भारतीय शहरों में लम्बे समय से ‘बाहरी लोग’ विरोधाभास के साथ रहते आये हैं, जिनमें ज्यादातर अर्द्धकुशल और अकुशल गरीब प्रवासी मजदूर हैं, जो विभिन्न तरह की सेवाएँ प्रदान करते हैं। स्थानीय राजनेता उन्हें बढ़ती बेरोजगारी और अपराध के बढ़ते ग्राफ के लिए दोषी ठहरा सकते हैं, स्थानीय लोग नागरिक सुविधाओं को तबाह करने का कारण बनने के लिए उनके खिलाफ नाराजगी जता सकते हैं, अंधराष्ट्रवादी उनके खिलाफ सांस्कृतिक रूप से सबमें सम्मिलित नहीं होने के लिए गुस्सा कर सकते हैं, और व्यापार और उद्योग वर्ग उनको सस्ते श्रम और सेवाओं के लिए उपयोग कर सकते हैं। शहरों में मध्यम वर्ग के लिए, वे घरेलू सेवाएँ भी प्रदान करते हैं।

हाल के हफ्तों में, गुजरात में, विशेष रूप से उत्तर प्रदेश, बिहार और मध्य प्रदेश के रहने वाले मजदूरों ने भीड़ द्वारा हिंसा को झेला। जिससे भयभीत होकर उन्हें राज्य से भागना पड़ा। इसके बाद उन्हें आश्वासन दिया गया कि वे सुरक्षित रहेंगे और उनसे रहने या वापस आने का अनुरोध किया गया। संक्षेप में यह मामला पिछले कुछ सालों में इस तरह के मामलों की एक कड़ी है, असल में लगभग सभी प्रमुख शहरों और कस्बों में गरीब प्रवासी मजदूरों के जीवन को निराशा ने दबोच लिया है।

उत्तर भारतीय श्रमिकों के खिलाफ गुजरात में हिंसा तब शुरू हुई थी, जब बिहार के रहने वाले एक मजदूर पर 28 सितंबर 2018 को एक बच्चे के यौन उत्पीड़न का आरोप लगा। सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने कांग्रेस और क्षत्रिय ठाकोर सेना के नेता आल्पेश ठाकुर को दोषी ठहराया था। पीड़ित बच्चा ठाकुर परिवार से सम्बन्धित था। ऐसे में उत्तर भारतीय ‘भाइयों’ पर प्रतिहिंसा और उनकी ‘बहुमूल्य’ नौकरियों को छीनने का दोष मढ़ना सबसे आसान था। मुम्बई, ऐतिहासिक रूप से ऐसा शहर जो सभी वर्गों और अनपढ़ से लेकर पढे़–लिखे प्रवासियों से बहुत लाभान्वित हुआ है, फिर भी यहाँ विशेष रूप से द्वारा प्रवासी श्रमिकों को आये दिन क्षेत्रीय दलों की छेड़छाड़ और हिंसा का सामना करना पड़ता है। यह एक प्रसिद्ध और स्वीकार्य तथ्य है कि आर्थिक राजधानी के रूप में मुम्बई की पहचान प्रवासियों के श्रम और सेवाओं की वजह से है। घरेलू वर्ग, विशेष रूप से मध्यम वर्ग इन पर निर्भर है। फिर भी, राजनेताओं और स्थानीय दलों को शहर की पारम्परिक सांस्कृतिक और भाषाई गरिमा को तबाह करने के लिए ‘बाहरी लोगों’ को दोष देने से कोई नहीं रोकता है।

गुजरात में, उत्तर भारतीय प्रवासी श्रमिकों के घबराहट से पलायन को रोकने का कोई संकेत नहीं दिखा, उद्योग के नेताओं ने श्रमिकों से रुके रहने के लिए अपील की। सभी औद्योगिक केन्द्र तीन दिन तक पूर्ण बन्द या व्यवधान के गवाह रहे, यहाँ पुलिस तैनात की गयी और अन्य सुरक्षा उपाय भी साथ में किये गये थे। गुजरात चैम्बर ऑफ कॉमर्स एंड इन्डस्ट्री ने राज्य के मुख्यमंत्री से हस्तक्षेप करने को कहा। इस तथ्य के अलावा कि गुजरात अपने प्रमुख विनिर्माण और उद्यमशीलता की स्थिति के लिए प्रवासी श्रम पर लम्बे समय से निर्भर है, इससे संकेत मिलता है कि यह उपचारात्मक उपाय जो किया गया वह आने वाले वाइब्रेंट गुजरात ग्लोबल शिखर सम्मेलन के लिए था। जनवरी 2019 और चल रहे त्यौहार के मौसम के लिए इस मेगा आयोजन के साथ, गुजरात सरकार राज्य में कपड़ा, हीरा, फार्मास्यूटिकल, पैकेजिंग और अन्य उद्योगों और सेवाओं के व्यवधानों का सामना करने की अनुमति शायद ही दे सकती है। शायद गुजरात की स्थिति ऐसे ही संकट का सामना करने वाले अन्य राज्यों से अलग है जहाँ उद्योग के नेता श्रमिकों के लिए एक प्रकार का पितृसत्तात्मक संरक्षण भी देते हैं।

