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भारत की महाशक्ति बनने की महत्वकांक्षा को अमरीका क्यों शह देता है?

(7 अप्रैल को अमरीका का युद्धपोत भारत सरकार को बताये बिना (इजाजत लेने की बात ही दूर की है) देश के विशिष्ट आर्थिक क्षेत्र (ईईजेड) में घुस गया। यह देश की सुरक्षा के लिए भारी चिंता का विषय है। इसके बाद भी देश की मीडिया ने इस खबर को छिपाने की कोशसिह की। हालाँकि भारत सरकार ने 9 अप्रैल को अमेरिकी नौसेना को इस मामले में अपनी चिंताओं से अवगत करा दिया था, लेकिन अमरीकी नौसेना ने अपनी इस कार्रवाई को "नेविगेशन ऑपरेशन की स्वतंत्रता" के रूप में जायज ठहराया। भारत-और अमरीका की नौसेना इससे पहले संयुक्त युद्ध अभ्यास करती रही हैं। उसके पीछे अमरीका की एक सोची-समझी रणनीति है, इसीलिए वह भारत की महाशक्ति बनने को शह देता है। लगभग डेढ़ दशक पहले देश-विदेश पत्रिका में छपा लेख इस मामले में आज भी प्रासंगिक है।)

मार्च 2005 में, अमरीकी विदेशमन्त्री कोण्डलीसा राइस ने वाशिंगटन द्वारा ‘‘भारत को वैश्विक शक्ति बनाने’’ के निर्णय की घोषणा की। इसमें कोई सन्देह नहीं कि अमरीकी हथियार–निर्माता अब भारत से हथियारों के बड़े सौदों की उम्मीद कर सकते हैं, लेकिन बात इतनी ही नहीं। यह निर्णय व्यापक रणनीतिक हितों को ध्यान में रखते हुए लिया गया है।

(अंग्रेजी में पढने के लिए क्लिक करें-- https://monthlyreview.org/2006/03/01/why-the-united-states-promotes-indias-great-power-ambitions/)

पहला, भारत की महत्वाकांक्षाएँ अमरीका की परेशानी का सबब नहीं हैं। वह जानता है कि भारत अपने दम पर एशिया में अपना दबदबा कायम करने में असमर्थ है। उदाहरण के लिए, भारत की त्वरित कार्रवाई करने में समर्थ एक ऐसी सेना के गठन की योजना जिसे हिन्द महासागर के आस–पास स्थित देशों में जरूरत के वक्त तुरन्त तैनात किया जा सके, तब तक लागू नहीं हो सकती जब तक वह हवा में ही ईंधन भरवा लेने की क्षमता और लम्बी दूरी तक तेज गति से मार करने वाले वायुयानों, हवा से हवा में पूर्व चेतावनी और आदेश देने में सक्षम वायुयानों, हमलावर हेलीकॉप्टरों और आई–एन–एस– विराट के अलावा एक और विमान–वाही पोत हासिल नहीं कर लेता। इसका एक अच्छा–खासा हिस्सा उसे अमरीका से आयात करना पड़ेगा (प्राकृतिक संश्रयकारी, पृ– 124)। देश के बाहर सेना ले जाकर किसी तरह का सैनिक हस्तक्षेप करने के लिए और भी बड़े आधारभूत ढाँचे की जरूरत पड़ेगी जो भारत के पास नहीं है। (दरअसल, यूरोपीय संघ के देशों के पास भी अमरीका की मदद के बिना किसी क्षेत्र में लगातार अपना सैनिक दबदबा कायम रखने लायक पर्याप्त आधारभूत ढाँचा नहीं है। यह बात बाल्कन संकट के समय स्पष्ट रूप से सामने आ गयी थी, जब अन्तत: उन्हें अमरीका को हस्तक्षेप के लिए बुलाना पड़ा।)

इसके अलावा, सैनिक ताकत के मौजूदा सन्तुलन को देखते हुए भारत द्वारा अपने को एक महाशक्ति के तौर पर स्थापित करने के प्रयास तब तक कहीं नहीं टिक पायेंगे जब तक अमरीका उसके खिलाफ खड़ा रहे। रिपोर्टों के मुताबिक 2003 में पूर्व प्रधानमन्त्री अटल बिहारी वाजपेयी ने यह कबूल किया था कि महाशक्ति का दर्जा हासिल करने के उनके बीससाला कार्यक्रम के लिए अमरीका के साथ रणनीतिक साझेदारी बहुत जरूरी है, ‘‘अन्यथा विदेशों में कहीं भी अपना प्रभाव और दबदबा कायम करने की भारत की क्षमता बुरी तरह संकट में पड़ जायेगी’’ (वही, पृ– 40)।

भारत के मन्सूबे को अमरीका द्वारा शह दिये जाने के पीछे दूसरा कारण यह है कि ऐसा करना अमरीका के हितों के अनुकूल है। अमरीका के कम से कम तीन महत्वपूर्ण स्रोतों में निर्मम साफगोई के साथ इसका बयान किया गया है।

पहला स्रोत है-- अमरीका के रक्षाविभाग द्वारा अक्तूबर 2002 में तैयार की गयी रिपोर्ट ‘भारत–अमरीका सैनिक सम्बन्ध: बोध और अपेक्षाएँ।’ जूली ए– मेकडोनाल्ड द्वारा तैयार यह रिपोर्ट 42 महत्वपूर्ण अमरीकी नागरिकों-- 23 सैनिक अधिकारियों, 15 सरकारी अधिकारियों और 4 अन्य लोगों के अलावा भारत के 10 सैनिक और 5 सरकारी   अधिकारियों, राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद के कई सदस्यों और भारत सरकार के विशेषज्ञ सलाहकारों के साथ साक्षात्कार पर आधारित है। दूसरा स्रोत है-- भारत के पूर्व अमरीकी राजदूत राबर्ट ब्लैकविल के सहायक एश्ले जे– टेलीस द्वारा 2001–03 के दौरान लिखे गये लेख। आज की तारीख में वह भारत के बारे में अमरीकी नीतियों के एक प्रमुख विश्लेषक माने जाते हैं। तीसरा स्रोत है-- सितम्बर 2005 में अमरीकी सैनिक युद्ध कालेज के रणनीतिक अध्ययन संस्थान के स्टीफन ब्लैंक द्वारा किया गया एक अध्ययन ‘प्राकृतिक संश्रयकारी?’ जिसका पहले हवाला दिया जा चुका है।

प्रसंग: दुनिया–भर में अमरीका का रणनीतिक परिदृश्य

ये अध्ययन अमरीकी साम्राज्यवाद की मौजूदा स्थिति और दुनिया–भर में उसके वर्तमान रणनीतिक परिप्रेक्ष्य से सम्बन्धित हैं। इसके बारे में हम ‘इराक पर आक्रमण की असलियत’ (बिहाइण्ड द इन्वेजन ऑफ इराक) में लिख चुके हैं, इसलिए यहाँ हम सिर्फ संक्षेप में उसका सार प्रस्तुत करेंगे।

सरसरी तौर पर देखने से प्रतीत होता है कि सोवियत संघ के पतन के बाद दुनिया–भर में अमरीकी वर्चस्व के मार्ग में कोई गम्भीर चुनौती नहीं रह गयी है। उसके सैनिक खर्च दुनिया–भर में सेना पर होने वाले कुल खर्च का आधा है, संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के शेष देशों (रूस, फ़्रांस, चीन और ब्रिटेन) के कुल खर्च का लगभग 3–5 गुना है और अमरीका के बाद के बड़े सैनिक खर्च वाले 6 बड़े देशों (रूस, फ़्रांस, जापान, जर्मनी, ब्रिटेन और चीन-- चीन के सैनिक खर्चों को आधिकारिक आँकड़ों से दोगुना मानने पर भी) के कुल सैनिक खर्च का दोगुना है। अमरीका ही एकमात्र ऐसा देश है जिसके पास सुदूर सैनिक अभियानों में भेजने और विदेशों में दीर्घकालिक युद्ध लड़ने के लिए, जैसे कि आजकल वह इराक और अफगानिस्तान में चला रहा है, पर्याप्त सेना और आधारभूत ढाँचा है। (फ़्रांस और ब्रिटेन जैसे देश अपेक्षाकृत छोटी हस्तक्षेपकारी सेनाओं को तैनात करने में सक्षम हैं जो सिर्फ अप्रफीका के देशों में दोयम दर्जे की सेनाओं के खिलाफ ही कार्रवाई कर सकती हैं।)

फिर भी, टिकाऊ आर्थिक ताकत ही अन्तत: सैनिक ताकत का बल कायम रख सकती है। अमरीकी ताकत का आर्थिक आधार कमजोर है। दुनिया की आय में अमरीका का हिस्सा 1950 की तुलना में आधा गिरकर आज सिर्फ 21 प्रतिशत रह गया है, मैन्यूपफेक्चरिंग (विनिर्माण) में हिस्सा 1950 के 60 प्रतिशत के स्तर से गिरकर 1999 में महज 25 प्रतिशत रह गया और दुनिया–भर में हुए प्रत्यक्ष विदेशी निवेश में उसकी हिस्सेदारी 1960 के 47 प्रतिशत के स्तर से घटकर 2001 में महज 21 प्रतिशत  रह गयी है।

निस्सन्देह अमरीकी अर्थव्यवस्था ‘‘अच्छी चल रही है’’ बतायी जाती है जबकि आज का अमरीकी आर्थिक विकास सरकारी और उपभोक्ता ऋणों के योजनाबद्ध और भारी–भरकम विस्तार के जरिये ही कायम रखा गया है। आयातित सामानों और सेवाओं का हिस्सा बढ़ता जा रहा है। इसप्रकार अमरीका का चालू खाता-- सामानों और सेवाओं के व्यापार और पूँजीनिवेश से होने वाली देश की कुल आय और उसके खर्चों में अन्तर-- पिछले दो दशकों से घाटे में चल रहा है और अब यह घाटा नियन्त्रण के बाहर हो चुका है। 2004 में यह घाटा 668 अरब डालर तक पहुँच  गया था। 2005 में यह आँकड़ा और भी ज्यादा होगा। इस खाई को पाटने के लिए विदेशों से कर्ज लिये गये हैं जिसके चलते अमरीका आज दुनिया का सबसे बड़ा कर्जदार देश बन गया है।

