साहिर लुधियानवी का बाकमाल शेर है,

खुद्दारियों के खून को अर्ज़ां1 न कर सके,

हम अपने जौहरों2 को नुमाया न कर सके।  

(1– सस्ता  2– गुणों को)

खुद्दारी हमेशा उनके लिए बेशक़ीमती रही। इसे कभी उन्होंने सस्ते में नहीं लिया और न ही ऐसा करने की ज़ुर्रत किसी को करने दी। वह कहते हैं कि अपने गुणों को पूरी तरह दुनिया के सामने नहीं ला सके। उनकी चाहत थी कि दिल की आवाज़ को वह पूरी गहराई और ऊँचाई के साथ सुना सकें। सुरों के हर घुमाव, मोड़, नक़्क़ाशी और बारीक़ कारीगरी को प्रकृति के अनुपम सौन्दर्य के साथ सुनने और पढ़ने वालों की आत्मा में उतार सकें। साहिर के लिए कविता आत्मा की आवाज़ है और मोहब्बत की पवित्र पुकार है।

मैं शायर हूँ मुझे फ़ितरत1 के नज़्ज़ारों से उल्फ़त है,

मेरा दिल दुश्मने–नग़मा–सराई2 हो नहीं सकता।

मुझे इनसानियत का दर्द भी बख्शा है कुदरत ने,

मेरा मक़सद3 फ़क़त4 शोला–नवाई5 हो नहीं सकता।

(1– प्रकृति  2– गीत गाने का विरोधी  3– उद्देश्य  4– केवल  5– आग बरसाना)

उन्होंने पुकार सुनी और कविता के मर्म को समझा। शब्द और अर्थ की रहस्य भरी घाटियों में उतरे, सुर और ताल  में एकलय होकर गाया की प्रकृति और संसार से मुझे प्यार है। मैं गीतों का आशिक़ हूँ और केवल आग बरसाना मेरा उद्देश्य नहीं बल्कि प्रकाश और ताप से संसार को भरना है। प्रेम और ज्ञान के आलोक से भरा हुआ एक नया संसार रचना है। विध्वंस और निर्माण की प्रक्रिया में साहिर अपने भीतर के विस्फोट से भी गुज़रे। टूटे–बिखरे लेकिन उन्होंने अपने को समेटा और यह बखूबी समझ लिया कि पुराने को ध्वस्त होना है और खण्डहर के केन्द्र से ही नया निर्माण होना है। यह कुदरत और ज़िन्दगी का फ़लसफ़ा है। एक कवि इस दर्शन को आत्मसात करके ही कवि होने को प्रमाणित करता है। कुदरत में यह सब बाहर होता है जो मौसमों के स्वभाव से प्रकट होता है लेकिन कवि के मन में यह सब घटित होता है। कुदरत को समझने के लिए मन को साधना ज़रूरी है। साहिर लुधियानवी का एक गीत है, ‘तोरा मन दर्पण कहलाये’ जिसका इस्तेमाल संगीतकार रवि ने 1965 में फ़िल्म ‘काजल’ में किया था और बड़े खूबसूरत अन्दाज़ में आशा भोंसले से गवाया था। आप इस गीत के तरन्नुम में डूबेंगे तो जीवन के अनमोल रहस्य की परतें खुलने लगेंगी। जीवन और प्रकृति अद्भुत रासायनिक समन्वय का मेल है और इस समन्वय में ज़रा–सा भी असन्तुलन विध्वंस और अन्त, यानी मृत्यु का संकेत है। इन संकेतों को समझ कर ही अपनी मनुष्यता को समझा जा सकता है।

हम साहिर साहब के कशमकश का अन्दाज़ा लगा सकते हैं। वह सारी ज़िन्दगी अपने आप से और दुनिया के रूढ़िवादी नियमों से लड़ते रहे। वह बहुत लोकप्रिय रहे लेकिन अपने सिद्धान्तों के कारण बहुत अकेले भी रहे। यह अकेलापन उन्हें छीजता रहा और अतत: उन्हें इस फ़ानी दुनिया से हमेशा के लिए ले गया। उनकी बहन अनवर सुल्ताना का बयान सुनिए, “माँ जी की मौत के बाद से ही भाईजान भीतर से पूरी तरह टूट चुके थे। उसके बाद उन्हें दिल का दौरा पड़ा और उनकी ज़िन्दगी के तौर–तरीक़े पूरी तरह से बदल गये।––– आखिरकार 25 अक्टूबर 1980 का वह मनहूस दिन आ ही गया जब––– उनकी गर्दन एक तरफ़ झूल गयी और वे हमेशा के लिए ख़मोश हो गये। हम पर मानो बिजली टूट पड़ी। हमारी तकलीफ़ और दर्द का अन्दाज़ा कोई भी नहीं लगा सकता।” (अयूबी 1985 : 46)(1)

साहिर लोकप्रियता की बुलंदियों पर रहे। अपने पढ़ने–सुनने वालों से घिरे रहे लेकिन भीतर ही भीतर अपने अकेलेपन के बर्फ़ को तोड़ने–पिघलाने की असफल कोशिशें करते रहे। अपने हालत का पता वह अपनी एक नज़्म ‘आज’ में देते हैं,

साथियो! मैंने बरसों तुम्हारे लिए

चाँद, तारों, बहारों के सपने बुने

हुस्न और इश्क़ के गीत गाता रहा

आरज़ूओं के1 ऐवां2 सजाता रहा

मैं तुम्हारा मुगन्नी3, तुम्हारे लिए

जब भी आया नये गीत लाता रहा

आज लेकिन मेरे दामने–चाक में4

गर्दे–राहे–सफ़र5 के सिवा कुछ नहीं

(1– आकाक्षांओं के  2– महल  3– गायक  4– फटी हुई झोली में  5– रास्ते की धूल)

साहिर अपनी रचनाओं में मोहब्बत, आग, आँसू, विद्रोह, ललकार, अकेलेपन, सामन्तवाद–आतंकवाद,राजनीतिक टुच्चेपन, फ़ासिज़्म और जंग के खिलाफ़ रोमेन्टिक नग़में लिखते रहे। उन्होंने बँटवारे का दर्द सहा था। निर्दोष लोगों की बेरहम हत्याएँ देखी थीं। अपने सारे तकलीफ़देह अनुभवों को उन्होंने अपनी कृतियों में उकेरा था।

उन्होंने भविष्य की ख़ौफ़नाक छायाओं का अन्दाज़ा लगा लिया था। हिन्दुस्तान और पाकिस्तान दोनों मुल्क साम्राज्यवादी ताक़तों के ज़ुल्म से लहुलूहान थे। पाकिस्तान ने फौजी हुकुमत कुबूल कर ली लेकिन हिन्दुस्तान लोकतंत्र को बचाने की लड़ाई में जी–जान से लगा हुआ था। वह कठोर जातिवादी बंधनों को मिटाने, छुआछूत समाप्त करने के दोहरे संग्राम में मुब्तिला था। एक ओर ब्रिटिश साम्राज्यवाद था और दूसरी ओर भारतीय सामन्तवाद। इस दोतरफ़ा लड़ाई का इतिहास खून सना हुआ है। समाज में अमीर–ग़रीब के बीच की खाई कभी कम नहीं हुई।

औरतों पर ज़ुल्म किसी युग में ख़त्म नहीं हुआ। मातृसत्ता के अवसान के बाद पितृसत्ता का भयानक और हिंसात्मक रूप आज भी क़ायम है, जो दिल हिला कर रख देता है। अबोध बच्चियों का बलात्कार और उनकी हत्याएँ किसी भी सभ्य समाज का सिर नीचा कर देती हैं। हिन्दू–मुस्लिम, सिख–ईसाई पॉलिटिक्स ने तो आग में घी का काम किया। सत्ता पर हर हाल में बने रहने के लिए राजनीतिक दलों ने जो पापाचार किये हैं उन्हें जानकर लगता है कि हिटलर और मुसोलोनी इनके सामने कुछ नहीं हैं।

