रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स की एक रिपोर्ट के अनुसार भारतीय मीडिया का मालिकाना 8 कम्पनियों के पास सबसे ज्यादा है। इससे साफ जाहिर होता है कि इन 8 मीडिया घरानों के मालिक अपनी इच्छानुसार जनता की राय को मोड़ सकते हैं। लेकिन यह बात सिर्फ न्यूज चैनल, अखबार या लोकप्रिय पत्रिका तक सीमित नहीं है। यही हाल शोध जगत के रिपोर्ट, शोधनिबन्ध, समीक्षा आदि छापने वाली जर्नल या शोध पत्रिकाओं की भी है। 2018 में प्रकाशित एक शोधनिबन्ध में यह खुलासा हुआ कि 5 सबसे बड़े प्रकाशक आज दुनिया की 50 फीसदी से भी ज्यादा शोधनिबन्ध और शोध पत्रिकाओं के मालिक हैं। रीड–एल्सवीएर, वाईलि–ब्लैकवेल, स्प्रिंगर, टेलर एण्ड फ्रांसिस इनमें से मुख्य है, जबकि पाँचवे नम्बर पर प्राकृतिक विज्ञान में अमरीकन केमिकल सोसाइटी है तथा मानविकी तथा समाज विज्ञान में सेज पब्लिकेशन है। 1973 में सबसे बड़े पाँच प्रकाशक प्राकृतिक और आयुर्विज्ञान के महज 20 फीसदी शोधनिबन्ध प्रकाशित करते थे जो 2013 में बढ़ कर 53 फीसदी हो गया है। विषयवार देखा जाये तो प्राकृतिक विज्ञान और आयुर्विज्ञान के क्षेत्र में इन पाँच प्रकाशकों के पास 42 से 57 फीसदी निबन्ध प्रकाशित करने का श्रेय है। समाज विज्ञान और मानविकी के क्षेत्र में ये अनुपात उससे भी ज्यादा है। 1995 में ये प्रकाशक मानविकी और समाज विज्ञान के सिर्फ 15 फीसदी शोध पत्र प्रकाशित करते थे जो 2013 में अर्थशास्त्र, मानव विज्ञान, राजनीति विज्ञान आदि में 66 फीसदी हो गया है और मनोविज्ञान के मामले में सबसे ज्यादा, 71 फीसदी हो गया है। 
शोध प्रकाशन बाजार में भारी हिस्सेदारी के चलते इन कम्पनियों के मुनाफे की दर और कुल मुनाफा लगातार बढ़ता गया है। सिर्फ रीड–एल्सवीएर की बात करे तो 1990 से 2015 तक मुनाफे की दर बढ़ी है 7 फीसदी से 22 फीसदी तक, जबकि कुल मुनाफा 60 करोड़ डॉलर से बढ़कर 2 अरब डॉलर हो गया है। शोध प्रकाशन के जगत में एक तरह की इजारेदारी स्थापित करने के कारण ये कम्पनियाँ दुनियाभर के तमाम सार्वजनिक पुस्तकालय, शोध संस्थान, विश्वविद्यालयों को मनमानी कीमत पर शोध पत्रिकाएँ बेच रही हैं। 2010–15 के दौरान इन शोध पत्रिकाओं की कीमतों में 30 फीसदी बढ़ोत्तरी के चलते सिर्फ पिछड़े देशों के विश्वविद्यालय ही नहीं बल्कि हार्वर्ड, कैलिफोर्निया जैसे नामी अमरीकी विश्वविद्यालयों ने भी ऐसे प्रकाशकों से पत्रिका खरीदने से इनकार कर दिया। इन कम्पनियों के दानवाकार मुनाफे का 68 से 75 फीसदी सार्वजनिक विश्वविद्यालय, शोध संस्थान और पुस्तकालय से आ रहा है।
कहा जाता है कि आज सूचना क्रान्ति के चलते सभी के लिए सब सूचना उपलब्ध हो गयी है। लेकिन उसकी कीमत अदा करना सबके बस की बात नहीं है। सरकारों की तरफ से शिक्षा में लगातार कम से कम बजट उपलब्ध करवाने के चलते सिर्फ प्राथमिक शिक्षा ही नहीं, बल्कि उच्च शिक्षा भी मुश्किल से हासिल हो पा रही है। भारत में ही जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के डॉ– बी आर अम्बेडकर केन्द्रीय पुस्तकालय के बजट में 70 फीसदी कटौती की जा चुकी है। किसी बढ़िया जर्नल में प्रकाशित एक निबन्ध पढ़ने के लिए कम से कम 32 डॉलर (यानी 2368 रुपया) भुगतान करना पड़ता है। जब तक आप पैसे नहीं देंगे आपको पहले पन्ने के कुछ हिस्से के अलावा कुछ नहीं दिखेगा। जिन विश्वविद्यालयों ने इन जर्नलों की सदस्यता नहीं ली है वहाँ के छात्रों को इस समस्या का सामना सबसे ज्यादा करना पड़ता है। 
