानूनों की धज्जियाँ उड़ाई जा रही हैं। पूँजीपति वर्ग ने ये कदम किसी सनक के चलते नहीं उठाये हंै, बल्कि सोच समझकर कोरोना संकट का सारा बोझ मजदूर वर्ग पर डाला है।

आज एकाधिकारी पूँजीवाद का दौर है। दुनिया के सभी बड़े बुर्जुआ आपस में टकराव के बजाय एकता का रिश्ता ज्यादा मजबूत कर रहे हैं। वे आपस में मिलकर मजदूरों के श्रम का शोषण करते हैं, तमाम तरह के टैक्स लगाकर जनता को लूटते हैं और प्राकृतिक संसाधनों से जनता को बेदखल करके अकूत मुनाफा कमाते हैं। यानी शोषण, लूट और बेदखली तीन ऐसे तरीके हैं, जिससे पूँजीपति वर्ग और उनकी रहनुमा सरकार अपनी तिजोरी भरती है। जैसे–जैसे उत्पादक अर्थव्यस्था ठहरावग्रस्त होती चली जाती है, पहले पूँजीपति मजदूरों के शोषण की दर बढ़ाता है। इससे शोषण से की गयी कमाई की कुल मात्रा कम हो जाती है और पूँजीपति तिजोरी भरने के लिए लूट और बेदखली पर अधिक आश्रित होता चला जाता है।

इससे उसका संकट घटता नहीं बल्कि और ज्यादा बढ़ जाता है। नये निवेश की सम्भावना घटती जाती है, संचय बढ़ता जाता है, पूँजी का पहिया रुकने लगता है।

पूरी विश्व अर्थव्यवस्था बुरी तरह संकट में फँस जाती है। मन्दी, बिक्री में कमी, बाजार का सिकुड़ना, तरलता संकट, वित्तीय और बैंकिंग संकट पूँजीपतियों की नींद उड़ा देते हैं। आज नये उत्पादन के क्षेत्र विकसित नहीं हो पाते, जिससे पूँजीवाद को कुछ राहत मिले। 2008 की मन्दी के बाद से भारत समेत पूरी दुनिया में यही आलम है। कोरोना संकट तो केवल Üाृंखला में एक कड़ी की तरह आकर जुड़ गया है।

भारत का ही उदाहरण लेते हैं। यूपी, बिहार, राजस्थान और मध्य प्रदेश के अप्रवासी मजदूर सिर्फ कुछ गिने–चुने शहरों में केन्द्रित हैं–– जैसे दिल्ली, गुड़गाँव, नोएडा, बंगलुरू, चेन्नई या गुजरात के कुछ शहर सूरत और अहमदाबाद। पिछले दशक में सोचिए ऐसे कितने और नये शहर भारत में बने? एक भी नहीं। कितने नये उद्योग लगे, कितने अस्पताल बने, कितने विश्वविद्यालय खुले, कितनी नयी रेल लाइने बिछीं? शायद एक भी नहीं। विकास ठहर गया है? हाँ। सेवा क्षेत्र में कुछ विकास जरूर हुआ। घर–घर सामान पहुँचाने वाली कई कम्पनियाँ आ गयी। मोबाइल इन्टरनेट के क्षेत्र में भी काम हुआ। लेकिन ये क्षेत्र जितने नये रोजगार पैदा करते हैं उससे कहीं ज्यादा उजाड़ देते हैं। फ्लिपकार्ट, अमेजन से करोड़ों खुदरा व्यापारियों की जीविका पर संकट है। यह रोजगारविहीन विकास है। यह नये लोगों को काम देना पसन्द नहीं करता।

रिपोर्टों में आगे बताया गया है कि देश के कुल अप्रवासी मजदूरों के आधे मजदूर यूपी, बिहार, राजस्थान और मध्य प्रदेश से आते हैं। खेती की हालत इतनी पस्त है कि पिछले दशक में करीब दो करोड़ लोग खेती छोड़कर शहरों की ओर पलायन कर चुके हैं। आज कोरोना संकट में फिर से उजड़कर गिरते–पड़ते, मरते–पिसते वापस गाँव लौट रहे हैं।