अमरीका के चालू खाते का यह विशालकाय घाटा दुनिया की बचत के 70 प्रतिशत से भी ज्यादा को सोखकर पूरा किया जा रहा है (जो अमरीकी बैंकों में जमा होते हैं)। दूसरे देश तीन कारणों से अपनी बचत अमरीका में रखते हैं-- अमरीका दुनिया की प्रभुत्वशली साम्राज्यवादी ताकत है, अन्तरराष्ट्रीय भुगतानों के लिए आज भी डालर ही सबसे प्रमुख मुद्रा है और इनमें से बहुत से देश नहीं चाहते कि अमरीकी डालर की कीमत गिरे क्योंकि अमरीका उनके निर्यातों का मुख्य बाजार है।

हालाँकि यह खेल अनन्त काल तक नहीं चल सकता। कर्जे की किस्तें ओर ब्याज चुकाने के लिए भविष्य में अमरीका को अपनी राष्ट्रीय आय का बड़ा से बड़ा हिस्सा खर्च करना होगा। अन्तरराष्ट्रीय निवेशक और केन्द्रीय बैंक इस बात को जानते हैं और वे अपने निवेश को दूसरे देशों में स्थानान्तरित करने पर विचार कर रहे हैं। यदि ऐसा हुआ तो अमरीकी डालर के दाम गिर जायेंगे, अमरीका की ब्याज दरें बढ़ जायेंगी और अमरीकी अर्थव्यवस्था के विध्वंस का खतरा पैदा हो जायेगा।

इस सम्भावित घटना को टालने में अमरीकी सेना एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। यह दुनिया–भर में प्रभुत्वशाली साम्राज्यवादी शक्ति और इसी हैसियत के कारण दुनिया–भर की पूँजी के लिए एक सुरक्षित बन्दरगाह के रूप में अमरीका के ओहदे की हिफाजत करती है। यह दुनिया के अन्य देशों को विश्वास दिलाती है (उदाहरण के लिए इराक पर आक्रमण करके और दूसरे देशों को आक्रमण की धमकी देकर) कि तेल के व्यापार का बड़ा हिस्सा डालर में ही होता रहेगा। यह दुनिया के महत्वपूर्ण संसाधनों (जैसे तेल) और व्यापारिक मार्गों पर अपना प्रत्यक्ष नियन्त्रण कायम रखती है और अपने वर्चस्व को बनाये रखने के लिए इसे अपने सम्भावनाशील प्रतिद्वन्द्वियों के खिलाफ तुरुप के पत्ते के तौर पर इस्तेमाल करती है। यह हथियारों की दौड़ में भी अपने सम्भावनाशील प्रतिद्वन्द्वियों को चुनौती दे सकती है ताकि उनकी अर्थव्यवस्थाओं की जड़ काट सके।

फिर अमरीका की सैनिक ताकत भी उत्तरोत्तर दुर्बल होती जा रही है। इसका पहला कारण यह है कि उसे पूरे विश्व को अपने दायरे में लेना और हर जगह प्रतिरोध को रोकना लाजिमी है क्योंकि उसकी सर्वश्रेष्ठता पूरी तरह से इस बात पर निर्भर है कि दूसरी कोई भी ताकत उसे चुनौती देने में समर्थ नहीं है। वह एक चिरस्थायी युद्ध की स्थिति में है। ठीक इस वजह से कि अपने वर्चस्व को कायम रखने के लिए वह हर कहीं हस्तक्षेप करती है और इसीलिए वह दुनिया–भर की साम्राज्यवाद–विरोधी ताकतों का पहला निशाना है।

दूसरा, अमरीकी सेना परम्परागत किस्म की स्थायी सेनाओं को हराने के लिए पूरी तरह सुसज्जित है, लेकिन गुरिल्ला प्रतिरोध और व्यापक जनउभार से निपटने के मामलों में उसका रिकार्ड काफी खराब है। पहले वियतनाम की मुक्ति और इराकी जनता के वर्तमान प्रतिरोध से यह बात पूरी तरह पुष्ट हो जाती है। (ऐसे मामलों में वह नस्ली तनावों को छल–प्रपंच के जरिये अपने पक्ष में करके ही सफलता की आशा लगाते हैं।)

तीसरा, महान वियतनामी संघर्ष की एक विरासत यह भी है कि आज अमरीकी शासक वर्ग बड़े पैमाने पर अपने सैनिकों के मारे जाने और अनिवार्य सैनिक भर्ती के घरेलू राजनीतिक परिणामों से डरते हैं। इसतरह अमरीकी सेनाएँ, अपने वैश्विक वर्चस्व को कामय रखने के लिए अमरीका को जितने सशस्त्र बलों की जरूरत है, उससे काफी कम हैं। अमरीका आखिरकार सैनिकों की अनिवार्य भर्ती शुरू कर सकता है लेकिन घरेलू मोर्चे पर उसे इसके लिए भारी राजनीतिक कीमत चुकानी पड़ेगी।

अमरीका का नया ‘वैश्विक सुरक्षा तेवर’

अपने विविध किस्म के और लगातार बदलते जा रहे राजनीतिक विरोधियों के ऊपर अपना वर्चस्व कायम रखने के लिए ही अमरीका ने सैनिक अड्डों का एक विराट तन्त्र कायम किया है। नये सैनिक अड्डे बहुतायत में कायम हुए हैं जिसके कारण अमरीकी सेना और विरल हो गयी है। 2003 में पेण्टागन ने सैनिक अड्डों से सम्बन्धित एक नयी नीति की घोषणा की जिसके मुताबिक वह शीतयुद्ध के समय के बड़े सैनिक अड्डों (जो सोवियत संघ से युद्ध के लिए स्थापित किये गये थे) में से 35 प्रतिशत को बन्द कर देगा और अतिरिक्त सेना को पश्चिमी एशिया और केन्द्रीय एशिया में, उसी के शब्दों में, ‘‘अस्थिरता के चाप’’ के इर्द–गिर्द बड़ी संख्या में स्थिति छोटे–छोटे सैनिक अड्डों पर स्थानान्तरित कर देगा। इन ‘‘लिली पैड’’ सैनिक अड्डों (अग्रिम कार्रवाई स्थल) पर स्थायी सुविधाएँ बहुत कम रखी जायेंगी और स्थायी टुकड़ियों की संख्या भी सीमित होगी। वे अमरीका से भेजी गयी गश्ती सेना की जैसी जरूरत हो वैसी मदद करेंगी।

यह नया ‘वैश्विक सुरक्षा तेवर’ दुनिया पर अमरीकी वर्चस्व की नयी जरूरतों से सम्बन्धित है:

रक्षानीति के लिए उप रक्षासचिव डगलस फेथ के मुताबिक ‘‘शीत युद्ध के दौरान हमें इस बात की एक पक्की समझ थी और हम जानते थे कि बड़े खतरे और लड़ाइयाँ कहाँ होने वाली हैं, इसलिए हम ठीक वहीं पर सेना तैनात कर सकते थे।’’ --लेकिन ‘‘अब हम एकदम अलग अवधारणा से काम कर रहे हैं--  हमें दुनिया–भर में कहीं भी हर तरह की सैनिक कार्रवाइयों (सीधे युद्ध से लेकर शान्ति कायम करने तक) को बहुत शीघ्रता से अंजाम देने में समर्थ होने की जरूरत है।’’ भावी दशकों में आतंकवाद और दूसरे सम्भावित खतरों से, जिनमें तेल की आपूर्ति में बाधा पड़ना भी शामिल है, निपटने के लिए पेण्टागन अधिकतम लचीलापन लाने का प्रयास कर रहा है। इसलिए जितने देशों और जितने क्षेत्रों में सम्भव हो, उनके साथ तरह–तरह के समझौते करके सेना वहाँ अपने सैनिक अड्डे कायम करना और अपनी पैठ सुनिश्चित करना चाहती है।

मुख्य कार्यकारी सैनिक अड्डों और ‘‘लिली पैड्स’’ के साथ–साथ कुछ और छोटे–छोटे अड्डों का एक ढँाचा होगा जिन्हें ‘‘सहकारी सुरक्षा स्थल’’ कहा जायेगा। इन अड्डों पर अमरीकी सेना की स्थायी उपस्थिति नाममात्र की या बिल्कुल नहीं होगी और इनका रख–रखाव ‘‘ठेकेदार या मेजबान देश के अधिकारी’’ करेंगे। अमरीका इन स्थानेां का अपनी मर्जी के मुताबिक इस्तेमाल करने की खुली छूट चाहता है।

फेथ के मुताबिक पेण्टागन ऐसे पर्यावरण सम्बन्धी या राजनीतिक दबावों से बचना चाहता है जिनके चलते हाल के वर्षों में यूरोप में अमरीकी सैनिक प्रशिक्षण और तैनाती के विकल्प सीमित हो गये थे। पफेथ ने कहा, ‘‘यदि देश हमारे ऊपर इस तरह के प्रतिबन्ध लगाने जा रहे हैं जिनका मतलब यह हो कि हमने जिस उद्देश्य के लिए वहाँ सेना तैनात की उसी को हम पूरा नहीं कर सकेंगे तो हमें यह सोचना पडे़गा कि हम वहाँ सेना तैनात करें या नहीं।’’

भारत में सैनिक अड्डों और प्रशिक्षण सुविधाओं की आवश्यकता

प्रशान्त क्षेत्र में अमरीकी सैनिक कमान की विभिन्न सैनिक सेवाओं के प्रतिनिधियों से बातचीत पर आधारित अमरीकी वार कालेज के एक अध्ययन में मुँहफट भाषा में कहा गया है:

‘‘हमें भारत से ठोस समर्थन की जरूरत है क्योंकि हमारे रणनीतिक हित और उद्देश्य वैश्विक हैं, जबकि उन्हें पूरा करने के लिए पर्याप्त सेना और दूसरे साधन हमारी जरूरत के अनुरूप नहीं हैं–– हिन्द महासागर में डियागो गार्सिया से लेकर प्रशान्त महासागर में ओकीनावा और गुआम तक कई हजार मील लम्बे चाप के इर्द–गिर्द अमरीकी सेना की उपस्थिति खतरनाक तरीके से कम है––।’’

2001 का अमरीकी जर्नल ‘चतुवार्षिक डिफेंस रिव्यू’ खुलेआम यह दावा करता है कि एशिया में और ज्यादा सेनाएँ तैनात करने और सैनिक अड्डे कायम करने की जरूरत है ‘‘क्योंकि सतरंगी सघ्ंर्षो के चलते इस पूरे इलाके में खतरों का विस्तार हुआ है।’’ 2002 में उप–सहायक रक्षासचिव पीटर ब्रुक्स ने कांग्रेस को बताया कि:

