अनियतकालीन बुलेटिन

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कोरोना लॉकडाउन : भूख से लड़ें या कोरोना से

25 मार्च को प्रधानमंत्री मोदी ने पूरे देश में अचानक लॉकडाउन का एलान कर दिया।

कोरोना वायरस हमारे देश में अपने पैर पसार चुका है। देश का मध्यमवर्ग, पूँजीपति और मैनेजर, शासन-प्रशासन में बैठे तमाम पार्टियों के नेता और नौकरशाह (डीएम, एसपी, जज, तहसीलदार आदि) सब घबराये हुए हैं। बौखलाहट में वे तुगलकी फरमान जारी कर रहे हैं या किंकर्तव्यविमूढ़ बैठे हैं— अपने घरों में सुरक्षित बैठे रामायण-महाभारत का आनन्द ले रहे हैं या नवदुर्गा की आराधना में लीन हैं। दूसरी ओर, देश की मेहनतकश आबादी का बड़ा हिस्सा 21 दिन के इस लॉकडाउन का मुकाबला करने के लिए सड़कों पर आ चुका है। बेरोजगार, बेबस, भूखे और लाचार लोग अपने दुधमुंहे बच्चों, गर्भवती औरतों और बूढ़े बुजुर्गों के साथ सैंकड़ों मील चलकर घर जा रहे हैं— इस उम्मीद में कि शायद वहाँ जाकर वे भूखे नहीं मरेंगे या मरेंगे भी तो एक लावारिस मौत नहीं, अपनों के बीच।

 

हिन्दू राष्ट्र की धज्जियाँ उड़ रही हैं। कोई गौसेवक या तथाकथित राष्ट्रभक्त आज सड़क पर नहीं है। न कोई मौलाना मदद को आ रहा है, न राष्ट्रीय स्वंय सेवक। देश के विकास के दावे को खोखला साबित करती लाखों-करोड़ों की यह पलायन करती भीड़ कौन है? वित्तमंत्री द्वारा एलान किये गए 1 लाख 70 हजार करोड़ के पैकेज का टारगेट कौन है, अगर हम महाशक्ति बन गये हैं? इस बेबस आबादी में कौन लोग हैं जो अपने भूख से बिलबिलाते बच्चों के साथ गाँवों और छोटे कस्बों की ओर भागे चले जा रहे हैं? क्या अब भी उन्हें हिन्दू और मुसलमान की तरह देखा जा सकता है? उनकी कौम के रक्षक कहाँ हैं?

 

एक अनुमान के मुताबिक देश में शहरों के दिहाड़ी मजदूरों, मौसमी मजदूरों, असंगठित क्षेत्र के मजदूरों और छोटे कारोबारियों की कुल संख्या लगभग 15 करोड़ है। देश में 20 करोड़ जनधन खाते हैं और लगभग 2-8 करोड़ सीजनल मजदूर हैं। सरकार द्वारा घोषित लॉकडाउन कर्फ्यू इनके लिए मौत का फरमान बनकर आया है। आइये इनके सड़क पर आ जाने की वजह और उनकी परेशानी की गम्भीरता को समझने की कशिश करें।

 

दिहाड़ी मजदूर

दिहाड़ी मजदूर वह मजदूर है जो रोज काम की तलाश निकलता है, रोज पानी पीने के लिए कुआ खोदने को मजबूर हैं। इन्हें शहरों में रोज सुबह ‘लेबर चौराहों’ पर अपने औजारों के साथ काम की बाट जोहते खड़े देखा जा सकता है। जब कोई कार या स्कूटर चौराहे पर रुकता है तो उनका रेला उसे घेर लेता है। सौभाग्यशाली काम पा जाते हैं, बाकी फिर इन्तजार करने लगते हैं। इन्हें रोजाना काम नहीं मिल पाता बहुत अच्छे वक्त में भी इन्हें महीने में 15-20 दिन से ज्यादा काम मयस्सर नहीं हो पाता। 200-500 रूपये रोज। ये घर भेजने के लिए तभी कुछ पैसे बचा पाते हैं, जब ये बेहद ख़राब परिस्थितियों में रहें। इसीलिए दड़बेनुमा कमरों में ठूँसकर कई मजदूर एकसाथ रहते हैं, सस्ते ठेलों पर खाना खाते हैं और बीमारी की हालत में भी काम करते रहते हैं। बहुतरे सड़कों पर भी सोने को मजबूर होते हैं।

