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यूपी मॉडल, या कैसे महामारी का सामना न करना पड़े

महामारी के दौरान अपनी जरूरतों के लिए आवाज उठाने वाले नागरिकों को डराने के लिए, उनकी निराशा में डर को भी शामिल कर देने के लिए दुनिया में कहीं भी आतंक विरोधी कानून का इस्तेमाल नहीं किया गया।

कोविड-19 की दूसरी लहर से प्रभावित राज्यों में यूपी ने उस निष्ठुरता और अयोग्यता के मेल की मिसाल पेश की है जो अक्सर किसी संकट से निपटने में भारतीय राज्य की खासियत होती है। ऑक्सीजन नहीं, वेंटिलेटर नहीं, हॉस्पिटल में बेड नहीं, दवाइयों की कमी, शमशान घाट और कब्रिस्तानों  में बेतहाशा भीड़ और कालाबाजारी के रूप में उत्तर प्रदेश कुछ बेहद अमानवीय प्रभावों का गवाह बना है। सरकार ने संकट को और बदतर बनाया है जो यह बताने पर जोर देती है कि यहां कोई कमी नहीं है तथा पॉजिटिव मामलों और मौतो की "अधिकारिक" संख्या कम करके दिखाती है। हाल ही के आंकड़े दिखाते हैं कि दो सप्ताह पहले जांच 20 प्रतिशत घटा दी गई, जिससे इसी दौरान टेस्ट में पॉजिटिव आए लोगों की संख्या 18 प्रतिशत बढ़ गई। उसके बाद राज्य में जांच की संख्या बढ़ रही है।

सभी जानते हैं कि उस समय कोविड से संक्रमित मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने घोषणा की कि कमी की बात कहने वालों को "अफवाहें फैलाने" और "माहौल खराब करने" के जुर्म में राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम के तहत जेल में डाला जाएगा और उनकी संपत्ति जब्त कर ली जाएगी। एक  महामारी के दौरान अपनी जरूरतों के लिए आवाज उठाने वाले नागरिकों को डराने के लिए, उनकी  निराशा में डर को भी शामिल कर देने के लिए दुनिया में कहीं भी आतंक विरोधी कानून लागू नहीं किया गया।

जब विदेशी प्रेस ने राजधानी लखनऊ में शमशानों में आयी लाशों के बाढ़ की तस्वीरों को दिखाना शुरू किया तो राज्य ने उन पर पर्दा डाला। ऐसी सरकार जो समस्याओं से मुंह मोड़ना चाहती है, वह सूचनाओं का दमन करती है, आंकड़ों में हेरफेर करती है, यह एक ऐसी सरकार होती है, जिसने नियंत्रण खो दिया है।

लखनऊ तो केवल समस्या का एक सिरा भर है। राज्य की राजधानी से दूर, छोटे गांवों में पीड़ितों की कहानियों को सही ढंग से रिपोर्ट किया जाना बाकी है। बहुत मामूली सुविधाओं वाले छोटे सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र अक्सर दर्जनों गांवों की सेवा करते हैं। बहुत से जिले भी कोविड से होने वाली मौतों को दर्ज नहीं कर रहे हैं क्योंकि वहां आमतौर पर लोगों की जांच ही नहीं हो रही है। यह  इस तथ्य के बावजूद है कि बुखार और सांस फूलने और फिर गिर जाने जैसे लक्षणों के रोगियों की अनगिनत रिपोर्ट कोई भी सोशल मीडिया पर देख सकता है। ऑक्सीजन की पर्याप्त आपूर्ति न तो सरकारी अस्पतालों में है और न ही निजी अस्पतालों में।

शहरों में लोग अब उस स्वास्थ्य ढांचे के ढह जाने के प्रभाव को देख रहे हैं जो ग्रामीण क्षेत्रों के लोगों के लिए पहले से ही नहीं था।