शहरों में खेती से उजड़कर आये मजदूरों की आर्थिक और सामाजिक हैसियत क्या है? ये शहरी आबादी के सबसे निचले पायदान पर हैं। घुटन भरी झुग्गियों में या किराये के छोटे–छोटे कमरों में इन्हें शरण मिली हुई है। ये शहरों में जैसा नारकीय जीवन जीने के लिए मजबूर हैं उसकी हम कल्पना भी नहीं कर सकते है और गाँव में इनके परिवार का हाल इनसे भी बुरा है।

दशकों से कहीं नये आद्यौगिक क्षेत्र विकसित नहीं हो रहे हंै। यहाँ तक कि बहुत से पुराने औद्योगिक क्षेत्र भी ठप हो गये। नोएडा से 30 किलोमीटर दूर सिकंदराबाद आद्यौगिक क्षेत्र में चील–कौए उड़ते रहते हैं। खण्डहर में बदलती दीवार और प्रतीक के रूप में खड़ी चिमनियाँ किसी पुराने जमाने की याद बनकर रह गयी हैं।

आज पूँजीवाद के कामों की लिस्ट में ही नहीं है कि वह उद्योग के जरिये विस्तार करे। आज एक–एक कम्पनी के पास इतनी पूँजी है कि वह कई–कई देश खरीदने की हैसियत में है। पर फिर भी वह अपनी पूँजी ऐसी जगह लगाएगी जहाँ उसे तुरंत मुनाफा हो। अगर उसे हथियार बेचकर मुनाफा मिल रहा है तो वह युद्ध में दुनिया को झोंक देगा और हथियार बनाएगा।

पूँजीवाद से यह उम्मीद करना बहुत ही भोलापन होगा कि वह गरीब और कंगाल जनता की शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार की व्यवस्था करेगा। इसके उलट शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार में कटौती कर के ही वह अपनी तिजोरी भर रहा है। उसे मौजूदा व्यवस्था से फायदा है। सस्ते श्रम की बाढ़ उसके लिए गंगा की तरह पूजनीय है। इसी सस्ते श्रम की नुमाइश करके प्रधानपन्त विदेशी आकाओं को निवेश के लिए बुला रहे हैं।

आज मजदूर वर्ग इतना संगठित नहीं है कि उसके डर से पूँजीपति उसकी सुविधा बढ़ा दें। जैसा कि आपने द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद का हवाला दिया है। उस समय के वर्ग शक्ति संतुलन पर ध्यान देना होगा। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद यूरोप और अमेरिका में पूँजीपति वर्ग खैरात यूँ हीं नहीं लुटा रहा था। उसे डर था कि हमने अपने–अपने देशों में मजदूर वर्ग की हालत ठीक न की तो मजदूर वर्ग को सोवियत संघ की ओर आकर्षित होने से कोई ताकत नहीं रोक सकती।

आज पूँजीवाद के सामने न तो सोवियत संघ का डर है और न ही वैश्विक शक्ति संतुलन मजदूर वर्ग के पक्ष में है। इसलिए आज वह कीन्स के सुधारवादी मॉडल को लागू करके तनख्वाह नहीं बढ़ाएगा। ऐसा उसने अपने हर कदम से बार–बार सिद्ध किया है। अब सोचना हमें है कि हम अगर वाकई देश के 47 करोड़ मजदूर वर्ग के लिए चिन्तित हैं तो कुछ और योजना बनाएँ।

वास्तव में मानवता लम्बे समय से पूँजीवाद के रूप में एक मरणासन्न व्यवस्था को ढो रही है। अर्थव्यवस्था समेत हमारा समाज, राजनीति, संस्कृति, न्याय प्रणाली यानी मानव जीवन का हर कोना इसकी सड़ांध से बजबजा रहा है। इसे इतिहास के कूड़ेदान में दफ्न किये बगैर बेहतर मानव जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती।