चुनावी ढकोसले के पीछे सत्ता का जन विरोधी चेहरा
राजनीति राजेश कुमारपूरे फरवरी महीने और मार्च के पहले सप्ताह तक पाँच राज्यों के चुनाव का आठ चरणों में होना कोई अचरज की बात नहीं है और न ही चार राज्यों में भाजपा की सरकार बनना ही कोई अचरज की बात है। सबसे आश्चर्य की बात तो यह है कि अधिकांश स्वनामधन्य चुनावी विश्लेषक इस बात से हैरान हैं कि इतनी महँगाई, बेरोजगारी और सरकार द्वारा जनता की उपेक्षा तथा जन आन्दोलनों के दमन के बावजूद भाजपा चुनाव जीत कैसे गयी! वे इस सीधी–सरल कहावत को मानने के लिए तैयार नहीं हैं कि ‘जिसकी लाठी, उसकी भैस’। चुनाव आयोग, ईडी, कोर्ट–कचहरी, पुलिस–प्रशासन और मीडिया पर जिसका प्रभाव है, वही तो चुनाव जीतेगा। बहुतेरे लोग दिन–रात एक करके चुनाव पर निगाह रखे हुए थे और उसके हर उतार–चढ़ाव से अपने दिल की धड़कनों को घटा–बढ़ा रहे थे। उनमें से कई लोगों को इस चुनाव से बहुत उम्मीदें थीं और चुनाव का नतीजा आने के बाद उनकी उम्मीदें धूल–धूसरित होती नजर आयीं। अमूमन, इनमें से ज्यादातर लोग सत्ता के चरित्र को नहीं समझते और न ही वे यह समझते हैं कि सरकारें बदलने से सत्ताएँ नहीं बदला करतीं। इस पर एक गाना सटीक बैठता है, ‘आइना वही रहता है, चेहरे बदल जाते हैं।’ इसलिए यह बात मानने में कोई बुराई नहीं कि चुनाव महज ढकोसला बन गया है। आज के राजनीतिक हालात में लोक सभा और विधान सभा के चुनावों से कोई मूलभूत बदलाव नहीं होना है। ऐसा क्यों ?
भाजपा, कांग्रेस सहित सभी चुनावी पार्टियाँ पूँजीपति वर्ग की ही सेवक हैं। सत्ता की कुर्सी पर अलग–अलग पार्टियाँ बारी–बारी से भले ही बैठ जायें लेकिन सभी पूँजीपति वर्ग के लिए ही काम करती हैं। पिछले 30 सालों से वे लगातार अमरीका की चैधराहट में तैयार की गयी नयी आर्थिक नीतियों को लागू करके देशी–विदेशी पूँजीपतियों की लूट को आसान बना रही हैं जिसका नतीजा बेरोजगारी, महँगाई, अपराध, आत्महत्या, महिला असुरक्षा और भुखमरी के रूप में देश की जनता भुगत रही है। सभी सरकारों ने जनता के कल्याण के काम से हाथ पीछे खींच लिया है।
भारत के शासक वर्ग की प्रमुख पार्टियाँ खास तौर पर भाजपा इस बात को खुलकर स्वीकार करती है कि गवर्मेन्ट का काम सिर्फ गवर्नेंस है, शासन करना बाजार व्यवस्था यानी पूँजीपति घरानों या कॉर्पाेरेट का काम है। इसके तहत सरकार दो तरह की जिम्मेदारी निभा रही है, पहला, पूँजी के फैसिलिटेटर की भूमिका में अधिकाधिक अनुकूल परिस्थितियाँ तैयार करना, जैसे–– पुराने श्रम कानूनों में बदलाव करके उसे कमजोर करना, कृषि कानूनों के जरिये खेती–किसानी को कॉर्पोरेट के हवाले करना, पर्यावरण सम्बन्धी बाधाओं को हटाकर जंगलों की कटाई की छूट देना और खनन के अन्धाधुन्ध पट्टे देना, टैक्स में भारी छूट, आसान शर्तों पर कर्ज, इत्यादि, और दूसरा, अब तक जिन सामाजिक सेवाओं को सरकार की जिम्मेदारी माना जाता था, जैसे–– स्वास्थ्य, शिक्षा, परिवहन, सिंचाई, बिजली, जलापूर्ति, इत्यादि, उनसे पिण्ड छुड़ाकर उनका निजीकरण करना और उन्हें पूँजीपतियों के मुनाफे का जरिया बनाना।
