अनियतकालीन बुलेटिन

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वर्ग न्याय

(क्रिस्टोफर नोलन द्वारा लिखित, निर्मित और निर्देशित ‘ओपेनहाइमर’ फिल्म के आने से परमाणु बम के विभिन्न पहलुओं के ऊपर बहस शुरू हो गयी है। यह फिल्म वैज्ञानिक जे. रॉबर्ट ओपेनहाइमर के जीवन पर आधारित है, जिन्होंने मैनहट्टन प्रोजेक्ट पर पहले परमाणु हथियार विकसित करने में सहायता की थी। पूंजीवादी खुफियातंत्र और अदालत के पैंतरे के बावजूद ओपनहाइमर निर्दोष साबित हुए। लेकिन 1953 में परमाणु बम के फॉर्मूले सोवियत संघ पहुंचाने के 'अपराध ' में जूलियस और एथन रोजेनबर्ग को बिजली के झटके से मौत की सजा देने से अमरीकी व्यवस्था पीछे नहीं हटी। उससे पहले 1950 में जर्मन भौतिक विज्ञानी क्लाउस फूच्स खुद गवाही दे चुके थे कि उन्होंने ही सोवियत संघ को यह फॉर्मूला सौंप दिया था। फुच्स के बचाव में वकील ने यह तर्क दिया था कि दूसरे विश्व युद्ध में इंग्लैंड और सोवियत संघ मित्र थे इसलिए फॉर्मूला दुश्मन के हाथ नहीं, बल्कि दोस्त के हाथ सौंपा गया है। नतीजन फूच्स को 9 साल कैद के बाद छोड़ दिया गया। लेकिन जूलियस और एथन की सजा-ए-मौत पर अब भी सवाल रह गया। उम्मीद थी कि क्रिस्टोफर नोलन इस सवाल पर भी रोशनी डालेंगे। लेकिन उस घटना के 70 साल बाद भी हॉलीवुड साम्राज्यवाद के सांस्कृतिक मोर्चा होने के नाते एक भी शब्द खर्च नही की। इस विषय पर 1953 में मंथली रिव्यू पत्रिका में एक लेख छपा था जिसका शीर्षक है-- वर्ग न्याय। लेखक थे पॉल स्वीज़ी और लियो ह्यूबरमैन। यह लेख ' इतिहास जैसा घटित हुआ ' किताब में दर्ज है। इस मौके पर उसे भी पढ़ा जाना चाहिए। पेश है लेख...)

–सम्पादकीय/अगस्त 1953

9 जुलाई के न्यू यॉर्क टाइम्स के भीतरी पन्ने पर एक छोटे से समाचार का अंश इस प्रकार था–– 

ओसिंग, न्यूयार्क, 8 जुलाई– एक संघीय न्यायालय ने सिंग सिंग कालकोठरी में बन्द तीन आदमियों के मृत्युदण्ड पर अनिश्चित काल तक के लिए रोक लगा दी है। जेल सहचारी ने आज बताया कि उन्हें 1950 में रीडर डाइजेस्ट  के एक ट्रक खलासी की हत्या के जुर्म में सजा हुई थी– ऐसा माना गया कि अमरीकी सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश रॉबर्ट एच जैकसन ने इसलिए सजा स्थगित कर दी, क्योंकि प्रतिवादी के वकीलों ने मृत्युदण्ड को रद्द करवाने के लिए एक नया आवेदन पत्र तैयार किया था। कैदी पिछले ढाई वर्षों से कालकोठरी में रह रहे थे।

इसके साथ ही, रीडर  डाइजेस्ट हत्या का मामला अखबारों में फिर नहीं दिखायी दिया और अनुमान है कि जब तक न्यायालय उन वकीलों द्वारा अपने मुवक्किल की जान बचाने के लिए तैयार किये जा रहे आवेदन पर विचार करके फैसला नहीं सुना देता, तब तक यह मामला अखबारों में नहीं दिखेगा।

