ये मौसमे गुल गरचे, तरब खेज बहुत है–––– (अर्थव्यवस्था की तबाही, बेरोजगारी और मजदूरों की बर्बादी के समय अमृत महोत्सव का खटराग)
राजनीति अमित इकबालकोरोना महामारी की तीन लहर गुजर जाने के बाद भारत सरकार हमें राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था के पटरी पर आने का शुभ सन्देश दे चुकी हैं। यानी अर्थव्यवस्था की स्थिति अब कमोबेश कोरोना–पूर्व हालत में पहुँच चुकी है, मानो पतझड़ के बाद बसन्त आ गया हो। ‘आजादी का अमृत महोत्सव’ भी शायद इसी वसंत के उन्माद का आनन्द लेने के लिए शुरू किया गया है। जिस पर अरबों रुपये खर्च करके पूरे साल में करीब 20 हजार कार्यक्रम किये जायेंगे। इस महोत्सव की जायज वजहें हैं। जीडीपी नाममात्र ही सही लेकिन बढ़ी है। शेयर भले ही कुलांचे न भर रहा हो पर आगे बढ़ रहा है। सट्टेबाजों ओर अरबपतियों की दौलत में खूब बढ़ोतरी हो रही है। जनता की सम्पत्ति बेरोकटोक नीलाम हो रही है। सबसे अच्छी बात है कि कंगाल जनता हर चोट को लगभग ख़ामोशी से बर्दाश्त करती जा रही है। उत्सवों के उन्माद में डूबने का इससे अच्छा मौका शासकों को और कब मिलेगा।
कोरोना महामारी के चलते जब भारत के करोड़ों मेहनतकश सड़कों पर खदेड़े जा रहे थे। जब जनता दवाई ओर ऑक्सीजन की कमी से मर रही थी, जब शमशानों में जगह नहीं थी ओर नदियों में लाशें तैर रही थीं उसी समय अरबपतियों की दौलत में बेहिसाब बढ़ोतरी हो रही थी। ठीक उसी साल भारत सरकार हथियार खरीद पर सबसे ज्यादा खर्च करने वाले देशों में अमरीका के बाद दूसरे नम्बर पर आ गयी थी। जाहिर है कि देश दो बेहद बेमेल खेमों में बँटा है–– एक में सरकार और उसके चहेते अरबपति, सट्टेबाज, धन्नासेठ हैं तो दूसरे खेमे में सवा अरब मेहनतकश जनता। ऐसा हो ही नहीं सकता कि जीडीपी और शेयर बाजार के सूचकांक जिन्हें चढ़ते देखकर सरकार ओर अरबपति खुश होते हैं वे देश की जनता की हालत बयान कर दें। देश की जनता का हजारों करोड़ चुराकर भाग जाने वाला ललित मोदी आज विश्व सुन्दरी के साथ विदेशों में गुलछर्रे उड़ा रहा है, दूसरी ओर कुछ हजार का कर्ज न चुका पाने के चलते देश के किसानों, मजदूरों को आत्महत्या के लिए मजबूर होना पड़ रहा है–– दोनों का बसन्त एक नहीं हो सकता।
‘ाायर अदम गोंडवी ने कहा है कि तुम्हारी फाइलों में गाँव का मौसम गुलाबी है ये आँकड़े झूठे हैं, ये दावा किताबी है।
आँकड़े भारत की जनता और सरकार के रवैये के बारे में क्या कहते हैं इस पर पत्रकार रुक्मिणी एस ने अपनी किताब ‘होल नम्बर एण्ड हाफ ट्रुथ’ में विस्तार से चर्चा की है। इस किताब में साफ साफ बताया गया है कि जो आँकड़े जनता के हालात को बयान करते हैं, सरकार उन्हें जनता के सामने आने से रोकती है या उन्हें झूठा साबित करती है।
रोजगार, स्वास्थ्य और जीवनस्तर से जुड़े तथ्य ही जनता की जिन्दगी और देश की अर्थव्यवस्था की सही तस्वीर सामने लाते हैं। शेयर बाजार की तेजी और जीडीपी की बढ़ोतरी किसी भी अर्थव्यवस्था की अच्छी सेहत की गारण्टी नहीं होती। 