पिछले साल दिसम्बर में गृहमंत्री अमित शाह ने राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर (एनआरसी) को पूरे देश में लागू करने की घोषणा की। इसके साथ ही उन्होंने इस प्रक्रिया को बेहतर बनाने के लिए नागरिकता संशोधन विधेयक (सीएबी) भी संसद के दोनों सदन में पारित करवाया, जो अब नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) बन गया है। सरकार का कहना है कि यह कानून किसी को भी नागरिकता से वंचित करने के लिए नहीं, बल्कि पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश से धार्मिक उत्पीड़न के चलते आये हुए धार्मिक अल्पसंख्यकों को भारतीय नागरिकता देने का औजार है। उन धार्मिक समूह के नाम गिनवाते हुए गृहमंत्री ने संसद में कई बार मुस्लिम और यहूदी समुदाय का नाम न लेकर स्पष्ट कर दिया है कि यह कानून इन तीन देशों से आये हुए मुस्लिमों को नागरिकता नहीं देगा।

सीएए बनने के तुरन्त बाद देश के सभी छोटे–बड़े शहरों और कस्बों में इसके खिलाफ आन्दोलन शुरू हो गये। पहले तो प्रधनमंत्री ने आन्दोलनकारियों को कपड़ों से पहचानने की बात करके एक विवाद को जन्म दे दिया। लेकिन बाद में सरकार आन्दोलन के ताप–तेवर से घबरा गयी। आन्दोलन पर ठण्डा पानी डालने के लिए प्रधानमंत्री को कहना पड़ा कि एनआरसी लागू करने की बात हुई ही नहीं और राष्ट्रीय जन पंजीकरण (एनपीआर) की कार्रवाई अब तक शुरू नहीं की गयी है। इससे उलट गृहमंत्री कई बार सीएए और एनआरसी को जोड़कर देखने की बात कर चुके हैं और उन्होंने अपने भाषणों में कहा भी था कि हमें क्रोनोलॉजी को समझना चाहिए कि पहले सरकार सीएए लाएगी और उसके बाद एनआरसी करेगी। यहाँ गृहमंत्री और प्रधनमंत्री की बातें एक–दूसरे की विरोधाभासी नजर आ रही हैं। लोगों को लगा कि इनमें से कोई एक जरूर सच को छिपा रहा है। इसके साथ ही पिछले एक महीने से महिलाओं के नेतृत्व में देशव्यापी आन्दोलन जोर पकड़ता जा रहा है। दिल्ली स्थित ‘शाहीन बाग का धरना’ इसका प्रतीक बन गया है।

आन्दोलन से घिर चुकी और चारों तरफ आलोचनाओं से घबराकर सत्ता पक्ष के नेताओं ने कहना शुरू किया कि आन्दोलनकारियों को सीएए और एनआरसी के बारे में पता नहीं है और कुछ लोगों ने उन्हें गुमराह कर दिया है। लेकिन इस आन्दोलन को देश के नामी वकील और हाई कोर्ट के रिटायर्ड जज का भी समर्थन प्राप्त था, जिन्होंने सीएए और एनआरसी का सच लोगों के सामने खोलकर रख दिया। यहाँ हम इनके कानूनी और आर्थिक पहलू के बारे में भी चर्चा करेंगे।

एनआरसी का इतिहास

1947 के खूनी बँटवारे के समय असम से सटा हुआ बंगाल (जो पहले पूर्वी पाकिस्तान बना, अब बांग्लादेश है) से लोग जान बचाने के लिए या उससे बहुत पहले रोजगार के लिए असम में आकर बस गये थे। इसे ही ध्यान में रखते हुए 1951 में एनआरसी की प्रक्रिया सबसे पहले असम में चलायी गयी थी। इस पंजीकरण का मकसद पलायन से आये लोगों को चिन्हित करना था। उस दौरान जो एनआरसी की गयी उसकी प्रक्रिया में भारी गड़बड़ी थी, जिसके चलते रजिस्ट्रार जनरल ऑफ सेन्सस के आदेश से एनआरसी और जनगणना सूची को मिलाने की प्रक्रिया को भी बन्द कर दिया गया। 1970 में गुवाहाटी उच्च न्यायालय ने एक मामले में एविडेंस एक्ट–1872 के तहत एनआरसी को किसी भी प्रकार का सबूत मानने से इनकार कर दिया था। इस तरह हम देखते हैं कि एनआरसी शुरू से ही विवादों में घिरी रही और लगातार इसकी वैधता पर सवाल उठाये जाते रहे हैं।

