अनियतकालीन बुलेटिन

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नयी आर्थिक नीति और कृषि संकट

(यह लेख इतिहासबोध पत्रिका (1993) से लिया गया है। लेख उस समय लिखा गया था, जब भारत में वैश्वीकरण की नीतियाँ लागू करने की शुरुआत हो गयी थी। विश्व बैंक, अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष और अमरीकी साम्राज्यवाद के आगे नतमस्तक हो सरकार देश भर में वैश्वीकरण के फायदों का ढिंढोरा पीट रही थी। आगे चलकर इसका नतीजा यह हुआ कि वैश्वीकरण के पक्ष में जनमत तैयार हो गया, जिसने वैश्वीकरण की नीतियों को लागू करने की सरकार की राह को आसान बना दिया। लेकिन इसके बावजूद वैश्वीकरण की नीतियों का व्यापक स्तर पर विरोध भी होता रहा और विरोध पक्ष ने जनता के सामने इन नीतियों के स्याह पक्ष को रखा। इस लेख में विरोध पक्ष की वही आवाज मुखर हुई है, जिसमें वैज्ञानिक विश्लेषण के जरिये यह दिखाया गया है कि इन नीतियों के लागू होने के बाद पूँजीवादी विकास तीव्र हो जाएगा, जिसके चलते भारत का कृषि क्षेत्र तबाही का शिकार होगा और उससे जुड़े किसान और मजदूरों की जिंदगी बदहाल हो जायेगी। इस लेख के जरिये सम्भावना के तौर उस समय जो बातें कही गयीं थी, 27 साल के लम्बे समयांतराल में वे भयावह सच्चाई बनकर हमारे सामने खड़ी हैं। इस मामले में इस लेख की जितनी तारीफ़ की जाए कम है। यह लेख उन नौजवानों, किसानों और मजदूरों के लिए बड़े काम का है, जो मौजूदा कृषि संकट को समझना चाहते हैं और साथ ही समाज के ताने-बाने में आये मौलिक परिवर्तनों को रेखांकित करना चाहते हैं। पुनर्प्रस्तुत करते समय लेख को यत्र-तत्र सम्पादित कर दिया गया है।)

ध्यान देने की बात है कि किसान और मजदूर रात-दिन एक करके जाड़ा गर्मी और वर्षा की परवाह न करते हुए, अपने खेतों में जी-जान लगाकर काम करते हैं। इसके बावजूद समाज में सबसे खराब माली स्थिति किसानों और मजदूरों की ही है। क्या अपनी खराब माली स्थिति के जिम्मेदार किसान और मजदूर खुद हैं? क्या वह गरीबी पाले हुए हैं? क्या किसान फसल पैदा करने में काहिलपना करता है? क्या उसकी पैदावार बहुत कम है? नहीं! ऐसा नहीं है। उनकी खराब माली हालत के जिम्मेदार वे खुद नहीं हैं और न ही वे अपनी गरीबी के लिए जिम्मेदार हैं। वे अन्य वर्गी से ज्यादा काम करते हैं। काहिल नहीं हैं और उत्पादन भी कम नहीं करते। उनकी आर्थिक स्थिति खराब होने का  एक कारण यह है कि उनकी पैदावार का बहुलांश अमीरों की तिजोरियों में चला जाता है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि पुरानी खेती भी किसानों और मजदूरों के लिए बहुत यंत्रणा और अभाव की व्यवस्था धी। सामन्त-जमींदार गरीबों का बेइन्तहा शोषण किया करते थे, उनसे बेगारी कराते थे। किन्तु आज शोषण के तौर-तरीकों में तथा शोषण करने वाले लोगों में भी बदलाव आया है। इन बदलाओं को चिन्हित करना बहुत आवश्यक है।

