रूस का यूक्रेन पर हमला वैश्विक महत्त्व की घटना है और 21वीं सदी के इतिहास का एक निर्णायक मोड़ है। यह विश्व समीकरण में बदलाव की शुरुआत का संकेत है। इसके साथ ही यह हमला यूक्रेनी जनता पर कहर बरपा रहा है और 21वीं सदी के सबसे बड़े शरणार्थी संकट को जन्म दे रहा है।

यूक्रेन संकट ने साफ कर दिया है कि अब दुनिया दो शक्तिशाली खेमों में बँटती जा रही है। अमरीकी चौधराहट वाली एकध्रुवीय व्यवस्था इतिहास की चीज बनती जा रही है। एक ओर अमरीकी गिद्ध के साथ यूरोपीय भेड़िये, जापानी लकड़बग्घा और ऑस्ट्रेलियाई कंगारू है तो दूसरी ओर रूसी भालू के साथ चीनी ड्रैगन है। यूक्रेन पर हमले के बाद बाइडेन के सम्बोधन में आत्मविश्वास की कमी और घबराहट देखी गयी, जो यूक्रेन मामले में अमरीकी खेमे की कमजोरी का स्पष्ट संकेत थी।

शुरू में नाटो और अमरीका की चुप्पी को समझा जा सकता है। नाटो का कोई देश अगर यूक्रेन की ओर से लड़ता है तो यह माना जाएगा कि अमरीका सीधे रूस के खिलाफ यूक्रेन के मोर्चे पर लड़ रहा है और यह कदम अमरीका–रूस के बीच सीधे टकराव और तीसरे विश्व युद्ध की ओर ले जा सकता है। अमरीका यह नहीं चाहता। इसलिए नाटो के हाथ बँधे हुए हैं।

नाटो से अलग देशों के पसीने छूट रहे हैं कि बिल्ली के गले में कौन घण्टी बाँधे। शुरू में यूक्रेन की मदद करके कोई भी सीधे रूस–चीन से दुश्मनी मोल लेना नहीं चाहता था, लेकिन जब रूसी हमला घातक हो चला, यूक्रेन का प्रतिरोध बढ़ता गया और दुनिया भर में रूस के खिलाफ पश्चिमी देशों के धुआँधार प्रचार अभियान से उसका चौतरफा विरोध शुरू हुआ तो इससे उत्साहित होकर नाटो देश यूक्रेन को हथियारों और वित्तीय संसाधनों से मदद को तैयार हो गये। इस तरह रूस को रोकने की कोशिश शुरू हो गयी।

एकध्रुवीय व्यवस्था के निर्माण में नाटो की आपराधिक भूमिका

1989 में, जब सोवियत संघ का विघटन नहीं हुआ था और सोवियत संघ के प्रभाव वाला पूर्वी जर्मनी और अमरीका के प्रभाव वाला पश्चिम जर्मनी दो अलग देश थे, उस समय अमरीका के विदेश मंत्री जेम्स बेकर ने पूर्वी जर्मनी और पश्चिम जर्मनी के एकीकरण के बारे में सोवियत महा सचिव मिखाइल गोर्वाचोव को भरोसा दिलाया था कि इस एकीकरण से नाटो का विस्तार सोवियत रूस तथा पूर्वी यूरोप की ओर एक इंच भी नहीं होगा।

जेम्स बेकर की वेबसाइट पर स्वीकार किया गया है कि जर्मनी के एकीकरण के समय “––– जर्मनी में नाटकीय परिवर्तनों के चलते अमरीकी राष्ट्रपति बुश और विदेश मंत्री बेकर को एक अप्रत्याशित मौका मिला। 40 वर्षों तक, विभाजित जर्मनी शीत युद्ध के तनावों का केन्द्र बिन्दु था। अब, बर्लिन की दीवार गिरने के साथ, बेकर और बुश ने जर्मनी के फिर से एकीकरण और नये एकीकृत जर्मनी को पश्चिमी देशों के सैन्य गठबन्धन नाटो में लाने का सुनहरा मौका परख लिया।” यह है साम्राज्यवादी अमरीका का बिखरते सोवियत संघ को दिलाये गये भरोसे की अन्तिम परिणति। धोखा, छलावा और वादा–खिलाफी अमरीकी रणनीति के महत्त्वपूर्ण अंग रहे हैं। इसलिए रूस शायद ही आज अमरीका की किसी बात का विश्वास करे।

