अनियतकालीन बुलेटिन

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संघ-भाजपा का फासीवाद और भारतीय लोकतंत्र

           संघ और भाजपा का अश्वमेघ का घोड़ा थम नहीं रहा है। संसदीय राजनीतिक विकल्प की दूर-दूर तक कोई संभावना दिखायी नहीं देती क्योंकि न तो विपक्षी पार्टियों के पास करने के लिए कोई अलग कार्यसूची है और न ही संघ-भाजपा से उनके कोई गहन वैचारिक मतभेद हैं। इसलिए जिन राज्यों में उनकी सरकारें हैं, वहाँ भी वे बुनियादी तौर पर कुछ अलग कर दिखाने में असमर्थ हैं।

            भारतीय क्रान्तिकारी और प्रगतिशील लोग भी अपने कार्यक्रम को लेकर बेहद दुविधाग्रस्त हैं। संघ और भाजपा के मौजूदा उभार को फासीवाद की आहट के तौर पर देखा जा रहा है। लोकतांत्रिक संस्थाओं के सरकार द्वारा इस्तेमाल, पुलिस-प्रशासन द्वारा संघ-भाजपा के लम्पट तत्वों और गुण्डों को संरक्षण, मीडिया के सरकारी प्रवक्ता बन जाने और न्यायपालिका के भीतर भी संघ-भाजपा के बढ़ते वर्चस्व के चलते बुद्धिजीवियों का एक बड़ा वर्ग इसे लोकतंत्र पर खतरे के तौर पर देख रहा है और संविधान और उसके द्वारा दिये गये अधिकारों को बचाने का नारा दे रहा है।

            लेकिन ये आवाजें और तमाम-चीख पुकार केवल मध्यवर्ग के भीतर है- टीवी और सोशल मीडिया में गर्मा-गरम बहसें और परिचर्चायें ट्रेण्ड कर रही हैं लेकिन जनता के व्यापक हिस्से की उनमें कोई भागीदारी नहीं बन पा रही है। उसे साथ लेने के लिए न कोई जद्दोजहद है, न कोई कार्यक्रम। नतीजतन चुनावों में संघ और भाजपा की ही जीत हो जाती है। चुनाव-दर-चुनाव यह सिलसिला जारी है लेकिन संसदीय विपक्ष की तरह ही देश के प्रगतिशील और क्रान्तिकारी लोग भी अपना ढंग-ढर्रा बदलने को तैयार नहीं है।

            मध्यवर्ग के भीतर से टीवी, सोशल मीडिया में संघ-भाजपा के खिलाफ उठने वाली आवाजें और लोकतंत्र और संविधान बचाने के लिए चलाये जा रहे संघर्ष आम जनता से इस कदर अलग-थलग है कि सरकार बड़ी आसानी से इन्हें सेकुलर, अर्बन-नक्सल, माओवादी या खालिस्तानी बताकर या उनके संघर्षों का चंद लोगों, कुछ किसानों या मुसलमानों की खुराफात बताकर बड़ी आसानी से उन्हें खारिज कर देती है या फिर मध्यवर्ग की अपने भ्रष्टाचार और अय्याशियों को बचाने की कोशिश के तौर पर पेश करके आम जनता से अलगाव में डाल देती है। इसके बरक्स मोदी खुद  को शहरी पश्चिम परस्त उच्चवर्ग के द्वारा सताये हुए और उनके भ्रष्टाचार के खिलाफ संघर्षरत एक निचली जाति के योद्धा के रूप में पेश करते रहे हैं और उनकी आलोचना को इस परियोजना के विरुद्ध ‘‘राष्ट्रद्रोह’’ के तौर पर देखा जाता रहा है। लोकतंत्र और संविधान की रक्षा के लिए चलाये जा रहे संघर्षों के नेतृत्व का यह अलगाव महज संघ-भाजपा के दिमाग की खुराफात नहीं है बल्कि एक जमीनी हकीकत है। भारतीय मध्यवर्ग और बुद्धिजीवी वर्ग, जिसमें तमाम क्रांतिकारी,  प्रगतिशील, सेकुलर और अम्बेडकरवादी बुद्धिजीवी शामिल हैं, का जीवन आम लोगों से बहुत अलग, बहुत ऊपर उठ चुका है और उसे खोने का भय या उसे भोगने की इच्छा एक ओर जहाँ उनकी समझ और सक्रियता को कुन्द करती है, वहीं दूसरी ओर सरकार और प्रशासन को क्रान्तिकारी और प्रगतिशील बुद्धिजीवियों को अलगाव में डालने का मौका देती है।