पुराने जमाने में कृषि के सारे उपकरण किसानों को अपने गाँव में ही मिल जाते थे। परत्तु ज्यों ही पूँजी गाँवों में पहुंची, उसने व्यवस्था में गुणात्मक बदलाव ला दिया। हल बैल की जगह टैक्‍्टर ने ले ली। उनत किस्म के बीज आए, उसके साथ रासायनिक खादों का प्रयोग करना अनियाय॑ हो गया। क्षीर नाशक दवाओं का फसलों में प्रयोग होने लगा. इसका परिणाम यह हुआ कि किसानों को खाद, बीज, कीटनाशक दवाएं तरह-तरह के कृषि यंत्र, मोबिल, डीजल सब कुछ बाजार से खरीदना होता है। ये मजबूर है कि अपनी पैदावार का बहुलांश बाजारों में बेचे और इसे सिक्के में ढदालकर पूँजीपतियों तक पहुचाएं।

नयी खेती में ढेर सारी पूँजी की आवश्यकता किसानों की तबाही का दूसरा बड़ा कारण है। आमतौर पर अधिकाँश किसानों के पास पूँजी का अभाव होता है। इसलिए उन्हें बैंकों के पास जाना पड़ता है और वहाँ भी घूस दिए बिना ऋण नहीं मिलता। बैंक ऊँचे ब्याज वसूलते हैं, जिनकी किस्तों की अदायगी किसानों के लिए बोझ बन जाती है। किसानों की आय का एक बड़ा हिस्सा बैंकों के पास चला जाता है। अक्सर पूँजीवादी अर्थशास्त्री यह भ्रम फैलाने का प्रयास करते हैं कि बैंक बहुत ही नेक और कल्याणकारी संस्थाएं हैं जो देश भर की पूँजी बिटोरकर किसानों को उपलंब्ध कराते हैं। सच्चाई यह है कि बैंक देहातों में जितनी धनराशि ऋण के रूप में देते हैं, उससे कहीं ज्यादा धन वे वहाँ से निचोड़ लेते हैं। इस बात की पुष्टि सरकारी आँकड़े ही करते हैं।

विकास के नाम पर पूँजीपतियों को फायदा पहुँचाया जाता है।  उदाहरण के तौर पर ग्रामीण सड़कों के निर्माण को ही लिया जाये, सरकार ने गाँव को शहर के बाजारों से पक्की सड़कों द्वारा जोड़ा तो गाँव की जनता को आने-जाने की सुविधा तो मिली, परन्तु गाँवों में उत्पादित सभी वस्तुएं बाजारों तक आसानी से पहुँचने लगीं और धन पूँजीपतियों और बैंकों तक पहुँच गया।

इसी प्रकार एक अन्य योजना चकबन्दी कार्यक्रम को लिया जाये। चकबन्दी तो जैसे-तैसे होती ही है। किन्तु इस कार्यक्रम के तहत किसान को अच्छी खासी धनराशि चकबन्दी अधिकारियों को भेंट चढ़ानी पड़ती है। कवि अदम गोण्डवी ने इस सच्चाई को एक़ शेर में बांधा हैं- -

खेत जो सीलिंग के थे, सब चक में शामिल हो गये

हमको पट्टे का सनद मिलता भी है तो ताल में।

 अब गाँव के किसानों के सामने ऐसा आर्थिक संकट आ पहुँचा है जिससे वे अपनी खेती के लिए डीजल, पानी, खाद, बीज, हल-बैल खरीदने की स्थिति में ही नहीं हैं किन्तु उनकी मजबूरी है कि वे खेती न करे तो करे क्या. भयावह आर्थिक तबाही के बावजूद उनको अपनी खेती ही करनी है। अगर वे यह भी नहीं करेगें तो ख़ाएगें कहाँ से? उनकी गति साँप-छछुन्दर जैसी हो गयी है ।

पूँजीवादी राजसत्ता ने किसानों को खराब स्थिति में पहुँचा दिया है। पूँजीपति और उसकी हितचिन्तक सरकार बेतहाशा लाभ कमाने के लालच में फैक्ट्रियाँ द्वारा उत्पादित वस्तुओं की कीमतों में भारी वृद्धि करके जनता से सारा धन निचोड़ लेते हैं। ऐसी हालत में अगर खेती को पूरा लेखा-जोखा लिया जाये और उसमें किसान तथा उसके परिवार का पूरा श्रम भी जोड़ लिया जाये तो छोटे और मझोले किसानों के लिए खेती निश्चित तौर पर घाटे का सौदा है। किन्तु किसान अपना तथा अपने परिवार के श्रम को लागत में जोड़ते ही नही हैं, दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि देहात में श्रम की कीमत बहुत ही कम है।  मेहनत करने वालों को समाज में हीन भावना से देखा जाता है, इसका मुख्य कारण मजदूरी का कम होना ही है। अगर किसानों और मजदूरों को अपने श्रम की उचित मजदूरी मिले तो उनकी ऐसी अपमान जनक स्थिति नहीं होगी। किसानों मजदूरों की आर्थिक स्थिति खराब होने के कारण, उनका खाना-खुराक भी खराब हो जांता है जिससे ग्रामीण परिवारों का स्वास्थ्य गिरने लगता है।