1949 में सोवियत खेमे की घेरेबन्दी के लिए अमरीकी खेमे ने नाटो का गठन किया था, उस समय उसके 12 सदस्य देश थे। इसके जवाब में सोवियत संघ ने वारसा पैक्ट के जरिये (वारसा ट्रीटी ऑर्गनाजेशन) अल्बानिया, बुल्गारिया, चेकोस्लोवाकिया, पूर्वी जर्मनी, हंगरी, पोलैण्ड और रोमानिया को नाटो के मुकाबले में खड़ा किया था। अमरीका ने 1991 में न केवल सोवियत संघ के विघटन के बाद अलग हुए देशों को, बल्कि वारसा पैक्ट के देशों को भी एक–एक कर नाटो में शामिल करना शुरू किया। जब एकध्रुवीय विश्व व्यवस्था बन गयी और अमरीका उसका सिरमौर था, सोवियत संघ के विघटन के बावजूद उसने पूर्वी यूरोप में नाटो का विस्तार जारी रखा। इस तरह रूस की घेरेबन्दी की जाती रही और धीरे–धीरे यह शिकंजा कसा जाता रहा। आज नाटो में कुल 30 देशों को शामिल किया जा चुका है। यही रूस के लिए सबसे चिन्ता की बात है और यूक्रेन द्वारा नाटो की सदस्यता के लिए किये जानेवाले प्रयास से रूस खासा नाराज था क्योंकि यूक्रेन के सदस्य बनते ही नाटो और अमरीकी सेना का विस्तार मास्को के दरवाजे तक पहुँच जाता जो न तो रूस को मंजूर था और न ही चीन को।

12 मार्च 1947 से 3 दिसम्बर 1989 तक सोवियत संघ और अमरीका के बीच शीत युद्ध चलता रहा। इस दौरान नाटो ने कोई सैन्य अभियान नहीं चलाया क्योंकि उसके सामने सोवियत संघ के रूप में एक मजबूत प्रतिद्वन्द्वी खड़ा था जो उसका मुँहतोड़ जवाब देने की क्षमता रखता था। यही वह दौर था जब अमरीका को वियतनाम और कोरिया युद्ध में मुँह की खानी पड़ी, क्यूबा को मिसाइल संकट झेलना पड़ा और धौसपट्टी की रणनीति पर लगाम लगानी पड़ी। 1989 में बर्लिन की दीवार गिरने से यूरोप में नाटो की भूमिका में एक महत्त्वपूर्ण मोड़ आया। शीत युद्ध के खात्मे और सोवियत विघटन के बाद, बेखौफ नाटो ने अपना पहला हमला इराक पर किया।

1990 के दशक में, नाटो ने अपनी गतिविधियों का विस्तार सैन्य कार्रवाइयों से इतर राजनीतिक और मानवीय गतिविधियों तक किया जिसके बारे में पहले नाटो रुचि नहीं लेता था। यूगोस्लाविया के विभाजन के दौरान, इसने 1992 से 1995 तक बोस्निया में और बाद में 1999 में यूगोस्लाविया में सैनिक हमला करके जमकर तबाही मचायी। 28 फरवरी 1994 को, नाटो ने संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा घोषित नो–फ्लाई जोन का उल्लंघन करते हुए चार बोस्नियाई सर्ब विमानों को मार गिराया। नाटो के हवाई हमले में तबाह यूगोस्लाविया नवम्बर 1995 में डेटन समझौते के लिए बाध्य कर दिया गया। इस समझौते के तहत नाटो ने एक संयुक्त राष्ट्र–अनिवार्य शान्ति सेना को तैनात करके इस पूरे इलाके को सैनिक छावनी में बदल दिया।

