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मणिपुर हिंसा : भाजपा की विभाजनकारी नीतियों का दुष्परिणाम

बीते 3 मई को भारत का उत्तरपूर्वी राज्य मणिपुर दंगों से दहक उठा। दो समुदायों के बीच हुए इस दंगे में अभी तक लगभग 90 लोगों की जान जा चुकी है। हजारों घर जलकर खाक हो गये। कितने ही लोगों को अपनी जान बचाकर आसपास के गाँव या दूसरे राज्य में शरण लेने को मजबूर होना पड़ा है। अपने घर–परिवार से उजड़े लोग भूखे–प्यासे राहत कैम्पों में रहने को मजबूर हैं। हिंसा को काबू में करने के लिए राज्य सरकार ने कितने ही जिलों में कर्फ्यू लगाकर इन्टरनेट सेवा भी बन्द कर दी। लेकिन यह हिंसा पूरे राज्य को अपनी चपेट में लेती चली गयी। इस घटना के एक हफ्ते बाद दुबारा हिंसा की छुटपुट घटनाएँ देखने को मिल रही हैं।

इस हिंसा के पीछे का तात्कालिक कारण हाईकोर्ट का एक आदेश है। दरअसल, मणिपुर हाईकोर्ट ने एक सुनवाई के दौरान राज्य सरकार से कहा था कि वह ‘मैतेई’ समुदाय को अनुसूचित जनजाति का दर्जा दिये जाने पर तुरन्त विचार करे। इस फैसले से मणिपुर के अन्य जनजाति समुदाय अपने हकों में कटौती की सम्भावना को लेकर आशंकित हैं। इसलिए उन्होंने 3 मई को राजधानी इम्फाल से लगभग 50 किलोमीटर दूर स्थित चुराचन्दपुर में इस निर्णय के खिलाफ एक शान्तिपूर्ण जुलूस का आयोजन किया। इस आयोजन के दौरान ‘मैतेई’ और जनजाति समुदायों के बीच झड़प हो गयी। देखते ही देखते इस झड़प ने दंगों का रूप ले लिया और राज्य के विभिन्न हिस्सों में भी यह हिंसा तेजी से फैल गयी।

मुख्यधारा की मीडिया में इस घटना को लेकर तरह–तरह के भ्रम फैलाये जा रहे हैं। इस घटना का सम्बन्ध म्यांमार से जोड़कर भाजपा की राज्य सरकार की भूमिका को नजरन्दाज किया जा रहा है। जबकि सच्चाई यह है कि भाजपा शासन काल की नीतियों ने सामाजिक समीकरण में बदलाव करके घटना को बढ़ावा दिया। घटना के तार मणिपुर की आर्थिक, सामाजिक और राजनैतिक संरचना से जुड़े हुए हैं। इसकी जड़ें मणिपुर राज्य के गठन में गहराई तक धँसी हुर्इं हैं जो दो समुदायों के बीच तनाव का आधार है।

भारत के पूर्वाेत्तर में स्थित मणिपुर एक तरफ नागालैंड और मिजोरम से सटा हुआ है तो दूसरी तरफ उसकी सीमा म्यांमार से लगती है। मणिपुर के बीचो–बीच इम्फाल वैली है और उसके चारों तरफ पहाड़ी इलाके हैं। इम्फाल वैली राज्य के कुल क्षेत्रफल का 10 फीसदी होने के बावजूद आर्थिक गतिविधियों का केन्द्र है। इस क्षेत्र में बहुसंख्यक आबादी गैर–जनजाति मैतेई समुदाय है। यह समुदाय राज्य की कुल जनसंख्या का लगभग 60 फीसदी हैं। वहीं दूसरी तरफ पहाड़ी क्षेत्र में आदिवासी जनजातियों का बसेरा है, जिनमें नगा, कुकी जनजाति मुख्य हैं। इम्फाल में रहने वाले मैतेई समुदायों का पहाड़ों पर रहने वाली जनजातियों से टकराव बना रहा है। इसका कारण मणिपुर का मनमाने तरीके से राज्य के रूप में गठन करने में छुपा है।