एशिया के रंगमंच पर दूरियाँ बहुत विराट हैं और दूसरे संवेदनशील इलाकों की तुलना में इस इलाके में अमरीका के सैनिक अड्डों का घनत्व और रास्ते में आधारभूत  सुविधाएँ भी बहुत कम हैं। इसके अलावा दूसरे क्षेत्रों की तुलना में एशिया–प्रशान्त क्षेत्र में मौजूद सुविधाओं तक पहुँच को लेकर भी अमरीका कम आश्वस्त है। इसलिए ‘चतुवार्षिक डिफेंस रिव्यू’ वहाँ और अधिक पैठ बनाने और आधारभूत ढाँचे से सम्बन्धित नये अनुबन्ध करने की जरूरत को रेखांकित करता है।

मैकडोनाल्ड के मुताबिक अमरीकी अधिकारीगण--

अन्तत: भारतीय सैनिक अड्डों और सैनिक ढाँचे तक अपनी पैठ बनाने के अपने मन्सूबे को साफ तौर पर स्वीकार करते हैं। रणनीतिक तौर पर भारत का एशिया के केन्द्र में स्थित होना, जहाँ  से होकर मध्यपूर्व और पूर्वी एशिया को जोड़ने वाले समुद्री यातायात मार्ग गुजरते हैं जिनका बहुत ज्यादा इस्तेमाल होता है, भारत को अमरीकी सेना के लिए खास तौर पर आकर्षक बना देता है।

अमरीका के लेफ्रटीनेण्ट जनरलों ने मैकडोनाल्ड को बताया कि भारत स्थित सैनिक अड्डों तक अमरीकी पैठ अमरीकी सेना को ‘‘क्षेत्रीय संकटों पर तीव्र प्रतिक्रिया करने’’ और ‘‘शेष विश्व पर हमला कर सकने में समर्थ बनायेगी।’’ इसके अलावा, उस स्थिति से निपटने के लिए जब कभी अपने पुराने सहयोगियों (उदाहरण के लिए जापान, दक्षिण कोरिया और सउदीअरब) के साथ अमरीका के रिश्ते बहुत कटु हो जायें या समाप्त हो जायें या उस स्थिति में जब उनके सैनिक अड्डों तक अमरीकी पैठ के अधिकारों पर प्रतिबन्ध लगा दिये जायें, ‘‘अमरीका को एशिया में विकल्पों को विकसित करने की जरूरत पड़ेगी। इस लिहाज से भारत आदर्श विकल्प है–––।’’

एक अमरीकी कर्नल ने मैकडोनाल्ड को बताया कि--

अमरीकी नौसेना दुनिया के दूसरे छोर पर एक अपेक्षाकृत तटस्थ क्षेत्र चाहती है जो मध्यपूर्व में अभियानों के लिए बन्दरगाह और समर्थन उपलब्ध करा सके। भारत के पास न सिर्फ एक अच्छा आधारभूत ढाँचा है बल्कि भारतीय नौसेना यह साबित कर चुकी है कि वह अमरीकी युद्धपोतों को तैनात करने और उनमें ईंधन भरने में भी पूरी तरह सक्षम है। समय बीतने के साथ भारतीय बन्दरगाहों पर उनका जाना एक आम बात हो जायेगी। भारत एक ऐसा सम्भावनाशील खिलाड़ी है जो सभी नौसैनिक अभियानों, जिनमें क्षेत्रीय संकट पर प्रतिक्रिया करना और सुरक्षा के लिए रास्ते में साथ जाना (एस्कोर्ट करना) शामिल हैं, समर्थन दे सकता है।

अफगानिस्तान और इराक में आक्रमण और कब्जा कर रही अमरीकी सेनाओं को अपने बन्दरगाहों पर सुविधाएँ तो भारत पहले ही उपलब्ध करवा चुका है। इसके अलावा, उसने अमरीका को श्रीलंका स्थित सैनिक अड्डों का इस्तेमाल करने के लिए भी हरी झण्डी दी है--

सालों तक किसी विदेशी ताकत को डियागो गर्सिया और पूर्वी श्रीलंका स्थित सैनिकअड्डों और त्रिंकोमाली बन्दरगाह के पास फटकने तक से रोकने की कोशिश करने के बावजूद भारत ने इन बन्दरगाहों तक अमरीकी नौसना की पैठ सुरक्षित करने के लिए उसकी ओर से कार्रवाई की तथा आतंकवाद के खिलाफ वैश्विक युद्ध में अपने बन्दरगाहों का इस्तेमाल करने के लिए भी अमरीका के सामने प्रस्ताव रखा। बदले में अमरीका ने श्रीलंका के तमिल टाइगर्स पर सफलता पूर्व दबाव डाला कि वह श्रीलंका सरकार के साथ शान्ति वार्ताएँ जारी रखे–––। हिन्द महासागर में स्थित इन सैनिक अड्डों तक पैठ––– मध्यपूर्व से दक्षिणपूर्व एशिया तक होने वाली सैनिक कार्रवाइयों ओर मिशनों को अंजाम देने के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण है और इसप्रकार हिन्द महासागर में चीनी नौसैनिक महत्वाकांक्षाओं पर रोक का भी काम करेगी–––। यही नहीं, आज की तारीख में अमरीकी पोतों और वायुयानों में से प्रत्येक के मामले पर अलग–अलग विचार करके भारत उन्हें अपने सैनिक अड्डे उपलब्ध करवाता है।

अमरीका में हुए 11 सितम्बर के हमले और अफगानिस्तान पर आक्रमण करने के लिए अपने सैनिक अड्डों का इस्तेमाल करने का भारत द्वारा दिया गया व्यग्र प्रस्ताव, एक नये मोड़ का सूचक है। इससे पहले लगभग हर तीन साल में कोई एक अमरीकी नौसैनिक पोेत भारत आता था। अब अमरीका की प्रशान्त क्षेत्र कमान के अधिकारियों के मुताबिक अमरीकी पोत नियमित रूप से आते रहते हैं। भारत सरकार ने 11 सितम्बर के हमले के पहले गुजरात भूकम्प की सहायता के लिए आयी अमरीकी फौजों को भारत की जमीन पर हथियार के साथ उतरने की इजाजत नहीं दी थी। मैकडोनाल्ड के मुताबिक ‘‘11 सितम्बर के बाद, अब अमरीकी सेना की पूरी तरह पैठ बना चुकी है।’’

अमरीका भारत में प्रशिक्षण की सुविधाएँ भी चाहता है। मैकडोनाल्ड के अनुसार, ‘‘भारत के पास बर्फ से ढँके पहाड़ों से लेकर रेगिस्तानों तक एक विविधतापूर्ण भू–दृश्य है। यह अमरीकियों के लिए मददगार होगा क्येांकि अमरीका में सैनिक प्रशिक्षण के लिए उपलब्ध चाँदमारी की जगहें कम होती जा रही हैं और उनका प्रयोग भी ज्यादा विवादास्पद होता जा रहा है। साथ ही अमरीकी नौसेना के लिए ‘‘हिन्द महासागर क्षेत्र में दक्षता’’ हासिल करने का सबसे अच्छा तरीका है, भारतीय नौसेना के साथ प्रशिक्षण में भाग लेना।

भारत की हथियारबन्द सेनाएँ ‘निचले दर्जे’ के कार्य सम्पादित करेंगी

अमरीका को न सिर्फ भारतीय सुविधाओं के इस्तेमाल की जरूरत है बल्कि भारतीय सशस्त्र सेनाओं की सेवाओं की भी आवश्यकता है। एश्ले टेलीस के अनुसार उनकी भूमिका निचले दर्जे की होने के बाजजूद अमरीका के लिए लाभप्रद होगी--

अत्यावश्यक अमरीकी हितों के लिए निर्णायक महत्व रखने वाले उन एशियाई इलाकों में जहाँ अमरीकी  संसाधनों का इस्तेमासल उचित ठहराया जा सकेगा, जिसमें जरूतर पड़ने पर एकतरफा सैनिक कार्रवाई भी शामिल है, भारत पहले की तरह परिधि का खिलाड़ी ही बना रहेगा। लेकिन जैसे ही उसकी क्षमताएँ बढ़ेगी वैसे ही, सीमित ही सही उसका प्रभाव भी बढ़ेगा। यदि भारत के साथ रिश्ते दक्षतापूर्व चलाये जायें तो वह प्रभाव द्विपक्षयी साझा हितों को आगे बढ़ाने में सहायक हो सकता है।

टेलीस आगे लिखता है कि इन निर्णायक महत्व के इलाकों में ‘‘अमरीका और भारत के बीच सैन्य क्षमता और संसाधनों के मामले में भारी असमानता इतनी साफ होगी कि वह भारत की प्राथमिकताओं को पूरी तरह अप्रासंगिक बना देगी।’’ तो भी, इस तरह के मामलों में भी ‘‘भारतीय शक्ति में नाटकीय बढ़ोत्तरी दिखायी जा सकती है अगर उसे अमरीकी सैनिक ताकत के साथ सुर–ताल मिलाकर प्रयोग में लाया जाय। ऐसी परिस्थितियों में भारत के संसाधन अमरीका पर पड़ने वाले कार्रवाई के खर्च के बोझ को हल्का करने में मदद कर सकते हैं–––।’’

इसके अलावा वह इस बात परजोर देता है कि भारतीय सेनाओं को उन क्षेत्रोंधमामलों से सम्बन्धित जिम्मेदारियाँ सौंपी जा सकती हैं, जिनके बारे में अमरीका यह सोचता है कि वे उसके सीधे हस्तक्षेप के लायक नहीं हैं--

भारतीय शक्ति उन भौगोलिक क्षेत्रों और मामलों में सबसे ज्यादा प्रासंगिक होगी जो एशियाई भू–राजनीतिक ‘दरारों’ से सम्बन्धित हैं––– उन इलाकों में जहाँ महाशक्ति हित न तो इतने प्रत्यक्ष हों और न ही अत्यावश्यक। इसके चलते कुछ सुनिश्चित नतीजों के लिए अकेले ही कार्रवाई करने में उनकी दिलचस्पी बहुत कम होगी। ऐसी परिस्थितियों में भारत जैसी उभरती हुई ताकतें कुछ फर्क डाल सकती हैं क्योंकि उनकी बहुत प्रभावी तो नहीं लेकिन फिर भी पर्याप्त क्षमताएँ शक्ति–सन्तुलन को इस या उस गँठजोड़ के पक्ष में झुका सकती हैं–––।

