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एग्रीकल्चरल केमिस्ट्री 1862 संस्करण की भूमिका

जस्टस फॉन लिबिग ने 1862 में अपनी ‘आर्गेनिक केमिस्ट्री इन इट्स एप्लीकेशन टू एग्रीकल्चर एंड फिजियोलॉजी’ का 7वां संस्करण प्रकाशित की थी, जिसे अक्सर ‘एग्रीकल्चरल केमिस्ट्री’ के नाम से जाना जाता है।  लिबिग के किसी भी काम का तुरंत अंग्रेजी में अनुवादित होना आम था । हालाँकि, एग्रीकल्चरल केमिस्ट्री के 1862 संस्करण के पहले खण्ड में, खासकर इसके लम्बे और उत्तेजक परिचय में, उन्नत ब्रिटिश कृषि पद्धति की विस्तृत आलोचना भी शामिल था। लीबिग के अंग्रेज प्रकाशक वाल्टन ने इसे “अपमानजनक” करार देते हुए अपनी प्रति को नष्ट कर दिया था। इसलिए, अंग्रेजी में कभी इसकी सम्पूर्ण कृति छपी ही नहीं।

हालांकि, 1863 में इस किताब के दूसरे खण्ड का अनुवाद आयरिश वैज्ञानिक जॉन ब्लीथ ने ‘द नेचुरल लॉ ऑफ़ हसबेंडरी’ के नाम से किया और इसे न्यू यॉर्क की अप्पलटन ने प्रकशित की । उस किताब में 1862 संस्करण की भूमिका शामिल थी, लेकिन संक्षिप्त और नरम लहजे का इस्तेमाल था जिसमे लीबिग का “डकैती अर्थव्यवस्था” और “डाकाजानी-संस्कृति” (या “डकैती संस्कृति”) का जिक्र भी नहीं था या उसे ऐसी भाषा में लिखा गया जिसका मतलब सिर्फ कुछ जानकारों या समझदारों को ही पता चल सकता था।

फिर भी लीबिग की लिखी हुई भूमिका और परिचय का अंग्रेजी अनुवाद जनवरी 1863 में ब्रिटेन के प्रमुख कृषि रसायन वैज्ञानिक जोसफ हेनरी गिल्बर्ट की पत्नी मारिया गिल्बर्ट ने किया था। जोसफ गिल्बर्ट लीबिग के छात्र रह चुके थे और रॉटहैमस्टेड के कृषि प्रयोगशाला के अधीक्षक थे। मारिया गिल्बर्ट की सुन्दर लिखावट में किया हुआ अनुवाद आज भी रॉथहैमस्टेड प्रयोगशाला (अब रॉथहैमस्टेड शोध केंद्र) की अभिलेखागार में सुरक्षित है। नीचे मारिया गिल्बर्ट द्वारा की गयी 1862 संस्करण की सम्पूर्ण भूमिका का अनुवाद है जिसका डिजिटल रूपान्तरण आंद्रे तोशियो वीएला यामन्तो ने किया है। कोष्टकों में सम्पादक ने मतलब स्पष्ट करने के लिये संयोजन किया है। हम इसे यहाँ रॉटहैमस्टेड शोधकेंद्र के पुस्तकालय के मुख्य लाइब्रेरियन लिज़ अल्सोप की अनुमति से प्रकाशित कर रहे हैं। उन्होंने हमारी बहुत सी अनुसंधान में मदद की है। इस प्रकाशन के पीछे फ्रेड मैगडोफ ने भी एक मुख्य भूमिका निभायी है।

उन्नीसवी सदी के मध्य में ब्रिटिश कृषि एक बड़े जमींदारों की गिरोह के कब्जे में थी जिन्हें उन अनगिनत बटाईदारों से मोटी लगान मिलती थी और उनमें से हर एक पचास हेक्टेयर से भी कम रकबे को जोतता था। इन बटाईदारों में से बहुत लोग खुद खेती करते थे, फसल-चक्र के अनेक रूपों को आजमाते हुए परम्परा से सीखते थे या सर हम्फ्री डेवी तथा दूसरे विशेषज्ञों द्वारा सुझाए गये व्यवहारिक दिशानिर्देश को अपनाते थे। साथ ही उन्नीसवी सदी के मध्यभाग में विकसित कृषि रसायनशास्त्र को अपनाने में अनिच्छुक थे। फिर भी रोज-बरोज कृषि का ज्यादातर हिस्सा उन बड़े जमींदारों से नियंत्रित होता गया जो इनकी संचालन को नियंत्रित करते थे। ब्रिटिश कृषि लगातार सघन हो रही थी जिसमे उर्वरक का भारी आयात हो रहा था और व्यवसायिक उत्पादन बढ़ाने पर ज्यादा जोर था। लीबिग के शब्दों में उन्नत कृषि का यह रूप दरअसल एक उन्नत “डकैती अर्थव्यवस्था” थी। इसलिए उनकी लिखी भूमिका में इन सरोकारों की झलकियाँ है। *

लीबिग 1850 के दशक के उत्तरार्ध से ही इस डकैती अर्थव्यवस्था के बारे में लिख रहे थे खासकर उनकी लेटर्स ऑन मॉडर्न एग्रीकल्चर (1859) में। अंग्रेजी ढर्रे की व्यवसायिक और औद्योगिक कृषि तथा इसके द्वारा बाकी दुनिया से उर्वरक स्रोतों का दोहन (हड्डी, बीट) के मामले ने उनके चिंतन को प्रभावित करना शुरू किया था। जैसा कि उन्होंने भूमिका में ही चिन्हित किया है कि उन्हें “आधुनिक कृषि को एक तरह की दोहन/डकैती करार देने के लिये बहुत जगहों से निंदा झेलनी पड़ी ।” ऐसी निंदाओं का एक उदहारण है न्यू यॉर्क की द कल्टीवेटर पत्रिका जिसने जनवरी 1860 के अंक में लीबिग की “डकैती व्यवस्था” की अवधारणा की कड़ी निंदा करते हुए ऐलान किआ कि “मिट्टी इन्सानों के इस्तेमाल के लिये ही तो है, इसको बनाने वाले तत्व निश्चित रूप से कभी ख़त्म नहीं होने वाले हैं और ना ही मिट्टी कभी ख़त्म होने वाली है ।” ऐसे प्रतिरोध के सामने ही लीबिग ने नए सिरे से मिटटी की डकैती की बढती समस्या और इसके पोषक तत्वों के लगातार भरपाई की जरुरत पर जोर देकर अपनी बात पेश की । आज इसे आधुनिक पारिस्थितिकी की शुरूआती महान विकासों में से एक के रूप में देखा जाता है, जिससे आगे चलकर मौजूदा मिट्टी की पाचनक्रिया के सिद्धांत का विकास हुआ ।

