अफगानिस्तान से अमरीकी सेना जिस तरह बेआबरू होकर रुखसत हुई और जिस तेजी से तालिबानी लड़ाकों ने सत्ता पर कब्जा किया, उसे देखकर दुनिया हतप्रभ रह गयी। तालिबान द्वारा सत्ता पर कब्जा जमाये जाने के बाद कई तरह की अटकलें और चिन्ताएँ जतायी जाने लगीं। आइये, नयी परिस्थिति की नजाकत को परखते हैं।

पिछले 20 साल से अमरीका और अफगानिस्तान के बीच युद्ध चल रहा था, जिसमें एक तरफ अमरीका की हमलावर सेना थी तो दूसरी ओर कट्टरपंथी तालिबान। हालाँकि कुछ लोग इस युद्ध से इनकार करते हैं। वे कहते हैं कि अमरीका–तालिबान युद्ध एक भ्रम है। ऐसी बातें वही कह सकता है जो पिछले 20 साल के अफगानी इतिहास से परिचित न हो।

पिछली शताब्दी के आखिरी दशक में अमरीकी साम्राज्यवादियों ने दुनिया पर अपना वर्चस्व कायम करने के लिए कई नवउदारवादी तौर–तरीके ईजाद किये, जिसमें मुस्लिम आतंकवाद का हौवा कायम करना भी एक तरीका है। उन्होंने किसी भी स्थापित सत्ता के खिलाफ लड़नेवालों को आतंकवादी, चरमपन्थी, खून पीनेवाले पिशाच के रूप में चित्रित किया और इसमें काफी हद तक सफलता हासिल की। उनकी साम्राज्यवादी मीडिया ने पूरी दुनिया में तथाकथित आतंकवादियों को खूँखार दरिन्दों के रूप में पेश किया। दुनिया भर में क्रान्तिकारी ताकतों को, जो अपने देश की अन्यायी सरकारों के खिलाफ लड़ रही थीं, उन्हें भी आतंकवादी कहा गया। आतंकवाद का हौवा हर पूँजीवादी बुद्धिजीवी और आम जनता को आतंकित करने लगा।

जब यह स्थिति बन गयी और अमरीका के वर्ल्ड ट्रेड सेण्टर पर हमला हुआ, तो अमरीका ने इसे पूरी दुनिया पर हमले के रूप में प्रचारित–प्रसारित किया और इसे अफगानिस्तान पर हमले के लिए एक बहाने के तौर पर इस्तेमाल किया।

यह वही अमरीका है, जो आज भी दुनिया के आठ सौ से अधिक क्षेत्रों में जबरन अपने सैनिक अड्डे बनाये हुए है, यह वही अमरीका है, जिसने लाखों वियतनामी, उत्तर कोरियाई, जापनी लोगों का कत्लेआम किया, लेकिन उस खून के प्यासे अमरीकी शासकों को आतंकवादी नहीं कहा गया। यह वही अमरीका है, जिसने लाखों इण्डोनेशियाई कम्युनिस्टों के नरसंहार में भाग लिया, युगोस्लाविया पर हमला करके लोगों की जाने लीं, तीसरी दुनिया के देशों में हर जगह, हर कहीं लोकतंत्र की रक्षा के नाम पर हत्याएँ करने में आगे रहा। यह सब नोम चोमस्की और जॉन बेलामी फोस्टर की किताबों में लिपिबद्ध है और जिस साहस के साथ अमरीकी होते हुए भी उन्होंने अमरीका के युद्ध अपराधों का पर्दाफाश किया है, दुनिया के सामने उसे रखा है, उसके लिए अगर हम उनका शुक्रगुजार नहीं होते तो हम पर लानत है।

जब कुछ लोग अफगानिस्तान से अमरीकी हथियारबन्द सैनिकों की विदाई पर आँसू बहाते हैं तो इस बात पर किसी भी न्यायप्रिय इनसान का खून खौल उठना लाजमी है। इस पर दुष्यन्त का शेर याद आये बिना नहीं रहता–– “रहनुमाओं की अदाओं पे फिदा है दुनिया/ इस बहकती हुई दुनिया को सँभालो यारो।”