2015 में जब विश्व बैंक तथा दूसरी अन्तरराष्ट्रीय संस्थाओं ने भारत में गरीबी दर घटने की घोषणा की, तब क्रय क्षमता के पैमाने के अनुसार एक डॉलर को 15 रुपये के बराबर माना गया था जबकि बाजार में एक डॉलर 67 रुपये के बराबर था। इस पैमाने पर भारत के केवल 5 प्रतिशत लोग ही गरीब पाये गये। यह आँकड़ों की धोखाधड़ी थी। अगर कम क्षमता को आधार बनाया गया था तो भारत में भी गरीबी का वही स्तर माना जाना चाहिए था जो अमरीका में है। इस आधार पर भारत की 50 प्रतिशत आबादी गरीबी रेखा से नीचे आती थी, जैसी वास्तव में थी। असलियत यह है कि भारतीय नागरिक अपने ऊपर औसतन केवल 2500 रुपये मासिक खर्च करने की हालत में हैं। यह महामारी के पहले की तस्वीर है। अनुमान करना मुश्किल नहीं है कि पिछले दो सालों में भारी संख्या में रोजगार उजड़ने के चलते क्या लोग इतने रुपये भी अपने ऊपर खर्च करने की स्थिति में रहे हैं? यह आँकड़ा सरकारी राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण दफ्तर ने जारी किया है। इसके विपरीत, खुद प्रधानमन्त्री भारत में मोटर साइकिल और गाड़ियों की बिक्री में इजाफा का किस्सा सुनाकर देश की जनता को अमीर साबित करने पर तुले हुए हैं। 2011–12 की तुलना में 2017–18 के दौरान गरीबी बढ़ने की दर में वृद्धि हुई थी, सभी जानते हैं कि सरकार ने बहुत आनाकानी और आँकड़ों का हेरफेर करने के बाद राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण की इस रिपोर्ट को छपने दिया। जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय के अध्यापक हिमांशु के अनुसार इस दौरान गरीबी की दर 30 प्रतिशत का आँकड़ा पार कर चुकी है।
करोड़ों भारतीयों को गरीबी के दलदल में धकेल दिये जाने के चलते ही भारत में अरबपतियों की संख्या में वृद्धि होती है। 2012 में भारत में कुल अरबपति 55 थे, 2019 में बढ़कर 102 और 2022 में 166 हो गये हैं। विश्व बैंक के अध्ययन बताते हैं कि एक प्रतिशत महँगाई बढ़ने के चलते एक करोड़ लोग गरीबी रेखा के नीचे चले जाते हैं और उनकी बरबादी की कीमत पर अरबपतियों की संख्या में भारी इजाफा होता है।
अर्थव्यवस्था की मजबूती के चाहे जितने ढोल पीटे जा रहे हों लेकिन सच्चाई यह है कि भारत की आम जनता की थाली से रोटी गायब होती जा रही है। भारत के सबसे गरीब ग्रामीण लोग हर महीने बस 870 रुपये और सबसे गरीब शहरी लोग केवल 1,325 रुपये कमाते हैं। यह उनकी कुल कमाई है जिसमें आवास, भोजन, इलाज सब खर्चे शामिल हैं। यह तथ्य भी राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण के है। यही तथ्य बताते हैं कि 2011–12 के बाद से भारत के ग्रामीण और शहरी भारत के लोगों के उपभोग खर्च में भारी कमी आयी है। भुखमरी की स्थिति है। इससे पहले 1960 से 1966 के दौरान ऐसा हुआ था, जब भारत चीन से युद्ध हारा था ओर देश में खाद्यान्न संकट आ गया था। पिछले दस सालों में कांग्रेस और भाजपा के राज में विकास दर भले ही 6 प्रतिशत से ज्यादा रही हो, लेकिन इस विकास दर का जनता की बेहतरी से कोई खास वास्ता नहीं है। कमाल की बात यह है कि उपभोग खर्च में कमी की वजह बताने के बजाय सरकार ने इस आँकड़े को नकार दिया है।
खाते–पीते मुट्ठीभर लोग हर रोज प्रचार करते हैं कि भारत के मजदूर काम नहीं करते। नये श्रम कानून भी कहते हैं कि हर मजदूर को अब 8 की जगह 12 घण्टे काम करना जरूरी है। लेकिन इस कानून के लागू होने से पहले ही रिपोर्टें बता चुकी हैं कि भारत के मजदूर दुनिया में सबसे बुरे हालात में सबसे ज्यादा घण्टे तक काम करने वाले मजदूरों में शामिल हैं।
राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण अपने आँकड़ों में रेहड़ी, ठेला लगाने वालों, कूड़ा बीनने वालों, रिक्शा वालों, चैराहों पर नींबू–मिर्ची बेचने वालों को भी रोजगारशुदा की श्रेणी में शामिल करके रोजगार सृजन की गुलाबी तस्वीर पेश करने की कोशिश करता है, लेकिन हकीकत बहुत डरावनी है। यूपीए के जमाने में ही गठित सेनगुप्ता आयोग ने 2007 में अपनी रिपोर्ट में बताया था कि 77 प्रतिशत भारतीय रोजाना 20 रुपये से कम पर गुजारा करते हैं। आज 15 साल बाद स्थिति इससे बेहतर नहीं बल्कि बहुत ज्यादा बदतर हो चुकी है। 2004–12 के दौरान सालाना 75 लाख रोजगार का सृजन हो रहा था जबकि 2013–19 के दौरान सालाना केवल 29 लाख रोजगार सृजन हुआ है।
अलग–अलग भर्तियों के लिए किये गये आवेदनों की संख्या से सरकारी आँकड़ों की तुलना में बेरोजगारी की ज्यादा साफ तस्वीर पता चलती है। 2019 में रेलवे विभाग ने अलग–अलग पदों के लिए 1 लाख 27 हजार पदों का विज्ञापन जारी किया था जिसके लिए करीब ढाई करोड़ युवाओं ने आवेदन किया था और इनमे माँगी गयी योग्यता से ज्यादा डिग्री धारकों की संख्या बहुत ज्यादा थी। विस्तार से जानने के लिए इसी अंक में प्रकाशित माया जॉन का लेख–– ‘बेरोजगार भारत का युग’ देखें।
जाहिर है यह किसी देश की रोजगारशुदा युवाओं की गुलाबी तस्वीर नहीं बल्कि रोजगार के अभाव में कुछ भी करने को तैयार युवा समुदाय की तस्वीर है। इन्हीं के विद्रोह को रोकने के लिए कभी काँवड़ यात्रा तो कभी मंदिर–मस्जिद या इस्लामी आतंक या बंगलादेशी घुसपैठिये का भूत दिखाया जाता है।
2019 में किये गये सर्वेक्षण के अनुसार युवा भारत या मिलेनियल (23 से 38 साल उम्र के नौजवान) देश के 80 प्रतिशत चाहते हैं कि सरकार उनके लिए सरकारी रोजगार का सृजन करे। लेकिन सरकार युवाओं को पकौड़ा तलने की नसीहत देकर केवल अपमानित कर सकती है।
2014 में बनी मोदी सरकार ने बेरोजगारी का कारण युवाओं में कुशलता की कमी बताया था और बहुत शोर–शराबे के साथ स्किल इण्डिया योजना शुरू की थी। वास्तव में यह योजना पूँजीपतियों को मुफ्त के मजदूर और उन्हें कुशल बनाने के नाम पर मोटी रकम देने की योजना थी। 2017 में सरकारी रिपोर्ट के जरिये ही पता चला था कि इस योजना के तहत बाँटे गये कर्ज का ज्यादातर हिस्सा पूँजीपति मार कर बैठ गये हैं। अब सरकार यह भी दावा कर रही है कि सेना में ‘अग्निपथ’ योजना के तहत 4 साल के ठेके के दौरान युवाओं को कौशल सिखाया जायेगा। नौकरी देने के बजाय नौजवानों को कौशल विकास का झुनझुना पकड़ाया जा रहा है। भारत में निजी सुरक्षा का 57 हजार करोड़ का बाजार है जिसे सस्ते मजदूर के रूप में हथियार का प्रशिक्षण प्राप्त नौजवानों की जरूरत है। इसलिए फिक्की, सीआईआई समेत पूँजीपतियों के तमाम संगठनों ने इस योजना का स्वागत किया है।