सड़ांध केवल सत्ताधारी पार्टी तक सीमित नहीं है। यूपी में संस्थान कमजोर हैं और मानव जीवन के प्रति इसी तरह की अवहेलना दिखाते हैं। इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने चार चरणों  के पंचायत चुनावों को विशेषज्ञों की सलाह के विरुद्ध, संक्रमण के उछाल के बीच, दो सप्ताह में करवाने की अनुमति दी। रिपोर्टों के अनुसार, पंचायत चुनाव में ड्यूटी पर बुलाए गए बहुत सारे शिक्षक और पुलिस के जवान कोविड से जान गवां चुके हैं, यह बात आर एस एस से जुड़े संगठन भी मानते है। हालांकि राज्य निर्वाचन आयोग का मानना है कि इन मौतें का चुनाव से कोई लेना देना नहीं है, लेकिन जिस न्यायालय ने चुनावों की व्यवस्था को सर्वोपरी रखने के लिए जोर लगाया था उसने इन मौतों के तथ्य को भी स्वीकार किया है।

यूपी की नौकरशाही के बहुत से अधिकारी लोगों की सहायता के लिए जो कुछ भी कर सकते थे, कर रहे हैं। हालांकि वे डर, दमन और असमर्थता की छाया में काम करते हैं, जो उनके कोशिशों में बाधा डालते हैं।

'यूपी में सब कुछ नियंत्रण मे है' अपने ही इस बयान का खंडन करते हुए राज्य सरकार लहर के चौथे सप्ताह में आखिरकार ऐसे उपाय कर रही है जिन्हें महीनों पहले किया जाना चाहिए था जैसे अस्पताल में बिस्तरों की संख्या बढ़ाना, वैश्विक बाजार से वैक्सीन मंगवाना, ऑक्सीजन संयंत्रों का निर्माण करवाना। फिर भी, ये स्वागत योग्य कदम बेहद अपर्याप्त हैं।

 जैसा कि क्रिस्टोफ जफरलॉट ने हाल ही में तर्क दिया है की कोविड की तबाही का मंजर राजनीतिक शासन की गलत विचारधाराओं को व्यक्त करता है। नाजायज मकसदों को पूरा करने और राज्य के खुले दमन के लिए कानून का इस्तेमाल और राज्य मशीनरी की तैनाती की यू पी में मिसाल रही है। पिछले साल इसने नागरिकता संशोधन अधिनियम के खिलाफ प्रदर्शन कर रहे लोगों की संपत्ति जब्त करने का आदेश दिया था। उनकी गिरफ्तारी करने में मदद करने वालों को नकद पुरस्कार देने का वादा किया गया था और लखनऊ में प्रदर्शनकारियों की तस्वीरों को उनके पतो के साथ बड़े-बड़े होर्डिंग्स पर लगाया गया था। भारत मे पुलिस एनकाउंटर की सबसे बड़ी राज्य प्रायोजित लहर चलाने के लिए इसने 1986 के गैंगस्टर और एंटी सोशल एक्टिविटीज एक्ट को भी पुनर्जीवित किया था।

गोरखपुर के डॉक्टर कफील खान की कहानी  याद कीजिए जिन्होंने 2017 मे अपने पैसों से ऑक्सीजन खरीदी थी जब उस हॉस्पिटल में आपूर्ति खत्म हो गई थी जिसमें वह काम करते थे। दो दिनों में तीस बच्चों की मौत हो गई  लेकिन सरकार ने इस बात से इनकार कर दिया कि मौत ऑक्सीजन की कमी के कारण हुई। डॉक्टर खान को नौ महीने के लिए जेल में डाल दिया गया और उनकी गिरफ्तारी के खिलाफ हुई सार्वजनिक प्रतिक्रिया को भाजपा ने सांप्रदायिक रूप दे दिया। बुनियादी समस्या ज्यों की त्यों बनी रही। मार्च 2020 में महामारी की पहली लहर को भी सांप्रदायिक रूप दिया गया क्योंकि मुसलमानों को बीमारी के प्रसार के लिए जिम्मेदार ठहराया गया था।

