ऑस्ट्रेलिया की आग का क्या है राज?
पर्यावरण अरुणबीते दिसम्बर में ऑस्ट्रेलिया के जंगलों की आग ने भयानक रूप ले लिया। इसने लगभग सौ करोड़ जीव-जन्तुओं को जलाकर राख कर दिया। इसमें अट्ठाईस जिंदगियां इन्सानों की भी शामिल हैं। ब्रिटेन के विशेषज्ञों का मानना है इस आग के चलते दस हजार करोड़ जानवरों की जिंदगी तबाह हो गयी । इस घटना ने दुनिया को झकझोर दिया और सन्देश दिया कि अब जलवायु आपातकाल पर बहस करने के दिन लद गये हैं । खतरा मुहाने पर नहीं खड़ा है बल्कि हम खतरे से घिरे हुए हैं-- “धरती जल रही है।”
ऑस्ट्रलियाई जंगल में लगी आग का इतिहास देखें तो पता चलता है कि साल 1920 के बाद से हर साल तापमान में लगातार वृद्धि होती गयी, जिसमें 1990 के बाद बहुत बड़ी छलांग लगी। 2019 सबसे गर्म साल था। यह साल 2018 की तुलना में औसतन डेढ़ डिग्री अधिक गर्म था। वहीं बारिश की भारी कमी ने ऑस्ट्रेलिया के बहुत बड़े हिस्से को सूखे की चपेट में ले लिया। बीते साल की कम बारिश ने पिछले 120 सालों का रिकॉर्ड तोड़ दिया, जिससे सूखे का कहर और बढ़ गया।
इस समस्या के पीछे प्रकृति की गतिविधियों में इनसान के अवांछित हस्तक्षेप का बहुत बड़ा हाथ है। ऑस्ट्रेलिया दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा कोयला निर्यातक देश है, साल 2018 में जीडीपी का साढ़े तीन प्रतिशत, यानी 47.65 खरब रुपये कोयले के निर्यात से आया था। जहाँ कोयले की खदानें हैं, वहाँ बढ़ते तापमान और गर्म हवाओं के कारण आग तेजी से फैलती गयी और शहरी इलाकों की तरफ बढती गयी। 2019 में 62 हजार आग की घटनाएँ हुईं। इसके बावजूद ऑस्ट्रेलिया का शासक वर्ग कुम्भकरण की नींद सोता रहा।
2019 की गर्मी में अमेज़न वर्षावन का बड़ा हिस्सा जलकर राख हो गया। उस समय दुनिया भर में बड़े–बड़े जलवायु सम्मलेन हुए। लेकिन धरातल पर कुछ नहीं किया गया। इसलिए ऑस्ट्रेलिया के जंगलों की आग से बचाव की कोई तैयारी नहीं की गयी, जिससे अमेज़न की आग से 6 गुना से ज्यादा बड़ी ऑस्ट्रेलियाई आग को फैलने के लिए छोड़ दिया गया।
विशेषज्ञ बताते हैं कि कोयला खनन और जीवाश्म के भारी इस्तेमाल के कारण धरती का तापमान तेज़ी से बढ़ जाता है, जिससे आग की घटनाओं में वृद्धि देखी जा रही है। अमेज़न वर्षावन ,साइबेरिया के जंगल तथा ऑस्ट्रेलिया की आग और कैलिफ़ोर्निया के कैंप फायर ने जलवायु आपातकाल को अधिक गंभीरता से रेखांकित किया है। दुनिया भर के वैज्ञानिकों और रिसर्च संस्थाओं के द्वारा जलवायु आपातकाल की घोषणा के बावजूद शासक वर्ग अपनी मनमानी करने पर उतारू हैं। वे प्रकृति का दोहन या लूट इस तरह किये जा रहे हैं मानों जैसे यह उन्हें खैरात में मिली हो। उनके मुनाफे की हवस ने हमारी धरती मां को इतनी बेरहमी से लूटा है कि जल, जंगल, जमीन सहित पूरा वातावरण नष्ट होने की कगार पर है। इन्हें इंसानियत और प्रकृति की कोई परवाह नही है।