मैकडोनाल्ड का सुझाव है कि भारतीयों को ‘‘निचले दर्जे की कार्रवाइयाँ’’ सौंपी जा सकती हैं:

अमरीकी सेना को एक सक्षम सैनिक साझेदार की तलाश है जो एशिया में निचले दर्जे की कार्रवाइयों, जैसे शान्ति कायम करने की कार्रवाई, खोज और बचाव, मानवीय सहायता, आपदा राहत ओर महँगी कीमत के माल को सुरक्षित पहुँचाने (एस्कोर्ट करने) की अधिकतर जिम्मेदारी अपने ऊपर ले सके। इससे अमरीकी सेना अपने संसाधनो को अव्वल दर्जे के युद्ध अभियानों पर केन्द्रित कर सकेगी।

इस तरह की ‘‘साझेदारी’’ के लिए सबसे निकटतम उम्मीदवार भारतीय नौसेना है। दोनों देशों की नौसेनाओं के बीच सहयोग की शुरुआत अमरीका में 11 सितम्बर 2001 की घटनाओं के बाद हुई। 6 महीने तक भारतीय नौसेना ने अमरीकी नौसेना के साथ मिलकर व्यापारिक जहाजों की सुरक्षा के लिए संयुक्त गश्त किये और उत्तरी अरबसागर  से लेकर मलक्का जलडमरूमध्य के बीच स्थित व्यस्त समुद्री मार्ग पर गश्त लगाती रही।

इस घटना ने एक उपयोगी मिसाल कायम की। मैकडोनाल्ड कहता है, ‘‘नौसैनिक सहयोग दो सेनाओं के बीच सहयोग के एक सबसे उदीयमान क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करता है।’’ इसका एक कारण यह है कि ‘‘भारत की नौसेना ही वह एकमात्र भारतीय सेना है जिसको भारतीय सीमा के बाहर कार्रवाई करने के हिसाब से संगठित किया गया है।’’ भारत के भीतर इसका राजनीतिक विरोध भी कम होगा। एक अमरीकी एडमिरल के शब्दों में, ‘‘सहयोगी तरीके से आगे बढने के लिए नौसेना ही सबसे आसान सेना हो सकती है क्योंकि अमरीकी नौसेना भारत की जमीन पर कोई पदचिद्म नहीं छोड़ती। युद्ध अभ्यास लोगों की नजरों से दूर आयोजित किये जाते हैं और अमरीकी सेना भारत की जमीन पर नहीं उतरती।’’

जून 2005 का ‘‘अमरीका–भारत रक्षा सम्बन्धों की नयी रूपरेखा’’ नामक समझौता अन्य बातों के साथ प्रमुखता से इसका जिक्र करता है कि भारतीय और अमरीकी सेनाएँ संयुक्त और सम्मिलित सैनिक अभ्यास और आदान–प्रदान करेंगी, संकटकालीन परिस्थितियों से निपटने के लिए संयुक्त रूप से काम करेंगी और बहुराष्ट्रीय कार्रवाइयों और ‘‘शान्ति स्थापना’’ की कार्रवाइयों में सहयोग करेंगी। ध्यान देने की बात यह है कि इसमें संयुक्त राष्ट्र संघ का उल्लेख तक नहीं हैं। स्पष्ट तौर पर ये कार्रवाइयाँ नाम मात्र के लिए भी उसके बैनर तले आयोजित नहीं की जायेंगी। यह अमरीका की सुनियोजित कोशिशों का हिस्सा है जिनके तहत वह आपदा राहत और क्षेत्रीय टकरावों को अपनी और अपने संश्रयकारियों की सेनाएँ भेजने के बहाने के तौर पर इस्तेमाल करके उन परिस्थितियों तक भी अपनी पैठ बना लेना चाहता है जो पहले उसकी पहुँच में नहीं थी। 18 जुलाई 2005 का जार्ज बुश और मनमोहन सिंह का संयुक्त वक्तव्य एक नयी ‘‘भारत–अमरीका आपदा राहत पहल जो सुनामी कोर ग्रुप के अनुभवों पर   आधारित है’’, के बारे में बताता है। यह समूह जिसमें भारत भी शामिल किया गया था, बाद में भंग कर दिया गया और उसके काम को संयुक्त राष्ट्र संघ के अधीन कर दिया गया। लेकिन इसके बावजूद अमरीका किसी तरह आपदा रहात के बहाने अपनी सेनाओं और संयन्त्रों को इण्डोनेशिया के एक्ह प्रान्त और श्रीलंका भेजने में कामयाब रहा। (श्रीलंका के मामले में उसने ‘‘मानवीय उद्देश्यों’’ के लिए 1,500 नौसैनिक और जल व स्थल दोनों जगहों से मार करने वाला एक पोत भेजा।)

प्रसार सुरक्षा पहल: अन्तरराष्ट्रीय कानून का उल्लंघन

28 जून 2005 के ‘‘नयी रूपरेखा’’ नामक समझौते में यह भी उल्लेख किया गया है कि भारत और अमरीका ‘‘जनसंहारक हथियारों के प्रसार का मुकाबला करने के लिए’’ भी गँठजोड़ करेंगे। दरअसल, भारत अमरीका के नेतृत्व में प्रसार सुरक्षा पहल का अंग बनने के लिए तैयार है जो इस समझौते का एक खतरनाक और अवैध परिणाम है। प्रसार सुरक्षा पहल न तो कोई सन्धि है, न ही कोई संगठन, बल्कि सरकारों के एक समूह के बीच अनौपचारिक तालमेल है जिसमें कोई बाध्यकारी शर्त या अधिनियम नहीं है और जो जनसंहारक हथियारों का प्रसार रोकने के बैनर तले काम करता है। संयुक्त राष्ट्र संघ के माध्यम से कार्रवाई करने के तरीके को ठुकराकर प्रसार सुरक्षा पहल इसमें शामिल होने वाली सरकारों से माँग करती है कि वे जनसंहाकर हथियारों, उनको चलाने वाली प्रणाली और ‘‘सम्बन्धित सामग्री’’ का प्रसार करने वालों पर रोक लगायें, चाहे वह किसी देश की सरकार हो या कोई और। (यहाँ रोकने के लिए ‘‘निषेध’’ शब्द का प्रयोग किया गया है।)

जनसंहारक हथियार ‘‘चलाने की प्रणाली’’ का सम्भावित अर्थ है मिसाइल और ऐसे ही दूसरे प्रक्षेपक। ‘‘सम्बन्धित सामग्री’’ शब्द इतना भ्रामक है कि यहाँ तक कि खाद तैयार करने से सम्बन्धित सामग्री भी इस बिनाह पर जब्त की जा सकती है कि उसका इस्तेमाल जनसंहारक हथियार बनाने में किया जा सकता है। इराक के खिलाफ प्रतिबन्धों के काल (1991–2003) में एक समय उसे पेंसिल आयात करने से इस आधार पर रोक दिया गया था कि उसमें ग्रेफाइट है, जिसे हथियार बनाने के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है।

अन्तरराष्ट्रीय कानूनों के अनुमोदन के बिना ही अपनी खुद की पहल पर प्रसार सुरक्षा पहल के भगीदार देश अपने समुद्री इलाके में या गहरे समुद्रों मे भी (राज्य की अपनी जलसीमा से परे) गुजरने वाले किसी भी मालवाहक जहाज पर, जिसके बारे में ‘‘पर्याप्त सन्देह हो कि वह ऐसा सन्दिग्ध माल ले जा रहा है’’, चढ़ सकते हैं उसकी तलाशी ले सकते हैं तथा ऐसे माल को जब्त कर सकते हैं। यहाँ  तक कि प्रसारकों के यहाँ से आने या जाने वाले ऐसे वायुयान भी जिनके बारे में ‘‘पर्याप्त सन्देह किया जा सके’’ कि वे ‘‘ऐसा सन्दिग्ध माल’’ ले जा रहे हैं, उन्हें उतारने और उनका माल जब्त करने की जरूरत पड़ सकती है। (यदि ऐसा कोई वायुयान उतरने से इन्कार कर दे तो इसके क्या परिणाम हो सकते हैं? अनुमानत: उन पर लदे जनसंहारक हथियारों के तथाकथित माल सहित उन्हें मार गिराया जायेगा।)

इराक में जनसंहारक हथियार होने के हास्यास्पद अमरीकी  दावे की तरह जो इराक पर अमरीकी आक्रमण को न्यायसंगत ठहराने का आधार बना, प्रसार सुरक्षा पहल के तहत किये गये दावे भी किसी अन्तरराष्ट्रीय संस्था की जाँच का विषय नहीं होंगे, बल्कि अमरीकी ‘‘खुफियागिरी’’ पर आधारित होंगे। (‘‘युक्तिसंगत ढंग से सन्देह किया जा सके’’ वाक्यांश पर ध्यान दें।) चूँकि अन्तरराष्ट्रीय कानून के तहत ऊपर वर्णित कार्रवाइयाँ युद्ध की कार्रवाइयाँ समझी जाती हैं, इसलिए भारत के प्रसार सुरक्षा पहल में शामिल होने के गम्भीर दुष्परिणाम हो सकते हैं।

एक साल से कुछ और पहले जब अमरीकी राज्य सचिव कॉलिन पावेल प्रसार सुरक्षा पहल में शामिल होने के लिए भारत पर दबाव डाल रहे थे, भारत के वरिष्ठ अधिकारियों ने इसकी वैधता को लेकर गम्भीर सवाल उठाये थे। हालाँकि अब भारत प्रसार सुरक्षा पहल में एक भागीदार बनने के रास्ते पर बढ़ता प्रतीत हो रहा है। जनवरी 2005 में हुए सातवें एशियाई सुरक्षा सम्मेलन में रक्षामन्त्री प्रणव मुखर्जी ने यह दावा किया कि समुद्री मार्गों के रास्ते जनसंहारक हथियारों का प्रसार ‘‘बड़ी समस्याओं में से एक’’ है। उन्होंने प्रस्ताव रखा कि ‘‘प्रसार सुरक्षा पहल जैसी नयी शुरुआत’’ के बारे में ‘‘और ज्यादा व्यापक छानबीन जरूरी’’ है। उन्होंने कहा कि भारतीय नौसेना और तटरक्षक इस तरह के खतरों से निपटने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। 21 मई 2005 को नौसैनिक स्टाफ प्रमुख एडमिरल अरुण प्रकाश ने कहा कि यदि भारत प्रसार सुरक्षा पहल में शामिल होगा तो ‘‘दुनिया के मामलों में भारत की हैसियत को देखते हुए हमें कोर ग्रुप के देशों में से एक होना चाहिए।’’

