इलेक्ट्रोनिक्स और सूचना तकनीक मंत्री राजीव चन्द्रशेखर ने कहा कि वीपीएन कम्पनियाँ अगर साइबर सुरक्षा दिशानिर्देशों का पालन नहीं करती हैं, तो वे “भारत छोड़ने के लिए स्वतंत्र” हैं। मंत्रालय के अनुसार प्राइवेट नेटवर्क उपलब्ध कराने वाली कम्पनियों को जून 2022 से अपने ग्राहकों के नाम, ईमेल आईडी, आईपी एड्रेस, सर्वर उपयोग करने का समय और उद्देश्य सम्बन्धी जानकारी पाँच साल तक सुरक्षित रखनी होगी।

इसके बाद नोर्ड वीपीएन, एक्सप्रेस वीपीएन, प्योर वीपीएन और पोपुलर वीपीएन जैसी कई कम्पनियों ने भारत से अपने सर्वर हटा लिये। प्योर वीपीएन कम्पनी के अध्यक्ष ने कहा कि हम अपने किसी भी उपयोगकर्ता का ऐसा कोई डाटा संरक्षित करके नहीं रखते हैं जिससे उसकी पहचान हो, हम अपने उपयोगकर्ता की प्राइवेसी और निजता से समझौता नहीं कर सकते। इसलिए हम भारत से अपने सर्वर हटा रहे हैं। दिग्गज कम्पनी नोर्ड वीपीएन ने कहा कि पहले भी तानशाही वाले अन्य देशों में इस तरह के कानून बने, जबकि भारत एक लोकतांत्रिक देश है, हम अपनी सेवाएँ लोकतांत्रिक देशों में ही देते हैं, लेकिन यह नया कानून लोकतान्त्रिक नहीं है इसलिए हम अपना सर्वर भारत से हटा रहे हैं। एक और कम्पनी शर्फशार्क का कहना है कि “सर्वर कम्पनियों का जाना भारत के उभरते आईटी सेक्टर के लिए भी अच्छा नहीं है”। 2004 से अब तक भारत में पच्चीस करोड़ से ज्यादा अकाउण्ट लीक हुए। शर्फशार्क ने यह भी चेतावनी दी कि बिना मजबूत सुरक्षा के इतनी भारी मात्रा में अकाउण्ट की जानकारियों को इकट्ठा करने से अकाउण्ट लीक होने की सम्भावना और ज्यादा बढ़ जायेगी।

नोर्ड वीपीएन जैसी दिग्गज कम्पनियों की भौतिक स्थित तो ऐसी है कि वह करोड़ों उपयोगकर्ताओं का डाटा इकट्ठा कर सकती हैं। पर उनकी नीतियाँ इसकी इजाजत नहीं देतीं। इसलिए उन्होंने भारत से अपना सर्वर हटा लिया। अब छोटी कम्पनियों की ऐसी हैसियत ही नहीं कि वह यूजर्स की सूचना को पाँच साल तक सुरक्षित रख सके। उसका लीक होना लगभग तय है। यह लीकेज कई बार लगता है सरकार के इशारे पर भी होता है। याद करिये भीमा कोरेगाँव वाला केस, जिसमें आरोपी फादर स्टेन स्वामी के कम्प्यूटर में उनके अकाउण्ट से छेड़छाड़ करके कुछ फाइलें रख दी गयी थीं, जो लम्बे समय से आदिवासियों के अधिकारों के लिए लड़ रहे थे। अकाउन्ट की इन फाइलों के ही आधार पर उनके ऊपर केस चला। उन फाइलों के आधार पर उन्हें माओवादी और देशद्रोही तक कहा गया।

इकोनोमिस्ट इण्टेलिजेंस यूनिट (ईआईयू) के अनुसार लोकतान्त्रिक मूल्यों में भारत 46 वें नम्बर पर है। स्वतंत्र पत्रकारिता के मामले में भारत का स्थान 150 वाँ है। पहले से ही ऐसी दयनीय स्थिति में मूर्छित पड़े भारतीय लोकतंत्र को मानो अब दफनाने की तैयारी चल रही है। भारतीय नागरिकों की निजता और नागरिक अधिकारों को लगातार कुचला जा रहा है। सरकार अपने निजी स्वार्थों को सिद्ध करने के लिए संविधान के उल्लंघन से भी बाज नहीं आ रही।

एक और उदाहरण मौजू है। 2 जुलाई 2022 को दिल्ली एअरपोर्ट पर कश्मीर की फोटो जर्नलिस्ट और पुलित्जर पुरस्कार जीतने वाली सना इरशाद मट्टू को आव्रजन अधिकारियों ने पेरिस जाने से रोक दिया। वह एक किताब विमोचन के सिलसिले में फ्रांस जा रही थीं। सितम्बर 2019 में कश्मीर के एक और पत्रकार गौहर गिलानी को आव्रजन अधिकारियों ने जर्मनी जाने से रोक दिया था। पिछले साल पत्रकार से शिक्षाविद बने जाहिद रफीक को कश्मीर के प्रशासन ने अमरीका जाने से रोक दिया था। उन्हें अमरीका जाकर एक यूनिवर्सिटी में भाषण देना था। पत्रकार रुवा शाह और अम्हेर खान को भी विदेशी यात्राओं से रोक दिया गया था।

