“अपने खर्च पर हैं कैद, लोग तेरे राज में”

मई 2014 में सत्ता में आते ही प्रधानमंत्री मोदी ने “मिनिमम गवर्नमेंट, मैक्सिमम गवर्नेंस” का नारा दिया था। चुनाव जीतने के बाद उन्होंने अपने बहुत से नारों और वादों को जुमला कहकर उनसे पल्ला झाड़ लिया, लेकिन गवर्नेंस वाला नारा वास्तव में जमीन पर उतारा गया है।

आज केन्द्रीय मंत्रायलों में एक नये तरह के नौकरशाह भर दिये गये हैं, जिनका औपचारिक नाम है “कंसलटेंट” या सलाहकार। इन अनौपचारिक नौकरशाहों की फौज का एक हिस्सा तो संयुक्त सचिव स्तर के सर्वाेच्च पदों पर काम कर रहा है, जिन्हें आईएएस जैसी किसी सिविल सर्विस परीक्षा के जरिये नहीं, बल्कि निजी क्षेत्र की कम्पनियों में काम के अनुभवों के आधार पर भर्ती किया गया है। इनमें से ज्यादातर विदेशी बहुराष्ट्रीय सलाहकार कम्पनियों के कारिन्दे हैं। ये ‘गवर्नमेंट’ को पूँजीपतियों की ‘गवर्नेंस’ या आया बनाने के काम में खास भूमिका निभा रहे हैं।

भारत सरकार के विदेश मंत्रालय में अभी ऐसे 20 सलाहकार संविदा पर काम कर रहे हैं। अलग–अलग मन्त्रालयों में ऐसे कुल कितने सलाहकार काम कर रहे हैं इसका आँकड़ा उपलब्ध नहीं है। सलाहकार रखने के लिए तर्क दिया जाता है कि सरकारी क्षेत्र में काम करने वाले लोगों से नीतियाँ बनवाने तथा उन्हें लागू करवाने के बजाय अगर निजी क्षेत्र के लोगों के अनुभव और मेधा को भी इस्तेमाल किया जाये तो शासन प्रणाली और सुचारू हो जाती है। सरकारी अधिकारी अपने काम में कुशल न होने के बावजूद ऊँचे पदों पर पहुँच जाते हैं, उस पर रोक लगायी जा सकती है। ठेके पर नौकरशाह रखने से प्रतिस्पर्धा बढ़ेगी और उससे सरकारी अधिकारियों में भी कुशल बनने की चाहत पैदा होगी। यानी, जिन सरकारी अधिकारियों और सलाहकारों की अगुआई में अब तक देश में हजारों योजनाएँ और परियोजनाएँ बनीं और लागू हुर्इं, वे अब अकुशल और आलसी हो गये हैं और सरकार अब ठेके पर रखे गये सलाहकारों से ही चल सकती है।

जिस विचार के तहत खाली पड़े सरकारी पदों पर महँगे सलाहकार के रूप में विदेशी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के कारिन्दे ठेके पर रखे जा हैं उसे “न्यू पब्लिक मैनेजमेंट” या नये तरीके का सार्वजनिक प्रबन्धन कहा जाता है। इसमें पिछले दशकों में लोकप्रिय हुई “कुशलता”, “बाजार प्रतिस्पर्धा” और “कॉरपोरेट मॉडल” का ही बोलबाला है। इसे सही ठहराने के लिए पुराने तरीके को सरकारी “बाबूगीरी” या लाइसेंस राज कहकर बदनाम किया गया।

सरकार चलाने की न्यू पब्लिक मैनेजमेंट प्रणाली का इजाद अमरीका ने किया था। 1970 के दशक में ही साम्राज्यवादियों को इसके फायदे का अहसास हो गया था। इस प्रणाली का इस्तेमाल सबसे पहले लातिन अमरीकी देशों में अमरीकी साम्राज्यवाद विरोधी सरकारों का तख्तापलट करने और अमरीकी हितों की नीतियाँ लागू करवाने के लिए किया गया था। 1973 में चिली में आलेन्दे की चुनी हुई सरकार का तख्तापलट इसका उल्लेखनीय उदाहरण है। अमरीका के शिकागो विश्वविद्यालय में जाने–माने पूँजीवादी अर्थशास्त्री मिल्टन फ्रिडमैन ने अमरीकी साम्राज्यवाद की सेवा के लिए दुनिया के बहुत से युवा अर्थशास्त्रियों को तैयार किया था। इनमें चिली के कुछ युवा अर्थशास्त्रियों की एक टोली “चिलियन बॉयज” के नाम से मशहूर हुई थी। अमरीका में पढ़ाई खत्म करने के बाद चिली वापस जाकर इस टोली ने आलेन्दे की सरकार की कल्याणकारी नीतियों के खिलाफ माहौल बनाना शुरू कर दिया। इन्होंने सैन्य अधिकारीयों, पूँजीपतियों और राजनेताओं के बीच जनविरोधी समझौता कायम करवाने में मुख्य भूमिका निभायी थी। हथियारबन्द तख्तापलट से पहले कल्याणकारी सरकार तथा तमाम सार्वजनिक संस्थाओं को नकारा घोषित करना उनका प्रमुख काम था। तख्तापलट के बाद सत्ता में आयी पिनोचे सरकार के सलाहकारों के पदों पर इसी टोली के लोग ही आसीन हुए। इन्होंने आलेन्दे सरकार की जन–पक्षधर नीतियों को पलटने, चिली की जनता की सम्पत्ति को कौड़ी के मोल अमरीकी और चिली के निजी पूँजीपतियों के हाथों बेचने और पूरी अर्थव्यवस्था को खोखली करने और जनता को कंगाल करने में खास भूमिका निभायी।

