कासिम सुलेमानी ईरान के कुद्स फौज के कमाण्डर थे जिन्हें 3 जनवरी 2020 को शुक्रवार के दिन अमरीका ने हवाई हमले में मार दिया। उनकी मौत पर ईरान के विदेश मंत्री जावेद जरीफ ने कहा कि अमरीका का यह आतंकवादी कारनामा बहुत ही खतरनाक है और अमरीका को इसके सभी परिणाम भुगतने हांेगे, जो उसने अपने गन्दे दुस्साहस के चलते पैदा किये हैं। दूसरी तरफ अमरीका के हाउस ऑफ रिप्रेजेण्टेटिव की प्रवक्ता नैंसी पेलोसी ने कहा कि सुलेमानी की हत्या पूरे मध्य एशिया के इलाकों में हिंसा को बहुत बड़े स्तर पर बढ़ा देगी। दोनों देशों के बीच तनाव आज अपने चरम पर है।
आइये पिछले दिनों की कुछ बड़ी घटनाओं पर एक नजर डालते हैं। जैसा कि हम सभी जानते हैं कि ओबामा प्रशासन के दौरान दोनों पक्षों ने अमरीका–ईरान के बीच अच्छे सम्बन्ध बनाने की कोशिश की थी। इसी को ध्यान में रखते हुए अमरीका–ईरान नाभकीय समझौता भी हुआ था। लेकिन 8 मई 2018 को नये राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने एकतरफा इस समझौते को भंग कर दिया। 8 अप्रैल 2019 को वाशिंगटन ने ईरान के रिवॉल्यूशनरी गार्ड्स को एक आतंकवादी संगठन घोषित कर दिया और इसके कुद्स बलों को, जो विदेश में रहकर काम करते थे, उसे काली सूची में डाल दिया। 12 मई को चार जहाजों पर जिनमें तीन तेल के टैंकर थे, ईरान के पास खाड़ी में गुजरते हुए रहस्यमय तरीके से आग लग गयी। अमरीका ने इसका दोष ईरान के मत्थे मढ़ दिया। 13 जून नार्वे और जापान के टैंकर भी हमले के शिकार हुए। 20 जून को ईरान के रिवॉल्यूशनरी गार्ड ने बताया कि उसने अमरीका के ड्रोन को मार गिराया है जो ईरान के हवाई क्षेत्र की सीमा को लाँघ रहा था। यह हमला हॉरमुज जलसन्धि में किया गया। ट्रम्प ने बदले की कार्रवाई की योजना बनायी। लेकिन अन्तिम समय पर उसे निरस्त कर दिया। 24 जून को ट्रम्प ने घोषणा की कि रूहुल्लाह खुमैनी और ईरान के सीनियर सैन्य नेताओं के ऊपर आर्थिक प्रतिबन्ध लगा दिया गया है। 18 जुलाई को ट्रम्प ने कहा कि अमरीकी सेना ने ईरान के एक ड्रोन को मार गिराया है, जो हॉरमुज जलसन्धि में खतरनाक रूप से उसके जहाज के पास आ रहा था। 14 सितम्बर 2019 को यमन के हाउती विद्रोहियों ने सऊदी अरब के तेल क्षेत्र पर भयानक हमला बोल दिया, जिससे पूरा सऊदी अरब दहल गया। ऐसा माना जाता है कि हमला ईरान के समर्थन में हाउती विद्रोहियों ने किया था। अमरीका ने इस हमले का आरोप ईरान पर लगाया। 20 सितम्बर 2019 को अमरीका ने ईरान के ऊपर बहुत ही ऊँचे स्तर के आर्थिक प्रतिबन्ध लगाने की घोषणा की। 29 दिसम्बर 2019 को अमरीका ने इराक में ईरान समर्थित समूहों पर हवाई हमले किये। 31 दिसम्बर को ईरान के समर्थक प्रदर्शनकारियों ने बगदाद में अमरीका के दूतावास पर विरोध प्रदर्शन और तोड़फोड़ की। इन सभी घटनाओं ने अमरीका–ईरान सम्बन्ध को खतरनाक मोड़ पर ला खड़ा किया। मध्य एशिया में अपना दबदबा कमजोर पड़ता देख अमरीका पहले से ही बौखलाया हुआ था, इन घटनाओं ने आग में घी का काम किया। इसके साथ ही उसके लिए कासिम सुलेमानी एक गम्भीर चुनौती बनते जा रहे थे।