अमरीका के वर्ल्ड ट्रेड सेण्टर पर हमले के बाद अमरीकी राष्ट्रपति बुश बोला, “या तो आप हमारे साथ हैं या आतंकवादियों के साथ।” इस तरह अमरीकी साम्राज्यवाद ने एक ऐसा दर्शन गढ़ लिया था कि जिसमें आपके चुनने की आजादी खत्म कर दी गयी थी। आज भी यह दर्शन प्रतिक्रियावादियों की बड़ी मदद कर रहा है यानी या तो आप हमारे साथ हैं, नहीं तो दुश्मन के साथ। उन्मादी बुश ने आतंकवाद के हौवा का फायदा उठाया और अफगानिस्तान पर हमला बोल दिया। अमरीका ने बिन लादेन को छिपाये रखने के लिए अफगानिस्तान की सत्ता में काबिज तालिबान को जिम्मेदार ठहराया। यह सभी जानते हैं कि न केवल तालिबान बल्कि इस्लामिक देशों में हथियारबन्द विद्रोहियों को पैदा करने, उन्हें पालने–पोसने और बड़ा करने का काम अमरीका ने अपने प्रतिद्वंद्वी सोवियत रूस को पछाड़ने के लिए किया था, लेकिन जब रूस टूट गया तो उसे इनकी जरूरत नहीं रह गयी, लेकिन तब तक इन विद्रोहियों ने अपने–अपने इलाकों में अमरीका से स्वतंत्र अपना अस्तित्व कायम कर लिया था। जिन्न बोतल से बाहर निकल चुका था, और अपनी भूमिका निभाये बिना वापस बोतल में जाने के लिए तैयार नहीं था। इसलिए ये विद्रोही अमरीकी राह के रोड़े बन गये थे, जिन्हें हटाना जरूरी था। इन्हें ही आतंकवादी कहकर पूरी दुनिया में इनकी भर्त्सना की गयी।

अमरीका द्वारा अफगानिस्तान पर हमला उसी तरह एक युद्ध अपराध है, जिस तरह उसके द्वारा वियतनाम, ईराक, सीरिया आदि पर किया गया हमला युद्ध अपराध है। इन देशों पर हमला इन्हें गुलाम बनाकर इनके संसाधनों जैसे–– खनिज, पेट्रोलियम आदि को लूटने के लिए किया गया था। यह उसी तरह एक युद्ध अपराध है, जिस तरह हिटलर की सेना द्वारा दूसरे देशों पर किया गया हमला युद्ध अपराध था।

अफगानिस्तान पर हमले के बाद तालिबानी लड़ाके अमरीकी सेना से हारकर अण्डरग्राउण्ड हो गये और अमरीकी सेना के खिलाफ गुरिल्ला युद्ध लड़ने लगे। अमरीका ने अफगानिस्तान में करजई के नेतृत्त्व में एक पिट्ठू सरकार बना ली। लेकिन 20 साल में कोई ऐसा दिन नहीं गुजरा जब अमरीकी घुसपैठियों के खिलाफ तालिबानी न लड़े हों और कोई ऐसा दिन नहीं गुजरा जब पश्चिम की साम्राज्यवादी मीडिया ने उन्हें जल्लाद के रूप में चित्रित न किया हो।

तालिबानी लड़ाकों का दोष बस इतना है कि वे इस्लाम की बेहद पुरानी विचारधारा से बिलकुल नया युद्ध लड़ रहे थे, उनके पास न तो हथियार आधुनिक थे और न ही विचार। हर तरह की धार्मिक विचारधारा की तरह ही इस्लामिक विचारधारा भी इतिहास की चीज बन गयी है, बस उसे जिन्दा बनाये रखने के लिए उसके प्रेत लड़ रहे हैं। लेकिन तालिबानी प्रेत चाहे जितने कट्टरपंथी हों, वे किसी भी रूप में कम देशभक्त नहीं माने जा सकते क्योंकि वे किसी भी विदेशी ताकत को अपनी सर–जमीं पर बर्दाश्त नहीं कर रहे हैं।