 

इनमें से बहुत सारे मौसमी मजदूर होते हैं जो अक्सर फसल की बुवाई और कटाई के बीच तीन-चार महीनें के लिए कमाने शहर में आ जाते हैं। क्योंकि छोटी खेती या खेत मजदूरी से इनका साल भर का खर्च नहीं चल पाता। छोटी खेती के गायों और सांडों के आवारा झुंडों द्वारा तबाह कर दिए जाने के चलते भी शहर मौसमी मजदूरी करना इनकी मजबूरी बन गयी है। ये लोग रिक्शा चलाने से लेकर रंगाई, पुताई, चिनाई जैसे तमाम काम करते हैं। क्योंकि इनमें से अधिकांश के परिवार गाँव में रहते हैं। इसलिए शहर इनके ठिकाने स्थायी होते हैं— इनके राशन कार्ड, जन-धन खाते सभी गाँव के पते पर होते हैं। शहरों में इनकी कोई जमीन, कोई आधार, कोई सामाजिक सुरक्षा नहीं होती है।

 

लॉकडाउन ने इनके रोजगार की सम्भावना को खत्म कर दिया है। होली के वक्त ये अपनी सारी बचत गाँव-घर पर दे चुके थे और लॉकडाउन के समय संकट का सामना करने के लिए इनके पास कुछ भी नहीं है। एक-एक दिन वे भुखमरी के और करीब चले जा रहे हैं। सरकारी नुमाइंदे, मंत्री और पूरा अमला इनकी इन इमर्जन्सी को समझ पाने में अक्षम है या समझना नहीं चाहता है। सरकारी सहायता अगर उन्हें राशनकार्ड या जन-धन खाते के जरिये मिलेगी भी तो गाँव के पते पर। शहर में उनका कोई खैर-खबर नहीं है। इनमें से कई तो ऐसे हैं जो अपनी जमीन से उजड़ चुके हैं और शहरों में किराए के मकान में बहुत खराब परिस्थिति में रहते हैं, जिनके पास अपना राशन कार्ड भी नहीं है।

 

आखिर उन्होंने तय कर लिया है कि उन्हें भूख से नहीं मरना है, लावारिस मौत नहीं मरना है भले ही वे कोरोना से मर जाएँ— वे सड़कों पर हैं।

 

असंगठित क्षेत्र के मजदूर

असंगठित क्षेत्र के मजदूर छोटे-छोटे बिखरे हुए धंधों में लगे मजदूर हैं— पीस रेट पर काम करने वाले, ठेके पर काम करने वाले, दुकानों के मजदूर आदि इसी श्रेणी में आते हैं। इनकी स्थिति दिहाड़ी मजदूरों से कुछ बेहतर जरूर होती है लेकिन ये दिहाड़ी मजदूर की तरह अनिशिचतता के अभ्यस्त नहीं होते। इनके पास कुछ बचत होती है लेकिन लॉकडाउन की स्थिति में इनके ऊपर भी संकट के बादल मंडरा रहे हैं।

 

अब केवल वही दुकाने खुली हैं और काम कर रही हैं जो आवश्यक सेवाओं और वस्तुओं से जुडी हैं जैसे— मेडिकल स्टोर, अस्पताल, राशन की दुकानें आदि। बाकी सब बंद हैं। लेकिन पुलिस की बदसलूकी और संवेदनहीनता के कारण आवश्यक वस्तुओं से जुड़ी दुकानों और कारखानों में काम करने वाले भी काम पर नहीं जा पा रहे हैं-- उन्हें रास्ते में रोककर अपराधी की तरह पीटा जा रहा है। इसके अलावा लॉकडाउन का समय बढ़ने की भी सम्भावना हैं— सरकारी राहत पैकेज का तीन महीने का एलान होने से ये आशंकाएं और गहरी हो गयी हैं। परिणामस्वरूप अंसगठित क्षेत्र के मजदूर भी पलायन को अभिशप्त हैं। इसका सीधा असर शहरों में आवश्यक वस्तुओं के उत्पादन पर पड़ेगा और संकट का दायरा सुरक्षित बैठे मध्यम वर्ग पर जा सकता है।