-जॉन बेलामी फ़ॉस्टर

मेरी “केमिस्ट्री एप्लाइड टू एग्रीकल्चर ऐंड फिजियोलॉजी” प्रकशित होने के बाद बीते 16 सालों में व्यवहारिक कृषि के क्षेत्र में वैज्ञानिक सिद्धांतों को लागू करने के रास्ते में आनेवाली बाधाओं के आकलन के मेरे पास बहुत मौके रहे हैं । इसकी ख़ास वजह यह है कि व्यवहार और विज्ञान के बीच कोई सम्बन्ध नहीं बन पाया है ।

कृषिविशेषज्ञों के बीच शायद एक तरह का पूर्वाग्रह है कि किसी दूसरे की तुलना में कम (बौद्धिक) खेती उनके उद्योग के लिए पर्याप्त हो सकती है, क्योंकि उन्हें यह लगता है कि चिंतन एक कृषक की व्यावहारिक क्षमताओं को कम कर देगी क्योंकि वह सोचने लगेगा कि विज्ञान ने अभी तक जो भी किया है वह केवल सैधांतिक ही है उसका व्यावहारिकता से कोई ज्यादा सम्बन्ध या तो नहीं है, अगर है तो वह उतना दृढ़ नहीं है। यह सत्य है कि जब भी एक व्यावहारिक मनुष्य ने वैज्ञानिक सिद्धांतों की ओर जरुरत से ज्यादा ध्यान दिया है, उसे क्षति ही हुई है, क्योंकि विज्ञान को प्रयोग में लाने में किसी जटिल उपकरण का कुशल प्रबंधन की तरह कार्य करना होता है जो कि उसके व्यावहारिक ज्ञान से मेल नहीं खाता।

ऐसे विचार जो मनुष्य को प्रभावित करते हैं और उसके कार्यों के सही और गलत होने को निर्धारित करते हैं, उनके लिए किसी का उदासीन होना संभव नहीं है।

अभ्यास से भी उन सभी सही विचारों और व्याख्याओं में कोई सुधार का कोई साधन नहीं बन सका, जो कि विज्ञान ने पौधों की वृद्धि के बारे में दिए और उसमें मिट्टी और हवा से संबंधित, जुताई और खाद की भूमिका को समझाना का प्रयास किया । कृषक ये समझने में अक्षम थे कि विज्ञान के सिद्धान्तों और व्यावहारिकता में क्या सम्बन्ध है, इसलिए उन्होंने किसी भी कड़ी के होने को मानने से इंकार कर दिया।  

व्यावहारिक किसान अपने सामान्यतः अपने आस पास होने वाली घटनाओं को देख कर सीखते हैं, या फिर किसी ऐसे वर्ग के नियमों या प्रबंधों को मानतें हैं जो किसी एक प्रतिरूप में बंधे होते हैं । इस प्रणाली को कोई भी शब्द सिद्ध नहीं कर सका, इसे मापने के लिए कोई पैमाना मौजूद नहीं है।

मोग्लिन में अपने खेतों पर थेर ने जो अच्छा और उपयोगी पाया, उसे सभी जर्मन क्षेत्रों के लिए समान रूप से अच्छा और उपयोगी मान लिया गया, और रोथमस्टेड में छोटे से टुकड़े पर जो तथ्य सामने आये, उन्ही को सभी अंग्रेजी क्षेत्रों के लिए स्वयंसिद्ध लिया गया।

परंपरा और सत्ता में विश्वास के प्रभुत्व के तहत व्यावहारिक मनुष्य ने उन तथ्यों को सही ढंग से समझने की शक्ति को त्याग दिया है जो रोज़ उसके संज्ञान में आते हैं, यहाँ तक कि वह केवल एक राय और तथ्यों  को  अलग करने में भी असमर्थ है। और जब विज्ञान ने अपनी ही व्याख्याओं की सत्यता पर संदेह किया, तो उन्होंने विज्ञान के तथ्यों के अस्तित्व पर सवाल किये। यदि विज्ञान ने यह कहा कि, जिन तत्वों की कमी है उनके लिए ऑपरेटिव घटकों की आपूर्ति करना जरुरी है, या चूने का सुपरफॉस्फेट जड़ों के लिए कोई विशिष्ट खाद नहीं हो सकता है, और मकई के लिए अमोनिया कोई विशिष्ट खाद नहीं है, तो किसानो ने इन वैज्ञानिक बैटन को मानने से इनकार कर दिया ।

इस प्रकार की भ्रांतियों के बारे में एक लंबी लड़ाई चली है; व्यावहारिक मनुष्य वैज्ञानिक निष्कर्षों को नहीं समझ सके और  अपनी पारंपरिक धारणाओं का बचाव करते रहे; उनका विवाद वैज्ञानिक सिद्धांतों के साथ नहीं था जिसे वह बिल्कुल नहीं समझते थे, बल्कि उनके बारे में उनकी अपनी गलत धारणाओं के साथ था।

इस झगड़े के सुलझने से पहले, और कृषक स्वयं ही इसमें मध्यस्थ बन जाएँ, विज्ञान से वास्तविक मदद की उम्मीद कम ही की जा सकती है, और मुझे बहुत संदेह है कि वह समय अभी आया है या नहीं। हालाँकि, मैं अपनी उम्मीदें युवा पीढ़ी पर टिकाता हूँ, जो अपने पिता की पीढ़ी की से बिल्कुल अलग तैयारी के साथ अभ्यास शुरू करते हैं। जहाँ तक मेरा संबंध है, मैं उस उम्र में हूँ जब कोई नया कार्य करने की लालसा नहीं रहती है, जब कोई अपने घर को व्यवस्थित करने के बारे में सोचता है, और जब कोई वह कहने में सक्षम नहीं होता जो उसे कहना होता है।