नयी शिक्षा नीति 2020 भी इसी कौशल विकास का एक नया औजार है जिसके जरिये 12 वीं करने के बाद 4 साल की स्नातक डिग्री के लिए दाखिला लेना बेहद मुश्किल होगा और उन्हें बीच में ही छोड़ने का रास्ता भी खुला रहेगा। एक, दो, तीन साल की पढ़ाई पूरी करने पर सर्टिफिकेट, डिप्लोमा या एडवांस्ड डिप्लोमा देकर नौजवानों को चलता कर दिया जायेगा। यानी गरीब के बच्चांे के लिए रोजगार ही नहीं बल्कि शिक्षा के दरवाजे भी कानूनी रूप से बन्द किये जा रहे हैं। एक तरफ एक–दो साल की अधूरी पढ़ाई और दूसरी तरफ उनकी हड्डी निचोड़ने के लिए चार मजदूर विरोधी श्रम संहिता लागू करके सरकार ने राष्ट्र के भविष्य (छात्र) को कंगाल करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। हालत यह हो गयी है कि राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण की रिपोर्ट से ही स्पष्ट होता है कि निराशा के चलते करोड़ों नौजवान नौकरी तलाश करना ही छोड़ चुके हैं।
देश भयावह महँगाई के दौर से गुजर रहा है। सरकार अन्तरराष्ट्रीय स्थिति पर इसका ठीकरा फोड़ रही है। सवाल यह है कि उदारीकरण–वैश्वीकरण–निजीकरण की नीति के जरिये देशी बाजार को विदेशियों के हाथों में देने और अन्तरराष्ट्रीय बाजार से जोड़ने का काम भी तो सरकारों ने ही किया था। आयात प्रतिस्थापन नीति को तिलांजलि देकर निर्यात आधारित नीति अपनायी गयी और जरूरी उपभोग सामानों और पेट्रोल डीजल जैसी जरूरी लागतों की कीमतों को सीधे अन्तरराष्ट्रीय बाजार के उतार–चढ़ाव के हवाले कर दिया था जो इस महँगाई का एक बड़ा कारण है। इन्हीं नीतियों के चलते कीमतों को सरकारी नियन्त्रण से मुक्त करके सीधे मुनाफाखोर पूँजीपतियों के हवाले कर दिया गया जो आज लागतों की कीमतें बढ़ाकर भरपूर मुनाफा कमा रहे हैं। खाद्यान्न की अन्तरराष्ट्रीय कीमतों में उछाल निजी निर्यातकों को दूसरे देशों में अनाज निर्यात करने के लिए प्रोत्साहित कर रही है जिसके चलते स्वाभाविक रूप से खाद्यान्न की कीमतों में तेजी से उछाल आ रहा है और मेहनतकश जनता की थाली में अन्न की मात्रा घटती जा रही है। आज जब जनता भूखों मर रही है तब भी सरकार क्या उदारीकरण, वैश्वीकरण ओर निजीकरण की नीतियों को बन्द करना चाहती है, बिलकुल नहीं, उलटे वह इन्हें और ज्यादा तेजी से लागू कर रही है ताकि पूँजीपति ज्यादा से ज्यादा मुनाफा लूट सकें।
कोरोना महामारी आने से पहले ही भारतीय अर्थव्यवस्था मन्दी की चपेट में आ चुकी थी। सरकार ने इसको छुपाने की बहुत कोशिशें की लेकिन सरकारी कार्रवाई ने ही इसे उजागर किया है। नोटबन्दी, जीएसटी आदि लागू करने और कॉर्पाेरेट घरानों को टैक्स में भारी छूट देने के पीछे सरकार की मंशा थी कि इससे निवेशक प्रोत्साहित होंगे। लेकिन मन्दी के लक्षण दिखने पर उन्होंने अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए उत्पादन क्षेत्र में निवेश नहीं किया, बल्कि सट्टा बाजार या ऐसी ही दूसरी जगहों पर निवेश किया जहाँ मुनाफे की दर ज्यादा थी।
मन्दी के भँवर से निकलने के लिए जरूरी है कि सरकार एक झटके में अन्दरूनी बाजार की माँग बढ़ा दे और देश की उत्पादन क्षमता को पूरी तरह इस्तेमाल करने की कोशिश करे। सरकार इसके ठीक उलट काम कर रही है, सार्वजानिक सम्पत्तियों को हर साल कौड़ियों के मोल देशी–विदेशी निजी कम्पनियों के हाथों बेच रही है। रोजगार के साधन लगातार कम कर रही है। महँगाई बढ़ाकर जनता के उपभोग को कम कर रही है ताकि आयात कम करके डॉलर बचा सके।