 

छोटे और कुटीर उद्योग

लॉकडाउन ने इन उद्योगों की कमर तोड़ दी है। लॉकडाउन के कारण न उनकी लेबर काम पर पहुँच पा रही है, न कच्चा माल मिल पा रहा है और न तैयार माल उठ पा रहा है। यातयात बंद है। पुलिस ड्राइवरों को पीट रही है। सड़क किनारे के ढाबे बंद होने से उन्हें खाने के लाले पड़ गए हैं। रास्ते में खराब हुए ट्रकों की मरम्मत नहीं हो पा रही है। इनमें काम करने वाले लाखों मजदूरों के सामने सकंट की स्थिति है। प्रधानमंत्री की अपील के बाद भी बिना काम के उन्हें कोई पैसा नहीं दे रहा है, न कोई मकान मालिक बिना किराया लिए उन्हें रखने को तैयार है।

 

बड़े उद्योगों में लॉकडाउन का सीधा असर ठेका लेबर पर पड़ा है। पलायन करते लोगों में ठेका मजदूरी पर मारुती में काम करने वाले भी देखे गए हैं। इनके पास कोई रजिस्ट्रेशन कार्ड नहीं है। संकट की इस घड़ी ठेकेदार गायब हो गये हैं। लाखों की तादाद में इन मजदूरों के कई महीनें के पैसे ठेकदारों पर बकाया है। पर लॉकडाउन का फायदा उठाकर वे गायब हैं और बेबस मजदूर सड़कों पर लौटने के लिए बाध्य हैं।

 

तो यह है सड़कों पर पलायन करती भीड़— शहरों के सबसे गरीब मजदूर। बेरोजगारी, भूख और बेबसी ने उनके हौसले पस्त कर दिए हैं। अचानक अपने देश में ही उन्हें हासिये पर फेंक दिया गया है। लॉकडाउन ने रातों-रात उन्हें अपने ही देश में शरणार्थी बना दिया है— रेन बसेरे और सड़कें उनसे भर गयी हैं। मकान-मालिक उन्हें मकानों से खदेड़ रहे हैं क्योंकि वे किराया नहीं भर सकते। पुलिस उन्हें केम्पों और सड़कों से खदेड़ रही है क्योंकि उसे कर्फ्यू लागू करना है। उसके चुने हुए रहनुमा उसके साथ खिलवाड़ कर रहे हैं— कभी घर पहुँचाने का आदेश देते हैं, कभी रास्ते में रोककर खड़ा कर लेते हैं तो कभी वापस लौटने के लिए बोलते हैं क्योंकि उन्हें डर है कि वे अपने साथ बीमारी को भी फैला रहे हैं। अपने घरों में ‘वर्क फ्रॉम होम’ करता, नेटफ्लिक्स के रोमांच का मजा लेता मध्यम वर्ग उन्हें ‘खतरा’ समझ रहा है।

 

इन गरीबों के दिल टूट चुके हैं, कलेजे चाक हैं, उनकी हताशा और निराशा चरम पर है। अगर इनकी जरूरतों को नजरंदाज किया गया, उन्हें खाना सुनिश्चित नहीं किया गया तो यह हताशा दंगों में बदल सकती है— धर्म के नाम पर नहीं, खाने के लिए दंगे में।

 