चूंकि कृषि में प्रत्येक प्रयोग अपने पूर्ण परिणाम देने से पहले एक वर्ष या उससे अधिक समय तक चलता है, इसलिए शायद ही कोई संभावना बची है कि मैं अपने शिक्षण के परिणामों को देखने के लिए जीवित रहूंगा। इन परिस्थितियों में मैं जो सबसे अच्छा यह कर सकता हूं कि अपने कार्यों को व्यवस्थित करूँ, ताकि भविष्य में वे लोग जो  इसमें इच्छुक होंगे और खुद को पूरी तरह से परिचित कराने के लिए परेशानी उठाएंगे, वे इन्हें  गलत ना समझें । इस दृष्टि से मेरी पुस्तक के विवादास्पद भागों को आंका जाना चाहिए। लंबे समय तक मेरा मानना ​​था कि कृषि में, जैसा कि विज्ञान में प्रथागत है, सत्य को फैलाने के लिए और त्रुटि के बारे में खुद को परेशान न करने के लिए सत्य को पढ़ाना पर्याप्त था। हर कोई मेरे कार्यों को अशुद्धियों से शुद्ध करने के मेरे अधिकार को स्वीकार करेगा, जो इतने वर्षों से एकत्र किये गए हैं।

आधुनिक कृषि को लूट/डकैती की प्रणाली के रूप में वर्णित करने के लिए मेरी कई तरफ से निंदा की गई है (रौबविर्थशाफ्ट), हालाँकि कई संवादों के बाद कई किसानों मुझे ने अपने प्रबंधन के हुनर का सम्मान करने के लिए विवश किया है, ऐसे [व्यक्ति विशेष किसानों] के खिलाफ मेरे आरोपों के दायरे में नहीं आते हैं। मुझे आश्वासन दिया गया है कि उत्तरी जर्मनी में, सक्सोनी, हनोवर, ब्रंसविक, आदि के साम्राज्य में, बहुत से किसान बहुत सावधानी से अपने खेतों को बहुत अधिक देते हैं, जितना वे उनसे लेते हैं, इसलिए उनके बारे में हम "लूट-संस्कृति" शब्द का प्रयोग नहीं कर सकते । लेकिन ऐसे किसानो की संख्या का अनुपात बहुत ही कम है जो की अपने खेत और मिट्टी को सही तरीके से इस्तेमाल करने की विधि जानते हैं ।

मैं अभी तक किसी ऐसे किसान से नहीं मिला, जिसने अपने कार्यों का, लेनदेन का लेखा जोखा ठीक से रखा हो या उसे पंजीकृत करने के लिए परेशानी उठाई हो, जबकि अन्य व्यवसायों में यह जरुरी होता है है। यह एक किसानो की पुरानी विरासत में मिली आदत है कि वे कृषि का समग्र रूप से आंकलन न करके उसे  एक संकीर्ण दृष्टिकोण से देखते हैं, और सबका इसी ढर्रे पर चलने को इसका सही होने का पर्याप्त प्रमाण मानते हैं।

जर्मनी से हड्डियों का भारी निर्यात इस बात का प्रमाण है कि आम तौर पर किसानों की संख्या कितनी कम है, जो फॉस्फेट के अपेक्षित मुआवजे के बारे में कोई बात करते हैं या मांग रखते हैं, और अगर बवेरिया (हेनफेल्ड) में केवल एक छोटा कारख़ाना सैक्सोनी में म्यूनिख से लगभग 1.5 मिलियन पाउंड हड्डियाँ निर्यात करता है तो, यह केवल बवेरियन भूमि को लूट कर ही किया जा सकता है। बड़े छोटे को लूटते हैं, ज्ञानी अज्ञानी को, और ऐसा हमेशा होता रहेगा। लेकिन जर्मन चुकंदर चीनी उत्पादन का इतिहास, शायद अभी भी हमारे कई समकालीनों को साबित कर सकता है कि उत्तरी जर्मनी के कई हिस्सों में भूमि की एक डकैती होती रही है।

चूने और गुआनो के सुपरफॉस्फेट के प्रयोग से चीनी के लिए चुकंदर की कई सालों से बहुत बड़ी फसलें उगाई गयी हैं, वो भी बिना फसल की किसी कमी के। और चुकुन्दर के किसानो को लग रहा है की उपज हमेशा ऐसे ही रहेगी, वो ये नहीं समझ पा रहे हैं कि उनके खेतों का पोटाश एक दिन कम या ख़तम हो जायेगा। वे कहते हैं कि पोटाश बहुत महंगा खाद है, और इसकी कीमत में, वे तीन से चार गुना अधिक सुपरफॉस्फेट और गुआनो खरीद सकते हैं, उनका मानना ​​है कि इसके वे सुपरफॉस्फेट और गुआनो इस्तेमाल करके अपने खेतो को बेहतर और उर्वरक बना रहे हैं । इन किसानों को निश्चित ही पोटाश की सही कीमत नहीं पता ।

यह निश्चित है कि वे अपने अनुमान और अधूरी जानकारी में खुद को ही धोखा देते हैं और यह कि गुड़ और रिफाइनरी चारकोल में वे चीनी उत्पादन के सबसे महत्वपूर्ण पदार्थ का निर्यात करते हैं । शायद अभी नहीं पर अगले दस वर्षों में, हो सकता है अचानक नहीं पर धीरे धीरे, वे ये महसूस करेंगे जैसा कि फ्रांस और बोहेमिया में हो रहा है । जड़ों की चीनी निकलने की मात्रा 11 और 10 प्रतिशत से डूबकर  केवल 4 और 3 प्रतिशत रह जाएगी, और वह सुपरफॉस्फेट और गुआनो के प्रयोग उपज में वृद्धि नहीं कर पाएंगे, जो पहले चीनी की इतनी बड़ी फसल पैदा करते थे ।

और इस प्रकार, जिन देशों में इस प्रणाली के अनुसार, दो पीढि़यों से, चीनी उत्पादन की संस्कृति फल-फूल रही है, उन्हें उदाहरण के रूप में उद्धृत किया जाएगा कि एक उद्योग में मनुष्य की मूर्खता क्या कर सकती है, जो भूमि के संसाधनों की सीमा को बिना सोचे ख़तम करने की हद तक इस्तेमाल कर रहा है ।

इंग्लैंड में इसी तरह की प्रथा का पालन किया गया है। सभी शलजम के खेतों में, जहां से पोटास की भरपाई (पुनर्स्थापना) किए बिना जड़ों को ले लिया गया है, उपज की गुणवत्ता में समान गिरावट आई है, और केवल उन जगहों पर जहां जड़ों को खेत में ही भेड़ों को चरवाया गया है, पोटाश की मात्रा सही तरह से संतुलित रह सकी है, और उपज की मात्रा और गुणवत्ता अपरिवर्तित बनी हुई हैं ।

इस कार्य के पिछले संस्करणों में "किण्वन, अपघटन और सड़न के रसायन विज्ञान" पर निहित खंड को हटा दिया गया है, क्योंकि उसका सीधा जुडाव कृषि से नहीं है। पाश्चर, बर्थेलॉट, एच. श्रोएडर और अन्य के व्यापक और महत्वपूर्ण कार्यों से, किण्वन और सड़ांध की प्रक्रियाओं के बारे में हमारा ज्ञान, 1846 के बाद से, बहुत बढ़ा है, इसलिए मैं इस विषय पर एक विशेष काम करना उपयुक्त समझता हूँ,  जिस पर अब मैं लगा हुआ हूं।

