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अदृश्य मजदूर और अदृश्य व्यवस्था

यह लेख मैनचेस्टर आर्ट गैलरी द्वारा आयोजित कार्यक्रम में मेरे छोटे से भाषण पर आधारित है, जिसका शीर्षक है–– कोविड 19 के दौरान हमने रोजगार के बारे में क्या सीखा और हमें क्या बदलाव लाने की जरुरत है?’ मैं क्लेयर गैनवे और अपने सहकर्मियों का आभारी हूँ कि उन्होंने मुझे आमंत्रित किया और इन दो चित्रों के इस्तेमाल की अनुमति दी।

मैनचेस्टर आर्ट गैलरी द्वारा की जा रही इस समीक्षा में, कि इसके विशाल संग्रह में से सार्वजनिक प्रदर्शन के लिए किसे चुनना चाहिए, जिससे प्रदर्शित कलाकृति को हमारे लोगों और हमारे समय के लिए और अधिक प्रासंगिक कैसे बनाया जाये, मुझे उनके संग्रह में से कुछ चित्रों का चयन करने के लिए कहा गया था। मैंने दो चित्र चुने और उन पर अपने विचार प्रकट किये।

स्प्राउट पिकिंग, मॉनमाउथशायर, एवलिन मैरी डनबार, 1941–44

 

लॉकडाउन के सौजन्य से कुछ दिन पहले मैंने बहुत लम्बे समय बाद अपना पेंट–ब्रशों को उठाया। यह चित्र एक सांसारिक दृश्य दर्शाती है जिसमें प्रकाश की क्रियाशीलता ऐसी है जैसे लगता है कि गोभी के पत्तों पर बर्फ जमा है। यह दिन की शुरूआत है या अन्त?

कोविड 19 के कारण वैश्विक महामारी और लॉकडाउन के अनुभव से हमें कुछ चीजें ज्यादा साफ–साफ दिखाई देने लगी हैं। हममें से कइयों को इस भाग–दौड़ में थोड़ा ठहरने का, प्रकृति पर ध्यान केन्द्रित करने का, गाड़ियों की शोर–गुल में हुए कमी और साफ हवा को महसूस करने का, जरूरी चीजों जैसे खाना और परिवार पर ध्यान केन्द्रित करने का और शायद कुछ अधिक रचनात्मक गतिविधियों में शामिल होने का सुख मिला। इसने सामाजिक और स्वास्थ्य सेवा कार्यकर्ताओं, डिलिवरी ड्राइवर, सुपरमार्केट में कार्यरत कामगारों जैसे मूलभूत सेवाओं और आपूर्ति में लगे मजदूरों की अहमियत भी समझा दी।

फिर भी कुछ चीजें अब भी काफी हद तक आँखों से ओझल हैं। कोपलें चुनना मुझे इसी का एक उदाहरण नजर आता है। जबकि यह चित्र युद्ध के समय का है जिसमें कोपल के खेत में वुमेंस लैंड आर्मी (डब्ल्यूएलए) के सदस्य कड़ी मेहनत करते दिख रहे हैं, पर मेरे लिए यह सलाद के पत्तों का खेत है, जहाँ मैं अपनी जवानी के दिनों में गर्मियों के मौसम में काम करते हुए समय बिताता था। यह चित्र भोजन और आपूर्ति की बुनियादी जरूरतों की बात करता है, जो आम तौर पर वैश्विक महामारी और संकट के समय कुछ बढ़ जाती है। लॉकडाउन के शुरुआत में अनिश्चितताएँ थीं और फिर बाजार में चीजों की कमी होने लगी, तब उस दौरान कई लोगों ने खाना–पकाना और इसके गुणवत्ता पर नये सिरे से ध्यान केन्द्रित किया। लेकिन इन सबके पीछे कठीन शारीरिक श्रम छुपा हुआ होता है। यह काम कमर तोड़ने वाला और नीरस होता है। लेकिन इसमें खुशी मिल सकती है और यह दोस्ताना भी हो सकता है। हमने भीषण गर्मी में काम किया है, टमाटर की बेलें की चढ़ाई, छटाई और तुड़ाई की। ग्रीनहाउस क्या हैं, यह चित्र में देख कर पता चलता है, इससे मेरा ध्यान आज की परिस्थितियों की ओर जाता है, मर्सिया और भूमध्यसागरीय तटों के कई हिस्सों में फैला “लॉस प्लास्टिकोस” पॉलिथिन से ढकी कई एकड़ जमीन है, जहाँ नीदरलैण्ड और कई दूसरी जगहों जैसी ही निम्न वेतन पर कार्यरत प्रवासी मजदूरों की फौज कड़ी मेहनत करती हैं। हालाँकि इस चित्र में शायद ठण्ड का समय दिखाया गया है, जब अलग तरह की कठिनाइयाँ होती हैं।

इस वैश्विक महामारी के समय विडम्बना यह है कि हमारे सामाजिक अलगाव (सोशल आइसोलेशन) की सम्भावना उन छुपे हुए सामूहिक श्रम से ही सम्भव हो पायी है जिसमें कार्यरत ज्यादातर लोग अक्सर विस्थापन का शिकार होते हैं और हाशिये पर पड़े हैं। वे घर में नहीं रह सकते, इसलिए हम घर पर रह पा रहे हैं।

