फेसबुक पर पिछले कई हफ़्तों से जारी किसान आन्दोलन के मामले में सरकारपरस्त होने का आरोप लग रहा है। किसान एकता मोर्चा ने अपनी बात ज्यादा लोगों तक पहुँचाने के लिए फेसबुक पर अपना खाता खोला और लोगों को उससे जुड़ने की अपील की। 20 दिसम्बर को जब इस पेज पर किसानों के कार्यक्रम का सीधा प्रसारण हो रहा था, तब अचानक इस पेज को बन्द कर दिया गया। हालाँकि सोशल मीडिया पर तमाम लोगों ने इसके खिलाफ जबरदस्त आक्रोश जताया। उनके अभियान के चलते फेसबुक ने किसानों के इस पेज से पाबन्दी हटा दी और साथ सफाई भी दिया है कि स्वचालित प्रोग्राम ने जब पाया की इस पेज पर गतिविधि बहुत ज्यादा बढ़ रही है, तब गलत तथ्य प्रसारित होने से रोकने के लिए प्रोग्राम ने खुद ही इस पेज को निष्क्रिय कर दिया। लेकिन जब मुस्लिम–विरोधी, महिला–विरोधी, दलित–विरोधी और फासीवादी पेज पर गतिविधि बढ़ती है, तब यही स्वचालित प्रोग्राम कुछ नहीं करता है, जैसे उस प्रोग्राम को पता हो कि इन हिन्दुत्ववादी कार्यक्रमों पर अनुशासनात्मक कार्रवाई करते ही उसे सरकार की नाराजगी झेलनी पड़ेगी।

पिछले दिनों अमरीका के “द वाल स्ट्रीट जर्नल” ने ऐसे ही कई मामले को एक रिपोर्ट में प्रकाशित किया था, जिसे लेकर हिन्दुत्ववादी संगठन बजरंग दल बेहद नाराज हुआ और उसने इस अखबार के खिलाफ कानूनी कार्रवाई की धमकी भी दे डाली। “द वाल स्ट्रीट जर्नल” की रिपोर्ट में कहा गया कि फेसबुक ने साम्प्रदायिक हिंसा के प्रचार पर चेतावनी के बावजूद कोई पावन्दी नहीं लगायी क्योंकि उन्हें भारत में अपने कारोबार में हानि पहुँचने की आशंका थी। आँखी दास जो फेसबुक की भारत तथा दक्षिणी एशिया की नीति निर्धारक कमेटी की प्रधान थीं, उनकी भूमिका को लेकर कुछ महीने पहले इस अखबार ने सवाल उठाया था, जिसके चलते दास को अपने पद से इस्ताफा भी देना पड़ा और भारत के संसदीय कमेटी के सामने पेश होना पड़ा।

राजनीति के क्षेत्र में फेसबुक की ऐसी दखलंदाजी पहली बार नहीं है। कैथी अपनी किताब में इसके बारे में पूरा अध्याय खर्च करते हुए कहती हैं कि 2010 से ही फेसबुक ने छोटे–छोटे परीक्षण (वोटर मेगाफोन) के जरिये ये समझने में सक्षम हो गया था कि उनके प्रोग्राम में रत्तीभर इधर–उधर करके बहुत बड़ी आबादी की राय बदली जा सकता है। मसलन, आपके दिवार में किस तरह के पोस्ट या खबरें दिखायी जायेंगी यह सब फेसबुक के दफ्तर में बैठे प्रोग्रामर तय करते हैं। आप बस जिस तरह के खबर रोज देखते रहते हैं, जिन दोस्तों की बात रोज पढ़ते हैं, या तो आप उसका हिस्सा बन जाते हैं या उससे दूरी बना लेते हैं। भारत की तरह अमरीका में भी फेसबुक ने मतदाताओं को खासकर नये लोगों को, वोट डालने में प्रोत्साहित करने का कार्यक्रम शुरू किया था। ‘वोटर मेगाफोन’ परीक्षण में बस आपको “आई वोटेड” (मैंने वोट दिया है) बटन दबाना था। इसी ने कमाल कर दिया। लोग पड़ोसी को वोट देते हुए देखकर नहीं, बल्कि “मैंने वोट दिया है” ये जाहिर न करने पर जो प्रतिक्रिया देंगे उसके लिहाज से भारी मतदान हुआ था। शोधकर्ताओं ने पाया है कि इस अभियान के चलते 3,40,000 लोगों का मतदान बढ़ गया है। स्पष्ट है कि चुनाव के दिन फेसबुक के प्रोग्राम को थोड़ा सा इधर–उधर करके न सिर्फ अमरीकी कांग्रेस के सन्तुलन को बदला जा सकता है, बल्कि राष्ट्रपति तय किया जा सकता है।