साहिर अपनी माँ को बहुत चाहते थे। माँ की मृत्यु ने उन्हें बहुत बेचैन कर दिया। इस बेचैनी ने उन्हें समाज और देश का असली चेहरा दिखा दिया। औरतों की इज़्ज़त न घर में थी और न बाहर। उन्हें तानों से, गालियों से नवाज़ा जाता रहा। उनके विरोध को हिंसक तरीक़ों से ख़ामोश कर दिया गया। उन्होंने एक गीत में दर्ज किया कि,

औरत ने जनम दिया मर्दों को मर्दों ने उसे बाज़ार दिया

जब जी चाहा मसला कुचला जब जी चाहा दुत्कार दिया

जिसके सीनों ने इनको दूध दिया उन सीनों का व्यापार किया

जिस कोख में इनका जिस्म ढला उस कोख का कारोबार किया

इतना ही नहीं उन्होंने 1957 में बनी फ़िल्म ‘प्यासा’ में अपनी एक नज़्म ‘चकले’ में आततायी सत्ता कीे आँखों में आँखें डाल कर सवाल किया कि, ‘जिन्हें नाज़ है हिन्द पर वो कहाँ हैं?’ दरअस्ल मूल रचना में कुछ अरबी के मुश्किल अलफ़ाज़ थे,

ये कूचे ये नीलाम घर दिलकशी के

ये लुटते हुए कारवाँ ज़िन्दगी के

कहाँ हैं कहाँ हैं मुहाफ़िज़ खुदी के

सना–ख़्वान–ए–तक्दीस–ए–मशरिक़1 कहाँ हैं

(1– पूरब की सभ्यता के रक्षक कहाँ हैं?)

संगीतकार एस डी बर्मन ने निर्देशक गुरुदत्त से चर्चा की और कहा कि अरबी ज़बान के कुछ शब्दों को सरल बनाना होगा तब ही आम दर्शक समझ सकेंगे। साहिर साहब भी सहमत हुए और उन्होंने नज़्म के भावों को यथासम्भव सुरक्षित रखते हुए कुछ परिवर्तन किये और फ़िल्मांकन हुआ। यह नज़्म लोगों के दिलों में उतर गयी। मोहम्मद रफ़ी साहब ने औरत की बेबसी, तड़प और प्रतिरोध को अपनी जादुई आवाज़ से इस तरह साकार किया कि ‘चकले’ की चीख़ पूछने लगी कि जिन्हें अपनी सभ्यता, शालीनता और अपने पूर्वीपन पर अभिमान है कि वे हर हाल में पश्चिम से श्रेष्ठ हैं तो पतन के इस दौर में वे कहाँ हैं? औरत की इनसाफ़ माँगती पुकार को दबाने में उन्हें ज़रा भी शर्म नहीं आयी?  तत्कालीन प्रधानमंत्री नेहरू भी नज़्म और उसकी कलात्मक प्रस्तुति के मुरीद रहे। उन्होंने खूब तारीफ़ की और कहा कि, “यह औरत की ज़िन्दगी के सियाह पहलू को रेखांकित करती हुई नज़्म है। शायर अपने साथ पढ़ने वालों को भी नीमरौशनी में डूबी और बदबुओं में नहाई तंग गलियों में लिये जाता है, जिनमें ज़िन्दा ज़िस्मों के गोश्त ख़रीदे–बेचे जाते हैं।”(2) अपने इसी ईमानदार तेवर के लिए साहिर को औरतों के हक़ में लड़ने वाला शायर कहा जाता है।

साहिर को यक़ीन था कि औरतें इस ज़ुल्म से अपने बल पर आज़ाद हो जाएँगी। लेकिन आज भी औरतें अपनी इज़्ज़त बचाने के जद्दोजहद में लगी हुई हैं। ‘लोग औरत को फ़क़त जिस्म समझ लेते हैं’ का ये बन्द रूह को शर्मसार कर देता है,

कितनी सदियों से ये वहशत का चलन जारी है

कितनी सदियों से है क़ायम ये गुनाहों का रिवाज़

लोग औरत की हर एक चीख़ को नग़्मा समझें

वो क़बीलों का हो कि शहरों का रिवाज़

लोग औरत को फ़क़त जिस्म समझ लेते हैं

साहिर 1957 में गुरुदत्त निर्देशित फ़िल्म ‘प्यासा’ के लिए एक नज़्म लिखते हैं, ‘ये दुनिया अगर मिल भी जाये तो क्या है?’ इसमें वह दुनिया के सबसे पुराने और घिनौने व्यवसाय जिस्मफ़रोशी की मुख़ालिफ़त करते हैं,

जवानी भटकती है बदकार बनकर

जवाँ जिस्म सजते हैं बाज़ार बनकर

यहाँ प्यार होता है व्यापार बनकर

ये दुनिया अगर मिल भी जाये तो क्या है

जला दो इसे फूँक डालो ये दुनिया

मेरे सामने से हटा लो ये दुनिया

तुम्हारी है तुम्ही सम्भालो ये दुनिया

ये दुनिया अगर मिल भी जाये तो क्या है

बाज़ार का एक ही उसूल है दौलत पैदा करना। व्यापार में नैतिकता और पवित्रता के लिए कोई जगह नहीं है। देह व्यापार में तो औरत एक साधन है और खिलौने से ज़्यादा हैसियत नहीं रखती। इस खिलौने से खेलने के लिए बस नोटों की गड्डी चाहिए। हवा में उड़ते हुए नोटों का इतिहास जब भी लिखा जाएगा तो औरतों की कुचली हुई जानों का इतिहास भी दर्ज होगा। साहिर अपनी ग़ज़ल ‘नूरजहाँ के मज़ार पर’ औरत का दर्द दर्ज करते हैं,

पहलूए–शाह में ये दुख़्तरे–जुम्हूर1 की क़ब्र

कितने गुम–गश्ता फ़सानों का पता देती है

कितने खूं–रेज़ हकाएक से उठाती है नक़ाब

कितनी कुचली हुई जानों का पता देती है

(1– लोकतंत्र के बेटी)

साम्राज्यवाद के हिमायती इतिहासकार जब अतीत का लेखा–जोखा करते हैं तो उनकी नज़रें जंग में जुटे रणबांकुरों के कारनामों को गिनाने में होती है। यह मर्दवादी सोच का विकृत पहलू है कि वह औरतों की तकलीफ़ और उनकी बेमिसाल क़ुर्बानी पर नहीं के बराबर लिखते हैं। साहिर इसी ग़ज़ल में लिखते हैं कि,

सहमी–सहमी सी फ़जा़ओं में वीराँ मरक़द1

इतना ख़ामोश है फ़रियाद–कुनाँ2 हो जैसे

सर्द शाख़ों में हवा चीख़ रही हो ऐसे

रूह–ए–तक्दीश3 वफ़ा मर्सियां–ख़्वां4 हो जैसे

(1– क़ब्र 2– फ़रियादी  3– पवित्रता  4– शोकगीत)   

पाठकों के मन में यह सवाल उठता होगा कि ज़्यादातर फ़िल्मी रचनाओं की ही चर्चा क्यों? साहिर के जिगरी दोस्त हमीद अख़्तर साहब कहते हैं कि साहिर फ़िल्मों के लिए ही बना था। उसकी ख़्वाहिश थी कि उसकी रचनाएँ उन लोगों तक पहुँचे जो निरक्षर हैं और रोज़ी–रोटी कमाने के हाड़तोड़ काम में जुटे हुए हैं। यह काम साहिर फ़िल्मों के ज़रिये ही कर सकता था और उसने इसे बेहद खूबसूरत और आर्टिस्टिक ढंग से किया। उसने जो लकीर खींची उसे पार करना तो दूर, उसके क़रीब भी कोई दूसरा नहीं पहुंच सका। साहिर लुधियानवी मार्क्सवादी और इंक़लाबी मिज़ाजके शायर रहे। सड़ी–गली क़दरों के दुश्मन और समाज को आमूल–चूल बदलने वाली क़दरों के दोस्त। ख़्वाज़ा अहमद अब्बास ने ‘वह उधार बाक़ी रह गया’ उन्वान से साहिर को एक ‘खुली चिट्ठी’ लिखी थी जब वह पाकिस्तान में थे। वह लिखते हैं कि, “साहिर ‘जादूगर’ को कहते हैं। इसलिए जब लुधियाना के अब्दुल हई ने ‘साहिर’ तख़ल्लुस अख़्ितयार किया तो वाकई जादू जगा दिया। ये साहिरी और शायरी एक दूसरे का नेमुल–बदल थीं। दोनों एक ही हस्ती के मुख़तलिफ़ रूप थे। साहिर का जादू लोगों के सिर पर चढ़कर बोलते देखा है।”(3)