पूँजी जब से गाँवों में पहुँची है उसने गाँव की सामाजिक संरचना को भी छिन्न-भिन्न कर दिया है। गाँवों में सामूहिक जीवन अस्त-व्यस्त हो गया है। जहाँ गाँवों में लोग चौपालों पर और अलाव के पास बैठकर अपने दुःख दर्द आपस में बाँटा करते थे, लेकिन अब वे अपने घरों में सिमटते जा रहे हैं। पूँजी ने सामूहिक जीवन को ध्वस्त करके व्यक्तिवादी को बढ़ावा दिया है। लोग आत्म केन्द्रित होते जा रहे हैं। व्यक्तिवादी सोच के चलते लोग एक दूसरे को ठगाने में ख़ुशी महसूस करते हैं. इससे पारिवारिक झगड़े भी उत्न्न हो जाते हैं। संयुक्त परिवार टूटते जा रहे हैं। पारिवारिक रिश्ते आदर्श हुआ करते थे, अब उनमें बदलाव होने लगा है। परिवारों में भाई-भाई, स्त्री-पुरुष, भाई-बहन, माता-पिता और बेटों के रिश्तों में कटूता आ गयी है जिसका परिणाम हुआ है कि आए दिन अखबारों में समाचार आते रहते हैं कि भाई ने भाई की सम्पत्ति के लिए कत्ल कर दिया। आये दिन पड़ोसियों से झगड़े हुआ करते हैं।

गाँवों की आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक स्थिति बहुत खराब हो गयी है। पूँजी की मार के चलते गांवों की शिक्षा में भी गिरावट आयी है। पहले गाँवों में वैसे ही शिक्षितों की संख्या कम थी, अब और कम होती जा रही है। शिक्षा से वंचित बच्चे दिशाहीन होते जा रहे हैं। जो कुछ पढ़े-लिखे हैं उनको कहीं नौकरी भी नहीं मिलती. गाँवों में पढ़े-लिखे और अनपढ़ जवानों की भारी संख्या खेती पर बोझ बनती जा रही है. परिवार में बेकारों की स्थिति बहुत हीं दयनीय है। व्यक्तियों का सम्मान पैसे के स्तर से मापा जाने लगा है। कमाने वाला व्यक्ति बैठे-ठाले लोगों को अपमानजनक नजरों से देखता है। अधिक पैसा कमाने वाले की सामाजिक हैसियत ऊँची मानी जाती है, चाहे वह भ्रष्टाचार ही क्यों न करता हो। यह बात सरकारी नौकरियों पर भी लागू होती है। शिक्षा में पैसे ने एक नयी मानसिकता को जन्म दिया है। विवाह जैसे पवित्र रिश्तों में पैसे की भूख नें लोगों को राक्षस बना दिया है। दहेज लेने और देने के चलते लोगों की मानसिकता विकृत हो गयी है। माँ-बाप नहीं चाहते कि घर में लड़की पैदा हो.

अब हम इस बात पर विचार करें कि क्या गाँव और शहर के गरीबों की स्थिति एक जैसी है? दोनों की समस्याएं क्‍या एक जैसी समस्याएं है? क्या गाँवों और शहरों के गरीबों का दुश्मन एक ही है?