1980 का दशक आते–आते हमारे देश के पूँजीपतियों को सरकारी नियंत्रण में पलने की जरूरत खत्म हो गयी थी। अब उनकी जरूरत थी कि सरकार उनके नियंत्रण में रहकर काम करे। सरकार चलाने के पुराने तौर तरीके और कानून इस नियंत्रण में बाँधा थे। सलाहकार के रूप में नौकरशाही में शामिल हुए डॉक्टर मनमोहन सिंह ने इसका रास्ता दिखाया। उन्होंने नवउदारवाद को भारत में लागू करने में खास भूमिका निभाकर यहाँ के पूँजीपति वर्ग की दिली ख्वाहिश पूरी कर दी।

डॉक्टर मनमोहन सिंह को 1971 में आर्थिक सलाहकार नियुक्त किया गया था। 1971 से 1987 के दौरान मन्त्रालय के सलाहकार के रूप में वे खुली खिड़की की नीति के मुख्य वास्तुकारों में से एक रहे। यह नीति भारत के आत्मनिर्भर विकास का रास्ता छोड़ देने का निर्णायक बिन्दु थी। 1987 में उन्हें वित्त मन्त्रालय का सचिव नियुक्त किया गया था। बाद में उन्होंने ही नरसिम्हा राव सरकार के वित्तमन्त्री के रूप में नये आर्थिक सुधार या नवउदारवाद की खुली घोषणा की, जिसकी नीतियाँ निजीकरण, उदारीकरण और वैश्वीकरण के नाम से मशहूर हुई।

भारत सरकार ने जब नवउदारवादी नीतियाँ अपना ली तो उसकी नौकरशाही को भी उसी के मुताबिक ढल जाना लाजमी था। राजनीति में हुए बदलावों का असर संस्कृति में पूरी तरह आने में समय लगता है। यहाँ की नौकरशाही को नयी नीतियों के मुताबिक खुद को ढालने का समय भी दिया गया और वह बदली भी।

इस बीच विश्व बैंक और अन्तरराष्ट्रीय मुद्रा कोष ने सरकार के पैर में वित्तीय घाटे की जंजीर भी पहना दी, जिसके मुताबिक देश के विकास के लिए सार्वजानिक खर्च कम करना लाजमी था। इसका अर्थ था कि साम्राज्यवादी प्रभुओं की मर्जी के मुताबिक सार्वजानिक क्षेत्र में निवेश से लेकर कर्मचारी भर्ती करने तक में कटौती करनी है। सरकारी दफ्तर, स्कूल–कॉलेज–विश्वविद्यालय, अस्पताल, शोध संस्थान आदि में ठेके पर कर्मचारी रखना तो शुरू ही हो गया था, अब मन्त्रालयों के चोटी के अधिकारी भी उससे अछूते नहीं रह गये हैं। साल–दर–साल आईएएस के पद में भर्ती घटायी गयी है। 14 दिसम्बर 2022 को प्रकाशित प्रेस इनफार्मेशन ब्यूरो के रिपोर्ट अनुसार आईएएस, आईपीएस और आईएफएस के अनुमोदित पद क्रमश: 6789, 4984 और 3191 है जबकि इन पदों नियुक्ति की सख्या क्रमश: 5317, 4120, 2134 हैय यानी क्रमश: 1472, 864 और 1056 पद खत्म हैं।

भारत सरकार को सलाह देने वाली पाँच प्रमुख सलाहकार कम्पनियाँ हैं–– अमरीका की बहुराष्ट्रीय निगम मकीन्से एण्ड कम्पनी, बोस्टन कंसल्टिंग ग्रुप, जीइपी, डेलॉयट और ब्रिटेन की केपीएमजी। इसके अलावा सूचना तकनीक, वित्तीय, कानूनी क्षेत्रों में कई बहुराष्ट्रीय निगम भारत सरकार के साथ ठेके पर काम करते हैं। इन में भी अक्सर भारत सरकार की अलग–अलग परियोजनाओं के लिए कम्पनियों के विशेष कर्मचारी भर्ती किये जाते हैं।