इसके ठीक तीन सप्ताह पहले, अमरीकी सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश विलियम ओ डगलस ने भी एथेल और जूलिया रोजेनबर्ग के मृत्युदण्ड पर इसी तरह रोक लगायी थी क्योंकि दोषी ठहराये गये दम्पति का मुकदमा लड़ रहे वकीलों ने कुछ नये कानूनी बिन्दु उठाये थे। लेकिन यह मामला अखबारों से ओझल नहीं हुआ, एक भी अंक मेें नहीं। अमरीका के महाधिवक्ता इस बात पर राजी नहीं थे कि न्याय को अपनी सामान्य प्रक्रिया अपनाने दी जायेे। हालाँकि सर्वोच्च न्यायालय में गर्मी की छुट्टियों के कारण पहले ही सत्रावसान हो चुका था, फिर भी उन्होंने विशेष सत्र बुलाने और अपने आवेदन पर तत्काल सुनवाई करने की माँग की, ताकि सम्पूर्ण न्यायालय डगलस के स्थगनादेश को रद्द करे। मुख्य न्यायाधीश विंसन को जैसा आदेश दिया गया, उन्होंने वही किया। न्यायालय फिर से बैठा और 3 के मुकाबले 6 मत से मृत्युदण्ड के स्थगनादेश को रद्द कर दिया। न्यायाधीश डगलस की कार्रवाई के दो दिन बाद ही रोजेनबर्ग दम्पति को बिजली की कुर्सी पर बिठा कर मौत की सजा दी गयी।

कानूनी तौर पर, न्यायाधीश जैकसन ने रीडर डाइजेस्ट मामले में वही किया जो न्यायाधीश डगलस ने रोजेनबर्ग दम्पति के मामले में किया था। कानूनी तौर पर, किसी को भी यही उम्मीद होती कि दोनों मामलों में एक ही जैसे नतीजे सामने आयेंगे। लेकिन वास्तव में दोनों के नतीजों में बहुत ही अधिक अन्तर था। क्यों ?

इसलिए कि कानून साधारण हत्या के किसी मामले में एक तरह की कार्रवाई करता है और एक महत्त्वपूर्ण राजनीतिक मुद्दे से जुड़े मामले में पूरी तरह भिन्न तरीका अपनाता है। क्योंकि न्याय एक मामले में न्याय है और दूसरे मामले में वर्गीय राजनीति है। क्योंकि अमरीकी इतिहास में आज तक ऐसा मामला नहीं आया, जिसका न्याय से बहुत कम ही लेना–देना रहा हो और वर्गीय पूर्वाग्रह व वर्ग हित को ही ज्यादा महत्त्व दिया गया हो, जैसा इस रोजेनबर्ग मामले में।

रोजेनबर्ग दम्पति भले ही जासूसी के अभियुक्त थे, लेकिन इसके लिए उन्हें मृत्युदण्ड नहीं दिया गया। भयभीत और उन्मादग्रस्त शासक वर्ग की निगाह में उनका अपराध इससे कहीं ज्यादा जघन्य था– वे कम्युनिस्ट या कम्युनिस्ट समर्थक थे, उन्होंने अणु बम के रहस्य खोज दिये थे, उन्होंने कोरियाई युद्ध शुरू किया था और सबसे बढ़कर, उन्होंने अपनी गलती मान कर या अपने विचारों को त्याग कर या लोगों का नाम बताकर सरकारी नीति को अपना समर्थन नहीं दिया था।

निश्चय ही इनमें से कोई भी आरोप अभियोग पत्र में या जूरी के सामने रखे गये आरोप में या मुकदमें और अपील कोर्ट के औपचारिक फैसलों में सामने नहीं आया। फिर भी ये शुरू से अन्त तक मुकदमें के विवरण में छाये रहे और कोई एक क्षण के लिए भी सन्देह नहीं कर सकता कि इन सभी आरोपों को मिलाकर ही न्यायालय इस नतीजे तक पहुँचा था।

रोजेनबर्ग दम्पति का असली अपराध, साफ तौर पर, जासूसी नहीं था। उन पर मुकदमा चला जासूसी के लिए, लेकिन उन्हें बिलकुल ही भिन्न कारणों से अपराधी ठहराया गया।

मुकदमे के कानूनी आधार और इसके वास्तविक नतीजे के बीच यह असंगति ही उन बातो के मूल में हैं जिन्हें ढेर सारे अमरीकी समझ नहीं पाते– क्या कारण है कि रोजेनबर्ग दम्पत्ति का मुकदमा एक विश्वव्यापी प्रशंसनीय उद्देश्य के रूप में विख्यात हो गया, विश्वास की दृढ़ता और गहराई तथा दुनिया भर में उत्पन्न भावनात्मक उभार की दृष्टि से इसकी तुलना सैको–वेन्जेटी मुकदमे से की जा सकती है। यहाँ तक कि तथ्यों का सरसरी तौर पर भी जायजा लेना इसकी असंगति को समझने के लिए कापफी हैऋ अधिक सतर्कता से जाँच करने पर लाखों लोगों की यह सहमति बनी कि रोजेनबर्ग दम्पत्ति के खिलाफ, कानूनी आरोपों से बिलकुल भिन्न, वास्तविक आरोपों में आधे तो काल्पनिक थे और आधे रोजेनबर्ग दम्पति के लिए गौरव और उन पर आरोप लगाने वालों के लिए अपमानजनक थे।