पूँजी के गाँवों में आने से गाँव का गरीब किसान बदहाल हो गया है। दूसरी ओर पूँजी ने शहर के गरीब लोगों का जीवन भी दूभर कर दिया है। पूँजीपतियों द्वारा उत्पादित वस्तुओं का प्रयोग दोनों जगहों पर एक ही कीमत पंर किया जाता है। दोनों जग़ह के मजदूरों को मजदूरी करके पेट पालना होता है। दोनों के श्रम का पूँजी द्वारा शोषण होता है। इनके शोषण में कहीं भी राहत नहीं है। पूँजीपतियों की लूट के साथ सरकारी अफसरों द्वारा जनता का शोषण भी दोनों जगह एक जैसा ही है। शहर और गाँव के लोगों का शोषण करने वाला शोषक वर्ग एकजुट है और उसके शोषण करने का ढंग भी एक जैसा ही है। इसलिए लोगों का दुश्मन भी वही है पूँजीपति और उसको संरक्षण देने वाली पूँजीवादी राजसत्ता।

सवाल यह है कि क्यों गाँव के लोग पूँजीपति से अपना सम्बन्ध खत्म नहीं करते? ऐसी स्थिति की कल्पना करना ही हास्यस्पद है क्योंकि पूँजीवादी व्यवस्था के भीतर पूँजी के जालिम राक्षसी पंजों की मार के सामने किसी अन्य व्यवस्था के टापू ज्यादा देर तक टिक नहीं सकते. पूँजीवाद के भीतर किसी एक गाँव या शहर की बात तो दूर, यहाँ कोई व्यक्ति भी ऐसा नहीं हो सकता जो अपने आप को पूँजी की मार से बचा सके। उदाहरण के लिए एक गरीब फकीर को भी जीवनयापन के लिए बाजार से कुछ खरीदारी करनी हो पड़ती है। इस प्रक्रिया में पूँजीपति उससे मुनाफा और सरकार उससे टैक्स वसूल लेती है। इसलिए पूँजी की मार से निकलने का एक ही तरीका है और वह यह है कि इसकी व्यवस्था को आमूल-चूल नष्ट कर दिया जाये, और उसकी जगह श्रम को वरीयता देने वाली किसी स्वस्थ व्यवस्था का निर्माण किया जाये।

किन्तु! यह कैसे किया जाये? इस पर हम थोड़ा विचार करें। अभी हम वर्तमान आर्थिक संकट के सरकारी इलाज की व्यवस्था के बारे में कुछ बातें करना चाहते है।

केंद्र की सरकार का माना है कि “नयी आर्थिक नीति” से आर्थिक संकट दूर हो जायेगा और देश का विकास तेज गति से होने लगेगा। विकास का जो तरीका उन्होंने बताया है, उसके तहत कृषि क्षेत्र में किसानों को खाद, बीज, यंत्र, कीटनाशक दवाओं पर दी जाने वाली सब्सिडी हटा ली जायेगी। पेटैन्ट कानूनों में परिवर्तन किए जायेंगे और बात यहाँ तक पहुँचेगी कि जो बीज किसी कम्पनी ने तैयार किए हैं, उनकी नकल करके उन्हे बेचने की इजाजत न किसी सरकार के पास होगी, न किसी अन्य कम्पनी के पास और न ही कोई किसान इन्हें तैयार करके इनका व्यवसाय करने के लिए स्वतंत्र होगा। अर्थात वह कम्पनी 'फाऊँडेन्सन सीड' देगी और दूसरों द्वारा फार्मीसीड विकसित करने पर रोक लगा दी जायेगी। यहाँ तक कि किसान अपने खेत के लिए भी अपने बीज का इस्तेमाल नहीं कर पायेंगे। तब हमारी मजबूरी होगी कि हम हर बार उनके दरवाजे पर जायें और बीज के मुँहमांगे दाम दें। जर्सी या फिजियन गाय की बछिया पर भी किसान का नहीं बल्कि उस कम्पनी का अधिकार होगा जो गाय बेचेगी।

