दिल्ली और देश के बाकी हिस्सों में किसान आन्दोलन निरन्तर जारी है। यह आन्दोलन सरकार के लिए सिरदर्द बन गया है और सरकार की लोकप्रियता को लगातार कम करता जा रहा है। ऐसे माहौल में देश के कृषि संकट पर बहसें तेज हो गयी हैं। पहले से कहीं अधिक संख्या में लोग इसे समझने की कोशिश में लगे हुए हैं, जिसके चलते नयी बहसें औैर नये विवाद पैदा हो रहे हैं। ऐसी स्थिति में मौजूदा कृषि संकट की अन्तरवस्तु को समझने के लिए इसके महत्त्वपूर्ण पहलुओं पर गौर करना जरूरी है। कृषि संकट के दो हिस्से हैं–– पूरी कृषि व्यवस्था का संकटग्रस्त होना और ग्रामीण समुदाय की आजीविका और जीवनयापन का संकट। सरकार और बुर्जुआ बुद्धिजीवी कृषि व्यवस्था के संकट को समझने और हल करने की कोशिश करते हैं, लेकिन वे किसानों की जिन्दगी के संकट को समझने और हल करने का कोई प्रयत्न नहीं करते हैं। यह बात साफ है कि कृषि संकट और किसानी संकट दो अलग–अलग मुद्दे हैं, लेकिन ये एक–दूसरे से जुड़े हुए भी हैं। इसलिए हमें इन दोनों का अध्ययन समग्रता में करना चाहिए। यह लेख इसी दिशा में एक छोटा सा प्रयास है।

भारत की कृषि व्यवस्था के संकट को समझने के लिए पंजाब की खेती एक मॉडल की तरह है, जहाँ उन्नत कृषि ने किसानों की समस्याओं को भी उन्नत स्तर पर पहुँचा दिया है। “हरित क्रान्ति” में अगुआ पंजाब पूँजीवादी कृषि के मामले में भी अगुआ रहा है ––– विशालकाय आधुनिक मशीनें, उन्नत बीज, उर्वरक, कीटनाशक, व्यवस्थित खेती, प्रकृति पर घटती निर्भरता आदि सभी मामलों में वह देश का अगुआ है। राजनीतिक, सामाजिक और तकनीकी ज्ञान के मामले में वहाँ काफी हद तक जाग्रत एक किसान समुदाय भी है। लेकिन इसके बावजूद फसल की तबाही और बीमारी से निपटने में पंजाब विफल रहा है। यहाँ कृषि विभाग की अकर्मण्यता, कम्पनियों, डीलरों और सरकारी अधिकारियों की मिलीभगत से फसलों की लूट भी अपने चरम पर है। नतीजा यह कि उन्नत कृषि ने किसानों की उन्नति नहीं की, बल्कि उन्नति के उसके दावे खोखले साबित हुए। किसानों की आत्महत्याओं का ग्राफ तेजी से ऊपर चढ़ता ही जा रहा है। ऐसा क्यों हुआ इस पर एक नजर डालते हैं।

नवउदारवादी मॉडल के तहत पिछड़े देशों की कृषि में साम्राज्यवादी पूँजी हस्तक्षेप करे, इससे पहले ही यहाँ की कृषि  पूँजीवादी विकास का मार्ग अपना चुकी थी। यह हरित क्रान्ति का समय था। हालाँकि वह विकास भी साम्राज्यवादी दबाव से पूरी तरह से मुक्त नहीं था। हरित क्रान्ति को विश्व बैंक की सहायता इसका प्रमाण है। साथ ही, उद्योग की तरह पूँजीवादी कृषि भी प्रतियोगिता, पूँजी संचय और मुनाफे के अन्तरविरोध से संचालित होती है और उसमें भी लगातार मुनाफे को विस्तारित करने की अनिवार्यता बनी रहती है। व्यवस्था इस तरह से ढालनी पड़ती है कि न्यूनतम जोर–जबरदस्ती से पूँजीपति अतिरिक्त श्रम को हड़प सके। इस प्रक्रिया में गुजारे की खेती से बाजार के लिए खेती की अपरिहार्य यात्रा पूरी करनी पड़ी।