पश्चिम की साम्राज्यवादी मीडिया ने रात–दिन यह प्रचारित किया कि तालिबानी अफगानिस्तान की जनता के खिलाफ कहर बरसा रहे हैं। लेकिन इस बात का जवाब न तो पश्चिमी मीडिया के पास है और न ही तालिबान के खिलाफ नफरत में अन्धे हो गये हिन्दू कट्टरपंथी लोगों के पास कि जब तालिबानी लोग अफगानिस्तान की जनता के खिलाफ कहर बरसा रहे थे तो वह कौन सी ताकत थी जिसने तथाकथित “दयालु” अमरीकी सेना और उसकी पिट्ठू सरकार के खिलाफ तालिबानियों को मजबूत करती चली गयी। इसलिए यह बात गले से नहीं उतरती कि तालिबानी लड़ाके अफगानी जनता के खिलाफ धार्मिक उन्माद के जरिये कहर बरसा रहे थे।

तालिबानी मजबूत क्यों होते चले गये? इसे समझने के लिए पूरी दुनिया के इतिहास से एक सबक याद रखना होगा, वह सबक है कि दूसरे विश्व युद्ध के बाद पूरी दुनिया की जनता की चेतना इतनी बढ़ गयी कि वह अपने देश की भ्रष्ट से भ्रष्टतम और क्रूर से क्रूरतम सरकार को स्वीकार कर सकती है, लेकिन विदेशी सेना या सरकार को अपनी जमीन पर बर्दाश्त नहीं कर सकती। वैसे भी अफगानिस्तानी जनता ने कभी विदेशी शासन को स्वीकार नहीं किया। पहले वे अंग्रेजों से लड़े, फिर रूसियों से लड़े और उसके बाद अमरीकियों से लड़े, और सभी को भगाया।

अफगान युद्ध में अमरीका कैसे हारा?

आर्थिक रूप से यह युद्ध अमरीका के लिए घाटे का सौदा बन गया था। साल 2010 से 2012 के बीच जब अफगानिस्तान में अमरीकी सैनिकों की संख्या एक लाख से अधिक हो गयी थी, उस समय इस युद्ध में अमरीका का सालाना खर्च सौ अरब डॉलर से अधिक था, जबकि 2018 में सालाना खर्च 45 अरब डॉलर था। अक्टूबर 2001 से सितम्बर 2019 के बीच 778 अरब डॉलर खर्च हुए। यह जानकारी खुद अमरीकी सरकार ने उपलब्ध करायी है।

युद्ध में अमरीकी हताहतों पर गौर करें तो पता चलता है कि अब तक इस युद्ध में 2300 से अधिक अमरीकी सैनिक अफगानिस्तान में जान गँवा चुके हैं जबकि 20,660 सैनिक लड़ाई के दौरान घायल भी हुए हैं। अमरीका की पिट्ठू सरकार की हालत तो इससे भी खराब है। इस युद्ध में 64,100 से अधिक अफगानिस्तानी सैनिक और पुलिसकर्मी मारे जा चुके हैं।

अफगानिस्तान युद्ध एक जमीनी लड़ाई थी, उन युद्धों की तरह नहीं, जिसे तथाकथित बुद्धिजीवी अपने ख्यालों में ही लड़ लिया करते हैं। युद्ध के शुरुआती दौर में जब अमरीका अफगानिस्तान पर हवाई हमला कर रहा था तो बढ़त की स्थिति में था और तालिबान पीछे हट रहा था, लेकिन जैसे ही अमरीकी सेना शहरों को कब्जाने के लिए जमीन पर उतरी, उसे नाकों चने चबाने पर मजबूर कर दिया गया। 10 साल बाद भी अमरीकी सैनिक देश पर पूरी तरह कब्जा न जमा सके और अमरीका पीछे हटते हुए अपने सैनिकों की संख्या को कम करने पर मजबूर हुआ। तब से आज तक उसने कठपुतली सरकार के अफगानी सैनिकों को प्रशिक्षित कर तालिबान से लड़ाने का काम किया, लेकिन वे इतने कमजोर और पिद्दी साबित हुए कि शहर–दर–शहर हारते चले गये। अन्त में जब इस साल अमरीकी सेना अफगानिस्तान से भागी तो बिना एक गोली दागे, तालिबान ने राजधानी काबुल पर कब्जा कर लिया।