इन कदमों को सही ठहराने के लिए सरकार और उसके पिछलग्गू जी–जान लगा रहे हैं। निजी कम्पनियों के बीच प्रतियोगिता, निजीकरण, सबकुछ बाजार के हवाले करने के फायदे गिनवा रहे हैं। 2018 में केन्द्र सरकार ने मजदूरों की न्यूनतम मजदूरी 2 रुपये बढ़ाकर 178 रुपये रोजाना कर दी थी। 178 रुपये में पूरे परिवार का खर्च चलाने के क्या–क्या फायदे हैं इसके बारे में सरकार और उसके पिछलग्गुओं ने कभी नहीं बताया।
विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार कोरोना महामारी के दौरान भारत में 48 लाख लोगों की मौत हुई और भारत सरकार के अनुसार यह संख्या लगभग 5 लाख 25 हजार है। दूसरी लहर के दौरान प्रयाग में बहती लाशें जैसे सिर्फ सरकार को बदनाम करने के लिए बह रही थीं। लेकिन सरकार चाहे कुछ भी दावा करे कोरोना महामारी ने भारत में जनस्वास्थ्य सेवा की नंगी तस्वीर सबके सामने पेश कर दी है। यहाँ हर 10 हजार लोगों के लिए केवल 6 अस्पताल का बेड, 28 स्वास्थ्य कर्मचारी (जिसमें डॉक्टर भी शामिल हैं) उपलब्ध हैं जो विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार न्यूनतम से भी दो गुना कम है। साधारण बीमारी बन चुकी टीबी का इलाज उपलब्ध होने के बावजूद भारत में रोज 11 हजार मरीज टीबी से मरते हैं। फिर कोरोना से मौत के आँकड़ों की सच्चाई पर भला कोई सन्देह रह जाता है?
निजी अस्पतालों में इलाज देश की अधिकांश जनता की हैसियत से बाहर की चीज है। खाने की तरह ही रोजगार जितना कम होता है स्वास्थ्य सेवा में खर्च का अनुपात उतना ही बढ़ जाता है। सबसे गरीब 30 प्रतिशत आबादी की कुल आमदनी का करीब 12 प्रतिशत इसी मद में खर्च होता है। 2019 में पब्लिक हेल्थ फाउण्डेशन ऑफ इण्डिया की रिपोर्ट के अनुसार 5–5 करोड़ भारतीय एक साल में इलाज के खर्च के चलते कंगाल हो गये थे। इन्हें इलाज के खर्च का 80 प्रतिशत कहीं न कहीं से कर्ज लेना पड़ा। महामारी के बाद स्थिति और ज्यादा गम्भीर हो गयी है। पिउ रिसर्च सेण्टर के अनुसार महामारी के चलते भारत के 3–2 करोड़ लोग जो विश्व बैंक के पैमाने पर मध्यम वर्गीय थे वे कंगाल हो गये और 7–5 करोड़ लोग सड़कों पर आ गये हैं। याद रखना चाहिए कि यह स्थिति आयुष्मान भारत योजना लागू करने के बाद की है।
जब धुआँधार प्रचार के जरिये अर्थव्यवस्था की रंगीन तस्वीर पेश करने में सरकार हर बार नाकाम हो रही है तो वह मुश्किल में डालने वाले आँकड़ों को फेरबदल करने या उसे छुपाने में लग गयी है। जब 2014 में भाजपा सरकार पहली बार सत्ता में आयी थी तभी जीडीपी की विकास दर को लेकर आलोचनात्मक रुख रखने वाले समाज वैज्ञानिक सवाल करना शुरू कर चुके थे। सत्ता में आने के बाद मोदी सरकार ने नेशनल एकाउण्ट्स स्टैटिस्टिक्स की गणना पद्धति, राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण के आँकड़ों की गणना पद्धति, योजना आयोग को अलविदा कहकर उसकी जगह कुछ आँकड़ों के बाजीगरों को लेकर नीति आयोग बना दिया था। अपने पिछलग्गू विशेषज्ञों की सलाह पर विकास दर को नापने के लिए ग्रॉस वैल्यू एडेड (यानी सकल मूल्य वृद्धि) को विकास दर का मानक बनाया और तुलना करने के लिए पीछे के किसी साल की जगह मौजूदा साल को ही मानक बनाया। मसलन अगर हम अपने रोजगार में विकास की असली तस्वीर देखना चाहें तो आज से पाँच साल पहले आज जितनी आय में कितनी खरीदारी कर सकते थे, यह बेहतर मानक का काम करता है। एक साल पीछे की आय भी स्थिति में बदलाव तो बताती ही है। लेकिन आज की आय को आज की आय से तुलना करके बस इतना ही पता चलता है कि कुछ कमाई हुई है। इससे ज्यादा कुछ नहीं।