कोरियाई युद्ध और अणु बम के बारे में जो आरोप लगाये गये थे, वे काल्पनिक थे। कोरियाई युद्ध के जो भी कारण रहे हों, जाहिर तौर पर इसका इस बात से कोई लेना–देना नहीं था कि किसके पास बम हैं और किसके पास नहीं हंै। और सर्वोच्च वैज्ञानिक अधिकारियों ने इस विचार को बेहूदा बताते हुए खारिज कर दिया था कि रोजेनबर्ग दम्पति ने जिस ग्रीनग्लास से कथित रूप से आणविक सूचनाएँ हासिल की थी यअगर उसके पास ऐसी कोई सूचना रही हो तोद्ध उसके लिए बम के ‘‘रहस्य’’ को समझाना तो दूर, खुद समझ पाना भी मुमकिन नहीं था। जाहिर है कि रोजेनबर्ग की गतिविधियाँ, अगर उनके उद्देश्यों को बदतर मान कर और उनके कौशल को बेहतरीन समझ कर चलें, तो भी उन्होंने अपने देश के हित को कोई हानि नहीं पहुँचायी।

बाकी दूसरी बातें, जिसे अमरीकी सरकार ने कम्युनिस्ट समर्थक होने और उस पर डटे रहने का अपराध समझा, उसे दुनिया भर की जनता सिपर्फ इस बात का प्रमाण मानती है कि रोजेनबर्ग दम्पति अच्छे फासीवाद विरोधी थे, उन्होंने विश्व शन्ति के लिए काम किया और घुटनों के बल रेंगने या मुखबिर की भूमिका निभाकर अपनी तौहीन करने से इनकार कर दिया।

जैसे ही यह बात समझ में आ गयी कि रोजेनबर्ग दम्पत्ति के खिलाफ लगाये गये असली आरोप का पति–पत्नि के व्यक्तिगत दोष से कोई लेना–देना नहीं है, तब उनके व्यक्तिगत दोष को साबित करने के लिए जो भी प्रयास किये गये, उन सबको तिरस्कार योग्य और ऐसे तौर–तरीकों से चलाये गये मुकदमे की वैधता को सन्देहास्पद समझा जाने लगा। पूरा मुकदमा ग्रीनग्लास के कबूलनामे पर टिका था, जो स्वीकार चुका था कि वह जासूस है और वह खुद को और अपनी पत्नी को बचाने की उम्मीद तभी कर सकता था, जब वह किसी और को पफँसाये। चूँकि कोई भी भद्र व्यक्ति ऐसे गवाह द्वारा इन विकट परिस्थितियों में दिये गये हलफनामे पर विश्वास नहीं कर सकता, इसलिए जाहिर है कि कोई भी भद्र व्यक्ति पर्याप्त सन्देह से आगे जाकर इस पर सहमत नहीं हो सकता कि रोजेनबर्ग दम्पति किसी बात के दोषी थे। एक नौजवान जोड़ा जिसका निर्दोष अतीत हो और दो छोटे बच्चे हों, उन्हें ऐसे खोखले आधारों पर न केवल सजा हो सकती है, बल्कि उन्हें मृत्युदण्ड भी दिया जा सकता है, यह उन लोगों के लिए विकट और स्तब्धकारी है जो अमरीकी शासक वर्ग के भय और विभ्रम के साझेदार नहीं है।

ज्यों–ज्यों मृत्युदण्ड का समय नजदीक आता गया, इन दो दृष्टिकोणों के बीच की खाई बढ़ती गयी। जब सरकारी पक्ष की भर्त्सना और नये सिरे से सुनवाई या आरोपी दम्पति की रिहाई की माँग करने वाले सामूहिक स्वर तेज होने लगे, तो अमरीकी शासक वर्ग ने पहले से भी अधिक दृढ़ता से तय कर लिया कि रोजेनबर्ग दम्पति को मरना ही होगा। कोई भी कमजोरी या दया दिखाना इस बात की स्वीकारोक्ति मानी जाती कि रोजेनबर्ग दम्पति निर्दोष थे, कि पूरा मुकदमा सन्देहपूर्ण था, कि मृत्युदण्ड देना एक दानवी गलती थी।