1999 में जिस समय नाटो युगोस्लाविया के ऊपर बमबारी करके निर्दोष जनता का नरसंहार कर रहा था, उसी समय नाटो के विरोध में खड़े सर्बिया की समाजवादी पार्टी के नेता और 90 के दशक के दौरान युगोस्लाविया की सरकार के प्रमुख रहे स्लोबोडन मिलोसेविक के ऊपर युद्ध अपराध के आरोप लगाये गये। बोस्नियाई युद्ध, क्रोएशियाई स्वतंत्रता युद्ध और कोसोवो युद्ध के सम्बन्ध में यह आरोप अन्तर्राष्ट्रीय आपराधिक न्यायाधिकरण (अमरीकी दादागिरी के तहत संयुक्त राष्ट्र द्वारा गठित संस्था) द्वारा लगाया गया था। स्पष्ट था कि युद्ध अपराधी अमरीका और नाटो संयुक्त राष्ट्र पर अपना प्रभाव जमाकर उलटे अपने देश की रक्षा करनेवाले स्लोबोडन मिलोसेविक को ही युद्ध अपराधी ठहराने का प्रपंच रच रहे थे क्योंकि विश्व स्तर पर उनका जवाब देनेवाल रूस कमजोर पड़ गया था। 11 जून 1999 को मजबूरी में मिलोसेविक ने संयुक्त राष्ट्र के उस प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया, जिसके तहत नाटो की तथाकथित शान्ति सेना इलाके में गस्त करनेवाली थी।

अमरीका द्वारा अफगानिस्तान पर हमले के लिए भी एक बड़ा प्रपंच रचा गया। 11 सितम्बर को वर्ल्ड ट्रेड सेन्टर पर हुए हमले का बहाना बनाकर अमरीकी नेतृत्व में नाटो ने अफगानिस्तान के ऊपर हमला कर दिया। नाटो ने अपने संगठन के इतिहास में पहली बार नाटो चार्टर के अनुच्छेद 5 को लागू किया था। इस अनुच्छेद में कहा गया है कि किसी भी सदस्य पर हमला सभी पर हमला माना जाएगा। जबकि यह रहस्य अब खुल चुका है कि अमरीका ने झूठ बोला था कि वर्ल्ड ट्रेड सेन्टर पर हमले का मास्टर माइण्ड अल–कायदा प्रमुख ओसामा बिन लादेन अफगानिस्तान में छिपा हुआ है और अफगान सरकार उसकी मदद कर रही थी। अफगानिस्तान युद्ध में लाखों निर्दोष नागरिक मारे गये, लेकिन इसके लिए पूरी तरह जिम्मेदार अमरीका को संयुक्त राष्ट्र संघ में युद्ध अपराधी ठहराने का प्रस्ताव नहीं लाया जा सका। ऐसी हिम्मत किसी भी देश में न थी जो यह प्रस्ताव ला सके।

यही स्थिति इराक और लीबिया हमले में भी थी, जहाँ जनता को कीड़े–मकोड़ों की तरह बमवर्षक विमानों का निशाना बनाया गया। उस समय भी संयुक्त राष्ट्र मौन रहा। इराक युद्ध के दौरान, नाटो ने अमरीकी हमले का समर्थन किया, जबकि यह युद्ध किसी नाटो देश की सुरक्षा के लिए नहीं लड़ा जा रहा था। अगस्त 2004 में, नाटो प्रशिक्षण मिशन का गठन इराक में किया गया जिसका उद्देश्य इराक में अमरीकी नरसंहार के लिए सेना को प्रशिक्षित करना था। अमरीका ने कर्नल गद्दाफी की सरकार के खिलाफ विद्रोहियों की मदद करके लीबिया में गृहयुद्ध भड़काने का काम किया। इसमें भी नाटो की प्रमुख भूमिका थी। इस गृहयुद्ध में कर्नल गददफी को अपनी सत्ता और जान से हाथ धोना पड़ा।