भारत में औपनिवेशिक शासन से पहले आज के पूर्वोत्तर राज्यों में 100 से ज्यादा जनजातियों का बसेरा था। अंग्रेजों ने अपने शासन के दौरान अपनी सहूलियत के लिए मनमाने तरीके से इनके बीच लकीरें खींच दी थीं और अलग–अलग संस्कृति, बोली वाली कितनी ही जातियों को जबरन एक केन्द्रीय शासन के अधीन कर दिया गया था। आज के मणिपुर की इम्फाल घाटी के समतल क्षेत्र में मैतेई समुदाय का बसेरा था। यह समुदाय इस क्षेत्र में खेती करके अपना गुजर बसर करता था। वह एक संस्कृति, बोली और राजतंत्र का हिस्सा था। वहीं घाटी के चारों तरफ पहाड़ों में नगा, कुकी, मिजो, जोमी आदि अनेक जनजातियों का बसेरा था। घाटी और पहाड़ों पर रहने वाले समुदायों का आपस में कोई साझा इतिहास नहीं है। ये दोनों अलग–अलग संस्कृति, बोली, आर्थिक और राजनैतिक इकाइयों का हिस्सा थे। लेकिन अंग्रेजों ने अपने शासन को सुविधाजनक बनाने के लिए मनमाने तरीके से इनके बीच लकीरे खींच दी थी। अलग–अलग संस्कृति के समुदायों का ध्यान रखे बिना ही उन्हें जबरदस्ती एक कर दिया गया। साथ ही साझा संस्कृति वाले समुदायों को अलग–अलग इलाकों में बाँट दिया। आज के मणिपुर में रहने वाली कितनी ही जनजातियों के बड़े हिस्से को म्यांमार और दूसरे राज्यों में बाँट दिया गया। इससे आगे चलकर अनेक समस्याओं का जन्म हुआ।

देश की आजादी के बाद इन जनजातियों को लिखित रूप में शासन चलाने का अधिकार दिया गया, लेकिन जमीन पर यह अधिकार कभी नहीं मिल पाया। इसके चलते उनके अन्दर शासन के खिलाफ गुस्सा हमेशा पलता रहा है। केन्द्र सरकार के साथ इनका टकराव बना रहा। इसके साथ ही यहाँ मौजूद विभिन्न समुदायों में भी एक–दूसरे के प्रति तनाव मौजूद है। भारत सरकार इस तनाव को दूर करने में असफल रही है। राज्य में भाजपा की सरकार बनने के बाद दोनों समुदायों के बीच स्थिति भयावह रूप ले चुकी है। दरअसल, भाजपा ने सत्ता में आते ही राज्य में साम्प्रदायिक और आदिवासी विरोधी नीतियों को लागू किया। इसके चलते इन दोनों समुदायों के बीच मौजूद थोड़ा–बहुत सौहार्द अब खत्म होता जा रहा है।

मैतेई समुदाय के अधिकतर लोग हिन्दू हैं। वहीं पहाड़ों पर बसने वाली जनजातियाँ मुख्य तौर पर ईसाई हैं। मैतेई समुदाय का एक बड़ा हिस्सा हिन्दू धर्म को छोड़ अपने मूल धर्म की और लौट रहा है, लेकिन भाजपा इनके हिन्दुत्वकरण पर जोर दे रही है। इसके लिए वह मैतेई समुदाय के हिन्दू राजाओं को गौरवान्वित करने का काम कर रही है। पिछले दिनों इसी उद्देश्य से उसने चूड़ाचन्द्रपुर जिले में एक ऐसे ही राजा चन्द्रकीर्ति सिंह का स्मारक बनवाया। भाजपा ने अनेक झूठे और भ्रामक प्रचार से हिन्दू बहुल मैतेई समुदाय को ईसाई जनजातियों के खिलाफ भड़काया। इसके चलते यहाँ की जनजातियाँ अपने को और अधिक असुरक्षित महसूस करने लगीं। इन सब ने आग में घी का काम किया और दंगे भड़क गये।