सितम्बर 2005 में भारत की नौसेना ने अमरीकी नौसेना के साथ अब तक का सबसे बड़ा संयुक्त युद्ध–अभ्यास किया। प्रमुख तौर पर विमानवाही पोतों और पूरक के तौर पर नियन्त्रित प्रक्षेपास्त्र विनाशक हथियार, सुरक्षा के लिए साथ–साथ जाने वाले एस्कॉर्ट पोत, हेलीकाप्टर, टोही विमान और लड़ाकू विमानों को शामिल करके नौसेनाओं ने गहरे समुद्रों में पोतों को रोकर उनका निरीक्षण करने, उन पर चढ़ जाने, उनकी तलाशी लेने और उन पर कब्जा करने का भी अभ्यास किया। वरिष्ठ भारतीय अधिकारियों ने इस बात से इन्कार किया कि इसका प्रसार सुरक्षा पहल से कोई वास्ता है।

मिसाइल ‘‘सुरक्षा’’: गम्भीर परिणामों वाला एक आक्रामक संश्रय

‘‘नयी रूपरेखा’’ नामक समझौते के मुताबिक दोनों देशों की सेनाएँ ‘‘मिसाइल सुरक्षा सम्बन्धी गँठजोड़ का विस्तार’’ करेंगी। यह भारतीय जनता के लिए गम्भीर खतरा उत्पन्न करने वाला है।

मई 2001 में जार्ज बुश ने अमरीका के लिए एक ‘‘नयी रणनीतिक रूपरेखा’’ की घोषणा की थी जिसमें यह बात भी शामिल थी कि अमरीका ‘‘राष्ट्रीय मिसाइल सुरक्षा’’ की अपनी योजनाओं को आगे बढ़ाता रहेगा, अर्थात एक ऐसा तन्त्र निकसित करेगा जिसका लक्ष्य अमरीकी ठिकानांे की ओर लक्षित मिसाइलों को हवा में ही नष्ट करके अमरीका की सुरक्षा करना होगा। बुश ने तीस साल पुरानी प्रक्षेपास्त्र         निरोधक सन्धि द्वारा लगायी गयी ‘‘बाधाओं से परे हटने’’ के अपने इरादे की भी घोषणा कर दी है। इस सन्धि के पीछे का तर्क यह था कि यदि किसी नाभिकीय हथियार सम्पन्न देश को दूसरे देशों के नाभिकीय हथियारों से प्रभावी तौर पर अपनी सुरक्षा करनी है तो बिना जवाबी हमले की परवाह किये वह अपने हथियारों का अन्य देशों पर इस्तेमाल कर सकता है। दूसरी शक्तियाँ, यह सुनिश्चित करने के लिए कि सिर्पफ मिसाइलों की संख्या के आधार पर ही यह सुरक्षा भेदी जा सकती है, अपनी मिसाइलों की संख्या कई गुना बढ़ायेगी और इस तरह हथियारों की एक खतरनाक होड़ शुरू हो जायेगी।

बुश की घोषणा की व्यापक आलोचना हुई। ‘चाइना डेली’ नामक आधिकारिक अखबार ने कहा कि बुश की योजना दुनिया में ‘‘पूर्ण सैनिक वर्चस्व’’ कायम करने का निहित उद्देश्य लिये हुए प्रतीत होती है। इस लक्ष्य का अनुसरण ‘‘मौजूदा कमजोर वैश्विक सुरक्षा–सन्तुलन को छिन्न–भिन्न कर देगा’’, ‘‘अन्तरराष्ट्रीय परिदृश्य में हथियारांे की एक नयी होड़ को उकसायेगा और निरस्त्रीकरण के अन्तरराष्ट्रीय प्रयासों के जरिये अभी तक जो कुछ भी हासिल हुआ है, उसे नष्ट कर देगा’’। रूस के विदेश मन्त्रालय के एक प्रवक्ता ने कहा, ‘‘अमरीका हमें इस बात का कायल बनाने में असमर्थ रहा है कि उसकी नजर में यह बिल्कुल साफ है कि पिछले 30 सालों तक चले निरस्त्रीकरण समझौतों को नुकसान पहुँचाये बिना अन्तरराष्ट्रीय सुरक्षा की समस्या को कैसे हल किया जा सकता है’’। जर्मनी भी असहमत रहा और उसने इस परियोजना पर ‘‘बहुत गम्भीर सवाल’’ उठाये। दुनिया–भर की जनता की राय और भी ज्यादा प्रतिकूल थी।

वाजपेयी की सरकार दुनिया की उन कुछ सरकारों में से एक थी जिन्होंने बुश की घोषणा का खुलेआम स्वागत किया और उसे न्यायसंगत ठहराने के लिए आश्चर्यजनक रूप से, इसे नाभिकीय निरस्त्रीकरण की ओर एक कदम बताया। अमरीका के साथ वार्ताओं की शुरुआत इस बात से हुई कि भारत इस व्यवस्था में कैसे शामिल हो सकता है। 1 जनवरी 2004 को बुश ने भारत के साथ ‘‘रणनीतिक साझेदारी के अगले कदमों’’ (एनएसएसपी की घोषणा की जिसमें मिसाइल सुरक्षा के क्षेत्र में सहयोग भी शामिल था। भारत की आधिकारिक प्रतिक्रिया उल्लास से भरी थी-- रणनीतिक साझेदारी के अगले कदम ‘‘विलक्षण––– और पूरी तरह से असाधारण’’ बात है।

हालाँकि पाँच महीने बाद वाजपेयी की सरकार गिर गयी। कांग्रेस के नेतृत्व वाली संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की नयी सरकार ने शुरुआत में मिसाइल सुरक्षा के मामले में अपने बयानों में काफी सतर्कता बरती। सबके बावजूद, संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन के ‘‘न्यूनतम साझा कार्यक्रम’’ में एक स्वतन्त्र विदेश–नीति पर चलने के बारे में कुछ सामान्य वक्तव्य तो शामिल थे ही। भारत–अमरीका रक्षा नीति समूह वह मंच है जिसके माध्यम से भारत–अमरीका रणनीतिक साझेदारी को अमल में लाया जा रहा है। नयी सरकार द्वारा कार्यभार ग्रहण करने के तत्काल बाद यह मंच मई के अन्त में अपनी बैठक किया। अमरीकी प्रतिनिधमण्डल ने मिसाइल सुरक्षा के बारे मे एक प्रस्तुति दी लेकिन भारतीय पक्ष की प्रतिक्रिया सार्वजनिक नहीं की गयी। अगले साल इसी मुद्दे पर कुछ और आदान–प्रदान हुए जिसमें अप्रैल 2005 में कैलीफोर्निया में आयोजित मिसाइल सुरक्षा अभ्यासों में भाग लेने के लिए एक भारतीय दल की यात्रा भी शामिल है।

अगस्त 2004 में दिल्ली नीति समूह की एक बैठक में अपने भाषण में भारत के उप–राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार सतीष चन्द्रा ने मिसाइल सुरक्षा के असली आशय को उद्घाटित किया। उन्होंने कहा कि मिसाइल सुरक्षा अमरीका की ‘‘अवधारणा में बदलाव’’ का हिस्सा है जिससे वह ‘‘अपनी रक्षा के नाम पर नाभिकीय हथियारों के इस्तेमाल के लिए पहले से ही खुद को अधिकृत कर सकता है।’’ अपने भाषण में चन्द्रा ने इस तथ्य पर दुख व्यक्त किया कि नाभिकीय हथियार मुक्त विश्व के बारे में अपने प्रयासो के बावजूद अमरीका ‘‘नाभिकीय हथियारों को अपने पास बनाये रखने के लिए नये तर्क गढ़ रहा है और नये प्रकार के नाभिकीय हथियार विकसित कर रहा है।’’ ‘‘प्रक्षेपास्त्र निरोधक सन्धि को रद्द करने और प्रक्षेपास्त्र सुरक्षा विकसित करने के अमरीकी कदम इस बात के स्पष्ट संकेतक हैं कि अमरीका में रणनीतिक सोच में अवधारणागत बदलाव हो रहे हैं ताकि वह आत्मरक्षा के नाम पर नाभिकीय हथियारों के इस्तेमाल के विकलप के लिए खुद को पहले से ही अधिकृत कर सके। इस प्रकार, जबकि 1970 ओर 1980 के दशक में नाभिकीय हथियारों के निर्माण को मुख्यत: निरोधक के तौर पर न्यायसंगत ठहराया गया था, नाभिकीय हथियारों के इस्तेमाल के सिद्धान्तकारों का विचार है कि उनका वास्तविक इस्तेमाल नाभिकीय युद्ध जैसी परिस्थितियों में ही सम्भव है–––।’’ (जोर मूल भाषण में है।)

चन्द्रा ने अपने भाषण में जो असहमति व्यक्त की थी, वह अब प्रासंगिक नहीं थी क्योंकि निर्णय पहले ही लिया जा चुका था। अक्टूबर 2004 में अमरीकी राजदूत मलफोर्ड ने ‘फोर्स’ नामक पत्रिका को बताया कि अमरीका और भारत पहले ही मिसाइल सुरक्षा के बारे में सिर्फ बातें बनाते रहने से आगे बढ़ चुके हैं: ‘‘तकनीक और प्रणाली के बारे में एक विचार–विमर्श पहले ही हो चुका  है––– मेरी समझ से एकमात्र समस्या यह है कि तकनीकी तौर पर यह एक जटिल विषय है और विभिन्न पीढ़ियों की प्रणालियाँ मौजूद हैं। इसलिए मुद्दा यह पहचानने का है कि कहाँ किस किस्म की प्रणाली की जरूरत है। यह एक जटिल प्रक्रिया है।’’