2019 के लोकसभा चुनाव से कुछ महीने पहले मशहूर शोध–पत्रिका इकॉनोमिक एण्ड पॉलिटिकल वीकली के पूर्व–सम्पादक परंजॉय गुहा ठाकुरता और पत्रकार सीरिल सैम ने एक किताब लिखी और खुद ही प्रकाशित किया था। उसका नाम है ‘फेसबुक का असली चेहरा’। इसमें उन्होंने दर्ज किया कि फेसबुक कैसे भारतीय राजनीति में चलने वाली बहस का सर्वाेच्च नियंत्रक बन चुका है। सिर्फ भारत ही नहीं, बल्कि यूरोप और अमरीका के भी डिजिटल अधिकार कार्यकर्ताओं ने बारबार फेसबुक में हिंसात्मक, मुस्लिम–विरोधी, महिला या दलित–विरोधी पोस्ट या विडियो के प्रसारण न रोके जाने पर लगातार फेसबुक के ‘कम्युनिटी गाइडलाइन’ (अक्सर जिसकी दुहाई देकर आपके पोस्ट या पेज को निष्क्रिय कर दिया जाता है) को सबके सामने रखने की माँग की है। लेकिन उसका कोई खास फायदा नहीं हुआ है। प्रधान मन्त्री नरेद्र मोदी के बारे में किसी आलोचनात्मक पोस्ट को छाँटकर फेसबुक उन्हें आगे फैलने से रोकता है, जबकि उनके समर्थक एक पूरी कौम को दुनिया से मिटाने की बात करते हैं, और उसको नहीं हटाया जाता।

इससे दो बाते स्पष्ट हो जाती हैं। एक, फेसबुक खुद को दुनियाभर के फासीवादी शासकों के अत्याधुनिक हथियार के रूप में स्थापित कर चुका है, चाहे अपनी वेबसाइट को स्वस्थ्य लोकतान्त्रिक बहस बनानेवाला कितना ही कर ले। इसके संस्थापक मार्क जुकरबर्ग को जब पत्रकारों और राजनेताओं ने घेरा कि वे खुद यहूदी होकर भी कैसे किसी पूरी कौम को मिटा देने वाली हिंसा के प्रचार में सहायक हो रहे हैं ? तो जवाब में उन्होंने सवाल करने वालों पर यहूदी–विरोधी होने का आरोप भी लगा दिया। यही काम भारत में उनके दोस्त मोदी साहब भी करते हैं। दूसरी बात है, जनान्दोलन की ताकत, जो फेसबुकिया फर्जी सेनाओं के चलते ही समझ में आयी है। यह बात सही है कि जब फेसबुक आपको इस्तेमाल करने के इरादे से ही काम कर रहा हो तब आप उसे उसी के खिलाफ इस्तेमाल करने में उतना सफल नहीं रहेंगे। लेकिन, पिछले साल नागरिकता संशोधन विरोधी आन्दोलन और इस साल किसान आन्दोलन ने सिखा दिया है कि फर्जी आईटी सेनाओं की टुकड़ी जमीनी लड़ाई के प्रचार के सामने छोटा पड़ जाती है।