दोनों दोस्तों ने आकाशवाणी के प्रोग्रामों में मिलकर गीतकारों–शायरों का नाम के लिए़ रेडियो के डायरेक्टर जनरल से बात की। अब्बास लिखते हैं अब, “हर गाने के साथ शायर का नाम आता है, और यह कोई कम कामयाबी नहीं है। और साहिर तो हमेशा शायरों और अदीबों के हुकूक के लिए जद्दोजहद करते रहे। ख़्वाह जंग गवर्नमेंट से हो या प्रोड्यूसरों से।”(4) सन् 1949 में सरकार ने उनके नाम वारंट जारी कर दिया। अपने एक लेख ‘फ़िल्मी और अदबी शायरी ‘एक जायज़ा’ में वह लिखते हैं कि नग़मानिगार को, “ये ख़्याल रखना पड़ता है कि मुल्क के दूर–दराज़ गोशों (क्षेत्रों) में बसने वाले अवाम को जिनकी अक्सरीयत (बहुमत) आज भी अनपढ़ है और जिनकी मादरी ज़बान उर्दू या हिन्दी नहीं है, इन नग़मों को मफ़्हूम (आसानी से) समझ सकें।”(5)

फ़िल्म लेखक इब्राहीम जलीस लिखते हैं कि, “फ़िल्मी दुनिया में संगीतकारों को एक गीतकार से ऊँचा समझने की परम्परा रही है। रिलीज़ करने के लिए फ़िल्म ख़रीदने से पहले वितरक भी इस जानकारी से सन्तुष्ट होना चाहते हैं, ‘संगीत किसने दिया है? नौशाद, एस डी बर्मन, शंकर–जयकिशन? किसने? किसी वितरक ने आज तक गीतकार का नाम नहीं पूछा। लेकिन साहिर और मजरूह ने इस परम्परा को बदलने का काम किया। वे जब गीत लिखते थे तो संगीतकार के बारे में कोई नहीं पूछता था।” (जलीस 1910 : 55)(6) साहिर शायर और एक्टिविस्ट होने के विरल उदाहरण रहे। उन्होंने सामाजिक ताने–बाने में बड़ी ज़िम्मेदारी और गम्भीरता के साथ राजनीति को जोड़ा। साहिर के इस महत्वपूर्ण योगदान पर जां निसार अख़्तर लिखते हैं कि, “उन्होंने सौन्दर्य, अनुभूति और बोधगम्यता को एक साथ इस तरह प्रस्तुत किया कि प्रेमियों के मिलन की खुशी और बिछोह की पीड़ा एकाकार हो गयी। फ़िल्मों के लिए लिखते हुए साहिर ने न तो खुद को नीचे गिरने दिया और न प्रगतिशील आन्दोलन के बुनियादी उसूलों के साथ फ़रेब किया। उन्होंने हमेशा अपनी शायरी में उन्हीं लोगों की नुमाइन्दगी की जो उनसे अपने गीतों के ज़रिये समाज में बदलाव की उम्मीद रखते थे। उनके गीत उस शायर के गीत थे जो अपनी ज़िम्मेदारियों को बखूबी जानता था, और उनकी इस उपलब्धि के लिए मैं उन्हें दिली मुबारकबाद देता हूँ।”(अख़्तर 1985 : 393–398)(7)

साहिर सदैव मेहनतकश जनता के पक्ष में लिखते–गाते रहे। किसान–मज़दूर और शोषितों के अधिकार के लिए अपनी कलम को हथियार बनाते रहे। हम सभी साहिर के शुक्रगुज़ार हैं। उन्होंने देश–दुनिया के बदलते हालात देख कर ही कहा था कि,

आज मैं अपने गीतों में आतिशपारे1 भर दूँगा

मद्धम लचकीली तानों में जीवट–धारे भर दूँगा

जीवन के अंधियारे पथ पर मशअल लेकर निकलूँगा

धरती के फैले आँचल में सुर्ख़्ा सितारे भर दूँगा

(1– आग के टुकड़े)

आज से ऐ मज़दूर किसानो! मेरे राग तुम्हारे हैं

फ़क़ाकश इनसानो! मेरे जोग बिहाग तुम्हारे हैं

जब तक तुम भूखे नंगे हो, ये शोले ख़ामोश न होंगे

जब तक बे–आराम हो तुम, ये नग़्मे राहत–कोश न होंगे

वह इतिहास से नया बोध लेकर बदलाव का समाजवादी रास्ता ढूँढते हैं और मेहनतकश अवाम से वादा करते हैं कि,

तुमसे क़ुव्वत1 लेकर अब मैं तुमको राह दिखाऊँगा

तुम परचम लहराना साथी मैं बरबत2 पर गाऊँगा

आज से मेरे फ़न का मक़सद3 ज़ंजीरें पिघलाना है

आज से मैं शबनम के बदले अंगारे बरसाऊँगा

(1– ताक़त  2– उद्देश्य  3– तार वाद्य)

साहिर दुनिया भर की हलचलें ग़ौर से देख–समझ रहे थे। विश्व युद्ध ने धरती को खून से रंग दिया था। फ़ासिस्ट ताक़तें क़त्ल करने के भयानक तरीक़ों को अंजाम दे रही थीं। जनता के हक़ में आवाज़ उठाने वाला शायर ‘रहबरे मुल्क’ से पूछता है,

ऐ रहबरे मुल्को क़ौम बता

आँखें तो उठा नज़रें तो मिला

कुछ हम भी सुने हम को भी बता

ये किसका लहू है कौन मरा

ऐ रहबरे मुल्को क़ौम बता

चारों ओर मौत के बावजूद ज़िन्दगी है। घनघोर अंधेरे के बीच भविष्य की चमकीली किरनें भी हैं। जनता का कवि किसी भी सूरत में आस का दामन नहीं छोड़ता। जेल, यातनाघर, गैस चेम्बर, बेइन्तहा शारीरिक और मानसिक अत्याचार, भूख, ग़रीबी, भीख, सूली और क़त्लगाह के बीच भी साँसें चलती हैं और आदमी ज़िन्दा होता है। संगीतकार रवि 1970 में बनी फ़िल्म ‘समाज को बदल डालो’ के एक गीत में कोरस का असरदार प्रयोग करते हैं,

पूँजीवाद से दब न सकेगा, ये मज़दूर किसान का झण्डा

मेहनत का हक़ लेके रहेगा, मेहनतकश इनसान का झण्डा

योद्धा और बलवान हमारा, हमारा प्यारा लाल निशान

इस झण्डे से साँस उखड़ती चोर मुनाफ़ा–ख़ोरों की

जिन्होंने इनसानों की हालत कर दी डंगर–ढोरों की

उनके खिलाफ़ ऐलान हमारा, प्यारा लाल निशान

फ़ैक्टिरियों के धूल–धुएँ में हमने खुद को पाला

खून पिलाकर लोहे को इस देश का भार सम्भाला

मेहनत के इस पूजाघर पर, पड़ न सकेगा ताला

देश का साधन, देश का धन है जान ले पूँजीवाला

जीतेगा मैदान, हमारा प्यारा लाल निशान

धरती माँ का मान, हमारा प्यारा लाल निशान

साम्राज्यवादी ताक़तों और दौलत के इजारेदारों ने क्रान्तिकारियों के ‘लाल निशान’ को मिटाने के लिए दुनिया को युद्ध की भट्टी में झोंक दिया। साहिर लिखते हैं,