आइये, अब अमरीकी चौधराहट वाली विश्व व्यवस्था की आर्थिक–राजनीतिक तस्वीर पर एक नजर डाली जाये ताकि यह देखा जा सके कि वह किस तरह दुनिया की जनता के सीने पर सवार होकर शासन करता रहा।

अमरीकी चौधराहट वाली एकध्रुवीय विश्व व्यवस्था

अब तक पूरी दुनिया पर अमरीकी चौधराहट वाले साम्राज्यवाद का वर्चस्व कायम रहा है और दुनिया के अधिकांश देशों की राजसत्ताएँ खुलेआम विश्व पूँजीवाद की लूट–खसोट को आसान बनाती रही हैं। साम्राज्यवादी पूँजी लोकतंत्र नहीं, वर्चस्व चाहती है। 1990 के बाद, जब अमरीकी साम्राज्यवाद ने पूरी दुनिया पर अपना वर्चस्व कायम कर लिया, तो उसके हित में काम करनेवाली राजसत्ताएँ भी लगातार अपने आप को अधिनायकवादी रंग में रंगती गयीं। मजबूत नेतृत्व और जनविरोधी, अधिनायकवादी सत्ताधारी ही इस दौर में पूँजीवादी लूटतंत्र को निर्बाध रूप से जारी रख सकते थे। उन्होंने ऐसा ही किया और अब तक कर रहे हैं।

वैसे तो नव उदारवाद की परिघटना अमरीका और ब्रिटेन में अस्सी के दशक से ही रीगन और थ्रेचर की नीतियों के रूप में शुरू हो चुकी थी, जब सामाजिक कल्याण पर सरकारी खर्च में कटौती की गयी और उनको निजी मुनाफाखोरों के हवाले कर दिया गया, लेकिन 1990 के आसपास दुनियाभर में एकध्रुवीय विश्व पूँजीवादी व्यवस्था की स्थापना के बाद इसे दुनिया के तमाम देशों में तेजी से आगे बढ़ाया गया। विश्व बैंक, अन्तरराष्ट्रीय मुद्रा कोष और आगे चलकर विश्व व्यापार संगठन जैसी साम्राज्यवादी संस्थाओं ने इस काम को योजनाबद्ध तरीके से सम्पन्न किया।

1990 के दशक में विश्व समीकरण में बदलाव के बाद, दूसरे विश्व युद्ध के बाद एक–एक कर नवस्वाधीन हुए देशों के शासकों ने आत्मनिर्भर विकास का रास्ता छोड़ दिया। साम्राज्यवादी पूँजी के साथ नत्थी होने में ही उनको अपना लाभ दिखायी दिया। उन्होंने ‘वाशिंगटन आम सहमति’ के तहत नव उदारवादी नीतियों को स्वीकार कर लिया। जिन देशों के शासकों ने इन नीतियों को अपनाने में आनाकानी की, उन्हें अमरीकी चौधराहट में साम्राज्यवादी शक्तियों ने धौंस–पट्टी, प्रतिबन्ध और सामरिक हमले का निशाना बनाया। कल्याणकारी योजनाओं से हाथ पीछे खींचना, विदेशी पूँजी पर लगाये गये प्रतिबन्धों को हटाना और सार्वजानिक क्षेत्र के उद्यमों को एक–एक कर निजी हाथों में देने का काम शुरू हुआ। इस प्रक्रिया को एक सुन्दर–सलोना नाम दिया गया–– ढाँचागत समायोजन। राजसत्ता की भूमिका पहले पूँजीवादी उत्पादन प्रणाली की हिफाजत के साथ–साथ सामाजिक संरचना की हिफाजत और उसका संचालन करने में भी थी। लेकिन नव उदारवादी दौर में यह पूरी तरह पूँजी और मुनाफे की हिफाजत में लग गयी। अकसर इससे यह भ्रम होने की गुंजाइश बनी रहती है कि नव उदारवाद पूँजीवादी व्यवस्था की ताकत को दर्शाता है, जबकि सच्चाई इसके उलट है। यह उसकी कमजोरी का प्रतीक है। नव उदारवाद असाध्य और चिरन्तन संकट से ग्रस्त विश्व पूँजीवादी व्यवस्था के मौजूदा दौर की विश्वव्यापी रणनीति है।

