जिगर मुरादाबादी : प्रेम के अप्रतिम कवि
जीवन और कर्म विजय गुप्तजिगर मुरादाबादी कवि–कुल में जन्मे और कविता उन्हें विरासत में मिली। पिता, दादा, परदादा सभी कवि रहे। उनके पूर्वज मौलवी समीअ़ दिल्लीवासी थे और बादशाह शाहजहाँ के शिक्षक भी। किसी बात से बादशाह रूठ गये और उन्हें दिल्ली से निकाल दिया गया। वह मुरादाबाद में जा बसे और यहीं अली सिकन्दर यानी जिगर मुरादाबादी का जन्म हुआ। लम्बी अस्वस्थता के कारण उनकी औपचारिक शिक्षा–दीक्षा नहीं के बराबर हुई। सहज और समवार ज़िन्दगी उन्हें नहीं मिली। जीवन–यापन के लिए बस स्टैण्ड और रेलवे प्लेटफ़ॉर्म पर चश्मा बेचा तो कभी कुछ और सौदा–सुलफ़ बेचना पड़ा। अंग्रेज़ी का ज्ञान कामचलाऊ था। अपने शौक़ के कारण मनोयोग से फ़ारसी सीखी।
जिगर मशहूर शायर ‘दाग़’ के शिष्य रहे और बाद में उस्ताद ‘तस्लीम’ के शागिर्द रहे। ‘असगर’ साहब के संग–साथ ने उन्हें हल्की–फुल्की शायरी से बाहर निकाला और उनकी रचनाओं को गम्भीर, अर्थपूर्ण और उच्चस्तरीय बनाया।
शायरी पढ़ने का उनका अन्दाज़ बहुत आकर्षक और निराला था। वह बहुत सुरीले थे। रसिक जन उनकी ओर खिंचे चले आते थे। लोग उनके ‘स्टाइल’ की नकल करने लगे और उन जैसा बनने और दिखने का प्रयास भी। उनकी तरह दिखा तो जा सकता था और बहुत हद तक उन्हीं की तरह ग़ज़ल की अदायगी भी हो सकती थी लेकिन उनके व्यक्तित्व के विविध रंगों, पहलुओं और कलात्मक छटाओं को पकड़ पाना नामुमकिन था। यह जिगर साहब की असाधारण उपलब्धि है कि साधारण शिक्षा–दीक्षा के बावजूद अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी ने उन्हें ऑनरेरी डी लिट् की डिग्री से सम्मानित किया। 1959 में उनके कालजयी कविता संग्रह ‘आतिश–ए–गुल’ के लिए साहित्य अकादमी एवार्ड से नवाज़ा गया।
निदा फ़ाज़ली साहब ने अपनी पुस्तक ‘जिगर मुरादाबादी : मोहब्बतों का शायर’ में महत्वपूर्ण टिप्पणी की है कि, “–––वह जिस मुशायरे में शरीक़ होते, उनके सामने किसी और का चिराग़ नहीं जलता, वह भारत और पाकिस्तान दोनों जगह लोकप्रिय थे। लेकिन इस शोहरत ने न उनके तौर–तरीक़े बदले न उनके ख़ानदानी मूल्यों में कोई परिवर्तन किया। पाकिस्तान ने उन्हें दौलत की बड़ी–बड़ी लालचें देकर हिन्दुस्तान छोड़ने को कहा, लेकिन उन्होंने शाह अब्दुलग़नी (जिनके वह मुरीद थे) और असग़र के मज़ारों के देश को त्यागने से इनकार कर दिया।” (पृष्ठ 12)
उनके चाहने वालों ने अपने महबूब शायर को हमेशा अपने दिल में बसाये रखा। उनकी स्मृति में गोण्डा शहर के एक आवासीय कॉलोनी का नाम ‘जिगरगंज’ रखा गया। गोण्डा के ही एक इण्टरमीडिएट कॉलेज का नाम ‘दि जिगर मेमोरिएल इण्टर कॉलेज’ उन्हीं को समर्पित किया गया है। उनकी मज़ार तोपखाना, गोण्डा में है जो जिगर के आशिक़ों को सदा देती रहती है,
इश्क़ की एक–एक नादानी,
इल्मो–हिकमत की जान है प्यारे।
रख क़दम फूँक–फूँक कर नादाँ,
ज़र्रे–ज़र्रे में जान है प्यारे।