गाँव के गरीब

गाँव होली मनायी जा चुकी है और रबी की फसल मंडी में आने ही वाली है। गेहूँ की फसल काटने, उसकी निकासी मंडी में बिक्री के लिए लोड-अनलोड करने के लिए लेबर की दरकार है। कई इलाकों में भूमिहीन खेत मजदूर खेत की कटाई करके साल भर का अनाज जमा करते हैं। वे भी आस लगाये खेतों की ओर देख रहे हैं। इधर शहरों से बड़ी संख्या में मजदूरों का पलायन गाँव की ओर हो रहा है जो और चीजों के साथ अपने साथ कोरोना के वायरस को भी गाँव में ला सकते हैं। गाँव बारूद के ढेर पर बैठे हैं। गाँव में पहुँचने वाले इन लाखों लोगों के साथ क्या होगा? उन्हें कैसे दूसरों से अलग-थलग रखा जायेगा? उनके खाने-रहने की क्या व्यवस्था होगी? सरकारी व्यवस्था में इसको लेकर कोई तैयारी नहीं दिख रही है। उन्हें स्कूलों में कैद कर देने, गाँव में घुसने से जबरन रोकने और उनके ऊपर कीटनाशक के छिड़काव करने जैसी खबरें दिल दहला देती हैं।

 

मौजूदा लॉकडाउन और गाँव में कोरोना वायरस का फैलाव दो सम्भावनाओं को जन्म दे सकता है। गाँव में पूरी तरह लॉकडाउन करना पड़े और प्राथमिक मंडियां (जहाँ किसान अपना गेहूँ बेचते हैं) बंद हो जायें। परिणाम स्वरूप शहरों में गेंहू की आपूर्ति बंद हो जायेगी। शहरी मध्यवर्ग निश्चिन्त है कि एफ़सीआई के गोदामों में रखा 6 करोड़ टन अनाज तब उसके काम आयेगा—शायद इसीलिए सरकार अपने गोदामों से अनाज का बड़े पैमाने पर फ्री वितरण नहीं कर रही है। लेकिन लेबर और ट्रांसपोर्ट के बिना कौन देश भर में राशन पहुँचायेगा।

 

दूसरी सम्भावन है कि उन उपरी मंडियों में जहाँ अढ़ती किसान से ख़रीदा हुआ अनाज बेचते हैं, वे बंद हो जायें। लॉकडाउन के चलते शहरों से करोड़ों मजदूरों का गाँव में पलायन होने से शहर में गेंहू की माँग कम होगी। मंडियों के लॉकडाउन से पसरी निर्जनता भी वाहन बिक्री की संभावना कम कर देगी। नतीजा प्राथमिक मंडियों में फसल के दाम गिर जायेंगे। अगर लॉकडाउन जारी रहता है तो किसान सीधे सस्ते दामों पर अपनी फसल बेचने को मजबूर होंगे। यह छोटे गरीब किसानों के लिए संकट की घड़ी होगी। सरकार द्वारा घोषित प्रधानमंत्री किसान योजना के पैसे से ज्यादा से ज्यादा 80-85 प्रतिशत मालिक किसानों को ही थोड़ी राहत मिलेगी। भूमिहीन किसानों, बटाई पर खेती करने वाले किसानों को जो कि आज खेती करने वालों का बड़ा हिस्सा हैं— इससे कोई राहत नहीं मिलेगी। फसल बेचकर गुजारा करने वाले ये किसान पिछली फसल की कमाई संभवतः खर्च कर चुके होंगे। बहुतों को चीनी मिलों से भुगतान तक नहीं मिला होगा— इनके ऊपर वास्तविक खतरा मंडरा रहा है।

 

इसके अलावा गाँव के गरीबों की एक बड़ी आबादी भूमिहीन खेत मजदूरों की है जिनके पास संभवतः कोई सरकारी मदद नहीं पहुँच पा रही है। ऐसी खबरें आ रही हैं कि भूखे लोग खेतों में से आलू की फसल निकाल लेने के बाद बाख गये आलू बीन-बीनकर खा रहे हैं। बिहार की मुसहर जाति के लोग भुखमरी की कगार पर हैं। शहरों से भी लोगों के गाँव पहुँचने पर खाने का संकट और बढ़ जायेगा। गाँव के लुहार, बढई, जुलाहे, मंडी के मजदूर, गाँव के इंट-भट्टे जैसे उद्योग पर इसका तबाही लाने वाला असर होगा।

 