जब धीरे–धीरे पिछड़े देशों की कृषि पूँजीवादी उत्पादन प्रणाली के अधीन आती चली गयी, तब साम्राज्यवादी पूँजी के लिए बाजार के विस्तार और नये बाजार की खोज के दबाव ने पिछड़े देशों की कृषि में पूँजी निवेश को और अधिक बढ़ावा दिया। कृषि में देशी–विदेशी पूँजी निवेश ने कई तरीके से पूँजीवाद को आगे बढ़ाया। खेती से उत्पादित फसलें उद्योगों के लिए कच्चे माल का स्रोत बन गयी हैं। दूसरी ओर, कृषि से जुड़ी ग्रामीण आबादी औद्योगिक मालों की उपभोक्ता है। इस तरह गाँव तक राष्ट्रीय–अन्तरराष्ट्रीय बाजार का विस्तार हुआ है। इसके लिए गाँव तक पहुँचने के लिए सड़कों का जाल बिछाया गया और यातायात के साधनों को उन्नत किया गया। खेती की लागत के रूप में भी औद्योगिक मालों की खपत होती है जैसे–– बिजली, कीटनाशक, खरपतवारनाशक, उर्वरक, पानी, बीज आदि। इनके अलावा पूँजी निवेश का एक हिस्सा विविध तरह के शोध (बिजली, कीटनाशक, खरपतवारनाशक, उर्वरक, बीज आदि के शोध में) और कृषि यन्त्रों के विकास में लगाया जाता है। पूँजीवादी कृषि के दम पर उद्योग की पूरी एक शाखा यानी फूड प्रोसेसिंग इण्डस्ट्री फलती–फूलती है जिसमें आटा, मैदा, खाद्य तेल, ब्रेड, डेयरी उत्पाद, नमकीन–बिस्किट, चीनी, शराब, दवाइयाँ जैसे–– अनगिनत उपभोक्ता मालों का उत्पादन होता है।

ग्रामीण समाज में वर्गीय विभेदीकरण

कृषि में पूँजीवाद आने के चलते ग्रामीण क्षेत्र के श्रम सम्बन्धों में बुनियादी परिवर्तन आ गया। गाँव में पूँजी के प्रसार से किसानों का चार वर्गों में विभेदीकरण हुआ–– पूँजीवादी फार्मर (किसान पूँजीपति), धनी किसान, मध्यम किसान और गरीब किसान। इनकी माली हालत इस तरह है––

धनी किसान मूलत: मजदूरों के दम पर ही खेती करता है। वह मजदूरों के श्रम का शोषण करके अपनी पूँजी बढ़ाता है। उसके पास खेती के अपने औजार भी होते हैं। वह कभी–कभी ठेके पर खेत लेकर भी खेती करता है।

पूँजीवादी फार्मर भी धनी किसान की तरह मजदूरों के श्रम का शोषण करके खेती करता है, लेकिन जहाँ धनी किसान खेती का प्रबन्धन खुद करता है, वहीं पूँजीवादी फार्मर खेती के प्रबन्धन के लिए उच्च शिक्षित मैनेजर को काम पर रखता है। वह खेती के सम्पूर्ण कामों का संगठन उद्योग की तर्ज पर करता है और कृषि कार्य को कई शाखाओं और उपशाखाओं में बाँट देता है। भारत जैसे पिछड़े देश में पूँजीवादी फार्मरों की संख्या बहुत कम है।

मध्यम किसान के पास इतनी जमीन होती है कि वह अपनी मेहनत से जमीन पर खेती करके परिवार का गुजारा कर लेता है। वह कहीं और मजदूरी करने नहीं जाता। उसके परिवार के सदस्य अपनी जमीन पर ही मजदूर की तरह खटते हैं। अपनी बर्बादी को रोकने और विषम परिस्थितियों में आगे बढ़ने के लिए इसे कड़ा संघर्ष करना पड़ता है। वह कभी–कभार अपने खेत पर मजदूर लगा लेता है, लेकिन मजदूरों से सहानुभूति भी रखता है।

गरीब किसान बहुत छोटी जोत वाले ऐसे किसान होते हैं जो अपनी जमीन पर खेती करने के अलावा बाहर भी मजदूरी या कोई छोटा–मोटा रोजगार करते हैं। इनमें से कुछ एक–दो गाय या भैंस पालकर अपनी जिन्दगी गुजारते हैं। इन किसानों की हालत बहुत खराब रहती है और इनके लिए अपनी रही–सही जमीन बचाना भी भारी मुसीबत का काम होता है। इनमें से कुछ किसान जमीन के मालिक नहीं होते, बल्कि वे ठेके पर जमीन लेकर खेती करते हैं। दूसरी जगह रोजगार की कमी के चलते भी गरीब किसान द्वारा ठेके पर जमीन लेकर खेती का चलन बढ़ता है।