ऑस्ट्रलिया के प्रधानमंत्री स्कॉट मॉरिसन फरमाते हैं कि यह संकट मात्र जलवायु परिवर्तन का नतीजा है। वे यह बताना भूल जाते हैं कि कैसे जलवायु परिवर्तन आज जलवायु आपातकाल में बदल गया है। इसका मुख्य कारण जीवाश्म ईधन का ज्यादा से ज्यादा इस्तेमाल है। प्रधानमंत्री मॉरिसन जीवाश्म ईधन के सबसे बड़े समर्थक हैं। ऑस्ट्रेलिया में वहाँ की जनता के भारी विरोध के बाद भी इन्हीं की देखरेख में अडानी ग्रुप को कोयला खदानों में निवेश की मंजूरी दे दी गयी। जीवाश्म ईधन कंपनियों को सरकार हर साल 85,300 करोड़ रुपये की छूट देती है। अगर परोक्ष सब्सिडी की बात की जाये तो यह धनराशी 2,06,200 करोड़ रुपये तक पहुच जाती है।
ऑस्ट्रेलिया के स्टॉक एक्सचेंज की 30 बड़ी कंपनियों में से 6 कम्पनियाँ खनन या जीवाश्म ईधन की हैं। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि ऑस्ट्रेलिया की अर्थव्यवस्था पर जीवाश्म ईधन कंपनियों का कितना बड़ा दबदबा है। निर्यात से मिलने वाली आय में 15 फीसदी हिस्सा कोयले का है। ऑस्ट्रेलिया का शासक वर्ग पूंजी और सत्ता के लिए हमारी धरती और हमारी जिंदगी की कोई परवाह नहीं करता।
इतनी भयावह आग के बावजूद हम देखते हैं कि वहाँ के समुदायों को आग बुझाने में कोई सहयोग नहीं दिया गया जबकि गिब्सलैंड के एक आदिवासी समुदाय– लेक टायर्स को मीडिया में दिखाया गया जो एक छोटी टंकी के सहारे आग पर काबू पाने की कोशिश कर रहा था। दूसरी ओर प्रधानमंत्री स्कॉट मॉरिसन के नये विमान की कीमत 177 करोड़ रुपये है।
कार्बन में अग्रणी अमरीका ग्लोबल वार्मिंग के लिए सबसे अधिक जिम्मेदार है लेकिन ऑस्ट्रेलिया भी उससे पीछे नहीं, आगे ही है। 2018 में ऑस्ट्रेलिया का प्रति व्यक्ति कार्बन उत्सर्जन 16.77 मीट्रिक टन था, जबकि अमरीका का 16.14 मीट्रिक टन था। कार्बन उत्सर्जन से ही ग्लोबल वार्मिंग हो रही है। इसके बढ़ते प्रभाव के चलते दुनिया के जंगल आग की चपेट में आते जा रहे हैं।
आज हम आग से तपती धरती पर जीने को मजबूर हैं। इसके जिम्मेदार शासक वर्ग ने अपना रूख तय कर लिया है कि वे अपनी इस लूट को जारी रखेंगे, चाहे दुनिया ख़त्म क्यूँ न हो जाये। अमरीकी राष्ट्रपति ,ऑस्ट्रेलियाई प्रधानमंत्री या दुनिया के तमाम शासक वर्ग की दिशा और उनके द्वारा उठाये गये कदम यह दर्शाते हैं कि उन्हें इस धरती से कोई लगाव नहीं है। अब सवाल उठता है कि इंसाफ पसंद और पर्यावरण प्रेमी दुनिया को बचाने के लिए कदम आगे बढ़ाते हैं या नहीं। दुनिया की मेहनतकश आवाम की जिंदगी संकट में है। एक तरफ तो अमानवीय शोषण और दूसरी तरफ प्रकृति की लूट से आयी भयावह आपदाओं, जहरीले पानी, खाना, हवा और निरन्तर बढ़ती गर्मी ने उनका जीवन नारकीय बना दिया है। आज दुनिया के सभी जीव-जन्तुओं के सामने मौत का संकट है। अगर शोषण और प्रकृति की लूट पर टिकी व्यवस्था को रोका नहीं गया तो धरती पर जीवन समाप्त हो जायेगा। देर बहुत पहले ही हो चुकी है, आज धरती का जो हिस्सा सही बचा है उसको बचाने का सवाल है।