            संघ-भाजपा की इस रणनीति की लगातार कामयाबी की वजह स्पष्ट है। लोकतंत्र और संविधान की रक्षा का नारा बुलन्द करने वाले जिस लोकतंत्र और जिन अधिकारों को बचाने की बात कर रहे हैं, देश की एक बड़ी आबादी को वे कभी मिले ही नहीं। ये आवाजें सबको उनके हक, न्याय, बराबरी और लोकतंत्र के लिए बुलन्द नहीं हो रही हैं बल्कि आजादी के बाद थोड़े से मध्यवर्गीय लोगों को मिले अवसरों और अभिव्यक्ति की आजादी को बचाने के लिए उठ रही हैं। निचली जातियों के भूमिहीनों के लिए, गाँव के गरीब छोटे और सीमान्त किसानों के लिए, जो ग्रामीण आबादी के तीन-चौथाई से ज्यादा हैं, उनके पास इसके सिवाय कोई कार्यक्रम नहीं है कि वे सोच-समझ कर अपनी माँगों के लिए सही आदमी और सही पार्टी को वोट दें। बेरोजगारों, दिहाड़ी मजदूरों, अप्रवासी मजदूरों, असंगठित क्षेत्र के छोटे-मोटे काम करने वालों को कैसे लोकतंत्र मिलेगा, इसका कोई खाका उनके पास नहीं है। समाज के सताये तबकों के अधिकारों के लिए उनके साथ मिलकर लड़ने का कोई जज्बा उनके भीतर नहीं है। हाल ही में हुए किसान-आन्दोलन जैसे बड़े संघर्ष की आखिर क्या  परिणति हुई? आन्दोलन ने गाँव के भूमिहीनों को साथ लेने का कोई उत्साह नहीं दिखाया - इसके बावजूद कि वह बड़ी मुश्किल से अपनी इज्जत बचा सका। हरियाणा में जब 10वीं से कम पढ़े-लिखे और गरीब लोगों के पंचायत में चुने जाने के अधिकार छीने गये तो इसके खिलाफ कोई संघर्ष विकसित नहीं किया गया।

            अतः, लोकतंत्र और संविधान पर खतरे के नारे के तहत चलने वाले संघर्ष हद से हद सिर्फ अभिव्यक्ति की मध्यवर्ग को मिली आजादी या कुछ सीमित अधिकारों को बचाने की लड़ाई है, जिसे भी वे केवल तभी लड़ते हैं जब निजीकरण, उदारीकरण और वैश्वीकरण की नीतियों या दूसरी दमननकारी नीतियों या कानून का हमला सीधे उन पर होता है। दूसरों के लिए लड़ना तो दूर प्रायः यह वर्ग उस समय इन नीतियों का समर्थक होता है जब दूसरे लड़ रहे होते हैं।

            लोकतंत्र बचाने की ऐसी मुहिम में आम जनता के लिए कुछ भी नहीं है। इसलिए वे केवल सोशल मीडिया के बौद्धिक प्रलाप बनकर रह जाती हैं। क्रान्तिकारी बदलाव चाहने वालों को भारतीय लोकतंत्र और संविधान की सीमाओं को समझना होगा जिसने कभी भी गरीबों, निचली जातियों, भूमिहीनों और आदिवासियों को उनका हक दिलाने की दिल से कोशिश नहीं की, जाति-व्यवस्था और आर्थिक-सामाजिक गैरबराबरी को न सिर्फ कायम रहने दिया बल्कि उसको पाला-पोसा, और जिसके तहत आज संघ-भाजपा शांतिपूर्ण तरीके से सत्ता दखल करने में कामयाब हैं - वे मौजूदा लोकतंत्र के विरोधी नहीं बल्कि उसी के उत्पाद हैं। संघ और भाजपा के फासीवाद को विचारधारा, तौर-तरीके और निशाने भारतीय सामंतवाद की विरासत से मिले हैं। गौरक्षकों, लिंच-मॉब और दंगाई-भीड़ के शिकार गरीब, भूमिहीन और निचली जातियों के लोग, औरतें और दूसरे धर्मों के वे लोग हैं जो गरीबी और जातीय शोषण से मुक्ति पाने के लिए कभी बौद्ध, मुसलमान, ईसाई और सिख बने थे या आज भी बनना चाहते हैं। संघ-भाजपा द्वारा अपनाये जाने वाले तौर-तरीके और हिंसा भारतीय समाज में आम रहे हैं - बस आज उनको ज्यादा बड़े पैमाने पर और ज्यादा संगठित तरीके से इस्तेमाल किया जा रहा है। भारतीय फासीवाद भारतीय सामन्तवाद के आर्थिक और वैचारिक आधारों पर खड़ा है और देशी-विदेशी निगमों द्वारा पोषित है।

            देश में बढ़ती फासीवादी प्रवृत्तियों को तभी कुचला जा सकता है और मौजूदा लोकतंत्र को तभी बचाया जा सकता है जब उसे बचाने की कोशिश करने वालों की कार्यसूची में 75 साल के आजाद इतिहास के हाशिये पर पड़े इन लोगों - वंचित वर्गों और तबकों को इंसाफ, बराबरी और एक सम्मानजनक जीवन जीने के उनके अधिकार के लिए संघर्ष को भी शामिल किया जाये। अपने नागरिक अधिकारों की रक्षा के लिए मध्यवर्गीय बुद्धिजीवियों का संघर्ष केवल तभी कामयाब हो सकता है जब वह गरीबों, छोटी जातियों, धार्मिक अल्पसंख्यकों, आदिवासियों और औरतों के अधिकारों पर बुलडोजर चलाने वालों के खिलाफ भी खड़ा हो। इसके लिए एक बेहद स्पष्ट कार्यक्रम और उस पर अमल की जरूरत होगी।