सितम्बर 1862, म्युनिक

Notes

1. “Potass" " potash" की एक पुरातन वर्तनी है

2. लिज़ ऑलसोप की टिपण्णी: "श्लेम्पकोहले - पोटाश के निर्माण के लिए इस्तेमाल की जाने वाली चुकंदर रिफाइनरी का एक उप-उत्पाद। ये अनुवाद करने के लिए एक अस्पष्ट वाक्य है (मेरे लिए!) मूल जर्मन में और क्रॉसिंग आउट से मुझे लगता है कि मारिया गिल्बर्ट ने भी इसे कठिन पाया। मुझे लगता है कि सामान्य अर्थ यह है कि इन उप-उत्पादों में पोषक तत्व चीनी उत्पादन के लिए आवश्यक हैं और उन्हें 'निर्यात' करने से किसान अपने खेतों की उर्वरता को कम करने का जोखिम उठाते हैं।


अंग्रेजी खेती और सीवर के बारे में

जस्टस फॉन लिबिग

7 नवंबर, 1859 को, टाइम्स ऑफ लंदन ने वैज्ञानिक खेती के समर्थक जॉन मेची का एक पत्र छापा, जिसमें चेतावनी दी गई थी कि "हमारी नई स्वच्छता व्यवस्थाओं द्वारा ग्रेट ब्रिटेन की मिट्टी धीरे-धीरे लेकिन निश्चित रूप से समाप्त हो रही है, जो 15,000,000 लोगों का, जो हमारे कस्बों और शहरों में रहते हैं, मल को सीधे नदियों में प्रवाहित करने की अनुमति देता है। उन्होंने इसे "आत्मघाती" बताया है, और इससे हो सकने वाली बड़ी आपदाओं के बारे में भी चेताया। हालांकि गुआनो, हड्डियों और खाने के सामान की व्यापक खरीद से, हम नुकसान की भरपाई करने की कोशिश कर रहे हैं। हमें उस महान व्यक्ति, बैरन लिबिग (जिन्हें कृषि विज्ञान के सर आइजक न्यूटन की उपाधि दी गयी) द्वारा चेतावनी दी जाती है, कि भरपाई के प्रयास, जो बर्बाद किया जा रहा है उसकी तुलना में नगण्य है।

मेची ने लिखा, मानव मल को सीवरों से भूमि पर पुनर्निर्देशित करने के बारे में लिखा कि, "यह लोगों के लिए भोजन उपलब्ध कराने का एकमात्र लाभदायक और उपलब्ध साधन है।" उन्होंने लेबिग की 1856 की पुस्तक लेटर्स ऑन मॉडर्न एग्रीकल्चर के लंबे अंशों को जोड़ा (और टाइम्स ने प्रकाशित किया) और समान बिंदुओं पर लिखा और चीनी सभ्यता के लंबे अस्तित्व को इसके संग्रह और उर्वरक के रूप में मानव मल के उपयोग को जिम्मेदार ठहराया। टाइम्स के इसी अंक में एक संपादकीय नेता ने शिकायत की थी कि मेट्रोपॉलिटन बोर्ड ऑफ वर्क्स लंदन की सीवेज समस्या पर टालमटोल कर रहा था: एक सदस्य, ए. एच. लेयर्ड की विशेष आलोचना हुई।

मेची ने टाइम्स का वह अंक लिबिग को भेजा, जो उस समय म्यूनिख में पढ़ा रहे थे। लीबिग का उत्तर 23 दिसंबर के अंक में छपा, और बाद में अंग्रेजी के अन्य समाचार पत्रों और पत्रिकाओं में पुनर्मुद्रित किया गया। उसी समय, म्यूनिख में अमेरिकी वाणिज्य-दूत, जिसने अनुवाद में लीबिग की मदद की थी, ने संयुक्त राज्य अमेरिका को इसकी प्रतियां भेजीं, जहां इसे 1860 की शुरुआत में न्यूयॉर्क टाइम्स, साइंटिफिक अमेरिकन और अन्य प्रकाशनों द्वारा प्रकाशित किया गया था।

लिबिग का पत्र शहरी कचरे को मिट्टी में वापस आने से रोकने वाले सार्वजनिक बहस में एक महत्वपूर्ण योगदान था। इसने इस विषय पर लीबिग के परिपक्व विचारों को दर्शाया,  जो जल्द ही उनके कृषि रसायन विज्ञान के विवादास्पद सातवें संस्करण में विस्तार से प्रस्तुत किए जाने वाले थे। इस किताब का मार्क्स ने कैपिटल लिखते समय गहराई से अध्ययन किया था।

  • इयान एंगस

म्यूनिख, गुरुवार, 17 नवंबर, 1859

महोदय,

टाइम्स को आपका 7 नवंबर का पत्र, मुझे उन विचारों के लिए धन्यवाद व्यक्त करने का एक अवसर प्रदान करता है, जिन्हें आप वहां व्यक्त करते हैं, और जिन्हें स्थापित करने के लिए मैंने कई वर्षों तक मेहनत की है। मुझे खेद है कि मेरे प्रयासों का कोई प्रत्यक्ष परिणाम प्राप्त नहीं हुआ है, और मैं इसे एक सौभाग्यशाली घटना मानता हूं कि आपके जैसे व्यावहारिक चरित्र वाले व्यक्ति ने दृढ़ विश्वास पैदा करने वाली अनुकूलित भाषा में पहली बार देश और कृषि के हित में, "शहरों के सीवरेज" के सवाल को उठाया है। यह मेरी प्रबल इच्छा है कि आप अंग्रेजों को अपने विश्वासों के प्रति जगाने में सफल हों; क्योंकि उस स्थिति में "शहरों के सीवरेज" से खाद प्राप्त करने के रास्ते में आने वाली कठिनाइयों को दूर करने के तरीके और साधन निश्चित रूप से मिल जाएंगे, और आने वाली पीढ़ी उन लोगों सराहेगी  जिन्होंने अपनी इस लक्ष्य को पाने के लिए मेहनत की है।