सेना में सुलेमानी का कैरियर अच्छा बताया जाता है। वह ईरान की इस्लामिक क्रान्ति के एक रक्षक के तौर पर जाने जाते थे और ईरान के सर्वाेच्च नेता रूहुल्लाह खुमैनी के बेहद नजदीक थे। खुमैनी ने कभी उन्हें ‘क्रान्ति का जिन्दा शहीद’ कहकर पुकारा था। हालाँकि कासिम सुलेमानी ताकत के बल पर विरोध को कुचल देना अपना अधिकार मानते थे। ईरान में कासिम सुलेमानी को बेहद कठोर सैनिक नेता के रूप में जाना जाता है क्योंकि 1999 में जब असन्तुष्ट छात्रों ने सरकार के खिलाफ विरोध प्रदर्शन किया था तो कासिम सुलेमानी ने सुधारवादी नेता मोहम्मद खातमी को लिखा कि हमारी धैर्य की सीमा जवाब दे रही है अगर सरकार ने इन प्रदर्शनकारियों के खिलाफ कठोर कदम नहीं उठाया तो ठीक नहीं होगा। सरकार ने छात्र आन्दोलन को बुरी तरह कुचल दिया।
सुलेमानी से अमरीका क्यों खार खाया हुआ था? जैसा लगभग तय था, सुलेमानी की हत्या के बाद मध्य एशिया में तनाव अपने ऊँचे स्तर पर पहुँच गया। यहाँ तक सम्भावना जतायी जाने लगी कि अमरीका और ईरान के बीच में पूरी तरह युद्ध शुरू हो सकता है और पूरा इलाका युद्ध की चपेट में आ सकता है, क्योंकि सीरिया, इराक, लीबिया, अफगानिस्तान और ईरान में अमरीका के समीकरण गड़बड़ा गये हैं। खासतौर से इराक, सीरिया, अफगानिस्तान और यमन में। इन देशों में कई सालों से इस्लामिक स्टेट के आतंकवादी लगातार सक्रिय थे और अपना प्रभाव लगातार बढ़ाते जा रहे थे। ऐसा माना जाता है कि अमरीका सीरिया में बशर अल असद की सरकार के खिलाफ उन्हें पूरी मदद उपलब्ध करा रहा था। वह रूस समर्थित असद–सरकार को कमजोर करना चाहता था, ताकि सीरिया में अपना प्रभाव बढ़ा सके, जबकि रूस असद–सरकार के साथ खड़ा था। यहाँ पर ध्यान देने वाली बात यह है कि अमरीका तेल के कुओं को कब्जाने के लिए मध्य एशिया में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से सैन्य हस्तक्षेप करता रहा है, दूसरी तरफ रूस भी इस इलाके में अपने पैर जमाना चाहता है। यह दोनों शक्तियों के बीच टकराव का कारण है। स्थानीय स्तर पर तमाम राष्ट्रीय और अन्तरराष्ट्रीय ताकतों के बीच का टकराव ही मध्य एशिया में अन्तर्विरोध को गति दे रहा है। सुलेमानी ने इस अन्तर्विरोध को ईरान के पक्ष में मोड़ दिया था।
ईरान इस बात को जानता है कि मध्य एशिया में सैनिक ताकत के दम पर वह अमरीका तथा इजरायल और सऊदी अरब जैसे उसके समर्थक देशों के सामने टिक नहीं सकता है। इसी बात को ध्यान में रखते हुए और पूरे इलाके में शिया आबादी के विस्तार को देखते हुए उसने एक जबरदस्त रणनीति बनायी। इस इलाके में कुद्स बलों को तैनात किया गया और उसने शिया आबादी में अपने प्रभाव के विस्तार के लिए संगठन बनाना, सेना तैयार करना और पार्टियाँ बनाना शुरू किया, जिससे ईरान का प्रभाव इस इलाके में बढ़ सके। 1998 में कासिम सुलेमानी को कुद्स फौज का कमाण्डर नियुक्त किया गया। ईरान ने पूरे इलाके में अपना प्रभाव बढ़ाने तथा अमरीका और इस्लामिक स्टेट के नेटवर्क को तोड़ने के लिए शिया नागरिक सेना खड़ी की। इस मामले में सुलेमानी की एक महत्त्वपूर्ण भूमिका थी।
पिछले कुछ सालों से जब सीरिया और इराक में ईरान अपने प्रभाव का विस्तार कर रहा था तथा अमरीका के साथ उसका सम्बन्ध बिगड़ना शुरू हुआ तो कासिम सुलेमानी को एक महत्त्वपूर्ण व्यक्ति माना जा रहा था। कुद्स बलों के कमाण्डर के रूप में सुलेमानी के सामने सबसे बड़ी चुनौती थी–– सीरिया और इराक में इस्लामिक स्टेट को हराना। 