यह परिघटना सिर्फ भारत में ही नहीं, दुनियाभर में फैली हुई है। गिने–चुने दैत्याकार बहुराष्ट्रीय निगमों के कर्मचारी सलाहकार के रूप में आर्थिक नीति, विदेश नीति और यहाँ तक कि सामाजिक सुरक्षा की नीति बनाने में भी हिस्सेदारी करते हैं। असल में, अमरीकी डॉलर हमारे देश की अर्थव्यवस्था को नियन्त्रित ही नहीं करता, बल्कि उसके नियंत्रण को सुनिश्चित करने के लिए डॉलर के मालिकों की संस्थाएँ विधायिका और नौकरशाही को मुट्ठी में रखने की कोशिश में हमेशा लगी रहती हैं। आज वे सीधे मन्त्रालयों की मेज से डॉलर के हित सुरक्षित कर रहे हैं।

स्थायी नौकरशाही का काम इन ठेका कर्मचारियों के जरिये केवल रोजमर्रे की जिम्मेदारियों का निर्वाह करना और कामों की निगरानी करना ही रह गया है। परियोजना बनाने के लिए जरूरी शोध–अध्ययन, परियोजना के लिए कर्मचारियों की नियुक्ति, उनका शिक्षण–प्रशिक्षण, सभा आयोजित करना, उसके मिनिट्स लेना यह सब काम सलाहकार ही कर रहे हैं। सत्ता के गलियारों में मौजूदा नीति–निर्धारण का काम इसी तरह चल रहा है। उन नीतियों को तथाकथित कुशलता के साथ लागू करने का काम भी इनसे निचले स्तर के ठेका मजदूर करते हैं।

सलाहकार के लिए यूरोप या अमरीका के किसी नामी कॉलेज–विश्वविद्यालय की डिग्री हासिल करने वालों को ही पसन्द किया जाता है। उसके कारण भी हैं। पिछले साल अगस्त में अन्तरराष्ट्रीय मीडिया संस्था मिंटप्रेस ने बताया था कि लन्दन के मशहूर किंग्स कॉलेज में अन्तरराष्ट्रीय सम्बन्ध विभाग में अमरीकी, ब्रिटिश तथा दूसरे देशों की खुफिया एजेंसियों के अवकाशप्राप्त अफसर पढ़ाते हैं। वे दुनिया के सबसे चालाक लोगों में से होते है। जाहिर सी बात है वे अपने देश के हित के मुताबिक शिक्षा देंगे। वे किसी देश के नौजवान को अपने दम पर, अपने हालात के मुताबिक नीतियाँ बनाना नहीं सिखायेंगे साम्राज्यवादियों का मुरीद बनायेंगे।

शासक वर्ग की यह सोच कि बहुराष्ट्रीय कम्पनियों से ठेके पर लिये गये सलाहकार सरकारी कर्मचारियों से ज्यादा कुशल हैं, यह और भी खतरनाक है। इसी देश के सबसे बेहतर तेज–तर्रार नौजवानों में से ही कुछ सौ को कड़ी मेहनत करने के बाद आईएएस आदि पदों में भर्ती होने का मौका मिलता है। व्यवस्था को चलाने में उनकी भूमिका आज सत्ता में आसीन जनता से कटे हुए नेताओं की तुलना में कही ज्यादा है। प्रधानमन्त्री से लेकर कृषि मन्त्री नरेन्द्र तोमर, वित्त मन्त्री निर्मला सीतारमन, वाणिज्य मन्त्री पीयूष गोएल, अल्पसंख्यक विकास मन्त्री स्मृति ईरानी आदि ने कभी भी जनता के साथ गहरे जुड़ाव का जीवन नहीं जिया, कभी जनसंघर्षों की अगुआई नहीं की, ये सभी वास्तव में जनता से कटे हुए लोग हैं। इन्हें अपने मंत्रालयों के कामों के बारे में भी गहन जानकारी नहीं है। मौजूदा संसद में 43 प्रतिशत सांसद तो संगीन अपराधों में आरोपी हैं। ये गुण्डागर्दी में भले ही सबको पीछे छोड़ दें लेकिन देश–दुनिया के बारे में कुछ नहीं जानते हैं। ये रोज ही उलटी–सीधी बातें कहकर अपनी मूर्खता का प्रमाण देते रहते हैं। ऐसे में अफसरों और सलाहकारों की टोली ही इन्हें फॉर्म भरने से लेकर देश की स्थितियों की जानकारी सिखाने का काम करते हैं।