मेरी छोटी सी सफलता का आधार स्पष्ट रूप से इस तथ्य में निहित है कि अधिकांश किसान यह नहीं जानते हैं कि इस मामले में उनके अपने हित किस हद तक जुड़े हुए हैं, और क्योंकि जीवन के चक्र के संबंध में अधिकांश लोगों के विचार और अवधारणाएं और हमारी जाति के संरक्षण के नियम आम तौर पर फलांस्ट्री के आविष्कारक सी. फूरियर के नियमों से ऊपर नहीं उठ पाए हैं। जैसा कि आप जानते हैं, उन्होंने अंडों के माध्यम से अपने झुण्ड (फलांस्ट्री ) के रहने वालों की जरूरतों को पूरा करने को प्रस्तावित किया। उनका मानना ​​था कि केवल कुछ सौ हज़ार मुर्गियाँ प्राप्त करना आवश्यक था, जिनमें से प्रत्येक एक वर्ष में छत्तीस अंडे देती थी, जिससे लाखों अंडे बनते थे, जो इंग्लैंड में बेचे जाते थे, जिससे अत्यधिक आय हो सकती थी। फूरियर अच्छी तरह जानता था कि मुर्गियाँ अंडे देती हैं, लेकिन शायद वह यह नहीं जानता था कि अंडे देने के लिए मुर्गियों को उसके वजन के बराबर मकई खानी चाहिए। और इसलिए अधिकांश लोग यह नहीं जानते हैं कि खेतों में, स्थायी रूप से अपनी फसल पैदा करने के लिए, या तो मनुष्य के द्वारा कुछ अतिरिक्त खनिज की जरुरत होती है, जो खेत से उत्पादन में वही भूमिका निभाते हैं जो की अण्डों के उत्पादन में मक्का का होता है । वे सोचते हैं कि अच्छी जुताई और अच्छा मौसम अच्छी फसल पैदा करने के लिए पर्याप्त है; इसलिए वे इस प्रश्न से पूरी तरह से बेपरवाह हैं, और भविष्य के प्रति उदासीन और लापरवाह हैं।

जैसे एक चिकित्सक, जो एक युवा व्यक्ति के खिलते स्वास्थ्य के स्पष्ट संकेतों में, उस घातक कीड़े को पहचानते हैं जो उसके जैविक ढांचे को कमजोर करने की धमकी देता है, इसलिए इस मामले में भी उन समझदार मनुष्यों को चाहिए कि इस प्रश्न की महत्ता को समझें और समय रहते आवाज़ उठायें।

यह सच है कि खेतों सही तरह से की गयी जुताई, धूप और समय पर बारिश, अच्छी फसल के लिए जरुरी स्थितियाँ हैं, और मनुष्यों को दिखाई देती हैं, लेकिन ये खेत की उत्पादकता पर पूरी तरह से प्रभावहीन हैं, जब तक कि कुछ चीजें मिट्टी में मौजूद ना हों, जिनको कि समझना इतना आसान नहीं है और जो मिट्टी में जड़ों, पत्तियों और बीजों के उत्पादन के लिए पोषण का कार्य करते हैं । ये तत्व मिट्टी में हमेशा बहुत कम मात्रा और अनुपात में मौजूद होते हैं।

इन तत्वों का उपयोग खेतो में उत्पादन के लिए, मकई के, होता है साथ ही ये तत्व किसी भी जानवर के शरीर में मांस-पेशियों का निर्माण करते हैं, लेकिन दैनिक अनुभव से पता चलता है कि लगातार फसल उगने से कुछ समय बाद सबसे अधिक उपज देने वाला खेत भी उत्पादन करना बंद कर देता है।

एक बच्चा भी यह समझ सकता है कि, इन परिस्थितियों में, एक बहुत ही उत्पादक क्षेत्र को, बहुत उत्पादक, या केवल उत्पादक बनाये रखने के लिए, निकाले गए तत्वों की पूर्ति करनी पड़ेगी; और अच्छे परिणामों पाने के लिए परिस्थितियों का समुच्चय बना रहना चाहिए, जैसे की एक कुआँ होता है जिसका पुनर्भरण न हो रहा हो, चाहे वह कितना भी गहरा क्यों न हो, अगर इसका पानी लगातार पंप किया जाता है, अंत में खाली हो जाता है । हमारे खेत भी इसी कुवें की ही तरह हैं । सदियों से वे तत्व जो खेत की फसलों के पुनरुत्पादन के लिए अपरिहार्य हैं, उन फसलों में मिट्टी से लिए गए हैं, और वह भी बिना पुनर्स्थापित किए। यह हाल ही में पता चला है कि मिट्टी में वास्तव में इन तत्वों की आपूर्ति कितनी कम है। हाल ही में तत्वों की आपूर्ति वाली खाद मिला कर, तत्वों की होने वाली कमी को पूरा करने के लिए कदम उठाये गए हैं।

केवल कुछ ही बेहतर जानकार किसान इसकी आवश्यकता को समझते हैं, और उनमें से जिनके भी पास साधन हैं, वह अपने खेतों में इन उर्वरक तत्वों की मात्रा को बढाने की भरपूर कोशिश कर रहे हैं । पर अभी भी अन्भिघ लोगो की तादात ज्यादा है जिनको मिट्टी की बहाली के बारे में कोई जानकारी नहीं है, उन्हें लगता है कि जब हो सकता है तब तक वे खेतों का इस्तेमाल करना जारी रख सकते हैं, और जब बहाली या मरम्मत की आवश्यकता होगी तो उनके पास काफी समय होगा । बेशक वे नहीं जानते कि उनके पास मिट्टी में अभी कितना भंडार है, और न ही वे इस बात से अवगत हैं कि जब आवश्यकता प्रकट होगी, तो उसे पूरा करने का कोई साधन नहीं होगा। वे नहीं जानते कि उन्होंने जो कुछ बर्बाद किया है उसे पूरा करना आसाध्य है।

इन तत्वों का नुकसान का कारण "कस्बों की सीवरेज प्रणाली" को लागू करना है। खेतों के सभी तत्वों को, उनके उत्पादों मकई और मांस के रूप में शहरों में ले जाया जाता है और वहां इस्तेमाल किया जाता है, उपयोग में लाये गए तत्वों के मुकाबले कुछ भी नहीं, या कुछ भी नहीं के बराबर, खेतों में वापस जाता है।यह स्पष्ट है कि यदि इन तत्वों को बिना किसी नुकसान के एकत्र किया जाय, और हर साल खेतों में बहाल किया जाय, तो वे शहरों को हर साल उतनी ही मात्रा में मकई और मांस देने की शक्ति बनाए रखेंगे; और यह भी समान रूप से स्पष्ट है कि यदि खेतों को ये तत्व वापस नहीं मिलते हैं, तो कृषि को धीरे-धीरे बंद कर देना पड़ेगा । खाद के रूप में "शहरों के सीवरेज" की उपयोगिता के संबंध में, कोई कृषक और कोई बुद्धिमान व्यक्ति, के मन कोई संदेह हो; लेकिन विचारों में भिन्नता बहुत ज्यादा है।