अपने अन्दर ज़रा झाँक मेरे वतन

अपने ऐबों को मत ढाँक मेरे वतन

तेरा इतिहास है खूँ से लिथड़ा हुआ

तू अभी तक है दुनिया में पिछड़ा हुआ

तूने अपनों को अपना न माना कभी

तूने इनसाँ को इनसा न जाना कभी

तेरे धर्मों ने ज़ातों1 की तक़्सीम2 की      

 

तेरी रस्मों ने नफ़रत की तालीम दी

वहशतों3 का चलन तुझमें जारी रहा

क़त्लो–खूँ का जुनूँ4 तुझ पे तारी रहा

अपने अन्दर ज़रा झाँक मेरे वतन 

(1– जाति,  2– विभाजन, 3– भय, 4– पागलपन)

उभरते हुए वामपंथी सूर्य की लालिमा पर कालिख पोतने के लिए साम्राज्यवादी शक्तियों ने हर तरह के कुकर्म किये। उन्होंने धर्म के दकियानूसी और अमानवीय पक्ष को बढ़ावा दिया। पूजाघरों के लिए करोड़ों–करोड़ के चन्दे बैंकों और दान के नाम पर अवैधानिक ढंग से जुटाए गये। आज साहिर होते तो देखते कि प्रिंट और सोशल मीडिया सरकार की ग़ैर क़ानूनी हरकतों को जनता के सामने लाने के बजाय उन्हें छुपा कर लोकतंत्र की हत्या कर रहे हैं। इलेक्टोरल बॉण्ड के ख़रीद–फ़रोख़्त का मामला कुछ ऐसा ही है। अब यह सच सामने आ गया है कि भारत के सबसे बड़े बैंक ‘स्टेट बैंक ऑफ़ इण्डिया’ ने इलेक्टोरल बॉण्ड के ज़रिये सरकार के लिए अवैध ढंग से धन जुटाये और सुप्रीम कोर्ट को आधी–अधूरी जानकारी देकर भरमाया। ग़ौरतलब है कि स्टेट बैंक ऑफ़ इण्डिया ने ‘सुप्रीम कोर्ट के संवैघानिक पीठ (बेंच)’ को जो जानकारी दी, उसमें बॉण्ड के नम्बर नहीं दिये गये थे। दान देने वाले और दान पाने वाले के सम्बन्धों और फ़ायदों के बारे में भी गोलमोल बातें की गयी थीं। पाठक स्वयं सोचें कि भारतीय स्टेट बैंक के चेयरमैन का व्यवहार कितना शातिराना था? वह मंजे हुए ठग की तरह खेल खेल रहा था। लेकिन सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश की बेंच ने सारा खेल उजागर कर दिया। साहिर ने 1970 में बनी फ़िल्म ‘नया रास्ता’ के लिए एक गीत रचा था जिसे संगीतकार एन दत्ता ने मोहम्मद रफ़ी साहब की जादुई आवाज़ में रिकॉर्ड किया था। इस गीत में वह लिखते हैं,

तू द्रविण है या आर्य नस्ल है

जो भी है अब इसी ख़ाक की फस्ल है

रंग और नस्ल के दायरे से निकल

गिर चुका है बहुत देर अब तो सम्भल

तेरे दिल से नफ़रत न मिट पाएगी

तेरे घर में गुलामी पलट आएगी

तेरी बर्बादियों का तुझे वास्ता

ढूँढ़ अपने लिए अब नया रास्ता

अपने अन्दर ज़रा झाँक मेरे वतन

अपने ऐबों को मत ढाँक मेरे वतन

ऐबों को अलग–अलग विशेषण देकर ढाँका ही तो जा रहा है। साहिर केे सीने से देश के विभाजन का काँटा कभी निकला ही नहीं। उनकी ख़ासियत है कि वह निराश नहीं होते। अपनी रचनाओं में वह जीवन की लौ को बचाए रखते हैं। जर्मन सीमा पार करते हुए रूसी सेनाओं का इस्तक़बाल करते हैं,

सुर्ख़्ा तूफ़ान की मौजों को जकड़ने के लिए

कोई ज़ंजीरे–गिरां1 काम नहीं आ सकती

रक्स2 करती हुई किरनों के तलातुम3 की क़सम

अर्सा–ए–दहर4 पे अब शाम नहीं छा सकती

(1– बोझल ज़ंजीर  2– नश्त्य  3– तूफ़ान  4– जीवन पर)

जीवन की नाचती–गाती सुबह पर धुँआती शाम का छाना उन्हें किसी क़ीमत पर मंज़ूर नहीं था। देश का बँटवारा उन्हें दुखी करता था। हिन्दुस्तान और पाकिस्तान एक दिल के दो टुकड़े थे। कभी एक जान थे लेकिन अब जानी दुश्मन हैं। यह दुश्मनी ब्रिटिश साम्राज्यवाद की साज़िश थी। 15 अगस्त 1947 को जश्ने–आज़ादी पर उन्होंने ‘मफ़ाहमत’ (समझौता) शीर्षक रचना में कहा कि,

ये शाख़्ो–नूर1 जिसे ज़ुलमतों2 ने सींचा है

अगर फली तो शरारों के फूल लायेगी

न फल सकी तो नयी फ़स्ले–गुल3 के आने तक

ज़मीरे–अर्ज़4 में इक ज़हर छोड़ जायेगी

(1– प्रकाश की शाखा  2– अंधेरों ने  3– वसन्त ऋतु  4– धरती की आत्मा)

समझौते भी दो तरह के होते हैं। एक, सामने और दूसरा, पीछे। समझौते की राजनीति ने ज़्यादातर बेड़ा गर्क़ किया है। सत्ता पक्ष की आलोचना हुई कि सेंसर की तलवार चली। सेंसर यानी प्रतिबंध। कोई भी सरकार यदि प्रतिबंध लगाती है तो वह नागरिकों के खुल कर बोलने, लिखने के मौलिक अधिकार का अतिक्रमण करती है और यह किसी भी सभ्य समाज के लिए निहायत शर्म की बात है। साहिर ‘लहू नज़्र दे रही है हयात’ रचना में कहते हैं,

दिलों पे ख़ौफ़ के पहरे, लबों पे क़ुफ़्ले–सुकूत1

सिरों पे गर्म सलाख़ों के शामियाने हैं

क़दम–क़दम पे लहू नज़्र2 दे रही है हयात3

सियाहियों से उलझते हुए चिराग़ों को

(1– चुप्पी के ताले  2– भेंट  3– ज़िन्दगी)

वह इस बात को अच्छी तरह समझ गये थे कि तर्कपूर्ण  शिक्षा और वैज्ञानिक बोध के अभाव में भारतीय समाज ठहरे हुए पानी की तरह हो गया है, जहाँ इनसान और इनसानियत बुरी तरह घायल हैं। वह ‘परछाइयां’ नज़्म में लिखते हैं,

इनसान की क़ीमत गिरने लगी, अजनास1 के भाओ चढ़ने

चौपाल की रौनक़ घटने लगी, धरती के दफ़ातर2 बढ़ने लगे

बस्ती सजीले शोख़ जवाँ, बन–बन के सिपाही जाने लगे

जिस राह से कम ही लौट सके, उस राह पे राही जाने लगे

(1– अनाजों के  2– दफ्त़र)