इन चार वर्गों के अलावा गाँव में खेत मजदूर एक बड़ा वर्ग है। खेत मजदूर अपनी श्रम शक्ति पूँजीवादी फार्मर और धनी किसान को बेचता है। सामन्ती शोषण के अधीन खेत मजदूरों की हालत बँधुआ गुलाम जैसी थी, लेकिन आज वे किसी एक किसान परिवार से बँधे हुए नहीं रह सकते हैं। अगर कुछ मजदूर किसी एक किसान परिवार के यहाँ स्थायी रूप से काम करते हैं, तो किसी जोर–जुल्म के चलते नहीं, बल्कि उस मजबूरी के चलते, जिसे बाजार ने उनके ऊपर थोप दिया है, यानी रोजगार की खराब हालत ने क्योंकि पूँजीवादी फार्मर और धनी किसान के यहाँ काम करनेवाले खेत मजदूर भी बहुत बढ़िया जिन्दगी नहीं जी रहे हैं। बड़ी संख्या में खेत मजदूर असंगठित क्षेत्र के बाकी दिहाड़ी मजदूरों की तरह ही रोज कुआँ खोदते और पानी पीते हैं। उन्हें खेती में पर्याप्त रोजगार नहीं मिलता। नतीजतन वे गाँव में विविध तरह की मजदूरी करने के अलावा रोजगार की तलाश में शहर की ओर पलायन करते हैं। शहर और देहात के बीच मजदूरी का अन्तर और गाँव का जातीय उत्पीड़न भी उन्हें शहरों की ओर धकेलता है। शहर में जातीय उत्पीड़न गाँव की तुलना में कम है। शहर में पूँजीवाद के अमानवीय शोषण का शिकार होने के बावजूद वे यहाँ जातीय उत्पीड़न के दंश से कुछ हद तक मुक्ति पा जाते हैं।

आधुनिक खेती और नयी कृषि मशीनरी के बढ़ते चलन नेे गरीब किसानों और खेत मजदूरों को गाँवों में मजदूरी से बाहर कर दिया। इसने पुरखों की याद दिलानेवाले गाँव को छोड़ने के लिए उन्हें मजबूर कर दिया है। शहरों में आ जाने के बाद भी उनकी कठिनाइयाँ कम नहीं होती। किराये के कमरे में ठँुसे हुए या गन्दी झुग्गियों में वे बीमारी, चोर–उचक्कों और पुलिस–प्रशासन के हमलों को झेलते हुए अपनी जिन्दगी गुजारते हैं। इस तरह जातीय भेदभाव से भी वे दूर ही बने रहना चाहते हैं। उनके बूढ़े होने के बहुत पहले ही उनके बच्चे बचपन में ही उनकी जगह लेने के लिए प्रशिक्षण लेने लगते हैं। बिजली, पानी और  टायलेट का अभाव भी उनकी हिम्मत को तोड़ नहीं पाता। वे कमाल के जीवट होते हैं। साफ–सुथरे मुहल्लों से दूर निवास करने की वजह केवल आर्थिक ही नहीं होती, बल्कि सामूहिकता का फायदा भी उन्हें एक–दूसरे से बाँधे रखता है।

पूँजीवादी अवस्था की अदृश्य लेकिन भयावह शोषण की चक्की में पिसकर मध्यम और गरीब किसान दिन पर दिन बदहाल होते जा रहे हैं। इसके साथ ही ग्रामीण क्षेत्र में काम करनेवाले खेत मजदूर, चिनाई और र्इंट–भट्ठा मजदूर, छोटे दुकानदार, निजी स्कूलों के अध्यापक और झोलाछाप डॉक्टर आदि शोषित वर्ग में आते हैं। देहात के शोषक वर्ग में धनी किसान, र्इंट–भट्ठे के मालिक, धनी दुकानदार, सूदखोर–साहूकार और मोटी तनखाह वाले नौकरीपेशा लोग आते हैं।