जापान की मिसाइल सुरक्षा के लिए जो प्रणाली बनायी जा रही है उससे हमें इसका अन्दाजा मिलता है कि भारत के लिए क्या योजना बनायी जा सकती है। खुद जापान में भू–आधारित अन्त:सम्वेदी मिसाइल नैनात किये गये और जापान के आस–पास अमरीकी तत्वावधान में तैनात विध्वंसकों पर समुद्र–आधारित अन्त:सम्वेदी मिसाइल लगाये गये। इसके तीसरे घटक के तौर पर रूपान्तरित बोइंग 747 जेट विमानों की नोक पर लेजर बीम लगाने की कोशिशें की जा रही हैं। ये 24 घण्टे चीन के तटवर्ती इलाकों में उड़ान भरते रहेंगे और चीन या उत्तर कोरिया द्वारा दागी गयी किसी भी मिसाइल को मार गिरायेंगे। (हालाँकि हवा से हवा में मार करने वाले इस लेजर कार्यक्रम की तकनीक के विकास में भारी समस्याएँ हैं।)

अगर यह मान भी लें कि यह मिसाइल सुरक्षा प्रणाली कारगर है तो भी इसमें कोई शक नहीं कि जापान भारत से बहुत छोटा है। इसलिए भारत की सुरक्षा करना ज्यादा कठिन और खर्चीला होगा। भारत के मामले में यह सम्भव है कि सुरक्षा प्रणाली पूरे भारत को नहीं बल्कि कुछ चुनिन्दा स्थानों-- सैनिक ठिकानों ओर महानगरों-- को ध्यान में रखकर बनायी जाय। किसी भी कीमत पर इस प्रणाली को छिन्न–भिन्न करने के लिए चीन की सबसे सम्भव प्रतिक्रिया होगी-- और बड़ी संख्या में मिसाइलों का निर्माण, जैसा कि वह ताइवान के मामले में पहले से कर रहा है। चीन का मुकाबला करने की क्षमता को बनाये रखने के लिए जवाब में भारत सम्भवत: और ज्यादा अग्नि–3 मिसाइलें बनायेगा और उन्हें नाभिकीय हथियारों से लैस करेगा।

भारत की जनता को इस रास्ते पर चलने के पीछे की सनक, उसकी भारी कीमत और उस पर चलने के गम्भीर खतरों के बारे में सावधान किया जाना जरूरी है और उन्हें यह भी बताया जाना चाहिए कि यह किसके स्वार्थों की पूर्ति करता है।

प्रस्तावित ‘एशियाई नाटो’ की धुरी की कीली के रूप में भारत

भारत की जनता अब तक इस बात से अनभिज्ञ है कि उनका देश एशिया के लिए अमरीका द्वारा प्रायोजित एक व्यापक सैनिक गठजोड़ की धुरी की कीली बनाया जा सकता है:

2003 के दौरान, यदि ठीक तब से न माना जाये तो भी, अमरीकी और भारतीय अधिकारियों ने एक ‘एशियाई नाटो’ की सम्भावना पर बातचीत की है हालाँकि इन बातचीतों के ब्योरे और भारत के लिए उनके महत्व को सार्वजनिक नहीं किया गया है।

कोई भी गँठजोड़ तब तक कोई अर्थ नहीं रखता जब तक वह किसी के खिलाफ न हो। नाटो को मूलत: सोवियत संघ के खिलाफ एक गँठजोड़ के रूप मे गढ़ा गया था, उसके एशियाई संस्करण का मुख्य निशाना चीन होगा। इस उद्देश्य को हासिल करने की दिशा में भारतीय सशस्त्र सेनाएँ, खासकर भारतीय नौसेना, सक्रिय रही है। नये नौसैनिक सिद्धान्तों के मुताबिक भारतीय नौसेना को हिन्द महासागर के इलाके में स्थित ‘‘नाकेबन्दियों, महत्वपूर्ण द्वीपों और अतिमहत्वपूर्ण व्यापारिक मार्गों’’ पर प्रभुत्व जमाना है। 2004 के अन्त तक इसे सिंगापुर, थाईलैण्ड और फिलीपींस की नौसेनओं की साथ मिलकर हिन्द महासागर क्षेत्र की चैकसी शुरू करनी थी।

इसी हिसाब से भारतीय नौसेना ने एक ‘‘पूर्व की ओर देखो’’ कार्यक्रम की शुरुआत की है जिसके तहत दक्षिणपूर्व एशिया में सद्भावना मिशन भेजे गये (जिनके दौरान भारतीय युद्धपोतों ने जापान और वियतनाम के साथ नौसैनिक युद्धाभ्यास में हिस्सा लिया) जो वियतनाम, फिलीपींस, दक्षिण कोरिया और जापान के बन्दरगाहों पर रुकते हुए गये और सिंगापुर, मलेशिया और इण्डोनेशिया के साथ संयुक्त चैकसी गश्त मे शामिल हुए। इनका उद्देश्य है, चीन के आस–पास स्थित देशों से सम्बन्ध बनाना, नौसेना को कार्रवाइयों के सम्भावित रंगमंच दक्षिणी चीन सागर से परिचित करवाना और घर से बहुत दूर के इलाकों में कार्रवाई करने की नौसेना की क्षमता को विकसित करना।

नौसेना को बढ़ाने तथा अण्दमान और निकोबार स्थित अड्डों का भारी विस्तार करने के बारे में भारत सरकार की योजनाओं को इसी रोशनी में देखा जाना चाहिए। एक रिपोर्ट के मुताबिक,  सुदूर पूर्व में नौसैनिक कमान कायम करने की योजना ठोस रूप में 1995 में वाशिंगटन में भारतीय प्रधानमन्त्री नरसिम्हाराव और अमरीकी राष्ट्रपति बिल क्लिण्टन के बीच बन्द दरवाजे के पीछे हुई एक बैठक के बाद बनी–––। अमरीका से आशा की जाती है कि वह सुदूर पूर्व में नौसैनिक कमान कायम करने के लिए आंशिक तौर पर धन मुहैया करवायेगा क्योंकि यह एशिया के लिए अमरीकी नेतृत्व में हो रहे सुरक्षा इन्तजाम का हिस्सा है, जिसमें भारत की प्रमुख भूमिका है। अमरीका से यह पैसा 2000 में बिल क्लिण्टन की भारत–यात्रा के समय मिला।

भारत ने वियतनाम के साथ विशेष नजदीकी रिश्ते बनाये हैं। यह दुखद है कि अमरीकी साम्राज्यवाद के खिलाफ लड़ने वाला एक समय का बहादुर योद्धा वियतनाम अब अमरीका का अप्रत्यक्ष संश्रयकारी बनाया जा चुका है:

भारत वियतनाम को सैनिक साजो–सामान की बिक्री बढ़ा रहा है, वायुयानों की पूरी तरह से मरम्मत के लिए उसे कल–पुर्जे मुहैया करवा रहा है और बगावत कुचलने और जंगलों में युद्ध की स्थिति से निपटने के लिए प्रशिक्षण देने हेतु अपने सैनिक अधिकारी वियतनाम में भेज रहा है। भारतीय तटरक्षक और वियतनाम की समुद्री पुलिस समुद्री डकैती को रोकने के लिए सहयोग करेंगे। भारत वियतनामी नौसेना के निर्माण में मदद दे रहा है––– वियतनाम को पृथ्वी मिसाइल बेचने, भारतीय नाभिकीय प्रतिष्ठानों में वियतनामी वैज्ञानिकों को प्रशिक्षित करने और छोटे हथियारों के उत्पादन के लिए अपने खुद के हथियार–उद्योग की स्थापना में भारत वियतनाम की मदद करने के लिए ‘‘सिद्धान्त में’’ सहमत हो गया है।–––भारतीय नौसेना ने वियतनामी नौसेना के साथ संयुक्त नौसैनिक अभ्यास भी किये हैं।

यह भी रिपोर्ट किया गया है कि मिसाइल तकनीक के हस्तान्तरण के बदले में भारत वियतनाम की कामरान खाड़ी के इस्तेमाल की माँग कर सकता है जो एशिया का बहुत अच्छा गहरे पानी वाला प्रकाृतिक बन्दरगाह है। अमरीका के निकट–सहयोगी जापान के साथ भारत के रिश्ते बढ़ रहे हैं। जापान की नौसेना, जिसे समुद्री आत्मरक्षा बल (मेरीटाइम सेल्फ़ डिफेंस फोर्स) के नाम से जाना जाता है, अब अफगानिस्तान में अमरीकी कब्जे के समर्थन में हिन्द महासागर क्षेत्र में कार्यरत है। इसकी कार्रवाई का, यजिसकी अवधि अप्रैल 2005 में एक विशेष कानून पारित करके बढ़ा दी गयी), विशेष महत्व यह है कि इसने एक महत्वपूर्ण मिसाल कायम की है। 1945 के बाद जापान ने पहली बार समुद्रपार की किसी सैनिक कार्रवाई में हिस्सा लिया है। साफ है कि जापान की सेना के लिए ‘आत्मरक्षा बल’ नाम अब पुराना पड़ गया है। इस कार्रवाई के दौरान जापानी नौसैनिक पोतों ने भारतीय बन्दरगाहों की सुविधा का लाभ उठाया। मई 2004 में चीन की उभरती हुई ताकत को प्रतिसन्तुलित करने के लिए भारत के साथ ‘‘वैश्विक साझेदारी’’ कायम करने के लिए सार्वजनिक तौर पर प्रस्ताव किया।’’ अप्रैल 2005 में भारत और जापान के प्रधानमन्त्री मिले और दोनों देशों के बीच ‘‘वैश्विक साझेदारी’’ की बात को दृढ़तापूर्वक दोहराया तथा जनसंहारक हथियारों के ‘‘प्रसार के खिलाफ’’ साझेदारों की तरह काम करने का वचन दिया। उन्होंने घोषणा की कि दोनों देशों की नौसेना की तरह ही भारतीय ओर जापानी तटरक्ष भी प्रभावी सहयोग के लिए एक रूपरेखा तैयार करेंगे।

2000 में, तत्कालीन रक्षामन्त्री जार्ज फर्नाण्डीस ने घोषणा की कि वियतनाम और जापान हिन्द महासागर से लेकर दक्षिणी चीन सागर तक समुद्री डकैती रोकने के लिए भारत के रणनीतिक साझेदार के रूप में उभर रहे हैं। अमरीकी युद्ध कालेज द्वारा करवाये गये अध्ययन के मुताबिक ‘‘ऐसा करके वे चीन को यह नोटिस भी दे रहे हैं कि वे उस समुद्र में अपना दबदबा कायम रखने की चीन की कोशिशों का मुकाबला करेंगे।’’ इसके आगे ‘‘भारत के थाईलैण्ड, अस्टेªलिया, सिगांपुर और अमरीका के साथ बेहतर रक्षा सहयोग की सम्भावना बन सकती है–––।’’ इण्डोनेशिया भी इस सूची में शामिल हो सकता है।