साहिर उन दिनों की याद करते हैं जब चौपाल गुलज़ार हुआ करते थे। चौपाल, गाँव की संसद थी, जहाँ समस्याएँ सुलझाई जाती थीं। गाँव–जवार के विकास की योजनाएँ बनती थीं और उन पर अमल होता था। यह एकल प्रदर्शन नहीं बल्कि सामूहिक प्रदर्शन होता था। 1957 में उन्होंने फ़िल्म ‘नया दौर’ के लिए एक गीत लिखा, ‘साथी हाथ बढ़ाना’। संगीतकार ओ पी नैयर ने रफ़ी साहब से कुछ अलग अन्दाज़ मे गवाया। यह अन्तरा याद कीजिए,

मेहनत अपने लेख की रेखा, मेहनत से क्या डरना

कल ग़ैरों की ख़ातिर की, आज अपनी ख़ातिर करना

अपना दुख भी एक है साथी, अपना सुख भी एक

अपनी मंज़िल सच की मंज़िल अपना रस्ता नेक

साथी हाथ बढ़ाना—

सच्चाई और नेकी का रास्ता कभी आसान नहीं रहा। हराम की कमाई खाने वाले सौदागरों ने किसानों, मज़दूरों और कामगारों को लूटने की योजना बनाकर उस फुलवारी पर ही बलात क़ब्ज़ा कर लिया जो किसानों–मजूरों का था और जिसमें उनकी मेहनत का रंग फूलता और फ़िजाओं को खुशनुमा बनाता था। साहिर का एक शे’र है,

हमीं से रंगे–गुलिस्तां हमीं से रंगे–बहार

हमीं को नज़्मे–गुलिस्तां1 पे इख़्ितयार नहीं

(1– फुलवारी की व्यवस्था पर)

बाग़ के मालिक को जमीन्दारों ने बंधुआ मज़दूर बना दिया। उल्टी गंगा बहने लगी और ठग–पुराण का मॉडर्न अध्याय रचा जाने लगा। आम जनता को जोड़ने वाली हर कड़ी पर ठगों की नज़र थी। भाषा, बोली और विभिन्न धर्मों को मानने वालों के विश्वासों और उनकी धर्मनिरपेक्ष मान्यताओं पर हमला किया गया। हिन्दी और उर्दू के बीच ग़लतफ़हमियाँ पैदा की गयीं और ज़बान को लेकर हिन्दू को देशभक्त और मुसलमान को गद्दार कहा गया। जानकी प्रसाद शर्मा जी ने ध्यान दिलाया कि, “साहिर के मन में भारतीय भाषाओं के प्रति आदर है। उन्हें रंज है तो इस बात का कि आज़ादी के बाद उर्दू को इताब (गुस्से) का शिकार क्यों बनाया गया? उसे ग़द्दार ज़बान क्यों ठहराया गया? साहिर द्वारा उठाये गये इन सवालों की गम्भीरता को जनसंघ के संस्थापक सदस्य बलराज मधोक के उर्दू विषयक वक्तव्य से समझा जा सकता है, जिसमें उन्होंने उर्दू को ‘इस्लामी अलगाववाद के सबल माध्यम’ के रूप में देखा है। 30 जुलाई 1990 के ‘नवभारत टाइम्स’ में प्रकाशित लेख में कहते हैं : “उर्दू की राजनीति के पीछे भाषा के रूप में प्रेम नहीं है, इसका मुख्य उद्देश्य इसके द्वारा मुसलमानों को शेष भारतीयों से अलग पहचान बनाये रखना है और इसे इस्लामी अलगाववाद के सबल माध्यम के रूप में प्रयोग करना है। इसलिए अरबी लिपि में लिखी उर्दू को सभी मुसलमानों की मातृभाषा के रूप में पेश किया जा रहा है, दूसरी राजभाषा का दर्जा और विशेष संरक्षण की माँग उठाई जा रही है।” भाषायी प्रतिक्रियावाद का यह विचार, जिसके विरोध में ‘जश्ने ग़ालिब’ नज़्म लिखी गयी है, जब आगे पल्लवित होता है, तब और भयानक रूप ले लेता है और उर्दू को दहश्शतगर्दों की भाषा कहा जाने लगता है।

आज भी उर्दू और मुसलमानों को लेकर अनाप–शनाप बयान दिये जा रहे हैं। उनकी देशभक्ति और धार्मिक निष्ठा पर सन्देह किया जा रहा है। “दिल्ली के इन्द्रलोक में सजदे में झुके इनसान को पुलिसकर्मी ने ठीक उसी अन्दाज़ में किक किया था जैसे की फुटबॉल को मारते हैं। फ़र्क़ इतना था कि फुटबॉल की जगह इनसान का बदन था, जो इबादत कर रहा था।”(9)

साहिर ने सन् 1945 ई– में आयोजित अखिल भारतीय कान्फ्रेंस (हैदराबाद) में एक पर्चा पढ़ा था, ‘जंग और नज़्म’। “तरक़्क़ीपसन्द शाइर जो ज़िन्दगी को ज़्यादा से ज़्यादा सुन्दर और सन्तुलित बनाने का मक़सद लेकर निकले हैं, इस नाज़ुक लम्हे पर–– ऐसे लम्हे पर जो आयन्दा सदियों के लिए इनसानियत की क़िस्मत का फैसला कर रहा था, कला की बारीकियों में उलझ कर मुल्क, क़ौम और इनसानियत के साथ गद्दारी नहीं कर सकते थे। उन्हें प्रोपेगण्डा करना था, उन क्रूर वहशी और रक्तपायी ताक़तों के खिलाफ़ प्रोपेगण्डा करना था जो इनसानों से उनकी तमाम श्रेष्ठ कल्पनाओं को छीन लेना चाहती थीं। जो चाहती थीं कि उन तमाम ख़्वाबों को चकनाचूर करके रख दें जिन्हें स्वतंत्रता, शान्ति और समानता के उसूलों ने परवान चढ़ाया है। नस्ली भेदभाव और भाईचारा, आज़ादी और गुलामी, रौशनी और अंधकार, सच और झूठ के द्वंद्व  के साथ उन्हें अवाम की भावनाओं को उभारना था, उन्हें मायूसी और हताशा के गिर्दाब (भँवर) से बचाना था, उन्हें शान्ति की ताक़त से आगाह करना था। चुनाँचे उन्होंने प्रोपेगण्डा किया और मैं समझता हूँ की शाइरी अगर महज़ अल्फ़ाज़ की तिलिस्म आराई (सजावटी) नहीं है, इसका कोई मक़सद है, और शाइर अगर महज़ दीवाना या मजनूँ नहीं, बल्कि समाज का एक ज़िम्मेदार सदस्य भी है तो तरक़्क़ीपसन्दों को अपने इस प्रोपेगण्डे पर फ़ख़्र करना चाहिए।(10)

प्रतिक्रियावादी ताक़तें अक्सर अपना बाल नोचती हैं और उलाहना देती हैं कि शाइरी को बड़बोला नहीं होना चाहिए, प्रोपेगण्डिस्ट तो बिल्कुल नहीं और सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक मामलों में तो कतई नहीं पड़ना चाहिए। शाइरी तो मनोरंजन और आनन्द है, कोई क्रान्ति का साज़ो–सामान नहीं। अपने आक़ाओं के खिदमत में लगे आज के हुक्मरान भी जनता जनार्दन को यही सिखाते नज़र आते हैं कि महफ़िलें सजाओ, झूमो, नाचो, गाओ। इससे ज़्यादा कुछ नहीं। अगर आपने उनकी बात नहीं मानी तो हुज़ूर अपना बेड़ा गर्क़ समझिए। साहिर ‘कुछ बातें’ रचना में जवाब देते हैं,

देश के अदबार1 बातें करें,

अजनबी सरकार की बातें करें।

अगली दुनिया के फ़साने छोड़कर

इस जहन्नुमज़ार की बातें करें।

हो चुके औसाफ़2 पर्दे के बयां,                                          

शाहदे–बाज़ार3 की बातें करें।            

दहर4 के हालात की बातें करे,

इस मुसलसल रात की बातें करें।

मन–ओ–साल्वा5 का ज़माना जा चुका,

भूक और आफ़ात6 की बातें करें।

आओ परखें दीन के औहाम7 को  

इल्मे–मौजूदात8 की बातें करें।           

जाबिरो–ओ–मजबूर की बातें करें,

इस कुहन9 दस्तूर10 की बातें करें।

ताजे–शाही के क़सीदे11 हो चुके,                       

फ़ाक़ाकश जमहूर12 की बातें करें। 

गिरने वाले क़स्र13 की तौसीफ़14 क्या?

