असरार उल हक ‘मजाज’ : ए गमे दिल क्या करूँ
साहित्य विजय गुप्त(जन्म 19 अक्टूबर 1911 – निधन 5 दिसंबर 1955)
मजाज का कवि व्यक्तित्व फूल और आग का मिश्रण है। इस मिश्रण में फूल अधिक हैं, जो दुनिया को मिले, लेकिन आग ने मजाज के दिल में ही घर बनाया और उसने सिर्फ मजाज को ही जलाया। ‘हुस्न–ओ–इक’ नज्म में वह लिखते हैं कि,
मुझसे मत पूछ तिरे इक में क्या रक्खा है?
सोज को साज के परदे में छुपा रक्खा है
जगमगा उठती है दुनिया–ए–तखैयुल1 जिससे
दिल में वो शो’ला–ए–जाँसोज2 दबा रक्खा है
(1– कल्पनाओं की दुनिया 2– जान जला देने वाला शोला)
जान को जला देने वाले शोलों से उनकी कल्पना और कविता की दुनिया रौशन थी। वह जानते थे कि आग से फूलों का बाग नहीं बनाया जा सकता। इस गुस्ताख कोशिश में जाने कितने पैगंबर खाक हो चुके हैं। अपनी नज्म ‘फिक्र’ में वह कहते हैं,
आग को किसने गुलिस्ताँ न बनाना चाहा
जल बुझे कितने खलील1, आग गुलिस्ताँ न बनी
(1– इब्राहीम (पैगम्बर))
लेकिन उन्होंने आग से गुलिस्ताँ बनाया। आग को अपना घर बनाया। इस जानलेवा जतन में खुद जलते रहे, तबाह होते रहे लेकिन दुनिया को खुशबू, हुस्न और रौशनी से भरते रहे। इस रौशन दुनिया में उन अँधेरों को भी देखा जा सकता है जिसने मजाज के दिल को गम और वहशत से भर दिया था। आवारा बना दिया था।
शहर की रात और मैं नाशादो–नाकारा फिरूँ
जगमगाती जागती सड़कों पे आवारा फिरूँ
दुनियावी अर्थ में वह बिल्कुल आवारा थे। एक नाकामयाब इनसान। चैआलीस साल की छोटी सी जिन्दगी में उन्होंने बहुत से सदमें बर्दाश्त किये। प्रेम में ही नहीं, नौकरी में भी उन्हें नाकामयाबी मिली। ऑल इण्डिया रेडियो में ‘आवाज’ पत्रिका के सब–एडिटर बने। यह उनकी पहली नौकरी थी। रेडियो वालों की जलन और गुटबाजी ने उन्हें देर तक टिकने ही नहीं दिया। दिल्ली छोड़नी पड़ी। ‘दिल्ली से वापसी’ नज्म में उन्होंने भरे मन से लिखा :
रुख्सत ऐ दिल्ली तिरी महफिल से अब जाता हूँ मैं
नौहागर1 जाता हूँ मैं, नाला–ब–लब2 जाता हूँ मैं
(1– विलाप करते हुए 2– होंठों पर आर्तनाद लिए)
उन्होंने इसी नज्म के आखिर में ऐलान किया :
सिर से पा तक एक खूनी राग बन कर आऊँगा
लालाजारे–रंगो–बू1 में आग बन कर आऊँगा
(1– रंग और सुगंध के उपवन में)
1942 में मजाज दिल्ली लौटे। 1942 से 1945 तक दिल्ली की हार्डिंग लाइब्रेरी में असिस्टेन्ट लाइब्रेरियन की नौकरी की। बेहद शराबनोशी और प्रेम में मिली नाकामी ने उन्हें आवारागर्द और अपने तर्इं कतई लापरवाह बना दिया। अनिद्रा, शराब और मुसलसल बेचैनी ने जिस्मानी और दिमागी तौर पर मजाज को तोड़ कर रख दिया। वह ‘बाइपोलर डिसऑर्डर’ का शिकार हो गये। उन्माद, अवसाद और घुटन ने उन्हें अपनी जानलेवा गिरफ्त में जकड़ लिया। पागलपन के दौरे पड़ने लगे। मजाज सुध–बुध ही खो बैठे। उनकी शायरी लगातार तार–तार होते उनके जिस्म और दिल का हाल बयाँ करती है और जहर बुझे तीर की तरह हमारे दिल और दिमाग को चीर जाती है :
