मौजूदा महामारी के चलते बहुत से पूँजीवादी मिथकों की सच्चाई आज हम सबके सामने उजागर हुई है। यह वही झूठ का गुब्बारा है जिसे पूँजीवादी व्यवस्था रोज हवा देकर फुलाती है। इसका मकसद होता है जनता की दुर्दशा को बनाये रखना और इसमें सरकारों के निकम्मेपन और वर्गीय स्वार्थ को पूरा करते रहना। इन्हें न सिर्फ कॉलेज–विश्वविद्यालयों में पढ़ाया जाता है, बल्कि मीडिया के जरिये बार–बार दोहराते हुए लोगों के जेहन में सच्चाई के रूप में स्थापित भी किया जाता है। यहाँ जिन मिथकों के बारे में हम बात करने वाले हैं आर्थिक प्रकृति के बावजूद वे सब समाज में सांस्कृतिक और राजनीतिक मिथक के रूप में प्रचलित हैं। अब हम एक–एक मिथक को महामारी के दौरान सामने आये तथ्यों की रोशनी में परखेंगे।

पहले हम मौजूदा अर्थव्यवस्था को संचालित करनेवाले दर्शन–– नवउदारवाद के बारे में बात करेंगे। नवउदारवादी दर्शन के प्रणेता और प्रस्तोता अर्थशास्त्री तर्क देते हैं कि मुक्त व्यापार और मुक्त प्रतियोगिता से ही सबके लिए रोटी, कपड़ा, मकान, शिक्षा और चिकित्सा यानी सभी मूलभूत जरूरतों का इन्तजाम हो जायेगा। बाजार ही सबको रोजगार उपलब्ध करा देगा। इन सभी जरूरतों को पूरा करने की सरकार की कोई जिम्मेदारी नहीं है। लेकिन जब बेलगाम बाजार के बुरे नतीजे सामने आये तो कहा गया कि कुछ बाहरी कारकों, जैसे–– युद्ध, महामारी आदि के चलते प्रतियोगिता सही ढंग से चल नहीं पायी, जिससे बुरे नतीजे आये। लेकिन सवाल यह है कि क्या युद्ध और महामारी बाहरी कारक हैं, जिनके बारे में अर्थशास्त्री बिलकुल ही अन्जान थे, जो मुक्त बाजार की तारीफ के पुल बाँधते समय इन्हें भूल गये थे ?

अगर हम युद्ध को ही लें तो किसी एक देश द्वारा दूसरे देश पर युद्ध थोपना भी आर्थिक स्वार्थ और राजनीति से प्रेरित होता है। किसी देश का शासक इतना अहमक नहीं होता कि अपनी मस्ती के लिए युद्ध को अन्जाम दे। देश के अन्दर एक ऐसा वर्ग हमेशा मौजूद रहता है, जो युद्ध की आकांक्षा रखता है और उसमें अपना आर्थिक हित देखता है। जैसे–– हथियार बनाने वाली कम्पनियाँ और उसे बेचनेवाले व्यापारी। अक्सर एक ताकतवर देश दूसरे कमजोर देश को युद्ध के जरिये धमकाता है या गुलाम बनाकर उसके संसाधनों को लूटता है। प्रशिया के सैन्य सिद्धान्तकार कार्ल फिलिप क्लॉजविट्ज ने एक समय में ठीक ही कहा था कि “युद्ध सामान्य तौर पर राजनीतिक कार्रवाई का ही जारी रूप है, लेकिन दूसरे साधनों से।”

अगर कोई देश युद्ध की तैयारी करता है, जैसे–– हथियार खरीदने के लिए अपने बजट का इस्तेमाल करता है और स्वास्थ्य सुविधाओं में कटौती करता है, तो जाहिर सी बात है कि महामारी फैलने पर उसकी पूरी स्वास्थ्य व्यवस्था ही नाकाम हो जायेगी क्योंकि न तो उसके पास पर्याप्त संख्या में अस्पताल होंगे और न ही प्रशिक्षित स्वास्थ्य कर्मी। इसलिए केवल युद्ध के दौरान ही जनता नहीं मरती, बल्कि युद्ध की तैयारी में जब देश के संसाधन झोंक दिये जाते हैं तो वह भी जनता के लिए जानलेवा ही होता है।