सरकार की बदहवासी

सरकार बदहवास दिख रही है। लॉकडाउन का फैसला एलान करने से पहले शायद कोई तैयारी नहीं की गयी। सरकारी विभागों, केंद्र और राज्य की सरकारों के बीच कोई तालमेल नजर नहीं आ रहा है। ऐसा लगता है कि नोटबंदी के फैसले की तरह इस फैसले को लेते समय भी कुछ नहीं सोचा गया। हमारे ‘आत्ममुग्ध’ प्रधानमंत्री ने अपने मन्त्रियों, प्रदेशों के मुख्यमन्त्रियों, प्रशासनिक अधिकारियों और स्थानीय लोगों के साथ कोई गम्भीर चर्चा करना जरूरी नहीं समझा। बादशाह ‘तुगलक’ की तरह कोरोना के फैलाव से घबराकर ‘लॉकडाउन’ का फरमान जारी कर दिया।

 

30 जनवरी तक कोरोना वायरस के फैलाव और महामारी की गम्भीरता को समझ गयी थी। लेकिन हमारे देश में पहले तो इसे लेकर सरकार बिलकुल भी गंभीर नहीं दिखी। उलटे वाट्सअप यूनिवर्सिटी पर यह दावा किये जाते रहे कि भारतीयों पर इसका कोई असर नहीं होगा, कि हमारी इम्युनिटी बहुत अच्छी है कि हम पवित्र गौमूत्र और विभिन्न देशी नुस्खों से इसे मार भगायेंगे। इस महामारी से निपटने की तैयारी करने के बजाय हमारी सरकार ट्रम्प, ठगी करवाने और उन पर लीपापोती करने, सीएए, एनआरसी, एनपीआर जैसी गैरजरूरी चीजों में अपना और संसद का वक्त जाया करती रही। गृहमंत्रालय की पूरी ताकत मध्यप्रदेश में एमएलए खरीदने और सरकार गिराने में लगी रही।

 

सरकार ने विदेश यात्राओं पर कोई रोक नहीं लगाई और विदेशों से आने वालों की कोई चेकिंग नहीं की। कोरोना बीमारी हवाई जहाजों से आती रही और हम मुसाफिरों को आइसोलेट (अलग-थलग रखने) करने और उनकी जाँच करनी की बजाय उनके हाथों पर ठप्पे लगाकर उन्हें बाहर का रास्ता दिखाते रहे। फिर एसी ट्रेनों और कारों के जरिये इन लोगों के साथ यह बीमारी देश के विभिन्न इलाकों में पहुँचती रही। छोटे से राज्य पंजाब में ही 70-80 हजार लोग विदेश से आये और उनमें से बहुत से कहाँ हैं? सरकार को अभी तक कुछ नहीं पता है। अचानक जब इटली से आये टूरिस्टों को पोजिटिव पाया गया है, कुछ लोगों में उनसे संक्रमण कि खबरे आयीं ओर मौते हुई तो हडकंप मचने लगी। गायिका कनिका कपूर जैसी कहानी सामने आने पर इस बात का एहसास रहा कि एक आदमी कितनों को संक्रमित कर सकता है, जो कोरोना बीमारी के बावजूद लखनऊ में भाजपा नेताओं और मंत्रियों के साथ पार्टी करती रही। जब चारों ओर उच्च वर्ग के लोगों और देश के बड़े नेताओं के गैर-जिम्मेदाराना व्यवहार पर थू-थू होने लगी, तब कहीं जाकर सरकार के सुनहरे ख्वाब टूट गये।

 

चारों ओर घबराहट फ़ैल गयी। सरकार के पास इस इमरजेंसी के लिए कोई तैयारी नहीं थी-- न टेस्ट की सुविधा, न अस्पताल में बेड, न वेंटिलेटर, न मास्क—तो आनन कानन में ये सोचा गया कि  लॉकडाउन कर दिया जाये—तभी इस संभावित फैलाव को रोका जा सकता है।

 

लेकिन यह फैसला लेते वक्त भी केवल उस अमीर वर्ग के बारे में ही सोचा गया जो इस बीमारी को विदेश से लाया ओर जिसने इसे फैलाया। उनके पास घर थे। उन्हें “वर्क फ्रॉम होम” करना था। पर जिनके पास घर नहीं थे, जो रोज कमाकर रोज खाते थे, जिनकी आमदनी का कोई निश्चित जरिया नहीं था, को कम्पनी के नहीं ठेकेदार के गुमनाम मजदूर थे, जो पराधीन और निर्बल थे— उनके बारे में कुछ नहीं सोचा गया ओर यही इस त्रासदी की सबसे बड़ी वजह है। यह त्रासदी इस बात की गवाह है कि हमारे देश के हुक्मरान हमसे कितना दूर हैं, हमारी जरूरतों से कितने अनजान—विदेशी शासकों जैसे।