मजबूत नेतृत्व और अपार बहुमत की सरकार फैसिलिटेटर की भूमिका में है और जहाँ से भी मुनाफा मिल सकता है, वहाँ पूँजी की पैठ बढ़ा रही है। रेलवे के एकमुश्त खरीदार नहीं, तो टुकड़े–टुकड़े में, अलग–अलग स्टेशन, अलग–अलग ट्रेनें बेच रहे हैं। सरकार ने जनता की गाढ़ी कमाई से अवरचनागत ढाँचा खड़ा किया और उनको निजी पूँजीपतियों को सौंप दिया, जैसे–– दूरसंचार, सेटेलाइट, एरोड्रम, टोल प्लाजा, स्कूल, कॉलेज, अस्पताल, शोध संस्थान, तेल के कुएँ, नदी, जंगल, खदान, जमीन, सार्वजनिक उपक्रम, सरकारी बैंक–बीमा सब कौड़ियों के मोल देशी–विदेशी पूँजी के हवाले किया जा रहा है। आन्तरिक सुरक्षा तंत्र का बहुत बड़ा हिस्सा निजी सेक्युरिटी कम्पनियों के हाथ में है। अब तो अमरीका की तरह सिर्फ जेलों का निजीकरण ही बाकी है।
चुनाव में पार्टियों को मिलनेवाले कॉरपोरेट चन्दे से लेकर खरीद–फरोख्त के जरिये सरकार बनाने तक, आज पूँजी का जितना खुला हस्तक्षेप देखने को मिल रहा है, अब से तीस साल पहले किसी ने सोचा भी नहीं होगा। भारत सरकार ने चुनाव में पार्टियों को मिलनेवाले कॉर्पोरेट चन्दे को कानूनी जामा पहना दिया, साथ ही अब चन्दे का स्रोत बताना भी पार्टियों के लिए अनिवार्य नहीं रह गया है। चन्दा देना आसान बनाने के लिए इलेक्टोरल बॉण्ड भी जारी किया गया जिसके तहत चन्दा देनेवालों की जानकारी गुप्त रखी जाती है। एडीआर की एक रिपोर्ट के मुताबिक वित्तीय वर्ष 2016–17 और 2017–18 में 6 राष्ट्रीय पार्टियों को कुल 1059–25 करोड़ का चन्दा मिला जिसमें से 93 प्रतिशत सिर्फ कॉरपोरेट या बिजनेस घरानों से मिला। इसमें सबसे अधिक भाजपा को 915–59 करोड़ मिला, जबकि कांग्रेस पार्टी को मात्र 55–36 करोड़ मिला। भाजपा को मिले चन्दे में से 98 प्रतिशत बेनामी है। इलेक्टोरल बॉण्ड के कुल चन्दे का 75 प्रतिशत अकेले भाजपा को मिला और उसकी आमदनी में 81 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई।
कॉरपोरेट या बिजनेस घरानों से मिलनेवाला यह भारी–भरकम चन्दा ही मजबूत नेतृव गढ़ने और भारत को मोदीमय बनाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है, इसी विपुल धन वर्षा के दम पर ही राम माधव के शब्दों में ‘भाजपा अब तक इतना निपुण हो चुकी है’ कि ‘वह बिना चुनाव लड़े ही सरकार बना सकती है।’ इसी के साथ–साथ संसद और विधान सभाओं में करोड़पतियों की प्रत्यक्ष भागीदारी भी पिछले सभी रिकार्ड तोड़ चुकी है। एडीआर की रिपोर्ट के मुताबिक नयी लोकसभा के 542 सांसदों में से 475 सदस्य करोड़पति हैं, यानी देश के कुल 2–64 लाख करोड़पति जो कुल आबादी के 0–02 प्रतिशत हैं उनका संसद में 88 प्रतिशत सीटों पर कब्जा है। और वे ही देश की शेष 99–98 प्रतिशत आबादी के भाग्यविधाता हैं। सवाल यहीं तक सीमित नहीं रह गया है कि जिसका खायेंगे, उसका गायेंगे। अब तो नेताओं को खिला–पिलाकर गवाने वाले मुट्ठीभर धनाढ्य लोग खुद ही उनकी गायन मंडली में शामिल हैं। ऐसे में नव उदारवादी नीतियों का विरोध भला कौन करेगा।
