जब से केन्द्र सरकार ने निजीकरण की रफ्तार को तेज की है, देश भर में इसके समर्थन और विरोध में बहसें जारी हैं। इन बहसों के बीच आज शायद ही कोई यह बता सके कि तेजी से दौड़ती हुई निजीकरण की गाड़ी कब और किस स्टेशन पर रुकेगी। सवाल यह भी है कि प्रधनमंत्री ने कुछ साल पहले बड़े भावनात्मक अन्दाज में कहा था कि “मैं देश नहीं बिकने दूँगा”, इससे उनका क्या अभिप्राय था? क्या देश की सार्वजनिक सस्थाआंे और सम्पतियों को बेचना देश बेचना नहीं है। अगर ऐसा नहीं है तो देश बेचने का क्या अर्थ है?

वह किस्सा हम सभी जानते है कि जब राजा का हाथी मरा, तो सजा के डर से कर्मचारी ने राजा से सीधे नहीं कहा कि हाथी मर गया है। उसने राजा को बताया कि हाथी न तो खा रहा है, न देख रहा है, वह साँस भी नहीं ले रहा है, उसकी धड़कन भी नहीं चल रही है। हुबहू यही हालत देश में चल रहे निजीकरण की है। मीडिया इस पर बात करने से कतराता है कि देश टुकडे़–टुकड़े कर के बेचा जा रहा है, इसके बदले चर्चा का बिन्दु है–– रेलवे का विकास और उसे कुशल बनाना। हद तो तब हो गयी जब सोशल मीडिया पर लोग सरकार के ऊपर व्यंग्य बाण चलाते हुए कहते है कि सरकार भी ठीक से देश नहीं चला पा रही है, उसका भी निजीकरण कर देना चाहिए। रोजगार तलाश करने वाले नौजवानों के बीच भी इसे लेकर बहस जारी है। एक तरफ जहाँ सरकारी नौकरी की तैयारी करने वाले नौजवान निजीकरण के चलते निराश–हताश हैं तो दूसरी ओर आज भी ढेर सारे नौजवान सरकारी प्रचार के प्रभाव में निजीकरण को अच्छा बता रहे हैं। सवाल यह भी उठ रहा है कि अगर सार्वजनिक कम्पनियाँ घाटे में है तो उन्हें कोई क्यों खरीदेगा और अगर वे फायदे में हैं तो सरकार उन्हें बेच क्यों रही है।

प्रधानमंत्री कार्यालय ने सूचना दी है कि जल्द ही सरकार आईडीबीआई सहित चार सरकारी बैंकों को बेच देगी। इससे जुडी सारी प्रक्रिया का निपटारा तेजी से किया जा रहा है। आईडीबीआई बैंक का काफी बड़ा हिस्सा पहले से ही निजी हाथों में है, अभी इसमें सरकार की हिस्सेदारी 41–17 फिसदी ही रह गयी है। सरकार की माने तो वह खुद इन बैंकों को मुनाफे में चला पाने में असफल है। इनसे अलग भी कई बैंकों का निजीकरण भविष्य में होने की सम्भावना है।

रेलवे को पूरी तरह बेचने की प्रक्रिया पर निगाह डाली जाये तो दिल दहलाने वाला दृश्य सामने आता है। जैसे कसाई किसी जिन्दा हाथी की गर्दन, पेट, पूँछ और पैर काटकर बेच रहा हो और हाथी केवल दर्द से कराहने के अलावा कुछ न कर पा रहा हो। इससे भी बुरी हालत में रेलवे को टुकडे़–टुकडे़ करके बेचा जा रहा है। सबसे पहले रेलवे के स्टेशनों को बेचा गया, फिर बड़े रेलवे कारखानों का निगमीकरण (निगमीकरण की आड़ में सरकारी हिस्सेदारी की बिक्री) किया गया, इसके बाद टेªनों का निजीकरण किया गया और अब आईआरसीटीसी को अडानी–अम्बानी के हाथों में बेचने की तैयारी चल रही है। इस दौरान रेलवे से जुड़े कर्मचारियों की रोजगार सुरक्षा छीन ली गयी। कर्मचारियों के हितों पर हमला किया गया। उनके दुखों और चिन्ताओं को नजरअन्दाज कर दिया गया। निजीकरण के विरोध में हो रहे प्रदर्शनों से मीडिया और सरकार ने मुँह मोड़ लिया। इससे जनता के बीच प्रधानमंत्री की छवि गिरती जा रही है, लेकिन सरकार निश्चिन्त है कि पहले की तरह आगे भी वह चन्द सिक्के और नये जुमले उछालकर अपनी छवि चमका लेगी।

आईआरसीटीसी रेलवे में टिकटों की बिक्री और रिजर्वेशन के अलावा टैªवल इंसोरेन्स का काम देखती है। वह टेªनों में भोजन की आपूर्ति करती है और टूरिज्म की व्यवस्था भी करती है। इन सभी कारोबारों के जरिये 2019 में इसने 1899 करोड़ रुपये की कुल बिक्री की, जिससे 272–5 करोड़ रुपये का मुनाफा हुआ। इस कम्पनी में 99 फीसदी हिस्सेदारी सरकार की थी, जिसमें से आईपीओ के जरिये 12–5 फीसदी हिस्सेदारी बेच दी गयी। बाकी की हिस्सेदारी अडानी–अम्बानी को सौंपने की तैयारी चल रही है।

“देश नहीं बिकने दूँगा” से चलकर सरकार देश को टुकड़े–टुकडे़ करके बेचने की स्थिति में आ गयी है। दूसरी तिमाही में सकल घरेलू उत्पाद में ऐतिहासिक 24 फीसदी की गिरावट हुई है, इस दबाव में सरकार निजीकरण को और तेजी से बढ़ावा देगी। निजीकरण को लेकर लोगों में चिन्ता और गुस्सा बढ़ता जा रहा है। अपनी चिन्ताओं को जाहिर करने पर लोगों को कुछ मोदी समर्थकों से ऐसे जवाब सुनने को मिल रहे हैं, “बेच रहे हैं मोदीजी, दुख तुम्हें क्यों हो रहा है?” मासूम अन्धभक्त कुछ भी देखने–समझने के लिए तैयार नहीं हैं। उनकी जिन्दगी का एकमात्र उद्देश्य है हर कीमत पर मोदी का बचाव।