जिगर मुरादाबादी प्रेम के अप्रतिम कवि हैं। प्रकृति ने उन्हें ‘सुर’ से सजाया और शब्द उनकी मन–वीणा पर जब गूँजे तब सुर और शब्द की युगलबन्दी ने पूरे संसार को राग–रंग और अनुराग से भर दिया। वह कहते भी हैं कि,
दिले आगाह1 में क्या कहिए जिगर क्या देखा,
लहरे लेता हुआ इक क़तरे में दरिया देखा।
(1– जाग्रत दिल)
क़तरे मेें दरिया वही देख सकता है जिसका हृदय पूर्ण रूप की प्रतिध्वनि सुन सकता हो, सुना सकता हो। वही शख़्स हर शै को जगा सकता है। यह पल दो पल का खेल नहीं, बल्कि सुदीर्घ और निरन्तर साधना का प्रतिफल है। ऐसे ही अद्भुत साधक हैं जिगर मुरादाबादी। अपने एक शे’र में साधक और साधना की दुश्वारियों का ज़िक्र करते हैं,
यह इश्क़ नहीं आसाँ, इतना ही समझ लीजे,
इक आग का दरिया है और डूब के जाना है।
इश्क़ की आग में जलकर जिगर निखरते चले गये और कुन्दन हो गये। उन्होंने अपनी शायरी और ज़िन्दगी में हमेशा हुस्न की इबादत की और ग़ौरतलब है कि उसकी शान में कभी बट्टा नहीं लगने दिया,
सबके सामने मुनासिब नहीं हम पर यह इताब1,
सर से ढल जाये न ग़्ाुस्से में दुपट्टा देखो। (1– क्रोध)
मर्यादा की सीमा–रेखा जिगर ने कभी पार नहीं की। महिला–तबके के प्रति अथाह प्रेम था उन्हें। प्रेम की आग में वह जीवन भर जलते–सुलगते रहे पर अपने प्रेम–पात्र को कभी कलंकित नहीं किया। उनका शे’र है,
महवे–तस्वीर1 तो सब हैं मगर इदराक2 कहाँ,
ज़िन्दगी ख़्ाुद ही इबादत3 है मगर होश नहीं।
(1– माला में लीन 2– अक़्ल 3– पूजा)
माला फेेरते हुए पूजा में मगन तो सब हैं लेकिन बुद्धि कहाँ है? होश कहाँ है? ज़िन्दगी और हुस्न की वही सराहना कर सकता है जो बा–होशो–हवास होय और ऐसा शख़्स ही आग का दरिया पार कर सकता है। निदा फ़ाज़ली ने लिखा है कि, “जिगर ने इस आग के दरिया में अपने वजूद को इस तरह जलाया कि वह अपने जीवन काल में ही इश्क़ की तहज़ीब का मिसाली प्रतीक बन गये। इस आग में वह जितना जले उतने ही उनकी ग़ज़ल के लफ़्ज़ रौशन हुए।”(1)
जिगर मुरादाबादी की रचनाओं से गुज़रते हुए महाकवि रहीम याद आते हैं। रहीम भी ताज़िन्दगी जलते रहे। धुएँ में मन–मस्तिष्क घुटता रहा लेकिन उसे बाहर नहीं आने दिया। इस पीड़ा को भुक्तभोगी ही समझ सकता है। ‘घायल की गति घायल जाणे’ की अनुभूति से मीराबाई भी गुज़री थीं।
जिगर साहब के भीतर लगी आग कभी बुझी नहीं, वह बुझ–बुझ के सुलगती रही। यह उनकी जिजीविषा है कि वह प्रेम– अग्नि के नरक में स्वर्ग तलाश लेते हैं। यही उनकी ख़्ाासियत है।
आतशे–इश्क़1 वो जहन्नम है,
जिसमें फ़िर्दोस2 के नज़ारे हैं।
(1–प्रेम–अग्नि, 2– स्वर्ग)
जहन्न्म की आग में फ़िर्दोस के नज़ारे देखने के लिए दिल–दिमाग़ का रौशन होना ज़रूरी हैै। दुनियादारी के जाल में फँसकर दुनियावी तो हुआ जा सकता है लेकिन रूहानी नहीं। जिगर कहते भी हैं,
तस्ख़्ाीरे–मेहरो–माह1 मुबारक तुझे मगर,
दिल में नहीं अगर तो कहीं रौशनी नहीं।
(1–चाँद–सूरज पर विजय पाना )
