आज देश में महँगाई, भुखमरी और बेरोजगारी सबसे बड़ी समस्या बन गयी हैं। करोड़ों की संख्या में काम करने वाले हाथ खाली हैं। नोटबंदी और लॉक डाउन की दोहरी मार ने मजदूर वर्ग की कमर तोड़ दी है। ऐसे में बजट का बड़ा हिस्सा देश में नये रोजगार पैदा करने के लिए होना चाहिए था। लेकिन दुर्भाग्य, ऐसा नहीं है। इस बजट से भी हर बार की तरह बड़े पूँजीपति और उद्योगपति खुश हैं। इस बार भी मलाई उनके हाथ लगी है। यहाँ पँूजीपतियों के संगठन फिक्की के अध्यक्ष संजीव मेहता की बजट पर आयी टिप्पणी गौर करने लायक है, “हम वित्तमंत्री को दूरदर्शी, विकासोन्मुखी और विकास के संचालकों को लम्बे समय तक मजबूती देने वाला बजट पेश करने के लिए बधाई देते हैं।” उधर मोदीकाल में रॉकेट की रफ्तार से अमीर बनने वाले अडानी ने भी वित्तमंत्री सीतारमण को धन्यवाद भेजा और बजट की तारीफ में कहा, “जब दुनिया महामारी से उबर रही है, भारत का बजट बहुत साहसिक है, और घरेलू नयी तकनीक को बढ़ावा देने वाला है। यह हमें हर मामले में आत्मनिर्भरता की ओर लेकर जाएगा।”

पूँजीपतियों में निजीकरण को लेकर उत्साह है। जिस तरह सरकार ने एयर इंडिया और नीलांचल इस्पात लिमिटेड को बेचने में कमाल की फुर्ती और दिलदारी दिखायी है उससे पूँजीपतियों का सरकार की निजीकरण नीति पर भरोसा बढ़ा है। पिछले बजट में सरकार ने 1–75 लाख करोड़ की सरकारी सम्पत्तियाँ बेचने का लक्ष्य रखा था। लेकिन वह बमुश्किल लक्ष्य का 6 फीसदी ही बेच पायी। अभी एलआईसी को बेचने की जोरों से तैयारी चल रही है, अगर इस वित्त वर्ष के अन्त तक वह बिक जाये तो सरकार के लक्ष्य में कुछ बढ़ोत्तरी हो सकती है। लेकिन उसकी सारी सम्पत्तियों का मूल्यांकन करने में ही विशेषज्ञों के पसीने छूट रहे हैं। बुरे से बुरे आकलन में भी एल आई सी की बिक्री से सरकार को 50–60 हजार करोड़ मिल जाएँगे। पिछले कुछ सालों से सरकारी सम्पत्तियों की बिक्री कम होने के चलते इस बजट में बिक्री लक्ष्य को पिछले साल से एक तिहाई कर दिया गया है यानी सिर्फ 65 हजार करोड़।

जिस बजट से पूँजीपतियों के खेमे में खुशी की लहर दौड़ रही हो, वही बजट किसान–मजदूर के लिए सही नहीं हो सकता। इस साल भी किसान–मजदूर की कमाई का बड़ा हिस्सा बड़े पूँजीपतियों को मिलने वाला है। एक तरफ कुछ और नये करोड़पति पैदा होंगे दूसरी तरफ गरीबी रेखा से नीचे जीने वालों की संख्या भी बढ़ेगी। अमीर–गरीब की खाई और बढ़ेगी।

पर्यावरण सम्बन्धी शिक्षा और जागरुक अभियानों के लिए भी बजट में कटौती की गयी है। खैर, जब 600 किलोमीटर लम्बे गंगा एक्सप्रेस वे के लिए दो लाख पेड़ काटने की अनुमति दी गयी हो तो पर्यावरण शिक्षा का कोई मतलब नहीं रह गया है।

कोरोना काल में स्वास्थ्य विभाग इंफ्रास्ट्रक्चर और स्वास्थ्य कर्मियों की कमी से जूझता रहा। इस कमी की कीमत पूरे देश की जनता ने अपनों को खोकर चुकायी। अभी भी महामारी चल रही है फिर भी सरकार ने स्वास्थ्य विभाग पर खर्च में कोई बढ़ोत्तरी नहीं की है। यह देश के लोगों को महामारी में बेसहारा छोड़ने का वैसा ही रवैया है जैसा सरकार पिछले दो साल से महामारी के दौरान अपनाती रही है।