कई लोगों की राय है कि मकई, मांस और खाद, माल हैं, जो अन्य सामानों की तरह बाजार में खरीदे जा सकते हैं; कि मांग के साथ कीमत शायद बढ़ सकती है; लेकिन यह मांग उत्पादन को भी प्रोत्साहित करेगी, और यह सब खरीदने के साधन होने पर बदल जाता है, और जब तक इंग्लैंड के पास कोयला और लोहा है, तब तक वह मकई, मांस और खाद के लिए अपने उद्योग के उत्पादों का आदान-प्रदान कर सकता है जो उसके पास नहीं है। इस संबंध में मुझे लगता है कि भविष्य के बारे में बहुत अधिक आश्वस्त न होना बुद्धिमानी होगी, क्योंकि शायद समय आए, शायद लगभग आधी सदी में ही, कि वे देश जिनके अनाजों के भंडारों को लेकर इंग्लैंड आस्वस्त है, वे इसकी मांगों की आपूर्ति करने में सक्षम नहीं होंगे, कम से कम उन्हें शायद कोयले और लोहे की उतनी जरुरत नहीं होगी जितनी कि इंग्लैंड को मक्के की है। यूरोप के देशों और उत्तरी अमेरिका के संयुक्त राज्य अमेरिका में, इंग्लैंड पर से अपनी निर्भरता को कम करने के लिए बहुत प्रयास किए जा रहे हैं, क्योंकि अंत में इन देशों में लोगों के श्रम का भुगतान करने के लिए, मकई की कीमतों को बनाए रखना एकमात्र तरीका है।

संयुक्त राज्य अमेरिका में जनसंख्या अन्य देशों की तुलना में अभी भी अधिक अनुपात में बढ़ती है, जबकि खेती के तहत भूमि पर मकई का उत्पादन लगातार गिर रहा है।

इतिहास से पता चलता है कि उन सभी देशों में से एक नहीं, जिन्होंने दूसरों के लिए मकई का उत्पादन किया है, मकई के बाजार बने रहे हैं, और इंग्लैंड ने संयुक्त राज्य अमेरिका की सबसे अच्छी भूमि को अनुत्पादक बनाने में अपना पूरा योगदान दिया है, जिसने उसकी मकई की आपूर्ति हुई है, ठीक जैसे पुराने रोम ने  सार्डिनिया, सिसिली और अफ्रीकी तट की अन्य समृद्ध भागों को लूट कर उनकी उर्वरता को कम कर दिया है।

अन्तः, सभ्य देशों में मकई के उत्पादन को एक निश्चित सीमा से अधिक बढ़ाना असंभव है, और यह सीमा इतनी संकीर्ण हो गई है कि हमारे खेत, बिना विदेशी खाद और प्रभावी तत्वों में ऊपरी वृद्धि के बिना अधिक उपज देने में सक्षम नहीं हैं।

गुआनो और हड्डियों के उपयोग के माध्यम से, सबसे सीमित क्षमता वाला किसान भी इस तरह की वृद्धि का वास्तविक अर्थ सीखता है; वह समझ सकता है कि स्टाल या घर-निर्मित खाद की शुद्ध प्रणाली एक सच्ची और वास्तविक लूट प्रणाली है।

गुआनो और हड्डियों के उपयोग से उर्वरक तत्वों के जीर्णोद्धार में बहुत वृद्धि हुई है, और जरुरी तत्वों का एक छोटा सा हिस्सा जो सदियों से खेती के द्वारा अपने खेतों धीरे धीरे ख़तम हो रहा था, उनमें आश्चर्यजनक रूप से वृद्धि हुई है।

सक्सोनी साम्राज्य के छह अलग-अलग हिस्सों में इस अंत के विशेष संदर्भ में किए गए प्रयोगों से पता चला है कि ग्वानो के प्रत्येक सौ वजन को एक खेत में डालने पर 150 पाउंड गेंहू का उत्पादन होता है, 400 एलबीएस आलू का, और 280 एलबीएस तिपतिया घास का। इससे यह अनुमान लगाया जा सकता है कि ग्वानो के 100,000 टन, या 2,000,000 cwt के वार्षिक आयात से यूरोप के मकई और मांस के उत्पादन में कितनी वृद्धि हुई है।

गुआनो और हड्डियों के प्रभाव ने किसान को अपने खेतों की क्षमता में कमी  का वास्तविक और एकमात्र कारण समझा दिया होगा; इससे उसे यह महसूस हो गया होगा कि उसके खेतों की उर्वरकता किस स्थिति में है, अगर गुआनो के तत्व जो उसने मांस और अपने खेतों के उत्पादों के रूप में शहरों में पहुंचाए थे, हर साल बहाल होने की बात स्वीकार करेगा।

हालाँकि, किसान अभी तक इस बात को नहीं समझ सका है । जैसा कि उनके पूर्वजों का मानना था कि उनके खेतों की मिट्टी कभी खत्म नहीं होती, उसी तरह आज के किसान का मानना है कि विदेशों से आने वाली खाद का कोई अंत नहीं होगा। वह सोचता है कि शहरों के सीवरों से उनके तत्वों को इकट्ठा करने की तुलना में, गुआनो और हड्डियों को खरीदना बहुत आसान है, और यदि गुआनो और हड्डियों की कमी कभी उत्पन्न होती है, तो उस समस्या का हल निकालने के लिए उनके पास पर्याप्त समय होगा। लेकिन किसानो के बीच फैली हुई सभी अभिधारणाओं में, यह सबसे खतरनाक और घातक है।

यदि यह माना जाता है कि कोई भी देश लगातार दूसरे देश को अनाज की आपूर्ति नहीं कर सकता है, तो क्या यह माना जाना चाहिए कि दूसरे देश से खाद का आयात पहले ही बंद हो जाना चाहिए, क्योंकि उनका निर्यात उस देश में मकई और मांस के उत्पादन को इतनी तेजी से कम कर देता है कि बहुत ही कम समय में यह कमी स्पष्ट रूप से खाद के निर्यात को प्रतिबंधित करती है।