पूँजीवादी व्यवस्था में छोटी खेती के घाटे से परेशान गरीब किसान, रोजगार की बेहतर स्थिति आने पर अपना खेत धनी किसान को ठेके पर उठा देते हैं और खुद मजदूरी करने लगते हैं। धनी किसान केसीसी (किसान क्रेडिट कार्ड) के जरिये अपने विशाल भूभाग पर सरकारी बैंकों से सस्ता कर्ज पा जाते हैं। कुछ धनी किसान इस धन का उपयोग सूदखोरी के लिए करने लग जाते हैं। वे मध्यम किसान, गरीब किसान या खेत मजदूर को, जिसके पास अपना घर हो या कोई और साख हो उन्हें ऊँची ब्याज दर पर कर्ज दे देते हैं। ब्याज की दरें 3 से 10 प्रतिशत मासिक तक होती हैं। इतनी ऊँची ब्याज दर का कर्ज शायद ही कभी कर्जदार चुका पाते हांे और अमूमन हर मामले में वे बर्बाद ही होते हैं और अपनी जगह–जमीन से उजड़ जाते हैं। इस तरह चाहे सरकारी कर्ज हो या सब्सिडी या न्यूनतम समर्थन मूल्य, सभी सरकारी रियायतों का लाभ धनी किसान ही सबसे अधिक उठाते हैं।

कृषि के पूँजीवाद के अधीन होने के बाद से भूस्वामित्व की व्यवस्था में भी व्यापक बदलाव आया है। जमीन की कीमत आसमान छूने लगी है। देहात में जमीन सबसे कीमती माल बन गयी है। इसके बावजूद कर्ज में दबे गरीब और मध्यम किसान अपनी जमीन को बेचकर कर्जमुक्त नहीं हो पाते और बर्बाद होकर कंगाल बन रहे हैं। उनके लिए खेती घाटे का सौदा बन गयी है। उनकी जमीनें हथियाकर धनी किसान तथा गाँव के दूसरे धनाढ्य वर्ग और अधिक मालामाल होते जा रहे हैं क्योंकि इनके लिए इनका व्यवसाय घाटे का सौदा नहीं बल्कि मुनाफे का धन्धा बना हुआ है। शहरों में सरकारी और निजी नौकरी करने गये देहात के उच्च शिक्षित नौजवान मालामाल होकर जब घर लौटते हैं, उनमें से कुछ जमीनें खरीद लेते हैं और मजदूर लगाकर लाभप्रद खेती करने लगते हैं। इस काम के प्रबन्धन को गाँव में रह गये उनके बुजुर्ग सम्हाल लेते हैं या वे पूरी तरह अपने खेत को बटाई पर ही दे देते हैं। धीरे–धीरे ही सही बटाईदारी आर्थिक पट्टे की खेती में तब्दील होती चली गयी है, लेकिन अभी तक कुछ पिछड़े इलाकों में बटाईदारी जारी है। पूँजीवाद में उल्टी बटाईदारी (रिवर्स टीनेन्सी) भी शुरू हो गयी है जिसमें गरीब और मध्यम किसान जिनके लिए खेती घाटे का सौदा बन गयी है, वे अपना खेत धनी किसान को पट्टे पर उठा देते हैं और खुद मजदूरी करके जिन्दगी बिताते हैं।

कृषि उत्पादन की जातीय संरचना

जातीय विभाजन भारतीय समाज की बुनियादी विशेषता है। कृषि उत्पादन भी जातीय संरचना से मुक्त नहीं है। हालाँकि जातीय संरचना पहले से कमजोर हुई है और सवर्ण और पिछड़ी जातियों के लोग आर्थिक रूप से विपन्न हुए हैं, लेकिन आज भी जमीनों पर सवर्ण और पिछड़ी जातियों के ऊपरी हिस्से का मालिकाना है। दलित जातियों और पिछड़ी जातियों के निचले हिस्से के पास बहुत कम जमीन है। खेत मजदूरों का बड़ा हिस्सा इन्हीं जातियों से आता है। इसी तरह पशुपालन में भी जातीय संरचना लगभग साफ दिखायी देती है। मछली, सूअर, मुर्गी, बकरी, गाय और भंैस पालन का काम अलग–अलग जातियों के लोग करते हैं। यानी पशुओं के उत्पादन में भी जातीय संरचना और छुआछूत बना हुआ है। इन विभाजनों को झेलने के अलावा ये जातियाँ कृषि उत्पादन के कुल अधिशेष के बहुत छोटे हिस्से पर अपना नियन्त्रण कर पाती हैं। इसी के चलते ये वंचना भरी जिन्दगी जीती हैं। इन जातियों के कुछ लोग अपनी मेहनत और आरक्षण का लाभ पाकर सम्पन्न हुए हैं, लेकिन उनकी संख्या बहुत कम है।