तेशा–ए–मज़दूर15 की बातें करें।

(1– दरिद्रताओं की, 2– खूबियों के, 3– वेश्याओं की, 4– संसार के, 5– जब खुदा नेक बन्दों के लिए खाना भेजता था, 6– आफ़तो की, 7– धर्म के भ्रम को, 8– वर्तमान वस्तुओं के ज्ञान, 9– पुराने  10– रिवाज, 11– प्रशंसा काव्य, 12– भूखी जनता, 13– राजमहल  14– तारीफ़, 15– मज़दूर के फावड़े के साथ ‘फरहाद’ और समाजवादी युग की ओर संकेत)

साहिर की नज़रों से आप अपने युग को देखिए और उनके सवाल खुद से पूछिए, जनता से पूछिए। सारी धाँधलियाँ, सारे फ़रेब सामने आ जाएँगे। ‘प्रशंसा काव्य’ का ज़माना लौट आया है। खाये–पिये–अघाये लोग एक शख़्स को खुदा बना कर जयकारे लगा रहे हैं। आधुनिक काल में ‘रीतिकाल’ का रक्स। मेहनतकश अवाम के दु:ख–दर्द,  भुखमरी, बेरोज़गारी, औरतों पर ज़ुल्म, बड़े बूढ़ों के अकेलेपन की अनसुलझी समस्याएँ पर्दे के पीछे डाल दी गयी हैं। मंच पर आनन्दोत्सव है और मंच के पीछे रुदन है, शोक है, अकाल मृत्यु है। साहिर अपनी नज़्म ‘परछाइयां’ में सियासत का असली रूप दिखाते हैं,

बहुत दिनों से है ये मश्ग़ला1 सियासत का

कि जब जवान हों बच्चे तो क़त्ल हो जाएं

बहुत दिनों से ये ख़ब्त2 हुक्मरानों का

कि दूर–दूर के मुल्कांे में क़हत3 बो जाएं

ये सरज़मीन है गौतम की और नानक की

इस अर्ज़े–पाक4 पे वहशी न चल सकेंगे कभी

हमारा खून अमानत है नस्ले–नौ5 के लिए

हमारे खून पे लश्कर न पल सकेंगे कभी

कहो कि आज भी अगर ख़ामोश रहे

तो इस दमकते हुए ख़ाकदां6 की खैर नहीं

जुनूं7 की ढाली हुई एटमी बलाओं से

ज़मीं की खैर नहीं, आसमाँ की खैर नहीं

(1– व्यसन   2– पागलपन  3– अकाल  4– पवित्र धरती  5–नयी पीढ़ी  6– दुनिया  7– उन्माद)

हमें जल, जंगल, ज़मीन, आसमान और नयी पीढ़ी को महफ़ूज़ रखना है तो उन्हें जंग का विरोध करने और परमाणु हमले से पवित्र धरती को बचाये रखने के लिए तैयार करना होगा। साम्राजी नज़रिये से लिखे और प्रचारित–प्रसारित किये गये झूठे और साम्प्रदायिक इतिहास को रद्द कर लोकतांत्रिक और वैज्ञानिक पद्धति को अपनाना होगा। सच्चा इतिहास जनता के सामने लाना होगा। “साहिर ने दुनिया को बहुत कुछ दिया। अगर न भी दिया होता तो ख़्वाब ज़रूर दिये। वो ख़्वाब जो काइनात की तामीर के लिए ज़रूरी है और मानवता के लिए लाज़िमी। ‘ख़्वाब’ साहिर की शाइरी का केन्द्रिय तत्व है। साहिर के ख़्वाबों का एक वैश्विक धरातल है–– आर्थिक आज़ादी, शांति, न्याय और समानता के ख़्वाब। खुद साहिर ने लिखा है : “हर नौजवान नस्ल को यह कोशिश करनी चाहिए कि उसे जो दुनिया अपने बुज़ुर्गों से विरसे में मिली है, वो आयन्दा नस्लों को उससे बेहतर और खूबसूरत दुनिया देकर जाये।”(11)

दुनिया को बेहतर बनाने के लिए साहिर ज़िन्दगी भर लड़ते रहे। उनका मानना था कि हर समस्या को बातचीत से सुलझाया जा सकता है, लेकिन बम–बारूद और हथियार बना कर करोड़ों–करोड़ जोड़ने वाले भला बातचीत के लिए क्यों कर राज़ी होंगे? अपनी एक नज़्म ‘ऐ शरीफ़ इनसानों’ में कहते हैं,

टैंक आगे बढ़ें के पीछे हटें

कोख धरती की बाँझ होती है

फ़तह का जश्न हो कि हार का सोग

ज़िन्दगी मैयतों पे रोती है

जंग तो खुद ही एक मसला है

जंग क्या मस्अलों का हल देगी

इसलिए ऐ शरीफ़ इनसानों!

जंग टलती रहे तो बेहतर है

आप और हम सभी के आंगन में

शम्अ जलती रहे तो बेहतर है

हर घर–आँगन में रौशनी के लिए वह आखिरी साँस तक अंधेरों से जूझते रहे। पाकिस्तान में फौजी हुकूमत ने जब प्रगतिशील लेखकों, शायरों और पत्रकारों को जेलों में बन्द किया तो उन्होंने विरोध करते हुए नज़्म ‘आवाज़े–आदम’ में लिखा कि,

दरें ज़िन्दा1 से देखें, या उरूज़े–दार2 से देखें

तुम्हें रुसवा सरे–बाज़ारे–आलम3 हम भी देखेंगे

(1– कारागार के द्वार से   2– सूलियों की ऊँचाई से  3– संसार रूपी बाज़ार में)

केन्द्र और राज्य सत्ता पर बैठी सरकारें चलती हैं तो इन्हीं ‘अंधकार के बेटों’ के बल पर। उद्योग–धंधे और सारे आर्थिक कारोबार के मालिक राजनीतिक आक़ाओं के पीछे होते हैं। इनकी मिलीभगत एक–दूसरे की पीठ खुजाती रहती है। पैसे कॉरपोरेट फेंकता है और सरकारें ‘अपने मुँह मियाँ मिट्ठू बन’ कॉरपोरेट के कंधे पर चढ़ अपनी उपलब्धियों का ढोल पीटती हैं और बदले में कॉरपोरेट जगत को जनता को खुल कर लूटने का लाइसेन्स देती है। चारो ओर सरकार की तारीफ़ में रंगे पोस्टर, बैनर, होर्डिंग–बोर्डिंग चमकते दिखाई पड़ते हैं। वादे, सपने, गारंटी और वारंटी का खेल दिन–रात चलता है और जनता लहूलुहान होती है।

सन् 1958 में बनी फ़िल्म ‘सोने की चिड़िया’ में वह गीत लिखते हैं ‘रात भर का है मेहमाँ अंधेरा’। गीत की स्वर–लहरियाँ आज भी उम्मीद और हौसला बढ़ाती हैं,

कुछ और बढ़ गये अंधेरे तो क्या

मायूस तो नहीं हैं तुलू–ए–सहर1 से हम

(1– भोर का उदय होना)

रात जितनी भी संगीन होगी

सुबह उतनी ही रंगीन होगी

संगीन रात की रंगीन सुबह आसानी से नहीं होगी। मोहब्बत के दुश्मनों को भोर की लाली पसन्द नहीं है। लाल रंग ख़तरे का संकेतक है, साथ ही साथ वह जीवन, क्रांति और वामपंथ का प्रतीक भी है। वामपंथ को हिन्दुस्तान और पाकिस्तान में कठोर संघर्ष करना पड़ा है। पाकिस्तान में तो कम्युनिस्ट आन्दोलन को कुचल दिया गया।