 

लाखों लोगों को सड़कों पर देखकर सरकार के हाथ-पैर फूले हुए हैं। रोज नई घोषणाएं और नये फरमान आ रहे हैं। एक दिन पहले उन्हें घर पहुँचाने का एलान होता है, दूसरे दिन जहाँ हैं वहीं रोकने का। दिल्ली में चली बसें बुलंदशहर के बाहर रोक दी जाती हैं। केंद्र और राज्य सरकारें कह रही हैं कि आपको कहीं जाने की जरूरत नहीं, आपके भोजन का इन्तजाम हो रहा है, राशन फ्री दिया जायेगा— पर लोगों को भरोसा नहीं हो रहा है। उनके पास भरोसा करने का वक्त नहीं है। उन्हें आज ही भूख लगी है। सबको पता है कि सरकार के कामों में कितना वक्त लगता है और उसकी कितनी कीमत चुकानी पड़ती है।

 

सरकारी पैकेज

केंद्र सरकार ने बड़े गाजे-बाजे के साथ 1 लाख 70 हजार करोड़ रूपये के कोरोना राहत पैकेज का एलान किया। अगले दिन इसके विश्लेषण सामने आये तो पता चला कि इसमें से 70 हजार करोड़ तो पहले ही खर्च हो चुका है। बाकी 1 लाख करोड़ करोड़ में बहुत सारा सार्वजानिक वितरण प्रणाली केके राशन का रूटीन खर्च का पैसा है। यानी वास्तविक रकम बेहद कम है। लेकिन क्या यह ऊँट के मुँह में जीरा जैसी रकम भी वास्तविक जरूरतमंदों तक पहुँचेगी?

 

अधिकांश मौसमी मजदूर (अनुमानित 4.5 करोड़) के जनधन खाते और राशनकार्ड गाँव में हैं तो शहर में रह जाने पर भी इन्हें न तो 500 रूपये मिलेंगे और न फ्री राशन। जब तक सरकार उन तक सहायता सीधे पहुँचाने का रास्ता नहीं निकालती— उन्हें कुछ नहीं मिलेगा। अगर फ्री वितरण हर जरूरतमंद के लिए करती है तो उसे भ्रष्टाचारी और जमाखोर हड़प लेंगे और वह कभी वास्तविक जरूरतमंद तक नहीं पहुँच पायेगा। क्या रोज भूख से जूझ रहे इन लोगों के पास इतना वक्त है कि वे सरकार के उन तक पहुँचने का इन्तजार करते रहें?

 

तो दूसरा क्या रास्ता है? फूड किचन। गरीबों और जरूरतमंदों के लिए खाना पकाकर खिलाने की व्यवस्था। इसके लिए पूर्व तैयारी जरूरी थी। केंद्र सरकार ने इसकी जिम्मेदारी राज्यों पर छोड़ दी है। जिनके पास न संसधान हैं, न आपसी तालमेल। उनके ‘नाईट शेल्टर’ और सामुदायिक किचन में क्षमता से कई गुना लोग पहुँच गए हैं। ‘सामाजिक अलगाव’ के नियम का पालन करते हुए उन्हें खाना खिला पाना असंभव है--  इसकी भयावह तस्वीरें पूरा देश देख रहा है। इस स्थिति में थोड़ा सुधार तभी सम्भव है जब केंद्र सरकार उन्हें जरूरी संसधान— पैसा और खाद्य सामग्री उपलब्ध करवाये, उन्हें कर्ज देकर खर्च करने की अनुमति दे और एक राज्य से दूसरे राज्य के बीच जरूरी सामानों की आवाजाही पर लगी रोक हटाये। दुर्भाग्यवश इसके लिए न तो केंद्र सरकार चिंतित दिख रही है और न ही राज्य सरकारों ने इसकी माँग की है। बस आदेश, एडवाइजरी, फतवे जारी हो रहे हैं इसलिए सबको भोजन उपलब्ध करवाना सम्भव नहीं दीखता।