भारत के आदिवासी समुदाय जमीन और उत्पादन के अन्य साधनों से वंचित हैं और जंगलों पर आश्रित हैं। इनमें से कई समुदाय विकास की अंधी दौड़ की भेंट चढ़ चुके हैं और रोजी–रोटी के लिए दर–दर भटक रहे हैं। ये राज्य प्रायोजित हिंसा के सबसे अधिक शिकार हुए हैं।

पूँजीवादी कृषि की कुछ अन्य बुनियादी विशेषताएँ

वर्गीय विभाजन में परिवर्तन के अलावा पूँजीवादी कृषि की एक और बुनियादी विशेषता है–– किसानों की बेदखली। इग्लैण्ड में किसानों की बेदखली और पूँजीवाद के विकास की प्रक्रिया समानान्तर चली। दोनों प्रक्रियाएँ एक दूसरे की सहयोगी रही। बाड़ाबन्दी आन्दोलन ने किसानों को उजाड़कर उद्योग में काम करने वाले मजदूर (क्लासिकल अर्थ में सर्वहारा) में बदल दिया यानी किसानों का सर्वहाराकरण हुआ। यूरोप और अमरीका में खेती जब पूँजीवाद के अधीन हुई, तब खेती से बाहर होनेवाली अतिरिक्त आबादी कुछ उद्योग और सेवा क्षेत्र में लग गयी और कुछ नये कब्जाये उपनिवेशों में बस गयी। लेकिन आज पिछड़े देशों के पास ये दोनों ही विकल्प अनुपलब्ध हैं। इन देशांे के उजड़े हुए गरीब और मध्यम किसान किसी उद्योग में मजदूर की तरह काम नहीं पा रहे हैं क्योंकि उद्योग खुद बेरोजगार मजदूरों की भारी भीड़ की स्थिति में है, जिसका फायदा उठाकर वहाँ कार्यरत मजदूरों के काम के घण्टे बढ़ाये जा रहे हैं और उनकी मजदूरी कम की जा रही है। यानी शोषण को तेज किया जा रहा है। दूसरी ओर, उजड़े हुए गरीब और मध्यम किसानों का सर्वहाराकरण नहीं, बल्कि कंगालीकरण हो रहा है। वे श्रम की आरक्षित सेना में शामिल हो रहे हैं, असंगठित क्षेत्र के मजदूर बन रहे हैं, भिखमंगे बन रहे हैं या निराश–हताश हो आत्महत्या कर रहे हैं। मौजूदा पूँजीवादी उद्योग उन्हंे खपाने की स्थिति में नहीं हैं।

पूँजीवादी कृषि की यह भी बुनियादी विशेषता है कि उद्योग की तुलना में खेती पिछड़ती जाती है। अगर कच्चे माल की अबाध आपूर्ति जारी रहे तो उद्योग में माल उत्पादन की गति को कई गुना तक बढ़ाया जा सकता है। लेकिन कृषि के साथ ऐसा नहीं है क्योंकि कृषि योग्य जमीन को एक सीमा से अधिक नहीं बढ़ाया जा सकता, चाहे भूमि सुधार की कैसी भी तकनीक क्यों न इस्तेमाल कर लें, क्योंकि पृथ्वी का आकार सीमित है, उसे खींचकर नहीं बढ़ाया जा सकता। इसके साथ ही खेती के मैकेनाइजेशन की भी एक सीमा होती है और फसल के जीवन चक्र को एक सीमा से छोटा नहीं किया जा सकता। खेती के पिछड़ेपन के बावजूद यह सच है कि कृषि कार्य को बन्द करना नामुमकिन है क्योंकि यह इनसान के लिए भोजन उपलब्ध कराने का प्रमुख जरिया है। इसलिए खेती को जारी रखने के लिए उद्योग की तुलना में अतिरिक्त अनुदान की जरूरत पड़ती है अन्यथा कृषि संकटग्रस्त हो जाती है। लेकिन नवउदारवाद की हमलावर नीतियों के लागू होने के बाद कृषि के सरकारी बजट में कटौती की गयी और उसे निजी पूँजी के मगरमच्छों के जबड़े में धकेल दिया गया।