भाजपा ने हिन्दुत्ववादी राजनीति के जरिये राज्य के दो बड़े सम्प्रदायों के बीच नफरत के बीज बो दिया। यह ध्यान रहे कि भाजपा का हिन्दुत्ववाद कॉर्पाेरेट हितों के साथ नत्थी है। केन्द्र में सरकार बनाने के बाद से ही भाजपा ने लाभप्रद सरकारी जमीनों को कौड़ियों के भाव पूँजीपतियों को बेचा है। यह सिलसिला अब मणिपुर में देखने को मिल रहा है। यहाँ आजादी के पहले से ही पहाड़ी क्षेत्रों पर आदिवासी जनजातियों का बसेरा रहा है। इनके लिए यहाँ मौजूद जंगल ही जीवन निर्वाह का साधन है। देश की आजादी के बाद इस क्षेत्र को आदिवासी जनजातियों के लिए संरक्षित भी किया गया था, लेकिन भाजपा सरकार अब इन कानूनों में बदलाव कर रही है। वह आदिवासियों पर जंगल में अवैध तरीके से रहने का आरोप लगाकर कई गाँवों को जबरन खाली करवा रही है। यह जनविरोधी काम भाजपा बड़ी तेजी से कर रही है। स्थानीय लोगों ने जब विरोध करना चाहा तो उन्हें दबा दिया गया। यह खबर तब सामने आयी जब 10 मार्च को मणिपुर जनजातियों के संगठनों ने दिल्ली के जन्तर–मन्तर पर विरोध प्रदर्शन किया। उन्होंने बताया कि भाजपा सरकार गैर संविधानिक तरीके से उन्हें उनकी जमीनों से बेदखल कर रही है। उन्हें 5 दिनों की नोटिस पर घर खाली करने की चेतावनी दी जा रही है। बेहद खराब मौसम होने के बाद भी सरकार ने बुलडोजर चलाकर इनके घर तोड़ दिये हैं। बिना किसी पुनर्वास या पुनर्स्थापना की योजना बनाये सरकार ने हजारों लोगों को बेघर कर सड़कों पर तिल–तिल मरने को छोड़ दिया है। कानून में यह प्रावधान है कि पहाड़ी क्षेत्र में किसी भी तरह की कार्रवाई करने से पहले ‘पहाड़ी क्षेत्र समिति’ की सहमति लेना आवश्यक है। लेकिन भाजपा सरकार सभी कानूनों को दरकिनार कर आदिवासियों के अधिकारों को कुचलने पर आमदा है। यह मुमकिन है कि आदिवासियों से यह जमीन खाली करवाकर जल्द ही इसे पूँजीपतियों को बेच दिया जाये। भाजपा की इस दमनकारी नीति के खिलाफ मणिपुर के जनजातीय संगठनों के साथ मिलकर छात्र संगठन भी विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं। आदिवासी जनजातियों में भाजपा सरकार के खिलाफ रोष बढ़ता जा रहा है। लेकिन सरकार उलटे आरोप लगाती है कि आदिवासी अफीम की खेती कर रहे हैं और जंगलों पर अवैध कब्जा जमा रहे हैं।