आज़ादी और समृद्धि के नाम पर हमारे सियासी रहनुमाओं ने अपनी ज़िम्मेदारियाँ नहीं निभार्इं। जनता की जगह उन्होंने उद्योगपतियों को तरजीह दी। सच बोलने की इजाज़त सत्ता कभी नहीं देती, लेकिन सच्चा देशभक्त अंजाम की परवाह किये बिना सच बोलता है ‘लब पे पाबन्दी’ ग़ज़ल में साहिर अर्ज़ करते हैं,

अपनी ग़ैरत बेच डालें अपना मस्लक1 छोड़ दें

रहनुमाओं में भी कुछ लोगों का ये मंशा तो है

है जिन्हें सब से ज़ियादा दा’वा–ए–हुब्बुल–वतन2

आज उनकी वज्ह से हुब्बे–ए–वतन रुसवा तो है

बुझ रहे हैं एक इक कर अकीदों3 के दिये

इस अंधेरे का भी लेकिन सामना करना तो है

झूट क्यों बोलें फ़रोग़–ए–मस्लहत4 के नाम पर

ज़िन्दगी प्यारी सही लेकिन हमें मरना तो है

(1– तरीक़ा   2– देशभक्ति की भावना  3– आस्था  4– सुलह सफाई के लिए)

साहिर को भविष्य की भयावहता का अन्दाज़ा हो गया था। निजी सुख और रसूख के लिए अपना ईमान बेच देने वालों की संख्या तब के मुक़ाबले आज कई गुना बढ़ चुकी है। इन भ्रष्ट और बिके हुए राजनीतिज्ञों ने दुनिया को क़त्लगाह बना डाला है। इज़राइल और फ़िलीस्तीन के जंग ने मानवता की धज्जियाँ उड़ा डाली हैं। खाने की लाइन में लगे नागरिकों को मारा जा रहा है। अब तक बत्तीस हज़ार फ़िलीस्तीनी मारे जा चुके हैं। ‘गाजा पट्टी’ की तेईस लाख आबादी का एक तिहाई भुखमरी की कगार पर है। ये ज़ालिम हर मुल्क में फैले हुए हैं। मास्को के कन्सर्ट हॉल में  संगीत के आनन्द में रमे हुए मासूम लोगों पर इन आतंकियों ने गोलियाँ बरसार्इं। 143 लोग मारे गये। रमज़ान के पवित्र महीने में युद्धविराम के सभी प्रस्तावों को इज़राइल ठुकरा चुका है। वह दूसरे देशों से आने वाली सहायता सामग्री को ज़रूरतमन्दों तक पहुँचने नहीं दे रहा है। सन् 1962 में फ़िल्म ‘धर्मपुत्र’ के एक गीत में साहिर ऐसे ही हालात के बारे में पूछते हैं,

ये जलते हुए घर किसके हैं, ये फटते हुए तन किसके हैं

तक़्सीम1 के अंधे तूफ़ां में लुटते हुए गुलशन किसके हैं

बदबख़्त2 फ़िज़ाएँ किसकी हैं, बर्बाद नशेमन3 किसके हैं

कुछ हम भी सुनें, हमको भी सुना

(1–विभाजन   2–बदनसीब  3–घर)

पत्रकार–लेखक राजेश बादल अपने संस्मरण में लिखते हैं कि, “दुनिया की उन तमाम ताक़तों को साहिर ललकारता नज़र आता है। वो उन मुल्कों को लानत भेजता है, जो अमन की बातें करते हैं और अपने कारखानों में गोला–बारूद बनाकर तमाम देशों में धंधा करते हैं। वो कहते हैं,

तुम ही तजवीज़े सुलह1 लाते हो,

तुम ही सामाने जंग बाँटते हो

तुम ही करते हो क़त्ल का मातम,

तुम ही तीरो–तुफं़ग2 बाँटते हो

(1–समझौते का प्रस्ताव   2–बन्दूकें)(13)

नि:स्वार्थ प्रेम, समरसता और प्रकृति का दुर्लभ मेल ही साहिर का जीवन और रचना कर्म है। इस मेल को विषाक्त करने वालों को जनता की अदालत में उजागर करते हैं। एक गीत में वह लिखते हैं,

क्या मिलिए ऐसे लोगों से जिनकी फ़ितरत छुपी रहे

नकली चेहरा सामने आए असली सूरत छुपी रहे

रोज़ा लक्ज़मबर्ग का ‘घर’ ही साहिर का ‘नशेमन’ है। इस घर की रौनक अब नहीं रही। धरती को ‘एटीएम’ मशीन बनाने वालों ने नशेमन को खण्डहर में बदल डाला। कुदरत की नेमतों में इजाफ़ा करने वालों को धर्म की तलवार से डराया गया। पंडित, मुल्ले, मौलवी और पादरियों ने प्रेम को, इश्क़ को, अल्लाह और रसूल को ईसा मसीह की तरह सूली पर चढ़ा दिया। सन् 1960 में फ़िल्म ‘बरसात की रात’ के लिए साहिर साहब ने एक क़व्वाली लिखी जिसे महान् संगीतकार रौशन ने संगीतबद्ध किया। इस क़व्वाली को मोहम्मद रफ़ी, मन्ना डे, बलबीर, एस डी बातिश, आशा भोसले और सुधा मल्होत्रा की आवाज़ सुनने वालों को रसात्मक अनुभव के नये धरातल पर ले जाती है। कोरस की स्वर लहरियाँ स्मश्तियाँ जगाती हैं और सच के रू–ब–रू खड़ा कर देती हैं। इश्क़ को हिन्दू और मुसलमान में बाँटने वाले कमज़र्फों को साहिर फटकारते हुए कहते हैं,

इश्क़ आज़ाद है हिन्दू न मुसलमान है इश्क़

आप ही धर्म है और आप ही ईमान है इश्क़

आज तो हर ओर डर की एक अदृश्य दीवार है। बोलना, सवाल पूछना, यहाँ तक कि ज़ोर से साँस लेना भी गुनाह है। एक ऐसा भी समय था जब लोग खुले मन से दुआ–सलाम करते थे। कोई ‘राम–राम’ कहता, कोई ‘जय सियाराम’, कोई ‘आदाब’ तो कोई ‘नमस्कार’, कोई ‘वाले–कुम–अस्सलाम’, तो कोई ‘सत्–श्री–अकाल’। अभिवादन के सभी रंग–ढंग मन को भाते थे और दिलों को एक–दूसरे से जोड़ देते थे। तब और अब में बहुत फ़र्क़ आ गया है। प्रेम की जगह अब भय आ गया है। आज जब कोई चीख़ते हुआ ‘जय श्री राम’ कहता है तो वह अभिवादन नहीं बल्कि धमकाता हुआ–सा लगता है। ‘राम’ को अशान्त और रौद्र रूप दे दिया गया है। 1975 में बनी फ़िल्म ‘दीवार’ के एक गीत में साहिर ‘डर’ और ‘चुप्पी’ का सच सामने लाते हैं,

राहें क़ातिल, सुब्हें मुजरिम, मुल्ज़िम है हर शाम

बाहर से चुप–चुप लगता है अन्दर है कुहराम

साहिर की याद में उनके जिगरी दोस्त और मशहूर शायर कैफ़ी आज़मी साहब ने लुधियाना के एक मुशायरे में पत्थर को भी पिघला देने वाली जज़्बाती नज़्म ‘साहिर कहाँ हो तुम?’ पढ़ी थी,

तुम्हारे शहर में आए हैं हम, साहिर कहाँ हो तुम?

ये रूपोशी तुम्हारी है सितम साहिर कहाँ हो तुम?