यह बात विवादों से परे है कि आधुनिक खेती पूँजी के बिना असम्भव है। यह आज एक अशिक्षित किसान भी इसे अच्छी तरह समझता है। लागत की लगभग सभी चीजें बाजार से खरीदी जाती हैं, जिसमें पूँजी की जरूरत पड़ती है। जहाँ एक ओर धनी किसान के पास अपनी अतिरिक्त पूँजी होती है, (धनी किसान का महल जैसा घर भी अय्यासी के साधन से अधिक फसलों के लिए भण्डारगृह का काम करता है यानी वह भी एक तरह की स्थिर पूँजी ही है।) या वे बैंक और वित्तीय संस्थाओं से सस्ता कर्ज पा लेते हैं, वहीं दूसरी ओर, मध्यम और गरीब किसान पूँजी की कमी से लगातार जूझते रहते हैं। फसलों के उचित मूल्य न मिलने से उनकी यह समस्या और बढ़ जाती है, जो उन्हें निजी सूदखोरों के शिकंजे में फँसने के लिए मजबूर कर देती है। इसी का फायदा उठाकर छोटे सूदखोर और वित्तीय संस्थाएँ अनेकों तरीकों से किसानों को निचोड़ती हैं। साम्राज्यवादी पूँजी के अधीन आने से कृषि क्षेत्र का तेजी से वित्तीयकरण और सट्टेबाजी शुरू होती है, जिसका अर्थ है–– खाद्य पदार्थों के व्यापार को शेयर बाजार के हवाले कर देना और इस पर वित्तीय कम्पनियों के नियन्त्रण को स्थापित करना। इससे दुनिया की पूरी आबादी के लिए बहुत बड़ा जोखिम पैदा होे गया है।

खेती को टिकाऊ बनाये रखने और विकसित करने के लिए जमीन की उत्पादकता बढ़ाना अनिवार्य है, इसके लिए भूमि में नमी संरक्षण, कार्बन की मात्रा बढ़ाना, वायुक्षरण से बचाव, अनावश्यक घासफूस का विनाश, फसल विविधिकरण और फसल चक्र आदि उपाय अपनाये जाते हैं। जबकि पूँजीवादी खेती के अधीन भूमि के अन्धाधुन्ध और अतार्किक दोहन तथा पर्यावरण के विनाश के चलते उसकी उर्वरकता नष्ट हो रही है, जिसकी पूरी तरह भरपाई इन उपायों से नहीं की जा सकती है। इसलिए पूँजीवादी खेती को टिकाऊ बनाया ही नहीं जा सकता। साम्राज्यवादी पूँजी खेती से अति–मुनाफा निचोड़कर उसे तबाही की ओर धकेल देती है क्योंकि मिट्टी की उर्ववरता को बनाये रखने के बजाय खेत से अधिक से अधिक पैदावार लेने पर जोर रहता है। इसके लिए बहुत ज्यादा सिंचाई, उर्वरक, कीटनाशक, उन्नत कृषि यन्त्रों आदि के अधिकतम इस्तेमाल की सनक सवार रहती है। एक फसली खेती को बढ़ावा दिया जाता है, जबकि मिट्टी की उर्ववरता को बनाये रखने के लिए इस्तेमाल होने वाले उपाय जैसे–– फसल चक्र (क्रॉप रोटेशन), मिश्रित फसल और बहुफसली खेती तथा खेत की मिट्टी के हिसाब से फसलों का चुनाव गौण बने रहते हैं। खेती की पैदावार को उपभोग के लिए लगातार शहरों में भेजा जाता है, लेकिन फलों, सब्जियों और अनाज के अवशेष जिनमें कार्बन की अधिक मात्रा होती है, उसे वापस खेतों को नहीं लौटाया जाता। इससे जमीन में कार्बन की मात्रा गिरती जाती है और भूमि की उर्वरता घटती जाती है। इसकी क्षतिपूर्ति के लिए किसान अन्धाधुन्ध रासायनिक उर्वरकों का इस्तेमाल करते हैं, जिससे जल और जमीन और अधिक जहरीले हो जाते हैं। जमीन बंजर होती चली जाती है।