इसी संकटपूर्ण स्थिति में न्यायाधीश डगलस ने शासक वर्ग के किसी जिम्मेदार उच्च अधिकारी की तरह नहीं, बल्कि कानूनी कुशलता के साथ दृढ़तापूर्वक मुकदमे पर विचार करते हुए मृत्युण्ड पर रोक लगाने का आदेश दे दिया, जिसका मतलब था नये सिरे से सुनवाई, सम्भवत% अभियोग पत्र का खण्डन कर दिया जाना और किसी भी परिस्थिति में यह महीनों और शायद वर्षों तक आलोचना की लहरें उठने, उनके बलवती होने और नये आयाम ग्रहण करने में सहायक होता– और क्या पता कि सन्देह और अवमानना के मर्मभेदी सन्देशों के साथ वह अमरीकी जनता के व्यापक हिस्से तक पहुँच जाता।

 शासक वर्गों के नजरिये से, सम्भावना बहुत ही भयावह थी। हिचकिचाने या देर करने के लिए समय नहीं था। तत्काल निर्णायक कार्रवाई अनिवार्य थी। स्थिति ऐसी ही थी। न्याय विभाग, सर्वोच्च न्यायालय का बहुमत, राष्ट्रपति–– देश के शीर्ष कानूनी और न्यायिक अधिकारी–– तुरन्त सबको सक्रिय किया गया, विरोध को तीव्रता से कुचल दिया गया, रिहाई की नयी अपील को कूड़ेदान में पफेंक दिया गया और सजायाफ्रता दम्पति को तेजी से मौत की ओर धकेल दिया गया। जो चीजें शासक वर्ग की नजर में अपने ही राष्ट्र और जनता की ओर से उसके नैतिक प्राधिकार के लिए भयानक खतरा बन गयी थी, उसे वहीं दबा दिया गया।

रीडर डाइजेस्ट हत्यारों ने जो बुरे कर्म किये थे, वे किसी व्यक्ति के लिए या किसी के स्वार्थ के लिए बिलकुल ही खतरा नहीं थे। इसलिए न्यायाधीश जैकसन के स्थगनादेश को जारी रखा गया और अभी भी यह मुकदमा महीनों या वर्षों तक खिंचता रह सकता है, लेकिन रोजेनबर्ग दम्पति का जिन्दा रहना, अमरीकी शासक वर्ग जिसे अपना दूरगामी हित मानता है, उसके लिए खतरा था। इसलिए न्यायाधीश डगलस द्वारा दिये गये स्थगनादेश को खारिज किया जाना और सजायाफ्रता दम्पति को जल्दी से जल्दी मृत्युदण्ड देना तय था।

हालाँकि, एक बहुत ही सही सवाल है कि रोजेनबर्ग दम्पति अमरीकी शासक वर्ग के लिए मर जाने के बाद कम खतरनाक हैं या वे जिन्दा रहते तब कम खतरनाक होते। जो हो गया उसे पलटा नहीं जा सकता, इस मुकदमें की लपट इतनी ऊँची उठ गयी है कि उसे कभी बुझाया नहीं जा सकता। यही नहीं, ऐसी दृढ़ राय के व्यापक पैमाने पर संकेत हैं कि रोजेनबर्ग दम्पति को व्यर्थ ही नहीं मारा जाना चाहिए था, कि वर्ग न्याय का यह जघन्य मामला पूरी दुनिया को बताया जाना चाहिए और इस गलती से जो कष्ट पहुँचा है, उसे कम से कम कुछ अंशों में ही सही, सुधारना चाहिए। उदाहरण के लिए, पहले ही बेलजियम के गैर–कम्युनिस्ट वकीलों के एक समूह ने ‘‘जवाबी सुनवाई’’ के लिए जूरी की अन्तरराष्ट्रीय कमेटी गठित करना शुरू कर दिया है। क्या पता, जैसे–जैसे समय बीते, उनके आम देशवासियों को यदि रोजेनबर्ग दम्पति ने क्या किया था इस सच्चाई का नहीं भी, तो कम से कम इस सच्चाई का तो पता चल ही जायेगा कि उनके साथ क्या–क्या किया गया। अगर कभी ऐसा हुआ, तो यह निश्चय ही अमरीकी शासक वर्ग के सम्मान और उसकी प्रतिष्ठा पर बहुत बड़ा प्रहार होगा।

                     (अनुवाद – दिगम्बर)

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