मौजूदा कानून क्या कहता है?

2019 लोकसभा चुनाव में भाजपा के वादों में से मुख्य था–– देश भर में नागरिकता पंजीकरण को लागू करना। यानी “घुसपैठियों” को चिन्हित करना और उन्हें राज्यहीन व्यक्ति घोषित करके देश से बाहर कर देना या डिटेंशन सेण्टर में डाल देना। इस कड़ी का पहला कदम संसद में नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) को पारित करके उठाया गया। इसके बारे में गृहमंत्री ने बताया कि पाकिस्तान, आफगानिस्तान और बांग्लादेश के धार्मिक अल्पसंख्यक यानी हिन्दू, सिक्ख, जैन, बौद्ध, पारसी और ईसाई समुदाय के लोग अगर अपने देश में धार्मिक उत्पीड़न के शिकार होकर भारत की नागरिकता लेना चाहेंगे तो कुछ शर्तों के आधार पर इन्हें नागरिकता दी जाएगी। स्पष्ट था कि इसमें मुसलमान शामिल नहीं हैं। तब से यह सवाल उठाया जाने लगा कि क्या यह कानून हमारे संविधान की मूल आत्मा पर चोट नहीं है? क्या यह संविधान के धर्म–निरपेक्ष स्वरूप पर हमला नहीं है? क्या श्रीलंका में तमिल समुदाय, म्यांमार में रोहिंग्या समुदाय, तिब्बत (चीन) से आये बौद्ध समुदाय और नेपाल से आर्थिक तबाही के चलते भारत आये हुए लोग पीड़ित नहीं हैं? बांग्लादेश, पाकिस्तान और अफगानिस्तान में इस्लामी कट्टरपन्थ के खिलाफ लड़नेवाले मुस्लिमों को भारत आने पर नागरिकता क्यों नहीं दी जानी चाहिए? क्या अफगानिस्तान के हाजरा और पाकिस्तान के अहमदिया समुदाय उत्पीड़ित नहीं हैं? देश भर में ऐसे कई सवाल मौजूदा कानून को लेकर उठाये जाने लगे।

नये सीएए कानून के अनुसार 31 दिसम्बर, 2014 से पहले पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान से आये अल्पसंख्यकों को नागारिकता दी जायेगी। लेकिन सरकार ने इस खास तारीख के ऐतिहासिक महत्त्व को स्पष्ट नहीं किया। सवाल उठता है कि क्या 2014 से पहले भारत कुछ और था?

हमारे संविधान के अनुच्छेद 5 से 11 तक नागरिकता पर चर्चा की गयी है और किन शर्तों पर किसी व्यक्ति को नागरिकता दी जाएगी, उसका प्रावधान भी स्पष्ट शब्दों में बताया गया है। इनमें से कहीं भी धर्म को नागरिकता का आधार नहीं बताया गया, बल्कि नागरिकता देने की शर्त के आधार पर किसी भी धर्म के अनुयायी व्यक्ति को नागरिकता देने का प्रावधान है। किसी देशवासी को उसकी नागरिकता प्रमाणित करने के लिए कहना संविधान के अनुच्छेद 5 का उलंघन है। अनुच्छेद 5 में यह माना गया है कि जो भी बच्चा इस देश की मिट्टी में पैदा होगा, वह स्वाभाविक रूप से नागरिक होगा। इसे ही कानूनी परिभाषा में जोस सूली कहा जाता है।