पूँजीवाद के अधीन कृषि विविधिकरण पर एकांगी जोर

कृषि विविधिकरण में फसल पैटर्न में बदलाव जैसे–– सब्जियों, फलों, फूलों, कन्द फसलों, और सजावटी या औषधीय पौधों की खेती (बागवानी) और मुर्गीपालन, पशुपालन, मत्स्य पालन जैसी अन्य सम्बद्ध गतिविधियाँ आती हैं। इसे अतिरिक्त आय अर्जित करने और गरीबी दूर करने के उपाय के रूप में प्रचारित किया जाता है, लेकिन वास्तव में यह क्षेत्र भी पूँजीवाद की माँग–आपूर्ति के अन्तरविरोधों से मुक्त नहीं होता और शुरू में कुछ समय तक तेजी बनी रहती है, लेकिन एक दौर के बाद संकटग्रस्त अवस्था आ जाती है। मौजूदा समय में कृषि का विविधिकरण किसानों की जरूरत के मुताबिक नहीं हो रहा है, बल्कि यह बाजार की माँग से संचालित होता है। अब पारम्परिक कृषि के विविध फसलों की पैदावार की जगह बाजार की माँग पर टिकी अत्यधिक गतिशील खेती ने ले लिया है, जिसमें उत्पादन दर को तेज करना ही प्राथमिकता होती है। कृषि विविधिकरण पर तकनीकी परिवर्तन, माँग, और सरकारी नीतियों का प्रभाव तो पड़ता ही है, इसके अलावा परिवहन, सिंचाई और अन्य इन्फ्रास्ट्रक्चर का विकास भी इसे प्रभावित करता है। जैसे–– खीरा, टमाटर या स्ट्राबेरी की खेती करनेवाले किसानों को बाजार नहीं मिला तो वे बर्बाद हो गये।

पशुपालन भी कृषि की एक शाखा ही है, जिसके तहत चारे की खेती, पशु–प्रजनन, और गाय, भैस, भेड़, बकरी, कुत्ता और घोड़े जैसे पशुओं की देखभाल की जाती है। भारत में, लगभग सात करोड़ छोटे और मध्यम किसान, मजदूर और परिवार की जिम्मेदारी सम्हालने वाली ग्रामीण महिलाएँ पशुपालन पर निर्भर हैं। जलीय कृषि या मत्स्य पालन आजीविका की सहायक मानी जाती है। मत्स्य पालन का भारत के कुल सकल घरेलू उत्पाद में योगदान 0.8 प्रतिशत है, जबकि बागवानी क्षेत्र सकल घरेलू उत्पाद में 6 प्रतिशत और कृषि उत्पादन में एक तिहाई योगदान देता है।

किसानों को खराब मौसम और कीमतों के उतार–चढ़ाव केे जोखिम का सामना करना पड़ता है। ऐसा दावा किया जाता है कि विविधिकरण इन जोखिमों को कम कर सकता है। जैसे–– कुछ फसलें दूसरों की तुलना में अधिक सूखा–प्रतिरोधी होती हैंं। इसलिए सुझाव दिये जाते हैं कि मौसम खराब होने पर किसानों की फसल पूरी तरह से बर्बाद न हो, इसलिए उन्हंे चाहिए कि वे एक साथ विविध तरह की फसलें उगायें। इससे किसी उत्पाद की कीमत कम होने पर किसान को अधिक नुकसान भी नहीं होगा। लेकिन इन उपायों को सुझाने वाले अकसर यह नहीं समझ पाते कि देश के अधिकांश किसान मध्यम और गरीब श्रेणी में आते हैं, जिनकी जोत का आकार बहुत छोटा होता है, वे एक साथ विविध फसल उगा ही नहीं सकते। अलबत्ता फसल विविधिकरण का फायदा भी धनी किसान और पूँजीवादी फार्मर ही अधिक उठाते हैं। जैसे–– हाइड्रोपोनिक खेती से कई धनी किसान मालामाल हो रहे हैं, लेकिन अधिक खर्चीली होने के चलते शायद ही कोई गरीब किसान उससे लाभ कमा पाये।