लेकिन यहाँ एक अन्तर दिखायी देता है। यह अन्तर युद्ध के समय से ही था, जब यह देश अपने उपयोग भर अनाज पैदा करने पर ध्यान देने लगा था। वैश्विक महामारी और बै्रग्जिट हमारे सप्लाई चेन की कमजोंरियों और आयात पर हमारे देश की निर्भरता को सामने ला दिया है।

इस चित्र में डब्ल्यूएलए के सदस्यों ने बाहर निकल कर जमीन पर काम किया। क्या हम यह कल्पना कर सकते हैं कि जैसे ही इस व्यवस्था से जुड़े संकट तेज होंगे और सम्भवत: व्यवस्था का चरमराता हुआ धुँधलका दिखायी देने लगेगा, तब हम गाँव की ओर वापसी करेंगे?

हम एक साथ कई तरह के संकट झेल रहे हैं, एक दूसरे से गुथे हुए संकटों की एक श्रृंखला–– (1) कार्बन प्रदूषण–– ग्लोबल वार्मिंग (2) पारिस्थितिकी अतिक्रमण और एज–कॉनवोलुशन(1) – जैव–विविधता में कमी (3) संसाधनों का क्षय और अत्यधिक निष्कर्षण जिसके परिणमस्वरूप लाभ में कमी और निष्कर्षण की सीमा मे विस्तार (4) पूँजीवाद का आन्तरिक अन्तरविरोध–– वैश्विक ठहराव और वित्तिय संकट। इन विस्तृत संकटों से बाहर निकलने का वर्तमान पूँजीवादी वैश्विक व्यवस्था के भीतर कोई भी संतोषजनक रास्ता नहीं है।

केवल खाद्य उत्पादन से ही आइसोलेशन में लोगों का जीना सम्भव नहीं हुआ है, बल्कि सभी बुनियादी क्षेत्रों में मजदूरों ने उत्पादन किया है और इनमें से ज्यादातर क्षेत्रों के लोगों में संक्रमण होने की ज्यादा सम्भावना है।

हमने यह सीख लिया है कि मुनाफे और विनिमय मूल्य के लिए उत्पादन की तुलना में जरूरत और उपयोग मूल्य के लिए उत्पादन कहीं ज्यादा जरूरी है, लेकिन दोनों पहलू अब पहले से कहीं ज्यादा अलग–अलग हो गये हैं।

द हेल ऑफ कॉपर सीरीज, न्याबा लियोन ऊड्राओगो, 2008

 

सूचना प्रौद्योगिकी से भी आइसोलेशन में रहना सम्भव हो पाया है। इस चित्र में हमें अति उत्पादन और संगणन और संचार उपकरणों के प्रचलन से बाहर हो जाने के कुछ परिणाम दिखाई देते हैं। इस चित्र के प्रदर्शन पट पर लगा पर्चा उद्धरण देने लायक है।

सुबह से शाम तक 10 से 25 साल की उम्र के घाना के दर्जनों युवा हफ्ते के सातों दिन खुद को यहाँ काम में लगाये रखते हैं। उनका उद्देश्य होता है कि पुराने कम्प्यूटरों के पूर्जे अलग कर और कुछ खास प्लास्टिक या रबर को पीघला कर उसमें से कीमती ताँबा चुन लें, ताकि उसे दुबारा बेचा जा सके। ये सब कुछ हाथ से और लोहे के छड़ों से किया जाता है, वे कामचलऊ उपकरणों का प्रयोग भी नहीं करते हैं। उनके पास न तो मास्क है न ग्लब्स। वहाँ कोई चालू शौचालय तक नहीं है। फोटोग्राफिक श्रृंखला ‘ताँबे का नरक (द हेल ऑफ कॉपर सीरीज)’ के दस्तावेज में घाना की राजधानी अकरा स्थित एग्बोगैब्लोशी बाजार में 10 वर्ग किलोमीटर का इलेक्ट्रोनिक कव्रगाह दिखाया गया है, जहाँ यूरोप और उत्तरी अमरीका से हजारों कम्प्यूटर और इलेक्ट्रोनिक सामान जहाजों द्वारा भेज दिया जाता है—

अपने नंगे हाथों से काम करने के कारण वे युवा मजदूर सीसा, पारा, कैडमियम और पीवीसी प्लास्टिक के संपर्क में आते हैं जो मानव शरीर के लिए बहुत ही जहरीला होता है। ये रसायन पास के नहरों में रिस गये हैं जिससे गायों और भेड़ों की चारागाहें दूषित हो गयी हैं। ऊड्राओगो के सपने का विशाल परिदृश्य जो कम्प्यूटर के कंकालों से भरा पड़ा है और इस खतरनाक काम में लगे लोगों पर नये से नये फोन, सबसे तेज कम्प्यूटर या इलेक्ट्रॉनिक गैजेट्स की निरन्तर खोज से जुड़े चिंतित करने वाले गम्भीर परिणाम स्पष्ट दिखायी दे रहे हैंै।