अनुच्छेद 14 में कहा गया है कि राज्य भारतीय क्षेत्र के अन्दर कानून के सामने किसी व्यक्ति की बराबरी और कानून की समान रक्षा की जिम्मेदारी को खारिज नहीं कर सकता। ऐसे में नागरिकता के पूरे खेल में जिन्हें अपनी नागरिकता साबित करना नामुमकिन होगा, अनुच्छेद 14 के तहत उनके भी सारे अधिकार होंगे और उन्हें किसी फरमान के तहत, गैर–मतदाता घोषित करना, जेल में डालना या किसी और देश में भेजना अनुच्छेद 14 के ही खिलाफ है। लेकिन देश के अलग–अलग हिस्सों में या तो डिटेंशन सेण्टर बने हैं या बनाये जा रहे हैं।

नागरिकता कानून की धारा 6क के तहत, पाकिस्तान से आये किसी व्यक्ति को उसके या उसके माता–पिता में से कोई एक, या उसके दादा–दादी/नाना–नानियों में से कोई एक अगर भारत (गवर्नमेण्ट ऑफ इण्डिया एक्ट, 1935 में परिभाषित) में पैदा हुआ है तो उन्हें भारत की नागरिकता दी जा सकती है। गौर करने वाली बात यह है कि इसमें धर्म का कोई जिक्र नहीं है। लेकिन नये सीएए में धर्म के आधार पर नागरिकता का प्रावधान है, जो इस अनुच्छेद के खिलाफ है। इसकी संवैधानिक वैधता को हाल ही में चुनौती दी गयी है और अभी सर्वाेच्च न्यायालय का संवैधानिक बेंच उस पर काम कर रहा है।

न्याय व्यवस्था की एक बुनियादी प्रक्रिया है कि किसी व्यक्ति या समूह को दोषी साबित करने की जिम्मेदारी आरोप लगाने वाली संस्था (व्यक्ति या समूह) की है। आरोपित व्यक्ति या समूह की जिम्मेदारी नहीं है कि वह खुद को निर्दाेष साबित करे। जैसा कि असम में हुआ है, नागरिकता के इस खेल में तस्वीर उलटी है। खुद को नागरिक साबित करने के लिए सवा तीन करोड़ असम निवासियों को कई साल दफ्तरों के चक्कर काटने पड़े। प्रस्तावित देशव्यापी एनआरसी लागू होने के बाद, जिसे गृहमंत्री अपने भाषणों में बार–बार दुहरा चुके हैं, सवा सौ करोड़ निवासियों को भी यही कहा जाएगा कि वे साबित करंे कि उन्हें देश की नागरिकता से बाहर क्यों न कर दिया जाये।

इन्हीं कानूनी समस्याओं के चलते मौजूदा सीएए पर देश के बड़े हिस्से का विश्वास नहीं रहा। सीएए के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में 144 याचिकाएँ दायर की गयी हैं, जिनमें इस कानून पर रोक लगाने की बात की गयी है। हालाँकि सुप्रीम कोर्ट ने रोक लगाने से इनकार कर दिया, लेकिन कोर्ट ने सरकार को सभी याचिकाओं का जवाब देने के लिए चार हफ्ते का समय दिया है। यह मामला अभी कोर्ट में चल रहा है।