आर्थिक रूप से थोड़े बेहतर अन्य राज्य और शहरों की तरह गुजरात का यह संकट भी धूमिल पड़ जायेगा। प्रवासी मजदूरों के रहने और काम करने की परिस्थितियों में किसी भी मायने में बदलाव नहीं आने वाला। भारत में गरीब प्रवासी मजदूर अपने स्थानीय सहकर्मियों के मुकाबले काम की और रहने की ज्यादा खतरनाक परिस्थितियों का सामना करते हैं। चाहे वह कल्याणकारी योजनाओं से लाभ का मामला हो या तनख्वाह और काम की शर्तों के लिए मालिक से सौदा करने की उनकी ताकत का मामला हो, वे बहुत ही ज्यादा कमजोर स्थिति में होते हैं। उनको स्थानीय लोगों द्वारा सिर्फ बाहरी तत्वों के रूप में ही नहीं देखा जाता, बल्कि स्थापित ट्रेड यूनियन भी तमाम कारणों से उनकी अनदेखी कर देती हैं। जैसा कि एक श्रमिक कार्यकर्ता ने बताया कि जहाँ तक सरकार और सुविधाओं की बात है तो ये मजदूर ज्यादातर सभाओं में अनुपस्थित रहते हैं, इनका कोई संगठन नहीं है। प्रवासी मजदूर सुरक्षा और संरक्षण की वजह से उन्हीं कल्याणकारी संगठनों से जुड़ना चाहते हैं, जो क्षेत्रीय पहचान पर आधारित होते हैं।

काबिले गौर है कि केरल की वाम डेमोक्रेटिक फ्रंट सरकार ने राज्य में प्रवासी श्रमिकों की बेहतरी के लिए तमाम तरीकों से रास्ता दिखाया है। उदाहरण के लिए विनिर्माण उद्योग, जिसमें प्रवासी श्रमिकों की अच्छी–खासी तादात है, उसका राज्य सरकार के साथ 1000 करोड़ रुपये का कल्याण बोर्ड है, सरकार ने प्रवासी श्रमिकों के रहन–सहन का सर्वेक्षण करने की और साथ ही स्वास्थ्य बीमा और कानूनी सहायता देने की भी घोषणा की है।

देश में राजनीतिक वर्ग और भद्रजनों को प्रवासी श्रमिकों के प्रति अपने सनकी और उपयोगितावादी नजरिये को छोड़ने की जरूरत है। सत्ताधारी वर्ग के लिए जब श्रमिकों को भगाना फायदेमन्द होता है तो इन मजदूरों को अपना बचाव अपने आप करने के लिए छोड़ दिया जाता है। उद्योग और सेवाएँ भले ही उनके श्रम से चल रही हों, इनको भीड़ की हिंसा और नाराजगी का सामना करना ही पड़ता है।

हमें यह समझना चाहिए कि सभी नागरिकों को देश में कहीं भी आने–जाने रुकने का मूल अधिकार है। सभी नागरिकों के संवैधानिक अधिकार और कर्तव्यों को समान रूप से संरक्षित किया जाना चाहिए। प्रवासी श्रमिकों को सिर्फ श्रमिक और सेवा करने वाले के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए। मजदूर चाहे मौसमी (साल में कुछ महीने शहर में आकार काम करने वाले) हों, अस्थायी हों या फिर लम्बे समय तक रुक कर काम करने वाले हों, सभी शोषण और असुरक्षा का सामना करते हैं। इन पहलुओं को ध्यान में रखकर, देश में कहीं भी आने–जाने की आजादी को लेकर सार्वजनिक और नीतिगत हस्तक्षेप की जरूरत है।

(‘इकोनॉमिक एण्ड पोलिटिकल विकली’ पत्रिका से साभार)

अनुवाद : राजेश कुमार