एकध्रुवीय विश्व व्यवस्था में दरार और दूसरे खेमे का उभार

नव उदारवादी विश्व व्यवस्था की एक बुनियादी समस्या यह है कि तमाम साम्राज्यवादियों के बीच लूट का बँटवारा किस तरह से किया जाये, जिससे उनके बीच के अन्तरविरोध शान्तिपूर्ण बने रहे और बेलगाम होकर शत्रुतापूर्ण न बन जायें तथा एकध्रुवीय व्यवस्था का अन्त न कर दे। हालाँकि दो ध्रुवीय या बहु ध्रुवीय दुनिया की कोशिश कई साम्राज्यवादी देशों द्वारा की जाती रही, लेकिन अमरीकी चौधराहट को चुनौती देने का साहस कोई न कर सका। इसके अलावा अमरीका लगातार कोशिश करता रहा कि लूट में हिस्सा देकर सभी साम्राज्यवादियों को शान्त रखा जाये। 6 पुराने साम्राज्यवादी देश कनाडा, फ्रांस, जर्मनी, इटली, जापान और यूनाइटेड किंगडम आगे चलकर उसके लिए खतरा न बने, इसी उद्देश्य को पूरा करने के लिए अमरीका के नेतृत्त्व में एक अन्तरराष्ट्रीय अन्तर सरकारी आर्थिक संगठन जी–7 का गठन किया गया। लेकिन रूस को एकध्रुवीय विश्व व्यवस्था में समाहित करना अमरीका के लिए एक कठिन चुनौती रहा है।

सोवियत संघ के विघटन के बाद अमरीका और यूरोप (पश्चिमी देशों) के साथ रूस का सम्बन्ध कई उतार–चढ़ावों से गुजर चुका है। विघटन से पहले विश्व व्यवस्था में दो ध्रुव थे–– सोवियत रूस और अमरीका। दुनिया पर वर्चस्व कायम करने के लिए इन दोनों साम्राज्यवादी देशों के बीच कई दशकों तक शीत युद्ध चला था, लेकिन सोवियत संघ के विघटन के बाद शीत युद्ध का अन्त हो गया और इसी के साथ रूसी साम्राज्यवाद भी विघटित हो गया। महाशक्ति बनने के उसके मंसूबे का अन्त नहीं हुआ। दुनिया पर अमरीकी वर्चस्व के बीच रूसी साम्राज्यवाद राख के नीचे पड़ी आग की तरह सुलग रहा था। यही वजह है कि रूस कभी पूरी तरह पश्चिम के साथ खड़ा नहीं हो पाया।

शुरू में रूस ने राजनीतिक तौर पर पश्चिम के लोकतांत्रिक मॉडल की नकल करने की कोशिश भी की। रूसी नेताओं ने पश्चिमी देशों को अपना स्वाभाविक सहयोगी बताया, लेकिन साथ ही वे सोवियत विघटन के बाद बने पूर्वी यूरोपीय देशों में अमरीका और नाटो के बढ़ते प्रभाव से चिन्तित थे। 1997 में रूस ने चेक गणराज्य, पोलैण्ड और हंगरी के पूर्व सोवियत ब्लॉक के राष्ट्रों में नाटो के विस्तार का विरोध किया। 1999 में रूस ने यूगोस्लाविया के ऊपर नाटो बमबारी का विरोध किया। लेकिन जून 1999 में वह बाल्कन में नाटो शान्ति–रक्षा बलों में शामिल भी हो गया। जाहिर सी बात है कि शुरू में आन्तरिक रूप से लड़खडाता हुआ रूस पश्चिमी देशों के साथ कोई दुश्मनी मोल लेना नहीं चाहता था। इसके चलते शुरू के दो दशकों में विदेश नीति के मामले में वह पश्चिम का पिछलग्गू ही बना रहा और उसके सामने कोई चुनौती बनकर उभर नहीं पाया। इसके बावजूद अपनी अन्दरूनी नीतियों में वह पूरी तरह स्वतंत्र था और पश्चिम के किसी भी दबाव के आगे झुकने के लिए तैयार नहीं था।