ऐसे बहुत से शोध छात्रों में से एक है कजाकिस्तान की अलेक्सान्द्रा एल्बाक्यान। कजाख नेशनल टेक्निकल विश्वविद्यालय से कम्प्यूटर विज्ञान में स्नातक इस छात्रा ने अपने शोध के लिए कृत्रिम बुद्धिमत्ता और स्नायु–विज्ञान को चुना। लेकिन विश्वविद्यालय के पास महँगी शोध पत्रिकाओं की सदस्यता न होने के चलते उन्हें भी निबन्धों को पढ़ने के लिए आर्थिक समस्या का सामना करना पड़ा। कुछ एक निबन्ध पैसों से खरीदने के बाद उन्हें समझ में आया कि हर निबन्ध काम के नहीं होते हैं लेकिन ये बात उन्हें पढ़े बिना समझना मुश्किल है। इस तरह जरूरी, गैर–जरूरी हर निबन्ध के लिए 32–32 डॉलर या उससे भी ज्यादा देना पड़े तो घर–बार बेच कर भी शोध पूरा करना नामुमकिन है। 
शुरू में सिर्फ अपनी जरूरत के लिए अलेक्सान्द्रा ने हैकिंग (कम्प्यूटर या वेबसाइट का ताला तोड़ना) करके बहुत से शोधनिबन्ध हासिल किये। लेकिन धीरे–धीरे दूसरे छात्रों को भी ऐसी मुश्किलों का सामना करना पड़ता है यह जानकर उसने इन निबन्धों को उनके साथ साझा करना भी शुरू किया। इस प्रक्रिया को और सुचारू बनाने के लिए उन्होंने 2011 में एक वेबसाइट शुरू की जिसका काम है महँगी पत्रिकाओं के वेब ठिकानों से ताला तोड़कर शोध पत्र निकाल लाना। इस वेबसाइट का नाम है साई–हब। 2011 से अब तक काम करते हुए इस साइट के पास अब दुनिया के तमाम शोध पत्रिकाओं में प्रकाशित निबन्धों–लेखों का दो तिहाई हिस्सा है जिसकी संख्या है करीब साढ़े छ: करोड़। इन सभी निबन्धों को आप बिना किसी खर्च के डाउनलोड कर सकते हैं और इस्तेमाल भी कर सकते हैं।
यह कार्रवाई इन इजारेदार दुकानदारों की तिजोरी पर हमला ही है। इसलिए अमरीकी शोध प्रकाशक एल्सवीएर ने 2015 में अमरीकी कोर्ट में अलेक्सान्द्रा के खिलाफ बिना इजाजत बौद्धिक सम्पत्ति चोरी करने का मुकद्दमा दायर किया और अमरीकी कोर्ट ने एल्सवीएर के पक्ष में राय भी दे दिया है। इस राय में कहा गया है कि अलेक्सान्द्रा एल्बाक्यान को बौद्धिक सम्पत्ति चोरी करने के लिए सजा के रूप में 15 मिलियन डॉलर भुगतान करना पड़ेगा। इस मुकद्दमे के चलते अलेक्सान्द्रा को कृत्रिम बुद्धिमत्ता और स्नायुविज्ञान में पी एच डी छोड़नी पड़ी और इन कानूनों के मुँह में तमाचा मार कर अब मध्य एशिया के किसी अनजान शहर में विज्ञान का इतिहास और दर्शन की पढ़ाई कर रही हैं। 
सोचिये जिस इनसान ने आग या पहिये की खोज की थी, वह इस ज्ञान को साझा करने से मना कर देता तो? जिन्होंने आग में खाना पकाने के बारे में पहली बार प्रयोग किया था अगर किसी को न बताते तो? या जिन्होंने पत्थर का हथियार की तरह इस्तेमाल शुरू किया वे भी इस ज्ञान को निजी सम्पत्ति समझते तो?
