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पद्म श्री के नाम पर वन संरक्षक आदिवासियों के साथ भद्दा मजाक

पृथ्वी एक मात्र ऐसा ग्रह है जहाँ पर जीवन सम्भव है। यहाँ जीवों की उत्पत्ति और वृद्धि के लिए एक बेहतर पारिस्थितिकीय तंत्र है। मानव इस तंत्र का सबसे श्रेष्ठ जीव है जो धरती पर और उसके पारिस्थितिकीय तंत्र पर सकारात्मक और नकारात्मक दोनों तरह के प्रभाव डालता है। हमारे बीच ही ऐसे बहुत से लोग मौजूद है, जो पारिस्थितिकीय तंत्र पर सकारात्मक प्रभाव के लिए अपना पूरा जीवन लगा देते हैं। वे मानवता के सच्चे सेवक हैं।

वे बिना किसी लोभ–लालच के यह काम करते रहते हंै, लेकिन सरकारें उनकी इस निस्वार्थ सेवा को भी भुनाने के लिए तत्पर रहती हैं। सरकारें धुर–विरोधी सोच के ऐसे लोगों को बड़े–बड़े सम्मानों से नवाज कर अपने पर्यावरण विरोधी कुकर्मों की कालिख कम करने की कोशिश करती हैं।

हाल ही में भारत सरकार ने तुलसी गोडा को पद्म श्री पुरस्कार से सम्मानित किया है। तुलसी गोडा कर्नाटक के अंकोला तालूका जिले के होनाली गाँव की एक 70 वर्षीय आदिवासी महिला है। जिन्हें “वनदेवी” और “एनसाइक्लोपिडिया ऑफ फारेस्ट” के नाम से भी जाना जाता है। इन्होंने भारतीय वन विभाग को पौधों व बीजों को संरक्षित करने के नायाब तरीके सिखाये हैं। तुलसी गोडा अब लगभग 30,000 से ज्यादा पेड़ लगाकर पर्यावरण को बचाने में अपनी अहम भूमिका निभायी है।

एक तरफ हमारी सरकार ने पर्यावरण संरक्षण के लिए एक आदिवासी महिला को पद्म श्री जैसा पुरस्कार दिया तो दूसरी ओर यही सरकार आदिवासियों के अस्तित्व पर ही संकट ला देने वाले कानूनों को रोज–ब–रोज पारित करती जा रही है।

प्राकृतिक संसाधनों की लूट में लिप्त सरकारें और कम्पनियाँ कोयला खादानों, विकास परियोजनाओं, बाँधों आदि के नाम पर करोड़ों आदिवासियों को बेघर कर चुकी है। इसके अलावा उनकी लूटेरी नीतियाँ जलवायु को तबाह करके भू असन्तुलन को बढ़ा चुकी हैं। बेहताशा प्रदूषण फैलाकर मनुष्य समेत समस्त जीव–जन्तुओं की प्रजातियों को तबाही की ओर धकेल चुकी हैं। हर रोज संसद में ऐसे कानून बनाये जाते हैं जो देश को एक जहरीले घर में बदल दंेगे।

यह कैसी बिडम्बना है कि तुलसी गोडा जैसे लोग एक दिन पर्यावरण रक्षा के लिए सरकार से पुरस्कार लेने जाते है और साल के बाकी दिनों में सरकार की पर्यावरण विरोधी नीतियों की मार झेलते हैं। 2021 से हिमाचल प्रदेश के किन्नौर में जंगी पावरी हाइड्रो इलेक्टिसिटी प्रोजेक्ट के विरोध में वहाँ के स्थानीय लोगों ने “नो मिन्स नो” आन्दोलन चला रखा है जिसका दमन करने के लिए सरकार ऐड़ी–चोटी का पसीना एक कर देती है। हिमाचल प्रदेश के ही “लाहौल स्पीती” से गुजरने वाली चंद्रभागा नदी जो आगे जाकर चिनाव कहलाती है। उस पर 2500 मेगा वाट बिजली उत्पादन की परियोजना को स्थानीय लोगों और पर्यावरण विदें के विरोध के बावजूद मंजूरी दे दी गयी है।

छत्तीसगढ़ के “हसदेव आरण्य” को बचाने और कोयला खनन में जंगलों के काटे जाने के विरोध में 20 ग्राम सभाओं के लोग 2015 से लगातार प्रदर्शन कर रहे हैं, लेकिन सरकार उनकी बात सुनने को भी तैयार नहीं है। इसके विपरीत जब 2021 में सरकार के फैसले के विरोध में स्थानीय लोगों ने 300 किलोमीटर पैदल रैली निकाली तो सरकार ने उनका दमन किया और अदानी समूह की कम्पनी “माइल डेवलेपर एण्ड ऑपरेटर” (एमडीओ) का हसदेव आरण्य के साथ–साथ तीन नये कोयला ब्लॉक में खनन करने की भी उसे अनुमति दे दी।

ऐसे ही हालत देश के तमाम हिस्सों के है जो स्थानीय लोग और आदिवासी जन–जातियाँ सदियों से जंगलों को बचाती और उन पर निर्भर रहती आयी हैं। आज उन्हीं के अस्तित्व पर सवाल खड़ा हो गया है। अब तो इनसे अपने आप को स्थानीय निवासी साबित करने का भी प्रमाण–पत्र माँगा जा रहा है ऐसे हालात तो अंग्रेजों के समय में भी नहीं थे। आजाद भारत में बने केंद्रीय वन संरक्षण कानून 1980 में तो जंगलों पर ग्राम सभा और आदिवासियों के अधिकारों को भी लगभग नकार ही दिया गया।

वर्किग ग्रुप ऑफ ह्यूमन राइट्स 2012 की रिपोर्ट बताती है कि भारत में आजादी के बाद से लगभग 6–5 करोड़ लोगों का विस्थापन हो चुका है जो पूरी दुनिया में सबसे ज्यादा हैं। इसमें 40 फीसदी या लगभग 2–6 करोड़ आदिवासी शामिल हैं। कुल मिलाकर एक चैथाई आदिवासी अपने मूलनिवासों से विस्थापित हो चुके हैं। जब ऐसे भयावह आँकड़े नजरों के सामने हो तो एक आदिवासी बुजुर्ग महिला को पर्यावरण संरक्षण के नाम पर सरकार द्वारा पद्म श्री दिया जाना आदिवासियों के साथ बेहद भद्दा मजाक लगता है।

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