अमरीका के लिए रूस एक ऐसी गाँठ बन गया, जो उसके पक्ष में कभी खुल नहीं पायी। यानी पश्चिम के देशों ने अपनी ओर से भरसक कोशिश की कि रूस अमरीका के नव उदारवादी मॉडल को अपना ले और विश्व बैंक, आईएमएफ और विश्व व्यापार संगठन के सामने समर्पण कर दे, लेकिन थोड़े समय को छोड़ दें, तो यह हो नहीं पाया। पश्चिमी देशों के लिए रूस को एक पल के लिए अनदेखा कर पाना सम्भव नहीं है क्योंकि वह संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद का स्थावी सदस्य है, जिसके पास वीटो पॉवर भी है।

 अमरीकी चौधराहट वाली एकध्रुवीय विश्व व्यवस्था में रूस को शामिल करने के लिए 1997 में उसे जी–7 के राजनीतिक मंच से जोड़कर जी–8 बनाया गया। लेकिन जैसे ही रूस की साम्राज्यवादी महत्त्वाकांक्षाएँ पंख लगाकर उड़ने लगीं और उसका पश्चिम के देशों से टकराव बढ़ता गया, जी–8 में उसके लिए रह पाना मुश्किल होता चला गया। मार्च 2014 में यूक्रेन–क्रीमिया संकट के बाद अनिश्चित काल के लिए रूस को जी–8 से निलंबित कर दिया गया। 2017 में रूस ने जी–8 से स्थायी रूप से निकलने की घोषणा कर दी। इसके बाद रूस को जी–बीस में अन्य विकासशील देशों के साथ रखकर चलाते रहने की कोशिश की गयी, लेकिन जी–20 में रहकर भी रूस अपने प्रभाव क्षेत्र का लगातार विस्तार करता गया।

यूरोपीय संघ और रूस का सम्बन्ध कई उतार–चढ़ावों का गवाह रहा है। 2003 में इराक पर अमरीकी आक्रमण का रूस ने कड़ा विरोध किया था। 2014 में क्रीमिया और दोनबास पर रूसी सैन्य हस्तक्षेप की घोषणा के बाद अमरीका और यूरोपीय संघ ने रूस पर आर्थिक प्रतिबन्ध लगा दिया था, शुरू में 170 व्यक्तियों और 44 संस्थाओं पर वीजा प्रतिबन्ध लगाया गया और इसे 2020 तक बढ़ा दिया गया।

रूस यूरोपीय संघ के देशों, विपक्षी पार्टियों, आन्दोलनों और वित्तपतियों को मदद उपलब्ध करवाता रहा है। यूरोप के कुछ देशों की सरकारें रूस से सहानुभूति रखती हैं। आर्थिक मन्दी, अन्दरूनी कलह और हितों के टकराव तथा रूसी प्रभाव के चलते यूरोपीय संघ अन्दर से काफी कमजोर हो गया है। रूस चाहता था कि यूरोपीय संघ में दरार पड़ जाये और उसका एक बड़ा हिस्सा रूस के साथ खड़ा हो जाये।