हमें सोचकर हैरान होना पड़ेगा कि अगर यह सारा ज्ञान साझा न किया गया होता तो गुफा युग से निकलना भी शायद मुमकिन नहीं होता। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। इनसान ने जो भी सीखा अपनी जिन्दगी जीने के लिए, महज कल तक जिन्दा रहने के लिए, उस सीख को अपने बिरादरी के साथ साझा किया। उसे पता था कि कल किसी और को यह काम करना है, बस जिन्दा रहने के लिए और शायद वह खुद इसे करने की स्थिति में न हो तो? अपनी और उसके समुदाय यानी पूरे कबीले की जिन्दगी का सवाल था। इसलिए सीखना और सिखाना भोजन और नींद की तरह स्वाभाविक प्रक्रिया थी।
ज्ञान की उत्पत्ति का तीन मुख्य स्रोत हैं–– 1) जिन्दगी जीने के लिए उत्पादन, 2) उत्पादन और उसके बटवारे की लड़ाई और 3) वैज्ञानिक प्रयोग। आज के समय में सभी लोग सब काम नहीं करते हैं और न ही करना सम्भव है। खाना, कपड़े, दवाई, मकान और इनके लिए जरूरी कच्चे मालों का उत्पादन, उनकी ढुलाई और फिर कारखाना बनाकर उसमें इस्तेमाल के लायक सामानों का उत्पादन करना किसी एक परिवार के लिए सम्भव नहीं है। न ही उसकी जरूरत है। खेतों में किसान और मजदूर अनाज, कपास, दलहन–तिलहन आदि पैदा करते हैं। कारखानों में मजदूर ईट, सरिया, सीमेंट, कपड़े, दवाई, मशीनें, कम्प्यूटर, कागज–कलम आदि सब पैदा करते हैं। राजमिस्त्री, बेलदार, बढ़ई आदि मकान बनाते हैं। बहुत से लोग बिजली घरों में बिजली पैदा करते हैं, सड़क बनाते हैं। कोई दफ्तर में काम करता है, कोई लेबोरेटरी में तो कोई अस्पताल और विद्यालयों में। इन सभी कामों के उत्पादों को बगैर खुद पैदा किये ही हम पैसे के बदले खरीदते हैं उसका उपभोग करते हैं, तभी कुछ और काम करने लायक रहते हैं। अगर ये सारे बुनियादी उत्पादन भी सभी को करना पडे़ तो न वैज्ञानिक संस्था इसरो होती और न उसका चन्द्रयान, न बड़े–बड़े लैब होते न उसमें वैज्ञानिक, न टीवी होता और न उस पर चिल्लाने वाले पत्रकार, बुद्धिजीवी और राजनेता। यानी जिन्दगी जीने के लिए शुरुआती इनसान ने जो काम के बटवारे के बारे में ज्ञान हासिल किया था उसका प्रयोग करते–करते ही आज दुनिया इतनी उन्नत हुई है। इसलिए किसी भी तरह का ज्ञान स्वाभाविक रूप से ही सामूहिक प्रक्रिया और सामाजिक सम्पत्ति है। 
सवाल उठ सकता है कि अगर ज्ञान सामूहिक है तो बल्ब के लिए एडिसन और गुरुत्वाकर्षण के लिए न्यूटन की कोई खास भूमिका नहीं थी? जरूर थी। लेकिन उन्होंने भी उनसे पहले के लोगों से हासिल किये हुए ज्ञान का इस्तेमाल करके ही कुछ नया आविष्कार किया था। उदहारण के लिए अगर सुकरात, प्लेटो, अरस्तु से लेकर कॉपर्निकस और गैलिलियो तक वस्तुओं की गतिकी, भौतिकी और गणित के बारे में कोई काम नहीं हुआ होता तो न्यूटन भी सेब टपकने पर उसे उठाकर खा लेते, क्यूँ गिरा इस पर दिमाग नहीं दौड़ाते और दौड़ा भी लेते तो कुछ कर नहीं पाते। अगर बिजली की खोज नहीं हुई होती तो एडिसन लालटेन को ही और विकसित करने में जिन्दगी बिता देते। यानी किसी भी तरह का ज्ञान बाकी चीजों की तरह पूरी मानवता के श्रम की उपज है। इसलिए उसे इस्तेमाल करने और उसके बारे में जानकारी लेने का अधिकार भी हर इनसान का जन्मजात होना चाहिए।