आर्थिक संकट ने इस स्थिति को और विकराल बना दिया है। पिछले कई सालों से मणिपुर का सबसे बड़ा कुटीर उद्योग लगातार गिरावट का शिकार है। इसमें कार्यरत हजारों नौजवान बेरोजगार हो गये हैं। होटल, परिवहन, संचार आदि क्षेत्रों में भी कोरोना महामारी के बाद से मन्दी छायी हुई है। इन सबका नतीजा यह है कि राज्य में बेरोजगारी दर अभूतपूर्व तरीके से बढ़ रही है। ‘राष्ट्रव्यापी रोजगार सर्वेक्षण’ के आँकड़ों के अनुसार मणिपुर में बेरोजगारी दर 9 प्रतिशत तक पहुँच गयी है, जो देश की बेरोजगारी दर से दोगुनी है। इसके साथ ही पहाड़ी क्षेत्रों में स्थिति और भी ज्यादा खराब है। ऐसे हालात में नौजवान हताश–निराश हैं। हजारों नौजवान बेहद कम तनख्वाह पर दूसरे राज्यों में मजदूरी करने को मजबूर हैं।

मणिपुर में सार्वजनिक प्रशासन ही एकमात्र ऐसा क्षेत्र है जहाँ पिछले साल रोजगार सृजन सबसे ज्यादा हुआ है। ऐसी स्थिति में नौजवानों को गुजर–बसर करने के लिए सरकारी नौकरी ही एकमात्र विकल्प नजर आ रहा है, लेकिन सरकारी भर्तियों की संख्या भी बेहद कम है। इन थोड़ी नौकरियों के लिए शेष भारत की तरह यहाँ भी नौकरियों में आरक्षण की माँग तेज हो रही है। इसलिए गैर–जनजाति मैतेई समुदाय अनुसूचित जनजाति का दर्जा पाने के लिए प्रयासरत हैं। भाजपा अपने निजी फायदे के लिए इन्हें बढ़ावा दे रही है। ऐसे समय में हाई कोर्ट ने जब मैतेई समुदायों को अनुसूचित जनजाति का दर्जा देने पर राज्य सरकार को विचार करने के लिए कहा तो अन्य जनजातियों का गुस्सा ज्वालामुखी बनकर फूट पड़ा। इन जनजातियों को खतरा है कि पहले से ही आर्थिक और राजनीतिक रूप से मजबूत मैतेई समुदाय को जनजाति का दर्जा मिल गया तो उन्हें मिलने वाली थोड़ी बहुत सरकारी सुविधाओं में भी कमी आ जाएगी। साथ ही मैतेई समुदायों को अनुसूचित जनजाति का दर्जा मिलने के बाद उन्हें पहाड़ों पर जमीन खरीदने की अनुमति भी मिल जाएगी। इसके चलते पहले से ही बुरी स्थिति में पहाड़ी जनजातियाँ हाशिये पर पहुँच जाएँगी और राज्य में उनकी दोयम दर्जे की स्थिति बनकर रह जाएगी। राज्य के 60 में से 40 विधायक मैतेई समुदाय से आते हैं। वहीं कुल आबादी के 40 फीसदी जनजातियों का प्रतिनिधित्व सरकार में बेहद कम है। ऐसे में इन जनजातियों में असुरक्षा की भावना का पैदा होना स्वभाविक है।

पहले से आर्थिक संकट, बेरोजगारी से बदहाल पहाड़ों पर रहने वाली जनजातियों की स्थिति भाजपा के आने के बाद बद से बदतर होती जा रही है। 2016 से पहले पूर्वाेत्तर राज्यों में वामपंथी और कांग्रेस सरकार का दबदबा था। लेकिन पिछले कुछ सालों में भाजपा ने वहाँ जनजातीय समुदायों के बीच मौजूद अन्तर्विरोधों का फायदा उठाकर अपना आधार तैयार कर लिया है। एक तरफ भाजपा हिन्दुत्ववाद और बहुसंख्यकवाद को बढ़ावा दे रही है, साथ ही आदिवासियों को उनकी पुस्तैनी जमीनों से बेदखल कर पूँजीपतियों को सौंप रही है। इसके चलते उत्तर पूर्व के राज्यों में अशान्ति फैल रही है। इसकी आड़ में सरकार आदिवासियों के उन आन्दोलनों को भी कुचल रही है जिन्हें वे अपने अधिकारों को बचाने के लिए कर रहे हैं।

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