सी–आई–आई– (कॉन्पफेडरेशन ऑफ इण्डियन इण्डस्ट्रीज) और विश्व आर्थिक मंच के संयुक्त तत्वावधान में नयी दिल्ली में हुए सम्मलेन में अपने भाषण में भारत के विदेश–सचिव श्याम सरन ने एक ‘‘एशियाई नाटो’’ कायम करने की योजनाओं को लेकर एक बहुत ही स्पष्ट वक्त्वय रखा। उन्होंने कहा, ‘‘इसमें कोई सन्देह नहीं कि एशिया के सन्दर्भ में सेनाओं की दलबन्दी में बड़े पैमाने पर पफेरबदल हो रहे हैं।’’ चीन एक ‘‘वैश्विक आर्थिक ताकत’’ के रूप में उभर रहा है जिसके पास अच्छी खासी सैनिक क्षमताएँ भी हैं। अमरीका और भारत ‘‘एशिया में और बेहतर सन्तुलन कायम करने के लिए योगदान’’ कर सकते हैं। उन्होंने कहा कि इस क्षेत्र की सुरक्षा की स्थिति का प्रबन्ध करने के लिए ‘‘ज्यादा–से–ज्यादा देशों को इस क्षेत्र के लिए एक सुरक्षा अवधारणा के अनुशासन में लाने की जरूरत है।’’

अमरीकी युद्ध कालेज का अध्ययन एक ‘‘एशियाई नाटो’’ के फायदे बताते हुए कहता है--

अमरीका के लिए इसका क्या मतलब? पहला यह कि प्रस्तावित सुरक्षा प्रणाली अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर सुरक्षा के लिए मौजूद सबसे बड़े खतरों में से दो-- अतिमहात्वाकांक्षी चीन और तालिबानीकृत इस्लाम का फैलाव-- से निपटने के लिए मुख्यत: एक अन्त:क्षेत्रीय समाधान है। दूसरे, यह परियोजना पूरी तरह देशी होने के कारण इस क्षेत्र में, दक्षिण कोरिया और जापान जैसे देशों में, तैनात अमरीकी फौजों पर कोई कलंक नहीं लगेगा––– और अन्तत: यह किसी भी तरह से विस्तारित इलाके में अमरीकी सशस्त्र सेनाओं की उपस्थिति में बाधक नहीं है या अमरीकी सैनिक पहलकदमी को सीमित नहीं करती है।

फिर भी, और यह सबसे महत्वपूर्ण है, यह पूरा मन्सूबा ही ध्वस्त हो जायेगा अगर भारत अपनी महाशक्ति बनने की महत्वाकांक्षा छोड़ दे। जब भारत खुद को एक महाशक्ति माने और ‘‘क्षेत्र में अपने को चीन को सन्तुलत करने वाली ताकत’’ समझे केवल तभी वह एक व्यापक चीन–विरोधी गँठजोड़ को बढ़ावा देना चाहेगा। इसलिए भारत अपने ‘‘निर्दिष्ट भाग्य’’ के अनुसार काम करे इसके लिए अमरीका को उस पर दबाव देना चाहिए:

लेकिन यह प्रणाली काम कर सके इसके लिए सबसे महत्वपूर्ण है कि भारत को अपने ‘‘निर्दिष्ट भाग्य’’ के बारे में कायल बनाया जाय और वह उसके लिए कार्रवाई करने के लिए तैयार हो। इसके लिए, मुख्य रूप से, जरूरी है कि भारत भू–रणनीतिक नजरिये से सोचे और जब देश के अत्यावश्यक राष्ट्रीय हितों को आगे बढ़ाने की जरूरत आन पड़ी हो तब आत्मसंशय को छोड़ दे और दोस्त–दुश्मन सभी को समान रूप से तुष्ट करने की अपनी आदत से बाज आये। इसको ठीक करने के लिए भारत सरकार अपने रणनीतिक हितों और मुख्य जोर को जल्दी से जल्दी पारिभाषित करे और न्यूनतम शर्त के तौर पर एक नाभिकीय शक्ति हासिल करने की दिशा में तेजी से आगे बढ़े ताकि उसके पास एक परीक्षिति और प्रमाणित ताप नाभिकीय और अन्तरमहाद्वीपीय प्रक्षेपास्त्र प्रक्षेपण क्षमता हो। सम्भव एशियाई संश्रयकारियों को गँठजोड़ के लिए तैयार करने या अमरीका को भारत का सम्मान करने के लिए बाध्य करने के लिए इससे कम कुछ भी शर्त नहीं हो सकती कि इस क्षेत्र में भारत चीन को प्रभावी तौर पर प्रतिसन्तुलित करे।

एशिया में अमरीकी मन्सूबे की सफलता के लिए भारत की महाशक्ति बनने की महवाकांक्षाएँ निर्णायक महत्व रखती हैं। दरअसल, आगे चलकर भारतीय विदेश–नीति जितना अमरीकी रणनीतिक ढाँचे के अधीन होती जायेगी, भारत की संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता हासिल करने की एकनिष्ठ मुहिम के अन्तत: अमरीकी समर्थन हासिल कर लेने की सम्भावना भी उतनी बढ़ जायेगी। यह स्वीकार करते समय कि अमरीका ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता के भारत के दावे को समर्थन नहीं दिया है, मनमोहन सिंह ने संसद को बताया, ‘‘मेरे पास यह मान लेने के पर्याप्त कारण हैं कि समय आने पर हमें नजरअन्दाज नहीं किया जायेगा।’’

निष्कर्ष

अमरीका–भारत संश्रय के आसार भारतीय शासकों को आकर्षक प्रतीत हो रहे हैं। पहला, क्योंकि अमरीका की  सैनिक श्रेष्ठता की इतिहास में कोई मिसाल नहीं है, इसलिए वह भारत को एक नयी वैश्विक हैसियत की गारण्टी करने की अच्छी स्थिति में प्रतीत होता है। दूसरे, शायद पहले कभी से ज्यादा अब भारत का उच्चवर्ग और यहाँ तक कि शहरी मध्यवर्ग का भी अच्छा–खासा हिस्सा पूरी दुनिया पर अमरीकी वर्चस्व के साथ तादात्म्य स्थापित कर चुका है। बहुत से लोगों के रिश्तेदार अमरीका में रहते हैं, उनकी दिनो–दिन बढ़ती संख्या अमरीकी कम्पनियों या अमरीका की सेवा करने वाली कम्पनियों यउदाहरण के लिए सूचना प्रौद्योगिकी क्षेत्र में) के लिए काम करती है और पिछले 15 सालों में विदेशी और घरेलू समाचार माध्यमों के विस्पफोट ने भी इस तादात्म्य को गहरा किया है।

इसमें कोई सन्देह नहीं कि भारत के ‘‘महाशक्ति’’ बनने के मन्सूबे को अमरीका का आधिकारिक समर्थन इन तबकों के बीच भारत–अमरीका रणनीतिक गँठजोड़ के लिए समर्थन को और बढ़ायेगा। हालाँकि ये तबके बहुत थोड़ी संख्या में हैं फिर भी आम राय गढ़ने, यानी व्यापक जनता को प्रभावित करने में ये महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

फिर भी, कुछ ऐसे कारण हैं जिनके चलते भारत और अमरीका के बीच उभर रहे इस राजनीतिक गँठजोड़ की राहें बहुत आसान नहीं होंगी।

पहला, अमरीका की सैनिक श्रेष्ठता को अनावश्यक महत्व दिया जा रहा है। यह किसी भी तरह से निर्विवाद नहीं रह गयी है। सिर्फ एक देश इराक में प्रतिरोध–युद्ध कर रही ताकतों को दबाने में भी यह असमर्थ रही है। अमरीकी सेना पूरे विश्व में बहुत जयादा खिंच गयी है और उसमें थकान के संकेत दीख रहे हैं। इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि दुनिया–भर में अमरीकी वर्चस्व का आर्थिक आधार कमजोर है। इन दी हुई परिस्थितियों में ‘‘भारत को वैश्विक शक्ति बनाने’’ की गारण्टी और भी कमजोर हो जाती है।

दूसरे, भारत को ‘‘वैश्विक शक्ति’’ मान लिये जाने मात्र से ही भारतीय शासक वर्गों की आन्तरिक राजनीतिक कठिनाइयों के हल होने की सम्भावना नहीं है। इसका सीधा–सा कारण यह है कि ऊपरी वर्गों के लोग पिछले दो दशकों में हुए परिवर्तनों से भले ही लाभान्वित हुए हैं, जनता का बहुत बड़ा हिस्सा अपनी दशा बिगड़ते देख रहा है। घरेलू राजनीतिक परिदृश्य पर जारी उथल–पुथल के पीछे सबसे निचले पायदान पर खड़े ये निचले वर्गों के लोग ही हैं। इन वर्गों का जीवन इतने दुखों और कष्टों में पिसते हुए बीतता है कि भारत की ‘‘वैश्विक हैसियत’’ के प्रचार से वे अमूमन प्रभावित नहीं होते।

भारत की अर्थव्यवस्था की वर्तमान दशा और दिशा इस तथ्य को बदलने वाली नहीं है। तथाकथित ‘‘राष्ट्रीय आय’’ की बढ़ोत्तरी के साथ–साथ उससे भी तेज गति से बढ़ती गैर–बराबरी को देखते हुए, मेहनतकश वर्गों को इससे रत्ती भर भी फायदा होगा, इसमें सन्देह है। अगर रोजगार वास्तव में बढ़े होते तो मजदूर तबकों को भी फायदा हुआ होता लेकिन रोजगार की बढ़ोत्तरी नगण्य रही है और इसप्रकार (रोजगार तलाशने वालों की पिछले दिनों बढ़ती संख्या को देखते हुए) बेरोजगारी में तेजी से बढ़ोत्तरी हो रही है। देशी और विदेशी निगम क्षेत्र के लिए निवेश के अवसर पैदा करने की प्रक्रिया में ऐसे और भी बडे़ परिवर्तन किये जाने वाले हैं जो देश के छोटी जोत वाले कृषि क्षेत्र को तबाह कर देंगे। इन परिवर्तनों के चलते देश में बेरोजगारी और भी गम्भीर रूप धारण कर लेगी एवं राजनीतिक परिदृश्य और ज्यादा उथल–पुथल भरा होगा।