आखिर निकट भविष्य में विश्वगुरु बनने वाले देश को ऐसा क्या डर है कि उसे अपने नागरिकों को विदेश यात्राओं से रोकना पड़ रहा है? यह डर तो तानाशाहों को होता है।

एक और घटना जिसने राज्य के अलोकतांत्रिक रवैये को पुष्ट किया है, वह है–– ऑल्ट न्यूज के संस्थापक मोहम्मद जुबैर को 2018 में किये गये एक ट्वीट की वजह से गिरफ्तार करना। मोहम्मद जुबैर के खिलाफ हिन्दू शेर सेना, जिला सीतापुर के प्रेसिडेण्ट ने एफआईआर लिखवायी थी। यूपी में धारा 295 ए और धारा 67 के तहत मुकदमा दर्ज हुआ। वहीं दिल्ली पुलिस ने धारा 120 बी (आपराधिक षड्यंत्र) धारा 201 (सबूत मिटने की कोशिश) और धारा 35 (विदेशी हाथ) के तहत मुकदमा दर्ज किया। मजेदार बात यह है कि जुबैर का ट्विटर अकाउण्ट भी आईटी सेल के ट्विटर पर बने हजारों फेक अकाउण्ट द्वारा टारगेट किया गया। लेकिन केस जुबैर के ऊपर चल रहा है।

पत्रकारिता की स्वतंत्रता के मामले में भारत पहले से ही निचले पायदान पर है। ऐसी घटनाओं से तो देश–दुनिया में और किरकिरी होगी। जर्मनी ने जुबैर की गिरफ्तारी पर सवाल उठाते हुए कहा है कि “भारत खुद को दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र बताता है। इसलिए कोई भी उम्मीद कर सकता है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और प्रेस की स्वतंत्रता जैसे लोकतांत्रिक मूल्यों को वहाँ आवश्यक स्थान दिया जाएगा।–––” जर्मनी के विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता क्रिश्चियन वैगनर ने कहा, हम अक्सर दुनिया भर में अभिव्यक्ति की आजादी पर जोर देते हैं और प्रेस की स्वतंत्रता को लेकर प्रतिबद्ध हैं। यह बहुत जरूरी है और यह भारत पर भी लागू होता है। किसी भी समाज के लिए यह जरूरी है कि वहाँ बिना किसी रोक–टोक और दबाव के पत्रकारिता हो, लेकिन ऐसा नहीं हो पाना चिन्ता का कारण है। उन्होंने कहा, पत्रकारों का उनकी पत्रकारिता के लिए उत्पीड़न नहीं होना चाहिए और ना ही इसके लिए उन्हें जेल में डाला जाना चाहिए। हम पत्रकार मोहम्मद जुबैर के मामले से वाकिफ हैं। नयी दिल्ली में हमारा दूतावास इस मामले पर करीब से नजर रखे हुए है।

अपने नागरिकों पर निगरानी का दायरा बढ़ाने के लिए सरकार ने पूरा मन बना लिया है। वह अपने विरोधियों को साम–दाम–दण्ड–भेद हर तरह से कुचलना चाहती है। उच्च तकनीक के इस दौर में इण्टरनेट और डिजिटल प्लेटफोर्म को सरकार अपने हित में इस्तेमाल करने की पूरी कोशिश कर रही है। वह नागरिकों की निगरानी चाहती है। सारी गतिविधियों पर नजर रखना चाहती है।

2019 में एक विधेयक पास हुआ जिसका उद्देश्य था–– “व्यक्तिगत डाटा से सम्बन्धित व्यक्तियों की गोपनीयता की सुरक्षा प्रदान करना और उक्त उद्देश्यों तथा किसी व्यक्ति के व्यक्तिगत डाटा से सम्बन्धित मामलों के लिए भारतीय डाटा संरक्षण प्राधिकरण की स्थापना करना”। ऐसा कोई प्राधिकरण बनाने में भारत सरकार असफल रही। उलटा वह सर्वर कम्पनियों से लोगों का व्यक्तिगत डाटा पाँच साल तक संरक्षित कराने के लिए कानून बना रही है। पाँच साल तक के लिए उस डाटा की सुरक्षा की जिम्मेदारी कौन लेगा? असल में यह अधकचरे लोकतंत्र का गला घोंटकर अदृश्य तानाशाही थोपने की तैयारी है। तकनीक के माध्यम से नागरिकों को नियंत्रित करने की तैयारी है। जिस तेजी के साथ भारतीय राज्य का रवैया बदल रहा है उसे देखते हुए निकट भविष्य में पूरी सम्भावना है कि नागरिकों की निगरानी के और भी कठोर कदम उठाए जाएँगे।