कहावत है कि हारी हुई सेना के जनरल एक–दूसरे पर आरोप लगाते हैं। यही हाल अमरीका का हो रहा है। वह अपनी हार पचा नहीं पा रहा है। पूर्व अमरीकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने मौजूदा राष्ट्रपति जो बाइडन पर कमजोर, अक्षम और रणनीतिक तौर पर पूर्ण विफल होने का आरोप लगाया है। जबकि बाइडन समर्थकों ने ट्रम्प पर भी निशाना साधते हुए आरोप लगाया कि ‘सैनिक वापसी के उनके समझौते भी इसके लिए जिम्मेदार हैं।’ काबुल के पूर्व अमरीकी सैन्य कमाण्डर, मीडियाकर्मी और राजनीतिज्ञ इस बात की चर्चा कर रहे हैं कि तालिबान के सत्ता पर काबिज होने के बाद अफगानिस्तान के हालात विनाशकारी हो गये हैं। सेना वापसी का फैसला ठीक नहीं था। यह एक भयंकर भूल थी। बातें यहाँ तक हो रही कि अफगानिस्तान युद्ध अमरीका के इतिहास की सबसे बड़ी भूलों में से एक है।

2018 में कतर की राजधानी दोहा में अमरीका और तालिबान के बीच नौ राउण्ड बातचीत हुई। उसके बाद बातचीत पटरी से उतर गयी। ट्रम्प प्रशासन के समय तालिबान से हुई यह शान्ति वार्ता भी अमरीका की हार का ही एक पहलू है। सवाल है कि आतंकवाद को सबसे बड़ा दुश्मन मानने वाला अमरीका इतना मजबूर क्यों हो गया कि उसे तालिबान के साथ शान्ति वार्ता करनी पड़ी?

अमरीका की हार केवल इस बात में नहीं है कि उसे अफगानिस्तान से बेआबरू होकर निकलना पड़ा और दुनिया भर में उसकी पराभव के चर्चे हो रहे हैं, बल्कि उसकी हार इस बात में भी है कि मध्य एशिया के इस क्षेत्र में अब उसके मुकाबले रूस–चीन खेमा मजबूत हो जाएगा। इससे पहले भी तुर्की और पाकिस्तान, जो उसकी तरफ थे, अब रूस–चीन खेमे की ओर चले गये हैं। इस तरह इस पूरे क्षेत्र में रूस–चीन खेमे के साथ ईरान, तुर्की और पाकिस्तान तो हैं ही, ईराक और सीरिया की भी नजदीकियाँ इनसे बढ़ रही हैं।

भारत की भाजपा सरकार अभी तक यह तय नहीं कर पा रहा है कि वह तालिबान की सत्ता के साथ वार्ता शुरू करे या नहीं क्योंकि उसके साथ वार्ता का अर्थ कहीं–न–कहीं उसे मान्यता देना होगा, जबकि घरेलू राजनीति में भाजपा सरकार खुद को तालिबान विरोधी कहती रही है और आतंकवाद के खिलाफ ‘जीरो टोलरेंस’ की नीति अपनाने का दावा करती रही है। दूसरी ओर, तालिबान ने भारत से सम्बन्ध पूरी तरह काट लिया है।

तालिबान के हाथ में अफगानिस्तान की कमान

तालिबान के अफगान की सत्ता पर काबिज होने के बाद तरह–तरह के कयास लगाये जा रहे हैं। पूँजीवादी प्रचार माध्यमों में एक बार फिर तालिबान की बर्बरता की खबरें तेजी से उछाली जा रही हैं, जिसे देख मध्यम वर्ग के लोग डर से चीख–पुकार कर रहे हैं।

जिन्हें वर्गों की समझदारी नहीं, आधुनिक समाज में पूँजीपति वर्ग कैसे शासन करता है और उसकी उत्पादन प्रणाली, कबीलाई और सामन्ती उत्पादन प्रणाली से श्रेष्ठ है, इन बातों को नहीं समझते वे तालिबान के आने से डरे हुए हैं। सवाल है कि भारत में सामन्ती मानसिकता वाले हिन्दुत्वादी किस तरह की व्यवस्था चला रहे हैं? क्या वे कांग्रेस से कोई अपनी अलग प्रणाली लेकर आये हैं? नहीं, वे भी कांग्रेस की तरह अमरीकी छत्रछाया में पलनेवाली पूँजीवादी व्यवस्था के हिमायती हैं। फर्क बस इतना है कि वे हिन्दुओं का भयदोहन करके, धर्म–उन्माद फैलाकर, अल्पसंख्यकों को निशाना बनाकर और प्रतिक्रियावादी मूल्य–मान्यता स्थापित करके एक ऐसे समाज का निर्माण कर रहे हैं, जिसमें गुलाम मानसिकता से ग्रसित लोग जनविरोधी सत्ता का किसी भी तरह से विरोध न कर पायें।