अगर यह माना जाए कि एक पौंड हड्डियों में फॉस्फोरिक एसिड होता है जो गेहूं के 60 पौंड के उत्पादन के लिए आवश्यक है। का; कि अगर इंग्लैंड के खेत 1,000 टन हड्डियों के आयात से, 200,000 बुशल अधिक गेहूं का उत्पादन करने में सक्षम हो गए हैं, जो कि इस आपूर्ति के बिना पैदा किए गए गेहूं से अधिक है, तो हम उर्वरता के भारी नुकसान का अनुमान लगा सकते हैं जो जर्मनी से इंग्लैंड जाने वाली कई लाख टन हड्डियों के निर्यात से जर्मन खेतों को हो रहा है। यह कल्पना की जा सकती है कि यदि यह निर्यात जारी रहता, तो जर्मनी उस बिंदु पर आ जायेगी जहाँ कि मकई के लिए अपनी खुद की आबादी की मांग को पूरा करने में सक्षम नहीं हो पायेगी । जर्मनी के कई हिस्सों में, जहां से पहले बड़ी मात्रा में हड्डियों का निर्यात किया जाता था, यह पहले से ही मामला बन गया है, कि इन हड्डियों को बहुत अधिक कीमत पर फिर से गुआनो के रूप में वापस खरीदा जाना चाहिए, ताकि पूर्व समय फसलों का की भुगतान किया जा सके।

जर्मनी से इतने सालों तक हड्डियों का निर्यात केवल इसलिए संभव था क्योंकि जर्मन किसानों को अंग्रेजों की तुलना में अपने व्यवसाय की वास्तविक प्रकृति का ज्ञान कम था, क्योंकि वे मानते थे कि अभ्यास और विज्ञान एक दूसरे के विरोधाभासी सिद्धांत हैं, और मौलिक रूप से भिन्न हैं। और वे मानते हैं कि उन्हें प्रकृति के नियमों में नहीं, बल्कि पुराने अभ्यासों और परम्पराओं पर भरोसा करना चाहिए।

चीजें अब बेहतर के लिए बदल रही  हैं, हालांकि वांछित हद तक नहीं, क्योंकि आमतौर पर जर्मन किसान अभी तक अपने खेतों की उर्वरता को बनाए रखने के लिए हड्डियों के तत्व के मूल्य को नहीं समझते हैं, और खेतों में उनकी पुनर्बहाली बात तो रहने ही दें । पूर्व प्रजनन क्षमता; क्योंकि यदि वे सब इस बात को समझ लें, तब भी किसी भी हाल में किसी के पास इतनी हड्डियाँ की आपूर्ति होगी ही नहीं ।

जर्मनी में हड्डियों के दाम इतने अधिक हो गए हैं कि उनके निर्यात पर रोक लग गई है, और यदि यह प्रश्न अंग्रेजी वाणिज्य सरकार से किया जाए कि वह अंग्रेज किसान को इतनी अपरिहार्य खाद कहां से देता है, तो इसका उत्तर विस्मय पैदा करेगा, क्योंकि यह पूर्ति अब तक पृथ्वी के सभी बसे हुए हिस्सों को लूट कर की जा रही है, कि सुपर-फॉस्फेट के निर्माता केवल खनिज साम्राज्य के फॉस्फेट चूने पर ही अपनी उम्मीदें लगा सकते हैं।

गुआनो के संबंध में, मुझे आश्वासन दिया गया है कि 20 या 25 वर्षों में, यदि इसका उपयोग उसी अनुपात में भी बढ़ गया, जैसा कि अभी तक हुआ है, तो दक्षिण अमेरिका में एक जहाज की ढुलाई के लिए पर्याप्त नहीं रहेगा। हालाँकि, हम मान लेंगे कि इसकी आपूर्ति और हड्डियों की आपूर्ति पचास वर्षों तक, या उससे भी अधिक समय तक जारी रहेगी - तब इंग्लैंड की क्या स्थिति होगी जब गुआनो और हड्डियों की आपूर्ति समाप्त हो जाएगी?

यह सबसे आसान प्रश्नों में से एक है। यदि सामान्य "सीवरेज सिस्टम" को बरकरार रखा जाता है, तो आयातित खाद, गुआनो और हड्डियाँ, शहरों के सीवरों में अपना रास्ता बनाती हैं, जो एक अथाह गड्ढे की तरह सदियों से अंग्रेजी क्षेत्रों के गुआनो तत्वों को निगल चुके हैं, और वर्षों के बाद भूमि खुद को ठीक उसी स्थिति में पाएगी जो गुआनो और हड्डियों के आयात से पहले थी; और जब इंग्लैण्ड बाकी यूरोप की खेती की भूमि को पूरी तरह से समाप्त होने की कगार तक लूट लेगा, और उनकी मकई और खाद के उत्पादन की शक्ति ख़त्म कर देगा, तब वह मकई और गेहूँ पैदा करने के साधनों में पहले से अधिक धनी नहीं हो पाएगा, बल्कि उसके बाद और भी गरीब हो जाएगा । गुआनो और हड्डियों के आयात से, हालांकि, मकई और मांस के बढ़ते उत्पादन के परिणामस्वरूप अधिक अनुपात में उपज हुई है, और यह जनसंख्या शासकों पर प्रभाव डालेगी अपने भोजन की माँग को पूरा करने के लिए । यदि मनुष्य यह वांछनीय नहीं समझते हैं कि आबादी और भोजन की आपूर्ति को युद्धों और क्रांतियों (जिसमें भोजन की कमी ने हमेशा एक निश्चित भूमिका निभाई है) के बीच संतुलन से बहाल किया जाए, या प्लेग, महामारी को नष्ट करने के माध्यम से और अकाल, या बड़े पैमाने पर उत्प्रवास द्वारा, तो क्या उन्हें यह प्रतिबिंबित करना चाहिए कि जनसंख्या में वृद्धि के अस्तित्व के कारणों के संबंध में स्पष्ट दृष्टिकोण प्राप्त करने का समय आ गया है।