नव उदारवादी व्यवस्था का फायदा उठाकर आर्थिक रूप से मजबूत चीन भी रूस के लिए एक बड़ा खतरा बन सकता था।  लेकिन दोनों देशों ने सीमा विवाद को सुलझा लिया तथा अच्छे–पड़ोसी और मैत्रीपूर्ण सहयोग की संधि पर हस्ताक्षर किये। इसने दोनों देशों को फायदा पहुँचाया। इस तरह रूस के पेट्रोलियम, तकनीक और युद्ध सामान के लिए चीन का बाजार मिल गया। चीन अपनी पेट्रोलियम जरूरत के बड़े हिस्से की पूर्ति रूस से आयात करके करता है। इसके साथ ही रूस अपनी उन्नत युद्ध सामग्री भी चीन को उपलब्ध करवाता है। अब रूस और चीन मिलाकर एक मजबूत खेमा उभर आया है जिसके निशाने पर अमरीकी नेतृत्व वाला जी–7 का साम्राज्यवादी खेमा है।

यूक्रेन युद्ध के समय शक्ति सन्तुलन

अभी यूक्रेन युद्ध जारी है और इस दौरान शक्ति सन्तुलन का मुकम्मल आकलन करना जल्दबाजी होगी, लेकिन फिर भी अगर शुरुआती रुझान देखें तो हमें नजर आता है कि सोवियत रूस द्वारा यूक्रेन हमले का बेलारूस, सीरिया, बर्मा, उत्तरी कोरिया आदि देशों ने खुला समर्थन किया है, जबकि क्यूबा और वेनेजुएला ने अमरीका पर निशाना साधते हुए कहा कि वही इस संकट के लिए जिम्मेदार है, इस तरह परोक्ष रूप से रूस का समर्थन किया है। इससे अलग कजाकिस्तान, किरगिज, उज्बेक, आदि मध्य एशिया के देश, चीन, भारत, ब्राजील और दक्षिण अफ्रीका ने तटस्थ रहकर रूस की इस कार्रवाई का मौन समर्थन ही किया है। अमरीकी नेतृत्व में नाटो, जापान, ताइवान, आस्टेªलिया आदि देश रूस के खिलाफ खुलकर सामने आ गये हैं। दुनिया दो खेमों में बँटती जा रही है। यूक्रेन संकट जैसे–जैसे आगे बढ़ेगा, वैसे–वैसे इस खेमेबन्दी में नये समीकरण उभरेंगे।

यूक्रेन हमले के समय रूस खुलकर ललकारता रहा कि दम है तो सामने आओ। वह जानता है दो बड़ी शक्तियों के टकराव का अमरीका सबसे कम स्वागत करेगा क्योंकि बाकी सभी कारकों में यह प्रधान है कि अमरीका यथास्थिति से सबसे अधिक फायदा निचोड़ रहा है, वह 100 रुपये का माल खाता है तो मात्र 45 रुपये का माल पैदा करता है। वह दुनिया की जनता का खून चूसकर जी रहा है और सबसे बाद में चाहेगा कि यह यथास्थिति भंग हो। एक बात और, परजीवी जोंकों की उम्र लम्बी नहीं होती। 17वीं–18वीं सदी के परजीवी स्पेन और उद्यमी ब्रितानी उपनिवेशवादियों की तकदीरों की अदला–बदली और दुनिया के बदलते समीकरण के आलोक में दुनिया की भावी तस्वीर देखी जा सकती है।

हमें आक्रामक रूस के पीछे समर्थन देनेवाले उद्यमी चीन की ताकत को नजरअन्दाज नहीं करना चाहिए। यह ध्यान रहे कि यह वही अमरीका नहीं है जो 9/11 के बाद उन्मत बुश के नेतृत्व में अफगानिस्तान पर टूट पड़ा था। यह वह अमरीका है जो अफगानी तालिबानों के हाथों 20 साला युद्ध में मुँह की खाकर अपना आत्मविश्वास गवाँ चुका है। साम्राज्यवादी विश्व व्यवस्था में दरार पड़ती नजर आ रही है। इससे स्पष्ट है कि साम्राज्यवादियों और पूँजीपतियों के आपसी साँठ–गाँठ से दुनिया की जनता को लूटने का उनके स्वर्णिम दौर का अन्त नजदीक आ रहा है।