ओह वो चक्कर दिये हैं गर्दिशे–अय्याम1 ने
खोल कर रख दी हैं आँखें तल्खी–ए–आलाम2 ने
फितरते दिल दुश्मने–नग्मा हुई जाती है अब
जिन्दगी इक बर्क3 इक शोला हुई जाती है अब
(1– समय चक्र 2– दुखों की कटुता 3– बिजली )
बर्क, शोला और फूल से बने उर्दू शायरी के अनमोल रतन मजाज के बारे में जनाब फिराक गोरखपुरी ने बिल्कुल ठीक लिखा है कि, “वह एक बाण की तरह छूटा और फिजा की बुलंदियों में फूल–सी जगमगाती हुई चिनगारियाँ बिखेर कर चश्मे–जदन (पलक झपकने) में बुझ गया।” (मजाज और उनकी शायरी, सम्पादक : प्रकाश पण्डित, संस्करण 2011, राजपाल एण्ड संस, दिल्ली, पृष्ठ 20)। उर्दू के मशहूर लेखक और सम्पादक प्रकाश पण्डित ने भी ‘फूल–सी जगमगाती हुई चिनगारियों’ को महसूस किया था और ठगे–से रह गये थे।
सन् 1948 में मजाज से हुई उनकी पहली मुलाकात का वर्णन उन्हीं की जबानी सुनिए, “मैंने और ‘साहिर’ लुधियानवी ने उर्दू की प्रसिद्ध पत्रिका ‘शाहराह’ की नींव डाली थी। ‘मजाज’ से़ मेरी मुलाकात बड़े नाटकीय ढंग से हुई। रात के दस–ग्यारह का समय होगा। मैं और ‘साहिर’ नया मुहल्ला, पुल बंगश के एक मकान में घुसने की कोशिश कर रहे थे। मुहल्ला मुसलमानों का था और शहर का वातावरण मुसलमानों के खिलाफ। अर्थात्, एक चीज मेरे खिलाफ थी और दूसरी ‘साहिर’ के। इसलिए हम चाहते थे कि वड़े यत्नों से आये उस मकान पर हमारे कब्जे की किसी को कानोकान खबर न हो। ‘साहिर’ चुपके–चुपके सामान ढो रहा था और मैं मुहल्ले के बाहर सड़क के किनारे सामान की रखवाली कर रहा था कि एकाएक एक दुबला–पतला व्यक्ति अपने शरीर की हड्डियों के ढाँचे पर शेरवानी मढ़े बुरी तरह लड़खड़ाता और बड़बड़ाता मेरे सामने आ खड़ा हुआ।
“अख्तर शीरानी मर गया – हाय ‘अख्तर’! तू उर्दू का बहुत बड़ा शायर था – बहुत बड़ा।”
ठीक उसी समय कहीं से ‘जोश’ मलीहाबादी निकल आये और मुझे पहचानकर बोले, “इसे सम्भालो प्रकाश! यह ‘मजाज’ है।” (मजाज और उनकी शायरी, सम्पादक : प्रकाश पण्डित, संस्करण 2011, राजपाल एण्ड संस, दिल्ली, पृष्ठ 7, 8)।
मजाज सम्भले ही नहीं। उन्हें कोई संभाल ही नहीं सका। जिस बेहोशी, जिस अल्कोहलिक कोमा में अख्तर शीरानी रुखसत हुए थे, उसी अल्कोहलिक बेहोशी में मौत ने भी मजाज को अपनी सर्द बाहों में ले लिया। फर्क बस इतना था कि अख्तर शीरानी अस्पताल में गुजरे और मजाज लखनऊ के एक घर की खुली छत पर 5 दिसंबर 1955 की बेहद ठण्डी रात में एकदम तन्हा, शराब की खाली बोतलों के बीच, अल्कोहलिक कोमा में मरे। पीने वाले सारे संगी–साथी उन्हें अकेला छोड़ गये थे। जोश मलीहाबादी की याद आती है। उन्होंने गहरे दु:ख से कहा था कि, “अफसोस की पीना उसे खा गया।”