सत्ता में आने से पहले तालिबानी कट्टरपंथी चाहे जितनी कबीलाई बर्बरता दिखा लें, हालाँकि 20 साल पहले के और आज के तालिबान में इस मामले में फर्क है कि आज उनकी बर्बरता पहले की तुलना में कम हुई है और यह फर्क विदेशी सेना से लड़ने और अफगानी जनता के एक तबके के साथ बेहतर रिश्ते के चलते विकसित हुआ है, लेकिन फिर भी अगर वे शासन सम्हालते हैं तो वे कौन सी व्यवस्था लागू करेंगे? कबीलाई? सामन्ती? नहीं। क्योंकि ये दोनों व्यवस्थाएँ आज दुनिया से आउटडेटिड हो गयी हैं, इसलिए दुनिया भर के मध्यम वर्ग को घबराने की जरूरत नहीं, तालिबानी अपने देश के उच्च वर्ग (पूँजीवादी) और दूसरे पूँजीवादी–साम्राज्यवादी देशों के अनुरूप पूँजीवादी व्यवस्था ही लागू करेंगे। वे इस मामले में मदद के लिए दूसरे देशों की ओर देखेंगे क्योंकि वे अकेले दम पर अफगानिस्तान को पूँजीवादी रास्ते पर आगे नहीं ले जा सकते। सम्भव है कि वे रूस–चीन का दामन पकड़ें। अमरीका के मुकाबले रूस–चीन खेमा और मजबूत होगा। इस रूप में भी अमरीकी खेमा हारते हुए पीछे हटने को मजबूर है।

जहाँ तक अफगानिस्तान की न्यायिक व्यवस्था की बात है तो यह स्पष्ट है कि तालिबानी वहाँ शरिया कानून लागू करेंगे, उनके प्रवक्ता ने यह बात स्वीकार भी की है। जिस तरह सऊदी अरब का पूँजीवाद बड़े आराम से शरिया कानून के साथ अस्तित्व में है, जिस तरह भारत में सामन्ती–बर्बर–कबीलाई मानसिकता के लोग कोर्ट–कचहरी तथा शासन व्यवस्था में भरे हुए हैं और उससे पूँजीवाद का मेल बना हुआ है, उसी तरह इसमें कोई बड़ी दिक्कत नहीं कि कट्टरपंथी और शरिया कानून के हिमायती तालिबानी अफगानिस्तान में बड़े मजे से पूँजीवाद को लागू कर सकते हैं और वहाँ का पूँजीवादी वर्ग और मध्यम वर्ग सामन्ती और कबीलाई बर्बरता की ओर से आँखें उसी तरह मूँदे रहे और अक्सर उसे शह भी दे, जिस तरह वे भारत सहित तीसरी दुनिया के कई देशों के शासक वर्ग को देते आ रहे हैं। ऐसा इसलिए सम्भव है कि इन सभी पिछड़े देशों के शासकों के ऊपर साम्राज्यवादी सरपरस्ती है।

हाँ, इन देशों की जनता की बात अलग है। अगर वह सही विचारों से लैश और संगठित हो जाये तो हर तरह के प्रतिक्रियावादी, साम्राज्यवादी, पूँजीवादी आततायियों को उठाकर इतिहास के कूड़ेदान में फेंक देगी, चाहे वे तालिबानी हो, या मनुवादी, या अमरीकी साम्राज्यवादी।

इन सब में एक बात सबसे अहम है कि साम्राज्यवादी अमरीका बैकफुट पर है। साम्राज्यवादी अन्तर्विरोध तेज हो रहे हैं और रूस–चीन का नया साम्राज्यवादी खेमा हर जगह अमरीका के सामने चुनौती पेश कर रहा है।