कई विद्वान बताते हैं कि मौजूदा कोरोना महामारी भी पर्यावरण के दूषित होने के चलते ही इतने विकराल रूप में सामने आयी है। यह उसी नवउदारवादी मॉडल की देन है जो प्रकृति को निचोड़कर तबाह कर देता है। इसलिए चाहे महामारी हो या युद्ध सभी शासक वर्ग के हित साधने के काम ही आती है। कई जन बुद्धिजीवी और वैज्ञानिक बता चुके हैं कि मौजूदा महामारी नवउदारवाद की ही देन है क्योंकि मुनाफा निचोड़ने के लिए जान–बूझकर स्वास्थ्य सुविधाओं को कमजोर किया गया है।

बेलगाम बाजार और एकाधिकारी कम्पनियों के वर्चस्व के चलते अधिकांश मालों की कीमतें माँग–आपूर्ति के नियम से तय नहीं होती हैं बल्कि आपस में साँठ–गाँठ करके तय की जाती है। निजी दवा कम्पनी एस्ट्राजेनेका और ऑक्सफोर्ड विश्विद्यालय की साझी शोध के तहत आया कोविड–19 का टीका कोविशील्ड का उदाहरण इसे पुष्ट करता है। इसे इजाद करने के बाद इन संस्थाओं ने कई देशों की गिनी–चुनी कम्पनियों को उत्पादन करने और दवा बेचने का लाइसेंस बेचा है। भारत में अदार पूनावाला की सीरम इंस्टिट्यूट इसकी इकलौती उत्पादक कम्पनी है। कई देशों में इसकी कीमत 2.15 से 5.25 डॉलर तक है, जबकि भारत में इसकी कीमत 8 डॉलर (600 रुपये) रखी गयी है। एक ही दवा बनाने की लागत अमरीका की तुलना में भारत में कम ही होगी क्योंकि यहाँ मजदूरी की दर बहुत कम है। इसके बावजूद भारत में इसके महँगे होने का मतलब है कि इसकी कीमत, लागत खर्च और माँग–आपूर्ति के नियम से तय नहीं हो रही है, बल्कि उत्पादक कम्पनियों की मनमर्जी से तय हो रही है।

यह भी एक मिथक गढ़ा गया है कि उपलब्ध संसाधनों के कुशल बँटवारे के लिए बाजार में प्रतियोगिता का होना जरूरी है। आइये, इसकी सच्चाई परखते हैं। आज महामारी की चपेट में रोज 4 लाख से भी ज्यादा लोग आ रहे हैं और सरकारी आँकड़ों के अनुसार देशभर में करीब 4 हजार लोग रोज जान से हाथ धो रहे हैं। क्या यह सब सिर्फ महामारी के चलते है ? मीडिया में प्रकाशित खबरों के अनुसार इसके लिए सबसे ज्यादा जिम्मेदार है अस्पताल की कमी, ऑक्सीजन का भारी अभाव, दवाइयों की कमी आदि। बुनियादी स्वास्थ्य सुविधा देश की आबादी की तुलना में बहुत कम है, जिसके चलते लोग इलाज के अभाव में मर रहे हैं। अस्पताल, दवा, वेंटीलेटर, ऑक्सीजन आदि की व्यवस्था की जिम्मेदारी मुक्त बाजार की प्रतियोगी कम्पनियों की है। फिर वे कुशल बँटवारा क्यों नहीं कर पा रही हैं ? नवउदारवादी व्यवस्था पर यह सबसे बड़ा सवाल है। दरअसल नवउदारवादी व्यवस्था को बढ़ावा देने के लिए सार्वजनिक स्वास्थ्य सुविधाओं को खत्म किया गया, जिसके चलते इस महामारी में न जाने कितने लोग अपनों से बिछड़ते जा रहे हैंं।