शराब और मजाज के सम्बन्ध में जोश साहब ने अपनी आत्मकथा ‘यादों की बारात’ में एक ट्रेजेडी बयान की है। “एक बार दिल्ली में वह मुझसे बेहद नाखुश हो गया था। वह ताजा–ताजा दिमागी हस्पताल से बजाहिर तंदुरुस्त होकर आया था। मुझे क्या मालूम था कि हरचंद वह अच्छा हो चुका हैय लेकिन मरज अभी दूर नहीं हुआ है।
एक रोज उसने दिल्ली के चीफ कमीश्नर को फोन किया कि मुझे सौ रुपये भेज दीजिए। मैंने इस पर बहुत फटकारा कि तूने अपनी और पूरी शायर कौम की इज्जत खाक में मिलाकर रख दी है। उसने मेरे मुँह पर तो कुछ नहीं कहाय लेकिन यह शे’र लिखकर मेरे पास भेज दिया –
जो गुजरती है कल्बे–शायर1 पर
शायरे–इन्कलाब क्या जानें।
(1– रूमानी शायर)
हैफ (अफसोस) दुनिया के कारखाने पर, यहाँ जो रातें पल–भर के लिए हंसाती हैंय वे मरते दम तक रुलाती हैं।” ( ‘यादों की बारात’, जोश मलीहाबादी, अनुवाद : हंसराज रहबर, संस्करण 2019, राजपाल एण्ड संस, दिल्ली, पश्“ठ 142)।
मौत के बारे में अंगे्रजी के रोमाँटिक कवि जॉन कीट्स ने अपनी कविता में लिखा है, “कैन डेथ बी स्लीप, वेन लाइफ इज बट अ ड्रीम/एण्ड सीन्स ऑफ ब्लिस पास ऐज ए फैन्थम बाई?” यानी क्या मौत नींद हो सकती है, जबकि जिन्दगी इक ख्वाब है/गुजर गये पल खुशदिली के क्या प्रेत की तरह?
मिर्जा गालिब ने भी लिखा है कि,
मौत का एक दिन मुअय्यन है
नींद क्यूँ रात भर नहीं आती
और हिन्दुस्तान के कीट्स मजाज भी लिखते हैं कि,
वक्त की सअी–ए–मुसलसल1 कारगर2 होती गयी
जिन्दगी लहजा–ब–लहजा3 मुख्तसर होती गयी
साँस के पर्दों में बजता ही रहा साजे–हयात4
मौत के कदमों की आहट तेजतर होती गयी
(1– निरन्तर प्रयत्न 2– सफल 3– क्षण–प्रतिक्षण 4– जीवन का साज)
मौत की आहटों को मजाज लगातार अनसुनी करते रहे, क्योंकि, वह मृत्यु के नहीं, जीवन राग के अद्भुत गायक थे। उनकी काव्य–वीणा के तार वियोग, दु:ख, उपेक्षा, अपमान और पीड़ा के श्याम–स्याह रंगों से बने थेय और वीणा के तार जिन खूंटियों पर कसे थे, वे प्रेम, क्रान्ति, संघर्ष और इनसानियत की भट्ठी में जलकर, तपकर, पिघलकर शुद्ध सोने में ढले थे। मजाज ने अपनी कविता को प्रेम और इन्कलाब के सुरों में बाँधा और गाया है। फै़ज ने उन्हें ‘इन्कलाब का मुतरिब’ (गानेवाला) कहा है। उन्होंने अपने दु:ख को सतायी हुई शोषित और पीड़ित जनता से जोड़ दिया। मजाज को पूरा यकीन था कि जनता की मुक्ति में ही कविता की मुक्ति है। उन्होंने अंग्रेजी साम्राज्यवाद का प्रखर विरोध किया। देश की आजादी के नगमे गाये। ‘बोल! अरी ओ धरती बोल!’ में उन्होंने लिखा :
क्या अफरंगी, क्या तातारी आँख बची और बरछी मारी
कब तक जनता की बेचैनी कब तक जनता की बेजारी
कब तक सरमाये के धंधे कब तक ये सरमायादारी?