चमकते चाँद–सूरज पर विजय पाना मुबारक हो तुम्हें लेकिन यह चमक दिल में जगानी होगी, नहीं तो चेतनता अंधेरे में खो जाएगी। अंधेरे जेहन को प्रकाश से उज्ज्वल करने के लिए ज़रूरी है कि रौशनख़्ायाल हुआ जाये और यह मोहब्बत से ही सम्भव है। मोहब्बत में सरापा डूबे हुए इनसानों की फ़ितरत को वह कुछ इस तरह व्यक्त करते हैं,
क्या जानिये ये कौन सा आलम है ए जिगर,
दिल मुज़तरिब1 है और कोई बात भी नहीं। (1–व्याकुल )
व्याकुल हृदय सर्वत्र प्रेम ढूँढता है और प्रेम तो लीलामय है। वह मेल–मिलाप है तो लड़ाई–झगड़ा भी है। वह फूलों की डाली है तो तलवार भी है। वह निर्झर है तो समन्दर भी है। वह लफ़्ज़ है तो अफ़साना भी है,
इक लफ़्ज़–ए–मोहब्बत का अदना ये फ़साना है,
सिमटे तो दिल–ए–आशिक़ फैले तो ज़माना है।
प्रेम सिमटता है तो एकरंगी और संकीर्ण हो जाता है और विस्तृत होता है तो बहुरंगी होकर पूरे संसार को ज्ञान और विवेक से भर देता है। मोहब्बत के हाथों तलवार विध्वंस का सूचक है तो नव–निर्माण का भी। इतिहास गवाह है कि हथियार स्वार्थी, विवेकहीन और अज्ञानी व्यक्ति के हाथों में होता है तो चारों ओर सिर्फ़ तबाही होती है। आज पूरी दुनिया में हथियार ज़्यादातर ऐसे लोग ही लहरा रहे हैं और तबाहकुन मंज़र हमारे सामने है। जिगर का मानीख़ेज शे’र है,
जहले–ख़्िारद1 ने दिन ये दिखाए,
घट गये इनसां बढ़ गये साए।
(1– मूढ़ बुद्धि, बेअकल )
बुद्धि की मूढ़ता ही बर्बादी का सबसे बड़ा कारण है। अधिकतर जड़बुद्धि ही दुनिया के रहनुमा बने हुए हैं। इन्हीं के हाथों सत्ता की चाबी है और ये हमें चाबी वाले खिलौनों की तरह नचा रहे हैं। हमें उनसे यह चाबी छीननी ही होगी। ज़िद पर आना ही होगा। जिगर लिखते हैं,
ज़िद पर इश्क़ अगर आ जाये,
पानी छिड़के, आग लगाए।
इसी ग़ज़ल का आख़्िारी शेर समझिए और गुनिए,
कारे–ज़माना1 जितना–जितना,
बनता जाये, बिगड़ता जाये।
(1– संसार को सुन्दर बनाने का काम )
संसार को सुन्दर बनाने के काम में वह आजीवन लगे रहे, लेकिन उनकी ज़िन्दगी उन्हीं के हाथों फिसलती रही। वह लोगों के मन–मन्दिर को सजाते–सँवारते रहे और उन्हीं की प्रेम–देवी उनसे रूठती चली गयी। वह अपने दर्द को बयाँ करते हैं,
बहुत हसीन मनाज़िर1 भी हुस्ने–फ़ितरत2 के,
न जाने आज तबीयत पे क्यों गिरां3 गुज़रे।
(1– दृश्य 2– प्रकृति–सौन्दर्य 3– भारी )
सौन्दर्य के दीवाने जिगर का दिल दर्द से भारी होता चला गया और उनकी शराबनोशी बढ़ती चली गयी। उर्दू–हिन्दी के प्रकाण्ड विद्वान प्रकाश पण्डित ने लिखा है कि, “‘जिगर’ बेतहाशा शराब पीते थे–– इस बुरी तरह और इस मात्रा में कि यदि दस व्यक्ति मिलकर आयु भर पीते रहें, तो भी उतनी न पी पायें, जितनी ‘जिगर’ कुछेक वर्षों में पी गये थे।”(2) शराब का असर देखिए,
मुझे उठाने को आया है वाइज़े–नादां1,
जो उठ सके तो मेरा साग़रे–शराब2 उठा।।
(1– नादान धर्म का उपदेशक 2– शराब का प्याला)
धर्मोपदेशक शराब से तौबा करने की सलाह देता है। जिगर व्यंग्य करते हैं कि, अरे नादां, मुझे क्या उठाने आया है, उठ सके तो मेरे शराब का प्याला उठा। लोक–प्रचलित एक किंवदन्ती है कि तूर पहाड़ पर बिजली चमकी थी और मूसा–पैग़म्बर ने ख़्ाुदा से बातें की थीं। उसी बिजली का कलात्मक प्रयोग निम्न शे’र में देखिए,