दूसरी लहर की गंभीरता और उग्रता ने अब तक इन सांप्रदायिक आवाजों को शांत किया हुआ है। सभी वर्गों, जातियों और धर्मों के लोग इससे प्रभावित हुए हैं। संकट के प्रति नागरिकों की प्रतिक्रिया इस अंधकार में प्रकाश का एकमात्र स्रोत है क्योंकि लोग जीवन और मृत्यु में एक दूसरे की मदद करने के लिए एकजुट होते हैं। नागरिक समूह ऑक्सीजन बैंक बना रहे हैं और सामुदायिक रसोई गरीबों को खाना खिला रही है। स्वयंसेवक, अपने धर्म के बावजूद दफनाने और शवो का अंतिम संस्कार करने का काम कर रहे हैं। एकजुटता का यह उभार आशा की एक किरण है जबकि लखनऊ में शासन द्वारा किया गया विभाजन 2017 से ही ठंडे बस्ते में है।

महामारी के परिणाम स्वरूप ऐसी एकजुटता भाजपा की राजनीति के लिए सबसे बड़ा खतरा बन सकती हैं, जो बंटवारे के बीज बोने पर बहुत अधिक निर्भर करती है। नोटबंदी के बाद हर संकट के लिए उन्होंने आरोपों को रास्ते से भटकाया और जनता के गुस्से को किसी 'दूसरी' दिशा में मोड़ दिया लेकिन अब यह वायरस हर किसी के दरवाजे पर है-जिसमें भाजपा के गौ रक्षक और आर एस एस के कार्यकर्ता भी शामिल है-केवल सरकार को ही अक्षमता और निष्ठुरता  के लिए दोषी ठहराया जा सकता है।

फ्रैंक स्नोडेन एपीडेमिक ऐंड सोसायटी : फ्रॉम ब्लैक डेथ टू प्रेजेंट में लिखते हैं— “महामारियां ऐसी बेतुकी घटनाएं नहीं होती जो समाज को तेजी से और बिना किसी चेतावनी के विपदा में डाल देती है…. हर समाज अपनी विशिष्ट कमजोरियों को खुद पैदा करता है। उनका अध्ययन करना, समाज की संरचना को, उसके जीवन स्तर को और उसकी राजनीतिक प्राथमिकताओं को समझना है।"

हो सकता है बाद में भाजपा महामारी को ईश्वर का किया धरा या विदेश से आई हुई आपदा के रूप में पेश करे यानी ऐसा कुछ जो नियंत्रण से परे है। हालांकि वायरस प्रकृति का प्रकोप हो सकता है लेकिन महामारी के प्रति भाजपा सरकार की प्रतिक्रिया ने उसकी राजनीति की हृदयहीन, मशीनी और स्वार्थी विशेषताओं को उजागर कर दिया है जहां सब कुछ राजनीतिक और चुनावी लाभ के मातहत है। अक्षमता ओर निष्ठुरता के इस घालमेल के लिए यूपी सरकार ने वास्तविकता से इंकार और राज्य दमन को एक साथ जोड़ा है। भारत को इतना ज्यादा कष्ट भोगने की जरूरत नहीं थी। भविष्य में ऐसी विनाशकारी त्रासदी की पुनरावृति को रोकने के लिए हमें एक समाज के रूप में इस महामारी को अपनी प्राथमिकताओं के लिए दर्पण के रूप में उपयोग करना चाहिए।

(यह कॉलम पहली बार 10 मई 2021 को ' लिस्ट ऑफ डांट्स' शीर्षक से प्रिंट संस्करण में छपा था। महमूदाबाद अशोक विश्वविद्यालय में इतिहास और राजनीति विज्ञान के सहायक प्रोफेसर है और समाजवादी पार्टी के सदस्य हैं; वर्नियर्स अशोक विश्वविद्यालय में राजनीति विज्ञान के प्रोफेसर है। ये उनके व्यक्तिगत मत है।)

(साभार इन्डियन एक्सप्रेस, अनुवाद -- विकास अदम)

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