एक मिथक यह भी है कि सरकार का काम है निजी कम्पनियों के लिए कारोबार का माहौल बनाना, कारोबार करना नहीं। इसके चलते हमारे देश में ही नहीं, दुनिया के लगभग सभी देशों में जन सुविधा मुहैय्या कराने से सरकारें हाथ पीछे खींच चुकी हैं यानी कमजोर तबके के लिए सस्ता राशन, सस्ती स्वास्थ्य सेवा, निशुल्क शिक्षा आज गायब हो चुकी है। निजी कम्पनियों के फायदे के लिए रेल, बस, कॉलेज–विश्वविद्यालय और सार्वजनिक कम्पनियों को बेच दिया गया। मजदूरों के हित में बने श्रम कानूनों को खत्म कर दिया गया। इनसे देश की बहुत बड़ी आबादी बदहाल–कंगाल हो गयी और महँगी स्वास्थ्य सुविधा का खर्चा उठा पाने में अक्षम हो गयी तथा महामारी फैलने पर काल के गाल में समाती चली जा रही है।

पहले लगभग हर सरकारी अस्पताल के पास अपना ऑक्सीजन प्लांट लगाना जरूरी होता था, जिससे कभी ऑक्सीजन की किल्लत न हो। लेकिन इस व्यवस्था को भी ध्वस्त कर दिया गया। निजी अस्पताल अपना ऑक्सीजन प्लांट नहीं लगाते, बल्कि बाहर से ऑक्सीजन सिलेण्डर की आपूर्ति पर निर्भर रहते हैं। इसने समस्या को और विकराल बना दिया। इसीलिए आज हम देख रहे हैं कि भारत हैवी इलेक्ट्रिकल्स जैसी कम्पनी तथा आईआईटी जैसे कितने ही सरकारी शोध संस्थान बाकी काम छोड़कर ऑक्सीजन उत्पादन में लग गये क्योंकि निजी क्षेत्र उसकी आपूर्ति करने में नाकाम साबित हो गया।

मिथक है कि देश के विकास के लिए जरूरी है कि पूँजीपति मुनाफा कमाते रहें। अब इस मिथक की पड़ताल करते हैं। पिछले साल भारत के पूँजीपतियों ने 12,970 अरब रुपये का मुनाफा कमाया है। इससे सभी भारतीय नागरिकों को 94,045 रुपये बाँटा जा सकता है। लेकिन महामारी में कोई सुविधा लोगों तक नहीं पहुँची। बल्कि जनता भुखमरी और बदहाली की शिकार रही और अस्पताल, दवा, ऑक्सीजन के अभाव में मरती रही।

यह भी पूरी तरह से बकवास ही है कि केन्द्रीय स्तर पर पूरे देश के लिए योजना बनाना गैर–जरूरी तथा गैर–लोकतान्त्रिक प्रक्रिया है। लेकिन नवउदारवाद को बढ़ावा देने के लिए ऐसी बकवास नीतियों को प्रश्रय दिया गया। पूँजीवाद की नजर में योजनाबद्ध विकास एक गैर–जरूरी चीज है। हमने देखा कि योजना आयोग को भंग करके उसकी जगह नीति आयोग (नेशनल इंस्टीट्यूशन फॉर ट्रांसफॉर्मिंग इंडिया) बनाया गया। इसका उद्देश्य है कि नवउदारवाद के पक्ष में सरकारों को सलाह देना, लेकिन उन सलाहों को लागू करने के चलते हुए नुकसान की जिम्मेदारी यह संस्था नहीं उठाती। इसी का नतीजा है कि दवा और ऑक्सीजन के उत्पादन तथा वितरण की कोई योजना नहीं है, जबकि सरकार के पास इस महामारी से लड़ने की तैयारी के लिए पूरा एक साल था। लेकिन इसकी मुकम्मल योजना नहीं बनायी गयी, जबकि दूसरे देशों ने योजनाबद्ध काम करके ज्यादा लोगों की जान बचायी।