किसी भी देश की नौकरशाही उसके शासक वर्ग की सेवा करती है। भारत जैसे तीसरी दुनिया के देशों का शासक वर्ग ही जब साम्राज्यवादी प्रभुओं के साथ साँठ–गाँठ कर चुका है तो उनके मुताबिक नौकरशाहों को भी नियुक्त करना पड़ेगा। इससे यह भी स्पष्ट होता है कि साम्राज्यवादियों को भारत की नौकरशाही पर भरोसा नहीं है। इसके लिए वे कार्यपालिका में अपने नुमाइन्दे नियुक्त करके अपने हित सुरक्षित करते हैं। इसलिए मसूरी में हर साल प्रशिक्षुओं की संख्या कम करके ऐसे विशेषज्ञों की भर्ती पर ज्यादा जोर दिया जा रहा है। युपीएससी के जरिये सर्वाेच्च पदों में भर्ती की संख्या 2014 में 1364 से घटकर 2021 में 749 तक पहुँची है। उम्मीद है आने वाले दिन में ये और भी घटेंगी।

जब दानवाकार बहुराष्ट्रीय सलाहकार निगमों के कर्मचारी इस देश की नीतियाँ बनायेंगे तब वे यहाँ की जनता के नहीं, बल्कि साम्राज्यवादियों के हित साधेंगे। जोशीमठ का ताजा उदारण है। टिकाऊ विकास के नाम पर हिमालय और शिवालिक क्षेत्र में जगह–जगह नाजुक पहाड़ियों पर अन्धाधुन्ध कटान और खुदाई के नतीजे के रूप में सैकड़ों पहाड़ी बसावट आज तबाह होने की कगार पर हैं। इन्ही नीतियों को जारी रखने के लिए अमरीका और यूरोप के नामी कॉलेज–विश्वविद्यालय से उच्च शिक्षा प्राप्त नीति–निर्माताओं की फौज चाहिए। नीति आयोग के उपाध्यक्ष अमिताभ कान्त भी ऐसे ही संस्थानों में दीक्षित विशेषज्ञ हैं। कुछ महीने पहले ही इन्होंने एक सार्वजनिक कार्यक्रम में भारत में “कुछ ज्यादा ही लोकतान्त्रिक” माहौल होने की शिकायत की थी। साम्राज्यवादियों के हितों को आगे बढ़ाने वाले को लोकतंत्र कैसे पसन्द आयेगा।

भारत की गुलामी के दौर में ब्रिटिश सरकार आईसीएस (इण्डियन सिविल सर्विसेज) में सफल भारतीय नौजवानों को एक साल की पढाई के लिए कैन्ब्रिज या ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय भेजती थी। प्राचीन रोमन साम्राज्य की हमलावर सेना जब किसी इलाके पर कब्जा करती थी तो वहाँ के बच्चों को छीनकर पढ़ाने के लिए रोम ले जाती थी। उनकी परवरिश इस तरह की जाती कि जब वह बड़ा हो जाता तो उसका दिलो–दिमाग पूरी तरह एक रोमन का होता। फिर उन्हें अपने ही इलाके को रोमन साम्राज्य का गुलाम बनाये रखने के लिए उन्ही के इलाकों में भेज दिया जाता था। बाद में उस्मानिया सल्तनत ने भी इसी तरीके का इस्तेमाल किया। आज भारत के नौजवान भी करोड़ों रुपये खर्च करके यूरोप और अमरीका में पढ़ाई करने जाते हैं और उन्ही साम्राज्यवादी देशों के ईमानदार वैचारिक सिपाही बनकर वापस आते हैं और भारत की सरकार में शामिल होते हैं।

2007 में आये वैश्विक वित्तीय संकट से उभरने के बजाय साम्राज्यवादी उसके भंवर में और ज्यादा फँस चुके हैं। इस संकट ने पूरी वैश्विक पूँजीवादी व्यवस्था को अपनी चपेट में ले लिया है। नवउदारवादी व्यवस्था पूरी तरह असफल साबित हो चुकी है। साम्राज्यवादियों के लिए एक मात्र रास्ता यही बचा है कि तीसरी दुनिया के देशों की प्राकृतिक और मानवीय सम्पदा को जितनी तेजी से हो सके, निचोड़ा जाये। उनकी इस लूट में कहीं बाधा न आये, इसके लिए सरकार के सभी अंगों पर साम्राज्यवादियों का मजबूत नियंत्रण जरूरी है। विदेशी बहुराष्ट्रीय सलाहकार कम्पनियों के कारिन्दों को मंत्रालयों में बैठाकर भारत के शासक साम्राज्यवादियों के अभियान को आसान बना रहे हैं। मोदी सरकार सच में भारत सरकार को देशी–विदेशी पूँजीपतियों की आया बनाने में सफल रही है।