सरकार ने बताया है कि हम अपने खर्चो में कमी करेंगे। खर्चे कम करने के तहत उन्होंने किसानों को दी जाने वाली सब्सिडी समाप्त करना शुरू कर दिया। शिक्षा और स्वास्थ्य पर व्यय किए जाने वाले धन में भी कटौती की जा रही है। कितने ही सरकारी क्षेत्र के उद्योगों और अन्य बीमार उद्योगों की बन्द किया जा रहा है। लगभग 40 प्रतिशत कर्मचारियों की छंटनी की जानी है। ये रही “नयी आर्थिक नीति” की कुछ मुख्य शर्तें। इतना ही नहीं अन्तरराष्ट्रीय मुद्रा कोष और विश्व बैंक के समय-समय पर जो-जो निर्देश और शर्तें होगी, उन्हें यहाँ बारी-बारी से लागू किया जायेगा।

जब से “नयी आर्थिक नीति” लागू की गयी है कृषि  नीतियों में भी परिवर्तन किए जा हैं। अन्तर्राष्ट्रीय  मुद्रा कोष और विश्व बैंक का दबाव है कि भारत विदेशी कर्जो की भरपाई करने के लिए अन्तर्राष्ट्रीय बाजारों को अपने उत्पाद भारी मात्रा में निर्यात करें। ऐसे में सरकार कृषि क्षेत्र में भी उन्हीं फसलों की पैदावार को प्रोत्साहित करेगी, जिनकी बिक्री अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में हो सके। यानी कि अब खाद्य फसलों की जगह नकदी फसलों को प्रोत्साहित किया जायेगा। चाहे भले ही गाँव के लोग अनाज की कमी से कमजोर हो जायें, बीमार पड़े या भूखों मरें। सरकार के नये तर्क हैं कि खाद्य पदार्थों की आपूर्ति विदेशों से खाद्य सामग्री खरीद कर की जा सकती है किन्तु कर्जे लौटाने के लिए विदेशी मुद्रा इकट्ठा करना अति आवश्यक है। इसलिए उसका सारा जोर निर्यात पर है। इस नयी सोच के तहत सरकार ने हाल ही में 5 लाख टन गेहूँ कनाडा और आस्ट्रेलिया से 450 रुपये कुन्तल के रेट से खरीदा है। और नौ लाख अस्सी हजार टन गेहूँ अमेरिका से 555 रुपये प्रति कुन्तल के रेट से खरीदने जा रही हैं जो दुलाई सहित 620 रुपये कुन्तल पड़ेगे। इससे साफ जाहिर है कि वे अपने यहाँ गेहूँ की फसल को बरबाद होने देना चाहते हैं।

"नयी आर्थिक नीति” के तहत कृषि से सब्सिडी हटा ली जा रही है। अब ख़ाद, बीज, पानी, कृषि उपकरण, कीटनाशक दवाओं की कीमतें अमेरिकी बाजारों में बिकने वाली सामग्री के बराबर हो जायेगी। जिसका ज्वलन्त उदाहरण खादों के दाम में वृद्धि हैं। डीएपी खाद जो 246 रुपये बोरी मिलती थी, अब 445 रुपये बोरी मिलेगी। पोटेशियम खाद (एमओपी) जो 89 रुपये बोरी थी अब 350 रूपये बोरी मिलेगी। केन्द्र की सरकार इसमें मात्र 50 रूपये प्रति बोरी सब्सिडी देकर जनतो को चुप कराना चाहती है और यह साबित करना चाहती है कि सब्सिडी समाप्त नहीं हुई है। इसी क्रम में ज्योंही गाँवों से हल बैल उजड़ते गये ट्रैक्टर की कीमतों में बेतहाशा वृद्धि हुई। 1970 में जो ट्रैक्टर बारह से सोलह हजार तक मिलता था आज लगभग एक लाख चालीस हजार रूपये में मिल रहा है। अब नयी आर्थिक नीतियों की बदौलत ट्रैक्टर और अन्य कृषि यंत्रों के दाम और बढ़ेंगे। बातें चल रही हैं कि सिंचाई डेढ़-दुगुना कर दी जायेगी तथा कीटनाशक दवाओं की कीमतें दुगुनी कर दी जायेंगी। नयी आर्थिक नीति के चलते  देश भर में लाखों-लाख मजदूरो और कर्मचारियों की छंटनी की जा रही है। वे अपने उजड़े हुए परिवारों की लेकर कृषि अर्थव्यवस्था पर नया बोझ डालेंगे।