यह केवल सूचना प्रौद्योगिकी (आईटी) से जुड़ी समस्या नहीं है। दुनिया भर से माल, ईंधन और निर्मित उत्पादों को लाने के लिए हम विशाल जहाजी बेड़े पर निर्भर हैं–– जब वे जहाज अपने जीवन के अन्तिम क्षण में पहुँच जाते हैं, तो बांग्लादेश जैसे देशों के समुद्री तटों पर उनके हिस्से अलग किया जाते हैं, जहाँ इसी तरह की जानलेवा स्थिति है।

इस तबाही और अति–शोषण के लिए केवल यही चीज जिम्मेदार नहीं है कि उत्पादों के अपशिष्ट को सम्भावित पुनर्चक्रण (रिसाइक्लिंग) से रोक दिया गया है। इसके लिए उत्पादन के क्षेत्र भी जिम्मेदार हैं। कम्प्यूटर का उपयोग और संचालन और संचार प्रौद्योगिकी (और “नवीकरणीय ऊर्जा” भी) दुर्लभ धातुओं के खनन पर निर्भर करती है–– कुछ टकराव वाले सामान–– संघर्ष के क्षेत्र में उत्पादित सामान–– जो अक्सर युद्धरत गुटों को वित्तपोषित करने के काम आते हैं। कारीगरी के लिए खनन (एक घिनौनी हकीकत के लिए एक खुशनुमा नाम) व्यक्तिगत तौर पर किया जाता है, आम तौर पर बिना सुरक्षा नियम और रक्षात्मक उपकरण के। जो कुछ भी वे जमीन से निकालते है, उसके लिए बहुत कम पारिश्रमिक देते हैं। सोना में जंग नहीं लगता, इस वजह से यह सम्पर्क के लिए अच्छा है, पर यह पारा के साथ निष्कर्षित किया जाता है जो जलाशयों को प्रदूषित कर रहा है। माइन टेलिंग (खनन अपशिष्ट) और बाँध से जुड़ी आपदाओं की बहुतायत हो गयी है, हाल ही में ब्राजील में ऐसी दो बड़ी घटनाएँ हुईं। पारिस्थितिकी तंत्र ओपन कास्ट माइनिंग से तबाह हो गया है, जबकि आवास साथ–ही–साथ लोगों की आजीविका और कई समुदाय खास कर स्थानीय समुदाय नष्ट किये जा रहे हैं। जो प्रतिरोध करते हैं अक्सर मारे जाते हैं, जिसमें कभी–कभी खनन कम्पनियों के साथ सरकार की साँठ–गाँठ होती है।

उत्पादों का निर्माण और उनकी असेम्बली अन्याय और शोषण का एक दूसरा पूरा बृहद दृश्य है–– उदाहरण के लिए फॉक्सकॉन, जहाँ एप्पल और दूसरे उत्पादों को असेम्बल किया जाता है, वहाँ हफ्ते के 6 दिन 12 घण्टे की शिफ्ट होती है। हमारे लिए यह वैसा ही है जैसे विक्टोरिया के समय मजदूरों का शोषण होता था।

मुनाफे पर मुनाफा, मजदूर और स्थानीय समुदाय का अत्यधिक शोषण और पारिस्थ्तिकी तबाही, ये सब हमारे जीने के ढंग के परिणाम हैं। हम कई तरीकों से पूरी तरह फँसे हुए हैं, पर इसकी असली दोषी यह पूँजीवादी व्यवस्था है।

महामारी ने घर के भीतर गैरबराबरी, बहिष्कार और शोषण पर प्रकाश डाला है, पर दुनिया भर में पूँजीवादी व्यवस्था और इसके काम के तरीके का विस्तृत आयाम काफी हद तक छुपा रह गया है।

महामारी दीवार पर अंकित पत्थर की लकीर है।

हमें अपने जीने के ढंग में गहरा बदलाव लाना पड़ेगा और इसमें काम के तौर–तरीके भी शामिल है। समस्या एक ऐसी व्यवस्था को लागू करने की है, जिसके अंग आपस में सुदृढ़ हों और अपने लगातार विस्तार से यह आने वाली तबाही को रोक दे।

लेकिन यह एक दूसरी कहानी है।

1– एज–कॉनवोलुशन का उपयोग यहाँ जंगल और मानव–प्रभुत्व वाले पारिस्थितिकी तंत्र के बीच पारिस्थितिक सीमा में वृद्धि को संक्षिप्त रूप में दशाने के लिए किया गया है जो औद्योगिक कृषि के साथ मिलकर नये पशुजन्य रोगों (पशुओं में उत्पन्न होने वाले रोगजनकों) का स्रोत बन जाता है। देखें–– वॉलेस आर (2020), डेड एपिडेमियोलोजिस्ट: ऑन द ऑरिजिन्स ऑफ कोविड–19, मन्थली रिव्यु प्रेस।

(रिजीलेंस डॉट ऑर्ग से साभार, मूल रूप से स्टडी–स्टेट मैनचेस्टर द्वारा प्रकाशित)

अनुवाद–– सिमरन

 
 

 

 

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