साफ़–साफ़ दिख जाएगा कि साधु बन कर लुटेरे ‘राम’ को ‘सिया’ से अलग कर रहे हैं। स्त्री और पुरुष के बीच दरारें पैदा कर रहे हैं। साहिर ने सन् 1959 में फ़िल्म ‘धूल का फूल’ के लिए एक नज़्म लिखी,

तू हिन्दू बनेगा न मुसलमान बनेगा

इनसान की औलाद है इनसान बनेगा

ग़ौरतलब है कि बेमेल राजनीतिक–धार्मिक गठबंधन इनसान और इनसानियत के रास्ते में काँटे ही बोते हैं। साहिर नवजात शिशु का रूपक लेते हैं। उससे खेलते–बतियाते हुए, उसे आने वाले वक़्त के तूफ़ान, शान्ति और इनसानियत का शिल्पी मानते हैं।

साहिर खुल कर कहते हैं कि जो धर्म नफ़रत सिखाए, इनसानों को जात–पात में बाँटे, धर्मग्रंथों को बम–बारूद में बदले उसे जड़ से मिटा देना चाहिए। उनका पैग़ाम है कि हर हाल में शिक्षित बनो। अपनी रचना ‘भारत माँ की आँख के तारो’ में लिखते हैं,

आप पढ़ो औरों को पढ़ाओ

घर–घर ज्ञान की जोत जगाओ

शिक्षा के क्षेत्र में आज भी हिन्दुस्तान बहुत पिछड़ा हुआ है। बच्चों का बस्ता तो ‘इल्म के फूलों का गुलदस्ता है’, भ्रष्ट राजनीतिज्ञों ने ज्ञान के पवित्र बस्ते को चुनाव प्रचार का अपवित्र माध्यम बना लिया है। राम–कृष्“ण–ईसा–बुद्ध–नानक की जगह उन्होंने अपनी तस्वीरें लगा दी हैं। आज़ाद और आत्मनिर्भर हिन्दुस्तान बनाने का सपना हमारे विद्वानों और संस्कृतिकर्मियों ने देखा था। उस सपने को धूर्त और दग़ाबाज़ नेताओं ने मटियामेट कर दिया। साहिर उन सपनों के बाबत सवाल दर सवाल पूछते हैं कि लूट की छूट क्यों?

आज समाजवाद के नाम पर लोकतंत्र का प्रहसन हमारे सामने है। विलियम शेक्सपियर ‘द टेम्पेस्ट’ नाटक में कहते हैं कि, “नरक ख़ाली है और सभी शैतान यहाँ हैं।” शैतान अपनी क़ब्रों से बाहर आकर और स्वर्ग जैसी अन्नपूर्णा धरती को नरक बनाने में जुट चुके हैं। इन्हीं शैतानों का सामना साहिर ने किया था और आने वाली नस्लों के लिए रास्ता हमवार किया था। साहिर का कृतित्व को आत्मसात करने के लिए उनके जीवन–संघर्ष को जानना ज़रूरी है।

साहिर लुधियानवी का जीवन आसान नहीं रहा। साहिर के पिता चौधरी फ़ज़ल मोहम्मद बिगड़े दिल ज़मींदार थे। अहंकार और अय्याशी में डूबे हुए। औरतें उनके लिए देह की भूक मिटाने का साधन भर थीं। उन्होंने ग्यारहवीं बीबी सरदार बेगम पर बेतहाशा ज़ुल्म किये थे। उनकी माँ ने उन्हें अपने दम पर पाला–पोसा, पढ़ाया–लिखाया। अपने और बेटे के हक़ के लिए अदालती लड़ाई लड़ी और बेटे की कस्टडी का मुक़दमा भी जीता। साहिर तब बहुत छोटे थे लेकिन दु:ख ने उन्हें अपनी उम्र से कहीं बड़ा बना दिया था। उन्होंने जज से कहा कि वह अपनी माँ के साथ ही रहना चाहते हैं। माँ को वह कभी नहीं भूल सके। उनके जीवन में कई स्त्रियाँ आर्इं। उनसे प्यार भी हुआ लेकिन वह कभी घर नहीं बसा सके। चाहने वालों से दिन–रात घिरे रहने के बावजूद वह अकेले ही रहे। अकेलेपन, शराबनोशी और ख़ामोशी ने उन्हें तोड़ कर रख दिया। दु:ख से वह टूटे, बिखरे पर हताश नहीं हुए। अपने को समेटा और कलम को रवानी दी।

अपने में घुटते रहना समझदारी नहीं है। अक़्लमन्दी इसमें है कि हर मरहले पर चर्चा हो, सदा उठे और हर फ़रियाद का न्यायपूर्ण ढंग से फ़ैसला हो। यह फ़ैसला तब ही होगा जब हम मन्दिर–मस्जिद के हवाले से फूट डालने की राजनीति करने वाले राजनीतिज्ञों और धर्माचार्यों को नाकाम करेंगे। साहिर लिखते हैं,

इलहाद1 कर रहा है मुरत्तिब2 जहाने–नौ3

दैरो–हरम4 के हीला–ए–ग़ारतगरी5 की खैर

(1– नास्तिकता 2– सम्पादन 3– नये संसार की 4– मंदिर–मस्जिद  5– फूट डालने की कोशिश)

भेड़ की खाल में छुपे भेड़िए को पहचान ज़रूरी है। उसकी असलियत को जनता के सामने लाकर ही हम साहिर लुधियानवी के वारिस हो सकते हैं और यही उनके प्रति हमारी सच्ची श्रद्धांजलि होगी।

सन्दर्भ

1– हर पल का शायर साहिर, सुरिन्दर देओल , प्रस्तावना : गोपी चन्द नारंग, अनुवाद : प्रभात मिलिन्द पृष्ठ 28।

2– उपर्युक्त, पृष्ठ 123।

3– दुनिया इन दिनों, संस्मरण : वह उधार बाक़ी रह गया, ख़्वाज़ा अहमद अब्बास, वर्ष : 13, अंक : 7, मासिक पत्र्किा, प्रधान सम्पादक : डॉ– सुधीर सक्सेना, सम्पादक : सरिता सक्सेना, भोपाल, मध्य प्रदेश, पृष्ठ 28। 

4– उपर्युक्त, पृष्ठ 29।

5– उपर्युक्त, पृष्ठ 22।

6– हर पल का शायर साहिर, सुरिन्दर देओल , प्रस्तावना : गोपी चन्द नारंग, अनुवाद : प्रभात मिलिन्द पृष्ठ 169।

7– उपर्युक्त, पृष्ठ 169।

8– उद्भावना, साहिर लुधियानवी विशेषांक, अंक 144–145, अतिथि सम्पादक के कलम से आलेख ‘वो फूल खिल के रहेंगे जो खिलने वाले हैं’, पृष्ठ 5। सम्पादक : अजेय कुमार, एच–55, सेक्टर 23, राजनगर, गाजियाबाद।

9– छत्तीसगढ़, सम्पादक : सुनील कुमार, रायपुर

10– उद्भावना, साहिर लुधियानवी विशेषांक, अंक 144–145, अतिथि सम्पादक के कलम से आलेख ‘वो फूल खिल के रहेंगे जो खिलने वाले हैं’, पृष्ठ 45। सम्पादक : अजेय कुमार, एच–55, सेक्टर 23, राजनगर, गाजियाबाद।

11– उपर्युक्त, पृष्ठ 154।

12– समकालीन तीसरी दुनिया, जनवरी 2015, सम्पादक : आनन्द स्वरूप वर्मा, आलेख : पाकिस्तान और कॉरपोरेट लूट, कॉमरेड लाल ख़ान, पृष्ठ 34।

13– दुनिया इन दिनों, संस्मरण : साहिर सदाबहार, राजेश बादल, वर्ष : 13, अंक : 7, मासिक पत्रिका, प्रधान सम्पादक : डॉ– सुधीर सक्सेना, सम्पादक : सरिता सक्सेना, भोपाल, मध्य प्रदेश, पृष्ठ 17।