विकास कार्यक्रम के अन्तर्गत गाँवों में विद्यतीकरण करने की योजनाएं रही है, अब ऐसी योजनाएँ समाप्त की जा रही है। देश में बिजली और रेल जो जनता की सम्पत्ति रही है, उसे निजी हाथों में सौंपाने की तैयारी चल रही है। निजी हाथों में जाने के बाद गाँवों में जहाँ तक बिजली पहुँच चुकी है उससे ज्यादे गाँव को बिजली नहीं मिलेगी. जिन गाँवों में बिजली मिल चुकी हैं, बिजली दर महंगा होने के कारण और किसान-मजदूर अपनी आर्थिक तबाही के कारण बढ़े हुए बिजली बिल को देने में असमर्थ होगें और अपनी असमर्थता के  चलते बिजली नहीं ले पाएंगे, जनता कनेक्शन से भी मजदूर घरों में उजाला हो जाया करता था अब सबको मजबूरन अँधेरे में रहना पड़ेगा। बिजली सबको मुहैया करायी जाये और रेल और बस की सुविधा सबको मिले इसके पीछे एक निश्चित उद्देश्य रहे हैं। पहला यह कि यह जनता की सम्पत्ति रही है यही कारण है कि 25 रूपये जमा करने पर लोगों के घरों और खेतों तक बिजली के तार और खम्भे पहुँचा दिया जाता था। दूसरा यह कि यह एक कल्याणकारी योजना थी जिससे लोगों को प्रकाश की सुविधा मिल जाती रही है तथा रेल और बस से कम किराए में आने- जाने की सुविधाएँ भी मिल जाती रही है जिससे शहरों में सस्ते दर पर मजदूर भी मिल जाते रहे हैं। अब किराया महंगा होने से मजदूर शहरों तक नहीं पहुँच पाएंगे और   ग्रामीण परिवारों पर बोझ बनेगें। यह सुविधा मात्र किसार्नों को ही नहीं दीं जाती थी बल्कि पूँजीपतियों को भी कौड़ी के मोल बिजली और यातायात की सुविधाएं दी जाती रही है।

सरकार द्वारा ग्राम विकास कार्यक्रम के अन्तर्गत गरीबी रेखा के नीचे जीवन-यापन करने वाले परिवारों को आँसू पोंछने भर के लिए आर्थिक सहायता दी जाती रही है (आईआरडी, स्पेशल कम्पोनेंट, एसएमपी) अब यह भी मिलने वाला नहीं है। इसे न देना पड़े इसके लिए सरकार उसमें गरीबी रेखा की जो सीमा निर्धारित की है वह परिवार की पूरी सम्पत्ति ग्यारह हजार रूपये निर्धारित की है। इसमें परिवार के सदस्यों की पूरे साल की मजदूरी, कच्चा या पक्का मकानों की कीमत, खेत से आमदनी, पशु (भेड़, बकरी, भैंस, गाय, सुअर) मुर्गी बत्तख, परिवार में कपड़ों की संख्या, मेज, कुर्सियाँ, चारपाई और खाना बनाने के बर्तन और लोटा आदि का मूल्यांकन किया गया है। यह सब जोड़ने पर अगर ग्यारह हजार रूपये हो जाते है तो वह परिवार गरीबी रेखा से उपर जीवन-यापनकर रहा है ऐसा  मान लिया जायेगा। यह गरीबी के साथ मजाक है कि नहीं?

राजा चिलैया समिति की रिपोर्टों के तहत अब किसानों की कृषि आय पर कर देना होगा। सरकार ने गाँवों में स्वच्छ पेयजल पहुंचाने के लिए जल निगम और जल संस्थान विभाग खोले थे। इन पर नयी आर्थिक नीति की गाज गिर गयी। जल संस्थान के कई डिविजनों को बन्द कर दिया गया है। जल निगम के सोलह हजार अस्थाई कर्मचारियों को निकाल दिया गया है। आपरेशन ब्लैक बोर्ड, प्रौढ़ शिक्षा, गरीब छात्रों के लिए बाल-आहार योजना, मातृ-शिशु कल्याण योजनाओं में भी भारी कटौती की गयी है।