पूरी प्रक्रिया बेहद महँगी है

असम में पूरी प्रक्रिया को सम्पन्न करने के लिए 52 हजार कर्मचारी लगे, 1600 करोड़ रुपये का सरकारी खर्च आया। इसके अलावा लोगों ने अपनी नागरिकता साबित करने की प्रक्रिया में यात्रा खर्च, कागजात बनवाना, रिश्वत देना, मजदूरी छोड़ना आदि में 7800 करोड़ रुपये खर्च किये हैं। यानी कुल खर्च हुआ–– 9400 करोड़ रुपया या प्रति व्यक्ति 2850 रुपया। इसके अनुसार पूरे देश में एनआरसी लागू की जाये तो 3,84,750 करोड़ रुपये खर्च हांेगे। इसके साथ ही जो लोग अपनी नागरिकता प्रमाणित कर नहीं पाएँगे, उन करोड़ों लोगों के लिए जो डिटेंशन सेण्टर बनाने होंगे, उसका खर्च भी शामिल कर लें, तो यह सब सरकारी खजाने पर भारी बोझ होगा। वित्त वर्ष 2020–21 के बजट के अनुसार सरकार साल भर में शिक्षा पर 99,312 करोड़ रुपये और स्वास्थ्य पर 67,484 करोड़ रुपये खर्च करेगी। इसमें विज्ञान विभाग और ग्रामीण विकास भी जोड़ लें तो सब मिलाकर भी यह एनआरसी के खर्च से लगभग 43,000 करोड़ कम है। इसी बजट में सरकार ने खाद, खाद्यान्न और पेट्रोलियम पर कम सब्सिडी दी है। एनआरसी पर होने वाले कुल अनुमानित खर्च से देश भर में 692 विश्वविद्यालय खोले जा सकते हैं।

सरकार नौजवानों को रोजगार देने और नयी भर्तियाँ निकालने के नाम पर आर्थिक तंगी का रोना रोती है। सरकार के पास कुपोषण और भुखमरी की शिकार अपनी बहुसंख्यक आबादी को पौष्टिक और भरपेट खाना मुहैया कराने के लिए पैसे नहीं हैं। इसके बावजूद सरकार इस देश की जनता को साम्प्रदायिक आधार पर विभाजित करके अपना वोट–बैंक बढ़ाने की रणनीति के तहत सीएए और एनआरसी लगाने पर अड़ी है और अहंकारपूर्वक कह रही है कि वह एक कदम पीछे नहीं हटेगी। सवाल यह भी है कि सरकार इतनी महँगी प्रक्रिया को पूरा करने के लिए धन कहाँ से लाएगी? क्या वह गरीबों की थाली से रोटी का बचा–खुचा टुकड़ा भी छीन लेगी? देशव्यापी विरोध और जनान्दोलन को नजरअन्दाज करके सरकार सीएए और एनआरसी को लेकर इतनी महँगी कवायद क्यों कर रही है?

सरकार कई बार दुहरा चुकी है कि वह देश की अर्थव्यवस्था को 5 ट्रिलियन डॉलर तक पहुँचाना चाहती है। यह एक शिगूफा है। सच्चाई यह है कि भारत की अर्थव्यवस्था भयानक मन्दी की शिकार है। विनिर्माण, वित्त और सेवा क्षेत्रों में गिरावट जारी है। नयी नौकरी निकालने के बजाय, सरकारी दफ्तरों को बन्द किया जा रहा है। निजी क्षेत्र में भी रोजगार पैदा नहीं हो रहा है। उलटे लोगों की छँटनी हो रही है। जब लोग अपने जिन्दा रहने को लेकर हैरान–परेशान रहेंगे तो जाहिर सी बात है कि रोजगार, स्वास्थ्य, शिक्षा को लेकर सरकार से सवाल पूछेंगे ही। ऐसे में कोई भी सरकार जो अपनी जनता की मूलभूत जरूरतों को पूरा नहीं कर सकती, लोगों को भरमाने के लिए नयी–नयी तरकीबें निकालती है। सीएए और एनआरसी इसी की उपज है। जनता हिन्दू–मुसलमान की बहस में उलझी रहे, साम्प्रदायिक विभाजन और नफरत के बीच चुनाव जीतती रहे और सरकार के कामकाज पर कोई सवाल न उठे, इस मंशा में सरकार कामयाब होती नजर आ रही है। सरकार की असली मंशा का पर्दाफाश करना और उसे जनता के बीच लेकर जाना, आज हर जागरूक नागरिक का कर्तव्य बन गया है।