एक मिथक है कि अपना भला तो जग भला। ब्रिटेन की पूर्व–प्रधानमंत्री मार्गरेट थैचर की मशहूर उक्ति है ‘समाज जैसी कोई चीज है ही नहीं। बस बहुत सारे लोग हैं।’ यह आज के मुख्यधारा के पूँजीवादी अर्थशास्त्र का एक सूत्र है। यानी लोग एक–दूसरे की मदद स्वार्थ के चलते करते हैं। यह बात इतनी बार इतने अलग–अलग तरीक सेे प्रचारित की गयी है कि लोगों के दिमाग में घर कर लेती है और वे इसे ही सही मानने लगते हैं, भले ही सच्चाई इसकी उलटी है। महामारी ने इस मिथक को बेनकाब कर दिया है। पिछले साल प्रवासी मजदूरों की मदद में और इस साल अस्पताल, दवाई, प्लाज्मा, ऑक्सीजन के लिए लाचार लोगों की मदद में सबसे आगे आ रहे हैं, परिचित–अपरिचित बहुत से लोग या ऐसे लोगों का समूह जिनका कोई निजी हित नहीं है। किसी ने अपनी बीबी का गहना बेचकर एम्बुलेंस खरीद ली, जिससे लोगों की मदद कर सके।

सरकार, अदालत आदि का काम है निष्पक्ष रूप से जनता की भलाई करना। यह भी एक मिथक है। वास्तव में राजसत्ता तथा सरकार को निष्पक्ष और वर्ग से ऊपर बताया जाता है। पिछले साल करोड़ों प्रवासी मजदूर के पलायन की घटना ही इसे झुठला देती है क्योंकि सरकार ने उनकी मदद नहीं की और अदालतों ने भी कोई संज्ञान नहीं लिया। राजसत्ता दरअसल शासक वर्ग के हित साधने का ही साधन है, सभी लोगों की भलाई करने का निष्पक्ष हिमायती नहीं।

यह भी दुष्प्रचार ही है कि भारत जैसे गरीब देश के पास फ्री में स्वाथ्य सेवा, महज टीका मुफ्त में देने के लिए पर्याप्त पैसे नहीं है। हाल ही में वित्तमंत्री ने ट्वीट करके देशवासियों को खबर दी है कि महामारी के बीच ही अप्रैल, 2021 में अब तक सबसे ज्यादा जीएसटी वसूला गया–– एक लाख इकतालिस हजार करोड़ रुपये। पिछले साल भारत का कुल स्वास्थ्य बजट महज 94 हजार करोड़ रुपये था। नये संसद भवन बनाने का बजट और पिछले साल लॉकडाउन में राहत का बजट बराबर था–– बीस हजार करोड़ रुपये। ऐसी खबर है कि राहत बजट का बड़ा हिस्सा पहले से चली आ रही योजनाओं पर खर्च किया गया। पिछले साल अक्टूबर में राष्ट्रपति, उप–राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री के इस्तेमाल के लिए दो नये हवाई जहाज खरीदे गये–– जिसकी कीमत 8,400 करोड़ रुपये है। सरकार पैसे की कमी का बहाना बनाकर गरीबों का मनरेगा का पैसा काटने में हिचकी नहीं। अब आप ही सोचिये कि पैसे की कमी का रोना कितना सच है ?

इन मिथकों को लोगों ने क्यों स्वीकार कर लिया है ? इन मिथकों का प्रचार–प्रसार टीवी, सिनेमा, आखबार तथा अन्य मीडिया, स्कूल–कॉलेज–विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम आदि के जरिये किया जाता है। अर्थशास्त्र के किसी भी छात्र से आप इन्ही मुद्दों पर बात कीजिए। वह कहेगा कि यह सब सही है। मैनेजमेंट पढ़ने–पढ़ाने वाले भी आपसेे कहेंगे कि ये सारे मिथक सच हैं। उतना ही सच जितना न्यूटन के गति का सूत्र। लेकिन महामारी के दौरान सामने आने वाले तथ्यों से पता चलता है ये सारे शासक वर्ग के द्वारा फैलाये गये मनगढं़त किस्से हैं, जिनमें सच का अंश भी नहीं है।