नयी आर्थिक नीति के चलते गाँवों की पहले से ही संकटग्रस्त अर्थव्यवस्था चरमरा जायेगी। मजदूर को काम नहीं मिल पाएगा। जिन्हें काम मिलेगा भी उनकी मज़दूरी महँगाई के अनुपात में बहुत ही कम होगी। जिसके चलते उनकी खरीदने की क्षमता कम हो जायेगी। ऐसे में गाँव स्तर के छोटे-छोटे व्यापारी उजड़ने लगेंगे। छोटे-छोटे उद्योग टूटने लगेंगे। गाँवों में जनता का भारी हिस्सा काम से अलग हो जायेगा, भयंकर आर्थिक तबाही होगी। गाँवों से शहर कमाने गये किसानों के बेटे तालाबन्दी और छंटनी का शिकार होकर गाँव वापस आएंगे और कृषि पर बोझ बनेगे।

आर्थिक तबाही के चलते समाज में सामाजिक तबाही भी होगी। अभाव की स्थिति में चोरी और ठगी के नये-नये ढंग विकसित होगे। जब भारत की अर्थव्यवस्था को पश्चिमी देशों की अर्थव्यवस्था से नत्थी किया जा रहा है तो वहाँ की पतनशील संस्कृति के बुरे प्रभावों से बचा नहीं जा सकता है। हमारे यहाँ काम से वंचित निराश नौजवान वहाँ की हिप्पी संस्कृति के शिकार होंगे। नौजवान नयी-नयी नशीली दवाओं का प्रयोग करने लगेंगे और उनके चरित्र का पतन होगा। गरीब लड़कियां अपने और अपने परिवार के पेट की भूख मिटाने के लिए वेश्यावृत्ति के लिए मजबूर हो जायेंगी।  अभाव के कारण नये-नये ढंग के अपराध, कायरतापूर्ण हत्याएं और परेशान लोग आत्म हत्याएं करेंगे। बलात्कार बढ़ेंगे। दहेज की प्रवृत्ति तेज होगी तो दूसरी ओर लड़कियों के मरने-मारने और जलाने की संख्या भी बढ़ेगी। कुल मिलाकर कहे तो नयी आर्थिक नीति के लागू होने से देश के गाँवो में कृषि तबाह हो जायेगी, कृषि पूँजीपतियों के पूर्णतः अधीन हो जायेगी, शोषण बढ़ेगा, बेरोजगारी बढ़ेगी, भ्रष्टाचार और तेज होगा, सामाजिक रिश्ते छिन्न-भिन्न होंगे, सामाजिक  बुराइयाँ तीखी होंगी।

राजनीति का भी और अधिक पतन होगा। राजनीति पूर्णतः माफिया राजनीति में बदल जायेगी। बेतहाशा धन, महँगे प्रचार साधनों का इस्तेमाल, गुण्डों और बन्दूकों का उपयोग राजनीति करने की शर्त होगी। ऐसे पतित, सामाजिक, राजनीतिक माहौल में षड़यंत्र और राजनीतिक 'हत्याओं को बल मिलेगा।

इस दौर के नेता विशुद्ध रूप से पूँजीपतियों के दलाल होंगे। इसकी शुरूआत भी हो चुकी हैं। अपने विदेश यात्राओं पर हमारे वर्तमान प्रधानमंत्री तथा उनके मंत्रिमंडल के अन्य सदस्य अपने साथ बड़े-बड़े पूँजीपतियों के  प्रतिनिधिमंडल और जत्थे लेकर जाने लगे हैं। वहाँ ज्यादातर व्यवसायिक बात ही होती है। और पूँजीपति अपने उद्योग व्यापार की गोटी बैठाते हैं। देश के भीतर की राजसत्ता अब विशुद्ध रूप से पूँजीपतियों की प्रबन्ध समिति का ही काम कर रही है, उसके पास पूरे समाज को आगे ले जाने की कोई भी घटिया और बढ़िया योजना नहीं है। स्थिति यह है कि देश की सारी कल्याणकारी योजनाएं एक-एक करके तोड़ी जा रही हैं। सार्वजनिक उद्योग, जिन्होंने देश को आत्म निर्भर बनाने में अहम भूमिका निभायी हैं और जो हमारी अर्थव्यवस्था की रीढ़ हैं, उन्हें अब तोड़ा जा रहा है। उनके निजीकरण तथा पूँजीपतियों के हाथों सौंपे जाने की साजिश के तहत बही-खातों में हेरा-फेरी करके इन्हें घाटे में दिखाया जा रहा है। इनमें काम करने वाले मजदूरों और कर्मचारियों को काहिल और निकम्मा बताकर, इनके खिलाफ एक ऐसा-विषाक्त वातावरण तैयार किया जा रहा है कि जनता को निजीकरण बहुत ही सहज, सुविधाजनक व तार्किक चीज लगे। यहाँ यह बात बताना जरूरी है कि सार्वजनिक क्षेत्र जनता की सम्पत्ति है। देश के प्रत्येक नागरिक का इसमें हिस्सा एक लाख रूपये आता है। यह पिछले 45 वर्षो में जनता के खून-पसीने से खड़ा किया गया है। जिसे आज सरकार अपने चहेते पूँजीपतियों को लुटा रही है।