साल 2016 से 2019 में “बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ” के लिए निर्धारित बजट का 80 फीसद हिस्सा केंद्र सरकार ने मीडिया पर खर्च किया। मतलब काम हो न हो, ढोल बजता रहे।

इस बार भी बजट में नई नौकरी के लिए कोई प्रावधान नहीं है। पाँच ट्रिलियन की अर्थव्यवस्था अभी भी एक सपना है। हर साल दो करोड़ नौकरी और पाँच ट्रिलियन की अर्थव्यवस्था का ढोल पीटने वाले आज धार्मिक मुद्दों पर एड़ियाँ रगड़ रहे हैं।

“बजट” हर किसी के लिए जैसे–उम्मीद की एक किरण होता है। पर यह किरण कभी धरती को नहीं छू पाती। चाय के खोखे पर लोग झुण्ड बनाकर बजट सुनते हैं और चर्चा करते हैं। गाँव के चैराहे पर लोग इकट्ठे होकर बजट सुनते हैं। मजदूर उसमें अपने लिए कुछ खोज लेना चाहते हैं, किसान अपने लिए कोई राहत की खबर सुनना चाहते हैं। नौकरीपेशा में लगे लोग टैक्स और महँगाई के कम होने की उम्मीद करते हैं।

गरीब और अमीर के बीच खाई हर दिन बढ़ रही है। हर दिन नये अमीर पैदा हो रहे हैं तो गरीबों की तादाद भी उसी अनुपात में बढ़ रही है। उदाहरण के लिए ऑक्सफैम की रिपोर्ट के अनुसार पिछले बीस सालों में सौ से ज्यादा नये अरबपति पैदा हुए। दूसरी तरफ सिर्फ इलाज के खर्च से 6–30 करोड़ लोग गरीबी रेखा से नीचे चले गये। इस विरोधभास का हल किसी बजट घोषणा में नहीं होता। हर साल बजट घोषित होता है, लेकिन कुछेक को इतिहास में उनकी चारित्रिक विशेषताओं के चलते अलग–अलग नाम भी दिये गये हैं। जब पूँजीपतियों पर टैक्स घटाए गये तो उसे ड्रीम बजट कहा गया। तालिका में देखा जासकता है। इस साल के बजट को यूनियन बजट कहा गया है।

1973 का ‘काला बजट’ 550 करोड़ घाटे का बजट था। 1991 का ‘उदारीकरण बजट’ विदेशी पूँजी का स्वागत किया गया था। 1997 का ‘ड्रीम बजट’ कॉर्पाेरेट टैक्सों को घटाकर कम किया गया था।

2000 का मिलेनियम बजट आईटी सेक्टर को बढ़ावा देने के लिए था। 2002        का रोल बैक बजट विपक्ष के दवाब में कई प्रावधान वापिस लिये जाने का बजट था। 2022 का यूनियन बजट रही सही सम्पत्ति पूँजीपतियों को देने की योजनाओं से भरपूर है।

लब्बोलुआब यह कि 2022 का युनियन बजट भी हर बार की तरह पूँजीपतियों की झोली भरने के लिए लाया गया है। बहुतायत आबादी के हिस्से में आ रही है–– बेरोजगारी, भुखमरी, इलाज के लिए लम्बी लाइन, महँगी रसोई गैस, महँगा पेट्रोल, महँगी शिक्षा, महँगा इलाज। जिन्दगी के लिए जरूरी चीजें जनता की पहुँच से दूर होंगी। सरकारी सम्पतियाँ बिकेंगी, क्रिप्टो करेंसी रफ्तार पकड़ेगी, डिजिटलीकरण अर्थव्यवस्था को राहु–केतु की तरह निगल लेगा। एक तरफ मेहनतकशों को मूलभूत चीजों के लिए संघर्ष में अपनी सारी ताकत खर्च करनी होगी दूसरी तरफ अम्बानी–अडानी विकास के नये कीर्तिमान स्थापित करेंगे।