बोल! अरी ओ धरती बोल!
राज सिंहासन डावाँडोल
प्रेम के कोमल स्वरों के साथ बगावत के तीव्र स्वरों की संगत ने उन्हें अपनी जनता का सबसे महबूब शायर बना दिया। संगीत की भाषा में कहूँ तो वह मंद्र, मध्य और तार सप्तक के बीच आजाद और बेखौफ हवा की तरह बहते रहे। सुरों के हर रूप–रंग में घुलते रहे, नये नगमे रचते रहे, नये सूरज की तलाश करते रहे और ताजिन्दगी अँधेरे की मुखालिफत करते रहे। ‘ख्वाबे सहर’ में उनका एक शान्त सुर सुनिए,
अक्ल के मैदान में जुल्मत1 का डेरा ही रहा
दिल में तारीकी, दिमागों में अँधेरा ही रहा
(1– अँधकार)
और अब, एक नोट ऊपर का सुर महसूस कीजिए,
इब्ने मरियम1 भी उठे, मूसा–ए–इम्रा2 भी उठे
रामो–गौतम भी उठे, फिरऔनो हामाँ3 भी उठे
(1– मरियम के बेटे (ईसा) 2– हजरत मूसा 3– जालिम शासकों के नाम)
और नज्म ‘आवारा’ में मजाज की रौद्र भंगिमा देखिए और पुरअसर आवाज की गहराई और ऊँचाई सुनिए :
बढ़ के इस इन्दर–सभा का, साजो–सामाँ फूँक दूँ
इसका गुलशन फूँक दूँ, उसका शबिस्ता1 फूँक दूँ
तख्ते–सुल्ताँ2 क्या, मैं सारा कस्रे–सुल्ताँ3 फूँक दूँ
ऐ गमे–दिल क्या करूँ, ऐ वहशते दिल क्या करूँ!
(1– शयनागार 2– शाही तख्त 3– शाही महल)
मजाज की शायरी का सबसे बड़ा कमाल है कि उनके टूटे हुए जिस्म और टुकड़े–टुकड़े दिल से जो भी सदा निकली वह कहीं से टूटी हुई और बिखरी हुई नहीं थी। वह एक मुकम्मल पुकार थी। सधी हुई आवाज थी। उस आवाज की कोमलता, आकुलता, विकलता, व्यापकता और दृढ़ता ने इनसान की सारी जंजीरों को तोड़ कर रख दिया। अँधेरे को उजाले से भर दिया। मजाज की आग और आँसू से भरी हुई असरदार आवाज आम जनता की आवाज बन गयी। एक शिकस्ता दिल हजारों–हजार दिलों से मिलकर परिवर्तन और क्रान्ति की आवाज बन गया। अपने दु:ख–दर्द से निकलकर उन्होंने देशवासियों के भीषण दु:ख, अपमान और परवशता को महसूस किया। अपनी रचना ‘इरते तन्हाई’ (एकांत–सुख) में लिखा कि,
लाख मजबूर हूँ मैं जौके–खुद–आराई1 से
दिल है बेजार अब इरते तन्हाई2 से
आँख मजबूर नहीं है मिरी बीनाई3 से
महरमे–दर्दों गमे–आलमे–इनसाँ4 हूँ मैं
(1– आत्मसज्जा की प्रवृत्ति 2– एकांत–सुख 3– ज्योति 4– मनुष्य के दु:ख–दर्द का मर्मज्ञ)
सय्यद सज्जाद जहीर की यह बात गौरतलब है कि, “खुशी की बात है कि हमारा अदब दुनिया के अदब का हिस्सा बन रहा है। मजाज की शायरी की अहमियत इस बात में है कि वो बैनल अकवामी इन्कलाबी तहरीक (अन्तरराष्ट्रीय क्रान्तिकारी आंदोलन) का एक हिस्सा है। जो शख्स इन नज्मों और गजलों को पढ़ेगा तो वो भी महसूस करेगा कि उरूसे–सुखन (काव्य–सौंदर्य) ने भी अब हमारे साथ रहना कबूल कर लिया है। तहजीब और तमद्दन (सभ्यता और संस्कृति) की दुल्हन का लिबास अब रेशमी नहीं, वो चीथड़े पहने हुए है। वो कैसरे उमरा (राजाओं और रईसों) की आरामदेह गुलामी से पीछा छुड़ाकर सैलाबे हयात के मझदार में पड़ना ज्यादा पसन्द करने लगी है।” (जेबे दास्तान, सय्यद सज्जाद जहीर, कुल्लियाते मजाज, संकलन : फारूक अरगली, फरीद बुक डिपो प्रा– लि–, नयी दिल्ली, पृष्ठ 15)।