अब सवाल खड़ा होता है कि ऐसी भंयकर और विकराल स्थिति से कैसे बचें? इसको हल करने का क्‍या उपाय होगा?

यह तय है कि हमें इस नरक में ढकेल देने तथा इसमें  फंसाए रखने की जिम्मेदारी पूँजीवादी व्यवस्था की है। जब तबाही से कोई राहत नही मिल सकती। पूँजीवादी व्यवस्था के भीतर किसी भी प्रकार के छोटे या बड़े सुधार हमारे विकल्प नहीं हो सकते। इस व्यवस्था को नेस्तनाबूद करके ही जनहित में काम करने वाली किसी स्वस्थ व्यवस्था का निर्माण हो सकता है। यह काम बहुत ही कठिन और बड़ा है किन्तु असम्भव नहीं है।

अभी हमारे सामने जन आन्दोलनों का आधार खड़ा करने की ही जिम्मेदारी है। हमें लोगों के बीच यह बात स्पष्ट करनी है कि उनकी बुरी हालत के कारण न तो वे खुद हैं, न उनके बेटे और न ही उनके भाई। इस स्थिति के लिए जिम्मेदार उन्ही जैसी हालत में फंसे अन्य जातियों या धर्मों के लोग भी नही हैं। ये सब तो उन्हीं की तरह पीड़ित है और भावी संघर्ष में उनके साथी हैं। यह भी स्पष्ट करना होगा कि यह बुरी हालत, इसलिए नहीं पैदा हुई है कि पिछले जन्मों में उन्होंने कोई भयंकर पाप किए हैं या ईश्वर खुद नाराज हो गये हैं।

हमें लोगों के बीच व्यवस्था का पर्दाफाश करना है और उन्हें उनके असली दुश्मनों की पहचान करानी है। इस समझदारी से लैस देश के लोग जन संघर्षो का ध्वज उठाएंगे और अपने मुस्तरका दुश्मन के खिलाफ इन्कलाबी जनता का सैलाब सड़कों पर उतर आएगा।

जन संघर्षो के दौरान जब लोग वर्तमान व्यवस्था को ध्वस्त कर रहे होंगे, तब वे साथ ही साथ इस सवाल पर भी विचार करेंगे कि हमारे लिए वैकल्पिक व्यवस्था क्‍या हो सकती है? आपस में वाद-विवाद होगा कि नये भारत का निर्माण कैसे किया जाये. इन बहसों में एक आम राय बनेगी और वही नये भारत की मुकम्मिल वैकल्पिक व्यवस्था होगी। नये समाज का सपना पहले कुछ ही लोग देखते हैं और तब तक पूँजीपतियों का शोषण बरकरार रहेगा, तब तक हमें जनता के बीच में जाकर जनता के भारी हिस्से को लामबन्द करते रहना है। उनके सपने जनता के सपने हो जाते है। जनता उन सपनों को साकार करने के लिए संघर्ष करती है। दुनिया के इतिहास में ऐसा ही हुआ है और आगे भी ऐसा ही होगा।

(इतिहास बोध से साभार)

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