आज हम जिस समाज में जीते हैं वहाँ भरपूर मात्रा में खाना, कपड़े, दवाई, इमारतें बनने के बावजूद सबको मयस्सर नहीं होती हैं। उसका कारण है कि मौजूदा समाज और अर्थव्यवस्था निजी सम्पत्ति पर आधारित है। यानी इन सभी उत्पादों का कोई न कोई मालिक है, वह जिसका मालिकाना इनके उत्पादन के साधनों पर है। इसलिए मालिकाना स्वत्व यानी कॉपीराईट भी इन्हीं का होता है। इसी तरह ज्ञान के अलग–अलग शाखाओं में नये–नये खोज को अपने खर्च पर किताबों और जर्नलों में छापने वाले प्रकाशक या उस खोज में वित्तीय सहायता देने वाली संस्थाएँ भी खुद को उस ज्ञान का मालिक मानती हैं। यही कारण है कि कॉपीराईट कानून अस्तित्व में आया। यह कहानी सभी जानते हैं कि बेतार तरंग की खोज भारतीय वैज्ञानिक जगदीश चन्द्र बोस ने की थी। लेकिन इस अविष्कार के लिए नोबेल पुरस्कार इतालवी वैज्ञानिक मार्कोनी सिर्फ इसलिए दिया गया था कि उन्होंने अपने आविष्कार का पेटेंट करवाया था और बोस ने यह जरूरी नहीं समझा था। 
मौजूदा आर्थिक–सामाजिक व्यवस्था निजी सम्पत्ति पर आधारित है। इसलिए मध्ययुगीन विद्वानों की तरह राजा या सामन्तों के पोषण में ज्ञान–विज्ञान की चर्चा करना असम्भव है। आज समाज के सभी तरह के उत्पादन जिसमें ज्ञान भी शामिल है, उसे संचालित करता है मौजूदा शासक वर्ग यानी पूँजीपति वर्ग। 
यह काम वैसा ही है जो प्रोमेथिअस ने स्वर्ग से आग चुराकर किया था। उन्नीसवी सदी के एक दार्शनिक ने कहा था “चोरी निजी सम्पति की व्यवस्था के खिलाफ पहली बगावत है।” निजी सम्पत्ति की व्यवस्था के इतिहास में बहुत बार यह हुआ है। जब भी किसी खास व्यवस्था में बगावत लगातार बढ़ने लगता है तो वह व्यवस्था कुछ दिनों की मेहमान रह जाती है।
ऐसे में अलेक्सान्द्रा ने ज्ञान के इजारेदारों पर जो हमला बोला है वह भी वर्ग–संघर्ष के एक पहलू को उजागर करता है जिसे अक्सर राजनीतिक अर्थशास्त्र की चर्चा में नजरन्दाज किया जाता है। वह है ज्ञान का उत्पादन और उसका प्रसार। 16–17वीं सदी में जब पूँजिपति वर्ग ने सामन्ती सत्ता को उखाड़ फेंकने का निश्चय किया तो उसके लिए सबसे सहायक था विज्ञान जो उस वक्त प्राकृतिक दर्शन के नाम से जाना जाता था। इसलिए पूँजीपति वर्ग ने ही सामन्ती सत्ता को दार्शनिक मोर्चे पर चुनौती देने वाली इस नये विज्ञान को सराहा और उसे प्रचारित करने के लिए ऊर्जा और धन भी मुहैया किया। लेकिन खुद सत्तासीन होने के बाद इसी ज्ञान से होने वाली दिक्कतों से बचने के लिए उसने धीरे–धीरे, जाने–अनजाने में हर तरह के ज्ञान पर कब्जा करना शुरू किया। इस प्रक्रिया में ही पैदा हुई शोध पत्रिका। 