अकसर यह तर्क दिया जाता है कि माँस, अण्डे और दूध के लिए होनेवाले पशुपालन से वैश्विक ग्रीनहाउस गैसें उत्सर्जित होती हैं।  शाकाहार पर अप्रत्यक्ष तौर पर जोर देनेवाले ऐसे तर्क भ्रामक होते हैं क्योंकि इसमें यह नहीं बताया जाता कि यह सब संकट प्रकृति के उस चक्र के बिगड़ने के चलते हुआ है, जिसे पूँजीवाद ने बढ़ावा दिया है। आज का पशुपालन सदियों पुराने उस पशुपालन से भिन्न है, जब अपने बछड़ों के साथ कुलांचे मारती गायें हरे–भरे जंगलों में चरा करती थीं। वहाँ उनके द्वारा उत्सर्जिन कार्बन डाई ऑक्साइड और गोबर–मूत्र पेड़–पौधों के लिए पोषक तत्व का काम करते थे। बदले में पेड़–पौधे पशुओं के लिए हरा चारा और ऑक्सीजन पैदा करते थे। लेकिन आज का पूँजीवादी पशुपालन वनों को काटकर बनाये गये हरियाली विहीन बाड़ों में पशुओं को कैद करके किया जा रहा है, जहाँ पशुओं और पेड़–पौधों के बीच का चक्र टूट चुका है, जो पर्यावरण को बेतहाशा प्रदूषित कर रहा है।

बड़े पैमाने की तुलना में छोटी खेती अलाभकारी होती है

हम देखते हैं कि छोटी जोत के मालिक किसानों की जमीन का रकबा घटता जा रहा है और दस एकड़ से बड़ी जोतवाले किसानों की जमीन का रकबा बढ़ता जा रहा है। इससे साफ पता चलता है कि धनी किसान मालामाल होकर जमीन खरीदने में पूँजी निवेश कर रहे हैं। दूसरी ओर गरीब किसान अपनी जमीन से उजड़ते जा रहे हैं। बड़ी जोत का मशीनीकरण आसान होता है, इसीलिए धनी किसान और पूँजीवादी फार्मर देहातों में आधुनिक तकनीकी के वाहक बन गये हैं। इस काम में पूँजी की आसान उपलब्धता उनकी मदद कर रही है, जिन पर वित्तीय पूँजी की नजरे–इनायत है।

बड़ी जोत वाले किसान न केवल तकनीकी श्रेष्ठता का लाभ उठाते हैं, जिससे श्रम अधिक उत्पादनशील हो जाता है बल्कि बड़े किसान को पूँजी या कर्ज की उपलब्धता भी आसान होती है। छोटी जोत के किसान परिवार हाड़–तोड़ मेहनत के बावजूद पिछड़ते जाते हैं, जबकि बड़ी जोत के किसान मालामाल होते जाते हैं। इसलिए जब खेती को बाजार के हवाले कर दिया गया हो और छोटी जोत के किसान अपनी फसल बाजार में बेचकर अपनी जरूरत के हर सामान बाजार से महँगे दामों पर खरीदने को मजबूर कर दिये जाते हैं, तो ऐसे में उनका उजड़ना लगभग तय हो जाता है। कृषि के विविधिकरण जैसे छोटी जोत में फल और सब्जियों की खेती से उजड़ने की दर को कम तो किया जा सकता है, लेकिन रोकना नामुमकिन है क्योंकि फल और सब्जी का लाभप्रद कारोबार न केवल छोटी जोत के दूसरे किसानों को आकृष्ट करता है, बल्कि इस क्षेत्र में बड़ी पूँजी के मालिक भी कूद पड़ते हैं। वे इस क्षेत्र में भी अपनी श्रेष्ठता कायम कर लेते हैं। नये और अधिक सक्षम प्रतिस्पर्धियों के बढ़ने से या तो फल और सब्जी का बाजार मन्दी का शिकार हो जाता है या छोटी जोत के किसानों को उजाड़कर इस क्षेत्र से बाहर धकेल दिया जाता है।

कई बार छोटी जोत की खेती इतनी अलाभकारी होती है कि खेती की आय को परिवार के प्रति व्यक्ति में बाँट देने पर न्यूनतम मजदूरी भी नहीं निकलती, लेकिन सम्पत्ति के मोहपाश से छोटा किसान तब तक अपना पिण्ड नहीं छुटा पाता, जब तक बाजार उसको बेदखल न कर दे। ऐसी दुखद स्थिति और घाटे के कारोबार को देखकर कई छोटे किसान अपनी जमीन ठेके पर उठा देते हैं और पूरे समय के लिए मजदूर बन जाते हैं। इस तरह एक साथ ही वह लगान पर जीनेवाले और अपनी श्रम शक्ति बेचनेवाले बन जाते हैं, लेकिन इससे भी उनका दुर्भाग्य कम नहीं होता।