मजाज की शायरी जिस हिन्दुस्तान को पेश करती है उसका लिबास यकीनन रूमानी और तार–तार है, लेकिन उसकी रूह इन्कलाबी है। वह समाज के दकियानूसी और सड़े हुए रिवाजों, बन्धनों और कानूनों को तोड़ना चाहते हैं। वह कोशिश भी करते हैं।
हदें वो खैंच रक्खी है हरम के पासबानों ने
कि बिन मुजरिम बने पैगाम भी पहुँचा नहीं सकता
वह अपनी हर बात सारी हदों को तोड़कर कहते हैं। इस दुस्साहस में रूमानियत उनका साथ देती है। वह अपनी हर बात बहुत खूबसूरती और कलात्मक परिपक्वता के साथ कहते हैं। वह अपनी कोशिश में असफल भी होते हैं लेकिन रुकते नहीं हैं। मंजिल की ओर बढ़ते जाते हैं।
हकूमत के मजाहिर1 जंग के पुरहौल नक्शे हैं
कुदालों के मुकाबिल तोप बन्दूकें हैं नेजे हैं
सलासिल,2 ताजियाने, बेड़ियाँ फाँसी के तख्ते हैं
मगर मैं अपनी मंजिल की तरफ बढ़ता ही जाता हूँ
(1– प्रदर्शन 2– जंजीरें)
यह मजाज की दुरंदेशी नहीं तो क्या है कि पूँजीवादी, साम्राज्यवादी हकूमत का चरित्र उन्होंने बरसों–बरस पहले भाँप लिया था। 2019 में भी भारत की दक्षिणपंथी सरकार युद्ध का नक्शा खींचती है और लोगों को डराती है। अमरीका भी यही करता है। आज भी अन्नदाता किसानों, साहित्यकारों और न्याय–समता की बात करने वाले लोगों पर बन्दूकें तनी हुई हैं। किसान आत्महत्याएँ कर रहे हैं। अदीबों को मारा जा रहा है। हकूमत पर सवाल उठाने वालों को देशद्रोह के जुर्म में जेलों में बंद किया जा रहा है। औरत की इज्जत लूटी जा रही है। उसे इनसान के दर्जे से गिराया जा रहा है। पुरुषों से कमतर और कमजोर साबित किया जा रहा है। मजाज औरत को भोग–विलास की चीज नहीं, हमनशीं, हमकदम मानते हैं। वह आह्वान करते हैं,
तिरे माथे का टीका मर्द की किस्मत का तारा है
अगर तू साजे–बेदारी1 उठा लेती तो अच्छा था
सिनाने2 खैंच ली हैं सरफिरे बागी जवानों ने
तू सामाने–जराहत3 अब उठा लेती तो अच्छा था
(1– जागरण का साज 2– भाले 3– शल्य चिकित्सा सम्बन्धी सामान)
सामाने जराहत ही आज हिन्दुस्तान और दुनिया को बचा सकता है। धरती और इनसान को बचा सकता है। शल्य चिकित्सा बहुत जरूरी है। आज जब दुनिया एक बार फिर बदबख्त और जालिम सुल्तानों और नीच सौदागरों की जद में तबाह हो रही है तो मजाज के प्रेम और विद्रोह के सुरों को साधना फर्ज भी है और कवि की नैतिक जिम्मेदारी भी।
(इस आलेख के सामग्री संचयन में वरिष्ठ अधिवक्ता एवं उर्दू साहित्य के मर्मज्ञ जनाब अब्दुल रशीद सिद्दीकी साहब का आभार)
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