2011–12 में सीरिया की असद–सरकार के खिलाफ इस्लामिक स्टेट के आतंकवादियों ने विद्रोह कर दिया था। इस्लामिक स्टेट के हमले के चलते असद की सरकार का प्रभाव क्षेत्र धीरे–धीरे कम होता चला गया। और अगर उसे कहीं और से मदद नहीं मिलती तो उसकी हार सुनिश्चित थी। पूरे इलाके में असद का सहयोगी केवल ईरान था और ईरान ही लेबनान में सक्रिय हिज्बुल्लाह के साथ सीरिया की सरकार के बीच एक महत्त्वपूर्ण कड़ी भी था। अगर असद–सरकार गिर जाती तो ईरान कमजोर हो जाता। सुलेमानी का काम था कि वह ऐसा होने से रोके। सुलेमानी का कहना था कि सीरिया की सेना बेकार है। उन्होंने शिया नागरिक सेना को प्रशिक्षण दिया और उन्हें सीरिया में लड़ने के लिए भेज दिया। इस सेना ने इस्लामिक स्टेट के आतंकवादियों का डटकर मुकाबला किया। उसी समय हिज्बुल्लाह के नेता हसन नसरुल्लाह के साथ रणनीतिक लड़ाई के लिए सम्बन्ध बनाया गया। 2013 में शिया नागरिक सेना और हिज्बुल्लाह के लड़ाकों ने सीरिया और लेबनान की सीमा पर लगे हुए क्योशायर इलाके से विद्रोहियों को मार भगाया और उस पर कब्जा कर लिया। इस शुरुआती जीत ने असद–सरकार के लिए संजीवनी का काम किया। आगे चलकर 2015 में रूसी सेना ने हवाई हमले करके आतंकवादियों के हौसले पस्त कर दिये और जमीन पर सुलेमानी के लड़ाकों ने सीरिया की सेना के साथ मिलकर इस्लामिक स्टेट पर कहर ढा दिया। इस युद्ध में असद–सरकार की जीत हुई।
इस्लामिक स्टेट की इस हार ने अमरीका को करारा झटका दिया। उसने अपनी बड़ी ताकत इस्लामिक स्टेट के पीछे झोंक रखी थी। इस्लामिक स्टेट की हार का मतलब था, अमरीका की हार। अमरीका समझ नहीं पा रहा था कि क्या करे? इसके अलावा इराक में इस्लामिक स्टेट अमरीका के हाथ से निकल चुका था, जो अमरीका के समर्थन वाली इराकी सरकार के ऊपर कहर ढा रहा था। एक–एक करके इराकी सरकार के हाथ से शहर छिनते जा रहे थे। इस्लामिक स्टेट ने तिकरित, फल्लुजाह, रमादी, मोसुल आदि इलाकों से सरकार के सैनिकों को खदेड़ दिया था।
शिया नागरिक सेना जो ईरान में प्रशिक्षित की गयी थी और सुलेमानी के नेतृत्व में लड़ रही थी, उसने इराक में भी इस्लामिक स्टेट के खिलाफ मोर्चा थाम लिया और धीरे–धीरे अलग–अलग इलाकों को अपने हाथ में कर लिया। यहाँ सुलेमानी ने इस्लामिक स्टेट के खिलाफ अमरीकी भावनाओं का फायदा उठाया। उसके लड़ाकों ने शिया नागरिक सेना और इराक की सेना के साथ मिलकर इस्लामिक स्टेट पर हमला किया। अमरीका अनजाने में ही सुलेमानी की मदद करता रहा। उसने इस्लामिक स्टेट पर हवाई हमला करके इलाके को जीतने में मदद की। 2014 में इराकी सेना ने शिया नागरिक सेना के सहयोग से तिकरित, फल्लुजाह, रमादी, मोसुल आदि इलाके इस्लामिक स्टेट से मुक्त करा लिये। आतंकवादियों का नेटवर्क पूरी तरह नेस्तनाबूद कर दिया गया। अमरीका का प्रभाव दोनों देशों में कम होता जा रहा था और ईरान का बढ़ता जा रहा था। सीरिया की सरकार अपने गृह युद्ध में बच निकली लेकिन इन सारे कामों को जिस व्यक्ति ने अंजाम दिया यानी कासिम सुलेमानी वह अमरीका की निगाह में सबसे बड़ा काँटा था जिसे 3 जनवरी 2020 को अमरीका ने मार दिया।
इन घटनाओं की रोशनी में, अमरीकी साम्राज्यवादी प्रभुत्व और ईरानी क्षेत्रीय प्रभाव के लिए दोनों के बीच रस्साकसी और साँप–नेवले की लड़ाई में अमरीका द्वारा कासिम सुलेमानी की हत्या का नतीजा क्या होगा यह समझना कठिन नहीं। इराक और अफगानिस्तान की तरह ही ईरान, सीरिया और पूरे मध्य एशिया में दिनोंदिन अमरीकी मंसूबे की हवा निकलती जा रही है। यह हत्याकाण्ड इसी से पैदा होनेवाली बदहवासी का नतीजा है।