            गाँव की जाति-व्यवस्था और पिछड़ेपन की चक्की में आज भी पिस रही भूमिहीनों, छोटे और सीमान्त किसानों की आबादी - जो कुल आबादी के तीन-चौथाई के करीब हैं - को जमीन का मालिक और उत्पादन में हिस्सेदार बनाने के बारे में सोचना होगा ताकि समाज में उनका सम्मान और हैसियत बढ़े और वे खुद को बराबरी पर महसूस कर सकें। इसके लिए कोई ठोस कार्यक्रम और संघर्षों को संगठित किये बिना संघ और भाजपा के हमले का मुकाबला नहीं किया जा सकता।

            शहरों में अप्रवासियों, दिहाड़ी मजदूरों और असंगठित क्षेत्र के कामगारों के बीच एक सम्मानजनक रोजगार के अधिकार और बुनियादी सुविधाओं की गारण्टी के लिए संघर्ष संगठित किये बिना आज शहरों में संगठित क्षेत्र के मध्यवर्गीय कामगार अपने ऊपर हो रहे निजीकरण, उदारीकरण और वैश्वीकरण के हमलों को नहीं रोक सकते क्योंकि पिछले तीस सालों का इतिहास इस बात का गवाह है कि वे कितने ही चीख-चिल्ला लें, उनमें इन संघर्षों को लड़ने का माद्दा नहीं है।

            इन संघर्षों को संगठित करने और लोगों के बीच में जाकर उनमें घुल-मिल जाने के बजाय जब तक हम सोशल मीडिया विमर्शों या मध्यवर्गीय सीमित दायरे में अपनी बौद्धिक खुजली मिटाते रहेंगे और उनके बीच ही सीमित कार्रवाइयां करके कुछ करने का भ्रम पाले रहेंगे, ताकतवर सत्ता हमें बड़े आराम से अलगाव में डाल सकती है जैसा कि हमने पिछले दिनों में - सीएए-एनआरसी, जामिया, जेएनयू, भीमा कोरेगाँव आदि मामलों में देखा है।

            संघ-भाजपा का मौजूदा उभार देश की तमाम प्रतिक्रियावादी ताकतों की आखिरी उम्मीद है - जैसे कोई दिया बुझने के पहले तेजी से जल उठा है। इसकी मुख्य शक्ति भारतीय संविधान और लोकतंत्र के शासन के तहत बन रही जाति-व्यवस्था, जमीनों और संसाधनों का गैर-बराबरी पूर्ण बँटवारा, सामाजिक और आर्थिक पिछड़ापन, अशिक्षा और अवैज्ञानिक सोच है जिसको पाल-पोसकर रखा गया और आज एक दूसरे के खिलाफ लड़ाने के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है। जब तक सामन्ती समाज से विरासत में मिली इन समस्याओं को हल नहीं किया जायेगा, हमारा समाज आगे नहीं बढ़ेगा। ये समस्यायें संघ-भाजपा द्वारा पैदा नहीं की गयी हैं - ये हमारे समाज में पहले से ही मौजूद थीं और अपनी तरह से हर पार्टी इनका इस्तेमाल करती रही है। इनकी लम्बे समय तक उपेक्षा करने का ही परिणाम है कि आज किसी भी तरह के लोकतंत्र के लिए इन समस्याओं का खात्मा होना एक पूर्वशर्त बन गया है।

            हमें इस कड़वे सच को स्वीकार करना होगा कि भारतीय लोकतंत्र और संविधान की परियोजना नाकाम हो चुकी है- संघ और भाजपा की जहरीली विचारधारा तब तक हावी होती जायेगी, जब तक समाज से भारतीय सामन्तवादी विरासत से आये उसके आधारों को उखाड़कर नहीं फेंका जाता। इसके ऊपर एक गहन वैचारिक और जमीनी हमले की जरूरत है जिसकी मुख्य ताकत समाज के हाशिये पर पड़े शोषित-पीड़ित वर्गों, जातियों और तबकों के लोग ही हो सकते हैं। इन संघर्षों में उतरे बिना हमारी जिन्दगियां बेसुकून ही रहेंगी। ऐसे मुश्किल समय में भी अगर क्रान्तिकारी और प्रगतिशील बुद्धिजीवी और विचारक अपनी मध्य-वर्गीय सीमाओं को तोड़कर आम लोगों तक पहुँचने, उनमें घुल-मिल जाने, उनके संघर्षों को संगठित करने और उनमें शामिल होने के बजाय जंगलों में सीमित सैन्य कार्रवाइयां, एक सीमित दायरे में लिखने-पढ़ने, किताबें बेचने, अध्ययन चक्र और विचार गोष्ठी करने या सोशल मीडिया में सक्रियता तक ही खुद को सीमित रखते हैं - तो धीरे-धीरे वे अप्रासंगिक होम जायेंगे।

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