1665 में जर्नल डेस स्कावान और फिलोसोफिकल ट्रांजेक्शन्स दुनिया में पहली बार शोध पत्र प्रकाशित करने वाली पत्रिका है। इससे पहले सिर्फ व्यक्तिगत चिट्ठियों के जरिये ही एक वैज्ञानिक दूसरे वैज्ञानिकों को अपने खोजों के बारे में जानकारी देते थे। इस जटिल प्रक्रिया से छुटकारा पाने में इन पत्रिकाओं की भूमिका बेशक थी। लेकिन इन पत्रिकाओं की संख्या कम होने के चलते और इनकी भाषा सबके समझने लायक न होने के चलते इनके पाठक सीमित हुआ करते थे। लेकिन आज ऐसा नहीं है। पाठक बेशुमार बढ़े हैं लेकिन भाषा आज भी जटिल है। यही कारण है पूँजीपति वर्ग को चुनौती देने वाले मजदूर आन्दोलन को अपने विज्ञान और भाषा दोनों ही विकसित करनी पड़ी–– समाज विज्ञान के रूप में। 
लेकिन समय के साथ इस विषय को भी विश्वविद्यालय में घुसने की इजाजत मिली और इस पर होने वाले शोध और उसके नतीजों को भी आगे चलकर सीमित दायरे में बाँध दिया गया। गौर करने वाली बात है कि इन सभी शोधों का ज्यादतर हिस्सा जनता के खून–पसीने की कमाई से ही पोषित होता है। लेकिन उस ज्ञान के बारे में पढ़ने के लिए बीच में कोई प्रकाशक भारी रकम की माँग करता है जिसकी इसके उत्पादन में कोई भूमिका नहीं है।
इस प्रक्रिया के खिलाफ कई नामचीन वैज्ञानिकों ने भी आवाज उठायी है। बीसवी सदी के अंग्रेज वैज्ञानिक जे बी एस हैलडेन, जे डी बर्नाल, जोसफ नीडहैम, खुद आइंस्टीन इनमें प्रमुख नाम हैं। 2012 में गणित में फील्ड्स मेडल विजेता वैज्ञानिक टिमोथी गोवेर्स ने “कॉस्ट ऑफ नॉलेज” नाम का एक इन्टरनेट अभियान शुरू किया जिसके जरिये उन्होंने सभी शोधकर्ता, वैज्ञानिकों को एल्सवीएर जैसे ज्ञान के कारोबारियों के खिलाफ जाकर इनके द्वारा प्रकाशित शोध पत्रिकाओं में अपने निबन्ध न छपवाने का अनुरोध भी किया। लेकिन ये पत्रिकाएँ आज वैश्विक शिक्षा व्यवस्था का एक अहम् हिस्सा हैं। किसी पद को पाने के लिए या पद को बचाने के लिए लगातार नामी शोध पत्रिकाओं में अपने निबन्ध को प्रकाशित करते रहना जरूरी कर दिया गया है। और सभी नामी पत्रिकाएँ ऐसे प्रकाशकों के कब्जे में हैं। ऐसे में वैज्ञानिकों/शोधकर्ताओं को ही आगे बढ़कर हर विश्वविद्यालय, शोध संस्थान या बड़े पुस्तकालयों को सार्वजनिक इस्तेमाल के लिए खोलने में अगुआई करनी पड़ेगी। ज्ञान के निजीकरण के खिलाफ जब ऐसे हजारों अलेक्सान्द्रा, टिमोथी आवाज उठाएँगे और जरूरी कार्रवाई भी करेंगे तब ज्ञान के सार्वजनीकरण को रोकना इस व्यवस्था के लिए मुश्किल हो जायेगा।