थोड़ा सा विचार करने पर यह समझ आ जाएगा कि आबादियाँ, व्यापक प्राकृतिक कानूनों द्वारा नियंत्रित होती हैं, जिसके अनुसार किसी उनकी वापसी, अवधि, वृद्धि या कमी प्राकृतिक स्थितियों की अवधि, वृद्धि या कमी पर निर्भर करती है। यही कानून हमारे खेतों में फसल और जनसंख्या के रखरखाव और वृद्धि को नियंत्रित करता है, और इस प्राकृतिक कानून का उल्लंघन इन सभी संबंधों पर एक हानिकारक प्रभाव डालता है, जिसे कम या ख़त्म करने के लिए उसके मूल कारणों को दूर करना ही एक मात्र तरीका है।  यदि, यह ज्ञात है कि कुछ मौजूदा स्थितियां खेतों पर घातक रूप से काम करती हैं, तो यह पूर्वानुमान लगाया जा सकता है कि उनकी निरंतरता कृषि को बर्बाद कर देगी, इन परिस्थितियों से उभरने का एक ही उपाय है, जिस पर भरोसा किया जा सकता है ताकि हमारे खेतों में एक सतत उर्वरता सुरक्षित हो सके, वह है कि मौजूदा हानिकारक चीजों की स्थिति में एक साधारण परिवर्तन और सुधार किया जाय, फिर हमें यह भी सोचना होगा कि क्या किसी राष्ट्र को अपने कल्याण की इन मूलभूत शर्तों को पूरा करने के लिए अपने सभी बौद्धिक और भौतिक संसाधनों को नहीं जुटाना चाहिए। यह समझना पड़ेगा कि बड़े शहरों में सीवरों से खाद-तत्वों की आपूर्ति अव्यावहारिक है। मैं उन कठिनाइयों से अनभिज्ञ नहीं हूँ जो इसके मार्ग में खड़ी हैं—वे वास्तव में बहुत बड़ी हैं; लेकिन अगर इंजीनियर और वैज्ञानिक एक साथ मिलकर इस पर कार्य करें तो उपाय निकल सकता है- सीवर से कृषि के लिए मूल्यवान तत्वों की बहाली और अन्य का निवारण - मुझे संदेह नहीं है कि इन प्रयासों से एक अच्छा परिणाम होगा मिलेगा ।

बुद्धि और पूंजी के साथ मिलकर, इंग्लैंड की उस शक्ति का प्रतिनिधित्व करतें हैं, जिसने कठिनाईयों के बावजूद भी संभव और व्यावहारिक चीजों को प्राप्त किया है। मैं "सीवरेज प्रश्न" के समाधान के लिए गहरी चिंता के साथ तत्पर हूं। यदि इस प्रश्न का निर्णय ग्रेट ब्रिटेन में कृषि की आवश्यकताओं की परवाह किए बिना किया जाता है, तो हम शायद ही इस महाद्वीप पर कुछ भी बेहतर होने की उम्मीद कर सकते हैं।

यदि मुझे अनुमति हो तो मैं उसी तारीख के टाइम्स के प्रमुख लेख के संबंध में कुछ शब्द जोड़ना चाहूँगा, जिसमें इस प्रश्न के एक पक्ष को बड़ी स्पष्टता के साथ उठाया गया है, जबकि लेख के लेखक के विचार बिल्कुल सही नहीं लगते हैं, जैसा कि यह मुझे समझ आया है। लेखक इस लेख में जो गलती कर रहा है, वह उसकी उस देश और उसकी जनता के प्रति कम जानकारी और भ्रम से हुई है।

प्राकृतिक विज्ञानों में हम किसी देश या जगह, उसकी शक्ति या उसकी दुर्बलता के बारे में कुछ भी नहीं जानते हैं। हम केवल भूमि, उनके भूगर्भीय गठन, उनकी जलवायु और मिट्टी के बारे में जानते हैं, और मिट्टी में मनुष्य और पशु के निर्वाह के लिए प्राकृतिक परिस्थितियाँ उन्हें जानते हैं। जिन स्थानों पर ये स्थितियाँ प्रचुर मात्रा में मौजूद हैं, और भूगर्भीय परिस्थितियाँ उनके प्रयोग में बाधा नहीं डालती हैं, वहाँ मनुष्य  को इस व्यवस्था से अलग नहीं किया जा सकता है। सबसे घटक और बर्बाद करने वाला युद्ध भी प्रकृति द्वारा दी गई बहुमूल्य उपहारों को लूट नहीं सकता है, और न ही शांति उन्हें उस भूमि को दे सकती है ।

यदि श्री लियार्ड टाइम्स के लेख में उनसे पूछे गए प्रश्न का उत्तर देने के लिए तैयार हैं, तो वे निस्संदेह कहेंगे कि सिंचाई की सराहनीय प्रणाली के क्षय ने असीरिया और मेसोपोटामिया में एक बड़ी आबादी को जीवित रखने को असंभव कर दिया। देश शायद एक बड़ी आबादी को बनाए रखने में सक्षम हो सकते हैं, जब कुछ प्रतिरोधी प्रभाव, जो उनके निर्बाध कार्य में मिट्टी की खेती को असंभव बनाते हैं, मानव बुद्धि से दूर हो जाते हैं; या जब किसी भूमि में एक को छोड़कर उत्पादकता की सभी स्थितियाँ होती हैं, और फिर वह देश वो प्राप्त करने में सफल हो जाता है जिसकी उसमे कमी थी और जिसकी आवश्यकता थी । यदि हॉलैंड अपने तटों के बिना होता, जिनको कि बड़े खर्च हर हालत में सुरक्षित रखा जाना चाहिए, तो वह न तो मकई और न ही मांस का उत्पादन कर सकता; और वह देश रहने योग्य नहीं होता। इसी तरह से अफ्रीकी ओएसिस के निवासी अपने अनाज के खेतों को रेगिस्तान के तूफानों से बचाते हैं, जो यदि ना होते तो ये खेत रेत से ढके बंजर होते । मैं जानता हूं कि भविष्य की बुराई से लड़ने वालों को अपनी ही पीढ़ी के उपहास का पात्र बनते रहेंगे, लेकिन अगर इतिहास और प्राकृतिक कानून न्यायपूर्ण निष्कर्ष पर पहुँच सकते हैं तो इससे मजबूत आधार और कोई नहीं है कि : ब्रिटिश लोग अपनी भूमि की स्थायी उर्वरता की प्राकृतिक परिस्थितियों को सुरक्षित करने के लिए दर्द नहीं उठाते हैं, अगर वे इन स्थितियों को अब तक बर्बाद होने की अनुमति देते हैं, तो वह दिन दूर नहीं जब उनके खेतों में मकई और मांस की पैदावार बंद हो जाएगी । हर आदमी अपने आप को उस स्थिति में रख कर कल्पना कर सकता है जो धीरे-धीरे उठेगी; लेकिन यह प्राकृतिक विज्ञान के दायरे से बहार की बात है कि वह इस सवाल का फैसला करे कि जब यह स्थिति पैदा होगी तो राष्ट्र की शक्ति और स्वतंत्रता को बनाए रखा जा सकता है या नहीं।

मेरे प्यारे लोगों मेरा विश्वास करो,

सम्मानपूर्वक तुम्हारा,

जस्टस वॉन लिबिग।

(अनुवाद—डॉ. परिवा डोबरियाल)

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