राजनीति में धनबल और बाहुबल की चरम घुसपैठ ने लोकतंत्र और चुनाव को एक तमाशा ही बना दिया है। पैसे के दम पर शोर–शराबा, रोड शो, भीड़ जुटाकर रैली–सभा, वोट बटोरने के लिए हर तरह का तिकड़म किया जाना आम बात है। संविधान में दर्ज धर्मनिरपेक्षता को ताक पर रख कर जाति–धर्म–क्षेत्र–भाषा के बँटवारे का खुलेआम इस्तेमाल किया जाता है। जनभागीदारी सिर्फ किसी एक निशान का बटन दबाने तक सीमित है। संसदीय लोकतंत्र को बरकरार रखना और येन–केन–प्रकारेण बहुमत की सरकार बनाना नव उदारवाद के लिए फायदेमन्द है, क्योंकि इससे जनता के बीच सरकार की पूँजीपरस्त नीतियों को स्वीकार्य बनाने में सहायता मिलती है। लोकप्रिय नेता और मजबूत सरकार ही जनता को भरमाने और गरल को अमृत कहकर पिलाने का काम बखूबी कर सकती है। प्रत्यक्ष तानाशाही के अधीन पूँजी की निर्मम लूट को जनता अधिक दिन तक शायद ही बर्दाश्त कर पाये। जनता का खून चूसने वाली नीतियों को देशहित, जनहित और विकास के नाम पर उनके ऊपर थोपने में शासक वर्ग की जो पार्टी सबसे शातिर, प्रपंची और तिकड़मबाज होती है, उसे ही पूँजीपति का वरदहस्त प्राप्त होता है। अब तो हद ही हो गयी है, जनता का सबकुछ छीनकर बदले में 5 किलो राशन की भीख देने का प्रपंच रचा जा रहा है ताकि भूख से मरती जनता मुँह में अन्न के दो दाने जाते ही मोदी की जयकार करे।
राजसत्ता जनता के बीच पूँजीपरस्त नीतियों को किस तरह छल–प्रपंच करके स्वीकार्य बनाती है उसका एक उदहारण नोटबन्दी है। इसे लागू करते हुए मोदी ने कहा था कि इससे आतंकवाद और काला धन दूर होगा, जबकि विश्व बैंक की इस योजना का असली मकसद बड़ी पूँजी के हित में कैशलेस लेनदेन, ई–कॉमर्स, इन्टरनेट बैंकिंग और पेटीएम को बढ़ावा देना था। काला धन और आतंकवाद का तो कुछ नहीं बिगड़ा, लेकिन इसने छोटे व मध्यम उद्योगों और कारोबारियों की कमर तोड़ दी। लाखों की संख्या में उद्योग–धन्धे चैपट हुए और उनमें काम करनेवाले असंख्य मजदूरों को नौकरी से हाथ धोना पड़ा। विपक्ष में रहते भाजपा ने जिस जीएसटी को टैक्स टेररिज्म कहा था उसे “एक राष्ट्र, एक टैक्स” के नाम पर लागू किया, जिसकी असलियत सबको पता है। प्रधानमंत्री के नाम पर बीमा योजना और पेंशन योजना चलाया जाना और बीमा कम्पनियों के कारोबार को बढ़ाना भी इस बात की मिसाल है कि राजसत्ता किस तरह पूँजीपरस्त नीतियों को जनता के गले उतारती है और उसे सर्व स्वीकार्य बनाती है।
ऐसी हालत में जब सरकार जनता के खिलाफ काम करने लगे। जनता की तकलीफें बढ़ती जायें तो जन–विरोधी सरकार की मुखालफत ही वाजिब कदम है। लेकिन विरोध कैसे करें, जब लोकतंत्र ही खतरे में हो। आवाज उठाने पर बन्दिश लगा दी जाये। बात–बात पर धारा 144 लगाकर सामूहिक आयोजन को रोक दिया जाये। सत्ता जनता की आवाज दबाने के लिए फासीवादी तौर–तरीके अपनाने लगे।
ऐसी स्थिति में फौलादी इरादे वाले नौजवानों की जरूरत होती है, जो किसी भी मुश्किल हालात से घबराते न हों और उनका डटकर मुकाबला कर सकते हों। ऐसे नौजवान जो सहरा में दरिया निकाल सकते हों, वे ही इतिहास की धारा मोड़ सकते हैं। उन्हीं के कन्धों पर समाज के पुनर्निर्माण की जिम्मेदारी होती है। ऐसे नौजवानों को आगे आना चाहिए और समाज बदलने की जिम्मेदारी को स्वीकार करना चाहिए।
जनता ही सबसे बड़ी ताकत है, अगर वह एकजुट हो जाये। एक तानाशाह जनता की इसी ताकत से सबसे अधिक घबराता है। वह हर चन्द कोशिश करता है कि जनता टुकड़े–टुकड़े में बँटी रहे और शासक वर्ग की लूट बरकरार रहे। इसलिए फौलादी इरादे वाले नौजवान ही जनता की एकता कायम कर सकते हैं और वे जनता के साथ मिलकर पूँजीपतियों की लूट पर लगाम लगा सकते हैं तथा एक बेहतरीन व्यवस्था का निर्माण कर सकते हैं।
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