तीसरे, अपनी पतनशील साम्राज्यवादी ताकत को बचाने के लिए आज अमरीका एक असामान्य सैनिक दुस्साहसवाद के रास्ते पर बढ़ता जा रहा है। यहाँ हमारे पास इस विषय के अपेक्षित विस्तार में जाने की जगह नहीं है। कुछ उदाहरण देना ही पर्याप्त होगा। अब यह सर्वविदित है कि इराक पर आक्रमण और कब्जा अमरीका के दुनिया–भर के ज्यादा से जयादा तेल पर कब्जा करने के बड़े मन्सूबे का अंग है। अमरीका के विख्यात खोजी पत्रकार सेमूर हर्ष लिखते हैं कि अमरीकी सरकार 2004 की गर्मी के दिनों से ही ईरान में गुप्त सूचनाएँ एकत्र करने के लिए मिशन चला रही है ताकि ‘‘ईरान के सैनिक आधारभूत ढँाचे को यथासम्भव तहस–नहस करने’’ के लिए बम–हमलों और कमाण्डो छापों की तैयारी की जा सके (‘‘द कमिंग वार्स,’’ न्यूयार्कर, 24 जनवरी 2005)। शायद इस मन्सूबे को लागू करने में सबसे बड़ी बाधा इराक में जारी प्रतिरोध युद्ध रहा है जिसने अमरीकी सेना को उलझाया हुआ है।

चीन को काबू में करने की सैनिक योजनाएँ अपेक्षाकृत दीर्घकालिक हैं लेकिन वे भी कम दुस्साहिक नहीं हैं। अपने एक लेख ‘हाऊ वी वुड फाइट चाइना’ (अटलांटिक, जून 2005) में रॉबर्ट केपलॅान अनुमोदन करते हुए लिखते हैं कि पेण्टागन के चिन्तक एक नये शीतयुद्ध की भविष्यवाणी कर रहे हैं। रूस की भी रोकथाम होनी चाहिए। अमरीका ने (यूरोप की सहायता से) हाल ही में जार्जिया और यूक्रेन में ‘‘क्रान्तियों’’ को प्रायोजित किया ताकि रूस के लिए खतरे की घण्टी के तौर पर अमरीकी संश्रयकारियों का एक नेटवर्क बनाया जा सके। दरअसल, तेल के धनी कैस्पियन सागर के इलाके में अमरीका एक ‘‘सुरक्षा संगठन’’ बनाने के विशिष्ट प्रस्ताव पर जोर दे रहा है, जिसमें रूस ओर चीन शामिल नहीं होंगे। ‘अमरीका की राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति’ (सितम्बर 2002) के तहत यह घोषणा की गयी है कि अमरीका न सिर्फ वैश्विक वर्चस्व के मामले में बल्कि दुनिया के किसी भी हिस्से में क्षेत्रीय वर्चस्व के मामले में भी यह बर्दाश्त नहीं करेगा कि उसका कोई प्रतिद्वन्द्वी पैदा हो।

इस कार्यभार को अंजाम देने के लिए अमरीका को अन्य देशों के समर्थन की जरूरत है इसलिए अमरीका को अपने संश्रयकारियों में से उन तत्वों को प्रोत्साहित करना चाहिए जो अमरीका के तत्वावधान में अपने महाशक्ति बनने के सपने को पूरा करना चाहते हैं। इसका सबसे अच्छा उदाहरण है जापान, जिसके साथ अक्तूबर 2005 में अमरीका ने एक व्यापक रणनीतिक समझौता सम्पन्न किया था। हाल के वर्षों में अमरीका सुनियोजित तरीके से जापान को अपनी सशस्त्र सेनाओं पर लगे संवैधानिक प्रतिबन्धों को हटाने और उन्हें विदेशों में भेजने के लिए प्रोत्साहित करता रहा है। उसने जापानी प्रधानमन्त्री कोईजुमी का समर्थन किया है जो यासुकुनी समाधि पर जाकर जापानी युद्धअपराधियों को बार–बार श्रद्धांजलि देते रहे हैं। यह जापान की प्रतिक्रियावादी भावनाओं को भड़काने की खुली अपील और चीन को उकसाने की सचेत कार्रवाई थी। उसने अन्तरिक्ष के सैन्यीकरण के अपने कार्यक्रम में जापान को महत्वपूर्ण साझेदार बना लिया है।

मार्च 2002 में अमरीका ने एक ‘‘नाभिकीय तेवर समीक्षा’’ (न्यूक्लियर पोस्चर रिव्यू) पारित की जिसके तहत सेना को कम से कम 7 देशों (चीन, रूस, अमरीकी कब्जे से पहले का इराक, उत्तर कोरिया, ईरान, लीबिया और सीरिया) के खिलाफ नाभिकीय हथियारों का प्रयोग करने के लिए तैयार रहने के निर्देश दिये गये थे। इसके अलावा यह भी निर्देश था कि युद्ध की कुछ खास स्थितियों में प्रयोग करने के लिए सेना को छोटे नाभिकीय हथियार बनाने चाहिए, मसलन उन निशानों के खिलाफ जो गैर–नाभिकीय हथियारों के हमले को झेलने में सक्षम है: नाभिकीय, रासायनिक या जैविक हथियारों से हमले का जवाब देने के लिए या ‘‘किसी औचक सैनिक घटनाक्रम की स्थिति में’’। दस्तावेज कहता है कि अमरीका को अरब इजरायल युद्ध, चीन–ताइवान युद्ध या उत्तर कोरिया द्वारा दक्षिण कोरिया पर हमले की स्थिति में नाभिकीय हथियारों का प्रयोग करने के लिए तैयार रहना होगा। संक्षपे में, नाभिकीय हथियारों को अब महज निरोधक ही नहीं माना जा रहा है बल्कि विविध प्रकार के देशों के खिलाफ खतरे की आशंका के आधार पर पहले हमला करने के लिए उनका इस्तेमाल किया जा सकता है, यहाँ तक कि उन देशों के खिलाफ भी जिनके पास नाभिकीय हथियार नहीं है। इस नीति की घोषणा का एकमात्र मकसद अपने सम्भावित विरोधियों को चेतावनी देना है।

इसतरह यह कहना कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी कि अमरीका पूरी दुनिया की जनता के खिलाफ युद्ध की स्थिति में है और आतंकवाद का रास्ता अपना रहा है। विविध किस्म के चरित्र वाली बहुत सी ताकतें इस बात को समझ चुकी हंै और संघर्ष की तैयारी कर रही हैं।

महत्वपूर्ण सैनिक ताकत ही हैसियत से रूस और चीन करीब आ रहे हैं। उन्होंने एक संयुक्त ‘‘विश्वव्यवस्था पर घोषणापत्र’’ जारी किया है जिसमें एकतरफापन और बलप्रयोग का विरोध किया गया है तथा बहुपक्षीयवाद और संयुक्त राष्ट्र संघ पर भरोसा करने की माँग की गयी है। बाह्य अन्तरक्षि के शान्तिपूर्ण इस्तेमाल और एक ऐसी विश्वव्यवस्था की बात की गयी है जो ‘‘आन्तरकि मामलों में वर्चस्व या एकाधिकार के किसी भी प्रकार के दावे से मुक्त’’ हो। केन्द्रीय एशिया के चार देशों से मिलकर उन्होंने एक सैनिक संश्रय (शंघाई सहकार संगठन) कायम किया है। सबसे प्रमुख बात यह है कि उन्होंने हाल ही में कुल दस हजार सेना के साथ पहला संयुक्त सैनिक अभ्यास किया है।

फिर भी, अमरीकी मन्सूबों के खिलाफ रूस और चीन का विरोध उनके सीधे रणनीतिक हितों वाले क्षेत्रों तक ही सीमित है। दुनिया–भर की जनता ही अमरीकी मन्सूबों का तीखा और व्यापक विरोध कर रही है-- यह एक ऐसा तथ्य है जिसकी न सिर्फ कई जनमतसंग्रहों के दौरन पुष्टि हुई है बल्कि उससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण है कि दुनिया–भर में जनसंघर्षो ने इसे पुष्ट किया है। लातिन अमरीका में, जिसे अमरीका अपना पिछवाड़ा समझता है, अमरीका अभूतपूर्व अलगाव झेल रहा है जिसका सामना अपनी हाल की वहाँ की यात्रा के दौरान खुद बुश को भी करना पड़ा। पश्चिमी एशिया, उत्तरी अप्रफीका, यूरोप, पूर्वी एशिया और दक्षिणपूर्व एशिया की जनता भी (अपने देश के शासक वर्गों से अलग) ऐसा ही व्यवहार कर रही है।

इसलिए, भारत के शासक वर्ग अमरीका के साथ सैन्य संश्रय करके वे दुनिया के सबसे प्रतिक्रियावादी शक्ति के साथ भारत को बाँध दिये हैं और इसे दुनिया–भर की विभिन्न प्रकार की अमरीका–विरोधी शक्तियों का कोपभाजक बना दिये हैं। इस बन्धन का नकारात्मक परिणाम भारत की जनता को एक या दूसरे रूप में भुगतना पडे़गा, उदाहरण के लिए, विशाल सैन्य खर्च और युद्ध तथा इसके प्रतिकार सम्बन्धी अन्य कार्रवाइयों के रूप में। अत: अमरीकी चालों की मातहती और ‘‘महाशक्ति’’ के इस नकली दर्जे, जो जनता को न तो भोजन उपलब्ध करा सकता है, न तो कपड़ा और न ही अवास, के खिलाफ भारत की जनता को आगे आना चाहिए।      

अनुवाद: ज्ञानेन्द्र

(यह लेख सबसे पहले ‘एस्पेक्ट्स ऑफ इण्डिया’ज् इकोनॉमी’, अंक 41 (दिसम्बर 2005) में छपा था, जिसे कुछ सम्पादकीय परिवर्तनों के साथ ‘मन्थली रिव्यू’ ने भी अपने मार्च 2006 के अंक में प्रकाशित किया। इस लेख को हम ‘मन्थली रिव्यू’ से साभार अनूदित कर रहे हैं। मुम्बई स्थित ‘राजनितिक अर्थशास्त्र के लिए शोध इकाई’  ‘एस्पेक्ट्स ऑफ इण्डिया’ज् इकोनॉमी’ नामक जर्नल व हिन्दी–अंग्रेजी में अन्य शोधों का प्रकाशन करती है।)

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