उदाहरण के लिए सरसों तेल की कीमत एक साल में ही 90–95 रुपये से 200 रुपये हो गयी। यानी इसकी कीमत में लगभग सौ प्रतिशत बढ़ोत्तरी हुई। लेकिन पाँच साल पहले जब इसकी कीमत 60 रुपये थी उसकी तुलना में तो 233 प्रतिशत बढ़ोतरी हुई। इसी तरह विकास दर नापने में भी अक्सर उसकी तुलना पाँच या दस साल पीछे की कीमतों के आधार पर करना पूँजीवादी अर्थशास्त्र का बेहतर पैमाना है जिसे मोदी सरकार ने त्याग दिया है।
2014 से 2018 तक इसी पैमाने से विकास दर औसत 7 प्रतिशत से ज्यादा रही। उसके बाद (2019 से 2022 तक) यह दर घटकर 3 प्रतिशत हो चुकी है। महामारी का साल यानी 2020–21 को छोड़ भी दें तो भी विकास दर आज 6 प्रतिशत है। पहले ही बता चुके हैं कि यह पैमाना अपने आप में गड़बड़झाला है।
इसकी जगह अगर कुल उत्पादन के रुख को देखें तो मामला समझने में आसानी होगी। मिनिस्ट्री ऑफ स्टेटिस्टिक्स एण्ड प्रोग्राम इम्प्लिमेन्टेशन की रिपोर्ट के अनुसार 2018–19 में सम्भव उत्पादन की तुलना में 1–18 लाख करोड़ रुपये का कम उत्पादन हुआ था। 2019–20 में 6–67 लाख करोड़ रुपये का कम उत्पादन हुआ। और 2021–22 में 28–43 लाख करोड़ रुपये कम उत्पादन हुआ। ऐसे में सरकारी नेता और बुद्धिजीवियों द्वारा रोज रोज कई बार ही अर्थव्यवस्था के पटरी पर लौटने की खबर सही नहीं हो सकती। गौर कीजिये कि लुढ़कने का सिलसिला 2018–19 में ही शुरू हो चुका था। फिर इसके लिए महामारी को जिम्मेदार ठहराने का कोई मौका ही नहीं है। पटरी पर वापसी की बात तब मानी जा सकती है अगर इस साल उत्पादन स्तर उतना ही होता जितना महामारी न आने की स्थिति में स्वाभाविक गति में चलती अर्थव्यवस्था का उत्पादन था।
भारत सरकार पर विदेशी कर्ज जीडीपी के 50 प्रतिशत से भी ज्यादा हो चुका है। कोढ़ में खाज की तरह इस साल मई और जून के महीने में विदेशी निवेशक सट्टा बाजार से अपने 94 हजार करोड़ रुपये लेकर उड़ गये हैं। बढ़ती महँगाई और बेरोजगारी दोनों ही जनता में भारी असंतोष पैदा कर रही हैं। पड़ोसी मुल्क श्रीलंका के बारे में विश्लेषण करते हुए जो दक्षिणपंथी बुद्धिजीवी वहाँ के शासक वर्ग की मूर्खता पर हँस रहे हैं, उन्हीं के पैमानों पर भारत भी बहुत सुखद स्थिति में नजर नहीं आ रहा है। स्थिति को सम्भालने के लिए बुलडोजर न्याय तथा पत्रकारों और मानव अधिकार कार्यकर्ताओं के दमन के अलावा सरकार के पास भी कोई चारा नहीं है। आर्थिक स्थिति इतनी खोखली है कि अब सेना में भर्ती होने वाले जवानों को नौकरी पर रखना और उन्हें पेंशन तथा दूसरी सुविधाएँ उपलब्ध करवाने की हैसियत भी सरकार की नहीं है। किसी अर्थव्यवस्था की अच्छी सेहत जाहिर करने वाले तमाम तथ्य भारतीय अर्थव्यवस्था से गायब है। सरकार जिस बेहतरी का ढोल पीट रही है वह केवल भाजपा नेताओं और उनके चहेते पूँजीपतियों के लिए मनमोदक है। बसन्त केवल उन्ही के लिए आया है। बाकी मेहनतकश जनता के लिए तो बुरा शीतकाल चल रहा है। मौसमों की तब्दीली नियम है निश्चय ही लुटेरों का बसन्त ज्यादा दिन नहीं टिकेगा। जनता अपना बसन्त खुद लायेगी।
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