 

इस संकट के समय गरीबों के साथ सबसे भद्दा मजाक खुद वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण ने किया है, उन्होंने मनरेगा मजदूरी की दरें 182 से बढ़ाकर 202 करने की घोषणा की है। मनरेगा के तहत वही काम आते हैं जिनमें एक साईट 15 मजदूर काम करें। जो लॉकडाउन की स्थिति में धारा 144 और कर्फ्यू लागू है। सम्भव नहीं है। ऐसी बेबसी और लाचारी की स्थिति में कोई ठोस मदद करने के बजाय गरीबों को एक झूठी उम्मीद देना उनके साथ फरेब है, निर्दयता है।

 

यह कड़वी सच्चाई है कि गरीब लोग आज भगवान के रहमो-करम पर छोड़ दिये गये हैं। उनके लिए कोई सरकार नहीं रह गयी है। लोग शायद इसी लिए खामोश हैं कि उन्हें उम्मीद है कि 21 दिनों के बाद लॉकडाउन का अन्त हो जायेगा और फिर सब ठीक हो जायेगा। लेकिन अगर महामारी नियंत्रित नहीं होती और गाँवों में फ़ैल जाती है, जहाँ सरकारी या निजी अस्पतालों की व्यवस्था बेहद लचर और नाकाफी है तो क्या होगा?

 

यह सोचकर कलेजा मुँह को आ जाता है। घर लौटते मजदूरों की भूख और बीमारी से, सड़क दुर्घटना में मौतों की खबरें आनी शुरु हो गयी हैं। मेरठ में एक बेबस मजदूर, एक रहमदिल बाप अपने भूख से बिलखते बच्चों का दुःख नहीं देख सका और आत्महत्या कर ली। ये कोई झूठे आँकड़ें नहीं है उस ‘विकास’ नाम के भगवान कि देन हैं जिसका बीज आज से 20-30 साल पहले बोया गया, जिसने एक तरफ अरबपति पैदा किये ओर दूसरी तरफ वंचितों की भारी आबादी, जो वैसे तो छिपी रहती है लेकिन आज सडकों पर सबके सामने है! हमारा समाज आज एक अभूतपूर्व संकट का सामना कर रहा है-– कोरोना महामारी और भुखमरी-– दोनों आज वास्तविक संकट बनकर हमारे सामने मुँहबाये खड़े हैं! आज गरीब दिहाड़ी मजदूर, असंगठित क्षेत्र के मजदूर, भूमिहीन और छोटे किसान, भूमिहीन बटाईदार किसान और खेत मजदूर, प्रवासी मजदूरों, बेघर और बेकार लोगों और छोटे उद्योग-धन्धों पर यह कहर टूट रहा है लेकिन इसकी लपटें अपने बिलों में छिपे बैठे मध्यमवर्ग और उच्चवर्ग के लोगों तक को अपनी चपेट में लेने के लिए बेचैन हैं। वे लोग कब तक चैन से रह पायेंगे, अभी कहना मुश्किल है। सताये हुए निर्बलों के दिलों से निकलती ‘हाय’ किस-किसको भस्म करेगी-कौन जानता है। लेकिन कितने आश्चर्य की बात है संकट के इस वक्त में भी निजी सम्पत्ति की व्यवस्था का हमारे देश में कितना सम्मान किया जा रहा है। निजी अस्पताल अपनी लूट जारी रखे हुए हैं, राजमार्गों के किनारे खाली पड़े बहुमंजिला फ्लैटों में बेघरों को बसाने के बारे में नहीं सोचा जा रहा है। 6 करोड़ टन अनाज गोदामों में होने के बावजूद लोग भूखे हैं। अपने फैसले से आयी तबाही पर प्रधानमंत्री ‘माफी’ माँगता है पर इस संकट से निकलने का कोई ठोस उपाय नहीं सोच पाता। 

      

क्या ऐसी क्रूर व्यवस्था को कायम रहने का हक़ है?

                 

  

                 

                  

 

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