किधर से बर्क़1 चमकती है देखें ऐ वाइज़,
मैं अपना जाम उठाता हूँ तू किताब2 उठा।
(1– बिजली 2– धर्मग्रंथ)
जाम में ही अपना सर्वस्व डुबा देने वाले जिगर मुरादाबादी धर्म विरोधी कतई नहीं थे। उन्हें अनपढ़ और जाहिल मुल्लाओं–पण्डितों से सख़्त चिढ़ थी। वह समझते थे कि विभिन्न जातियों और समुदायोंं के बीच फूट डालने का काम इन्हीं धार्मिक कठमुल्लों का रहा है। इन्हीं लोगों ने हर दौर में इनसानियत की हत्या की है। शातिर राजनीतिज्ञों ने इनका इस्तेमाल कर मोहब्बत, सच्चाई और मानवीयता की क़ब्र खोदी है। जिगर साहब लिखते हैं,
उनका जो फ़र्ज़ है अरबाबे–सियासत1 जानें,
मेरा पैग़ाम मोहब्बत है, जहाँ तक पहुँचे। (1– राजनीतिज्ञ)
साम्प्रदायिक राजनीतिक पार्टियाँ तो मोहब्बत की दुश्मन हैं। ईमानदार और धर्मनिरपेक्ष पार्टियाँ ही इनसानी भाईचारे और मोहब्बत को बचा सकती हैं बशर्ते उनकी कथनी और करनी में फ़र्क़ न हो। बंगाल के अकाल पर उनकी आत्मा व्याकुल हो उठी थी,
बंगाल की मैं शामो–शहर देख रहा हूँ,
हरचन्द कि हूँ दूर मगर देख रहा हूँ।
इनसान के होते हुए इनसान का यह हश्र,
देखा नहीं जाता है मगर देख रहा हूँ।
इनसान में गोया शैतान जाग उठा और शैतानी रक्स में ख़्ाून की नदियाँ बहने लगीं। प्रकाश पण्डित उनकी व्यग्रता और पीड़ा को विश्लेषित करते हैं, “––– 1947 में साम्प्रदायिक उपद्रव पर तो जिगर साहब इस बुरी तरह तड़प उठे कि ग़ज़ल पर जान देने और ग़ज़ल का बादशाह कहलाने वाले इस शायर ने लिखा,
फ़िक्रे–जमील ख़्वाबे–परेशां1 है आजकल,
शायर नहीं है वो जो ग़ज़लख़्वां2 है आजकल।
(1– सुन्दर विचार और कल्पनाएँ टूटे स्वप्न की तरह छिन्न–भिन्न हैं। 2– ग़ज़ल गा रहा है यानी हुस्नो–इश्क़ की परम्परागत बातों में उलझा हुआ है।)
इस ग़ज़ल में हिन्दू, मुसलमान, इनसानियत, जमहूरियत इत्यादि ग़ज़ल की परम्पराओं के प्रतिकूल शब्दों का प्रयोग करके कविता के प्रति अपनी उस महान सत्यप्रियता का प्रमाण दिया है, जिसके बिना कोई कवि महान नहीं बन सकता। और यह भी कला के प्रति उनकी निष्कपटता ही थी जिसने उनसे––
सलामत तू, तेरा मयख़्ााना, तेरी अंजुमन1 साक़ी,
मुझे करनी है अब कुछ ख़्िादमते–दारो–रसन साक़ी2।
रगो–पै में3 कभी सहबा ही सहबा रक्स करती थी,
मगर अब ज़िन्दगी ही ज़िन्दगी है मौजज़न4 साक़ी।
(1– महफ़िल 2– सूलियों–फांसियों की सेवा (क्रान्तिकारी कार्य) 3– नस–नस में 4– तरंगित) ऐसे शे’र कहलवाए।”(3)
मन की तरंग साधने का हर सम्भव प्रयत्न जिगर ने किया। शब्दों की लयकारी जीवन की ताल से मिलकर सुर–संसार रचती है और कविता का जादू जागता है। इस जादूगरी के उस्ताद हैं जिगर मुरादाबादी। कविता की शक्ति का कमाल देखिए,
फिर देखना बहार बयाबाने–इश्क़1 की,
गुलशन बना चुकूँगा जब इस ख़्ाारज़ार2 को।
(1– प्रेम–कानन 2– वीराना )
ख़्ाारज़ार को गुलशन बनाकर ही कवि नहीं रुकता बल्कि कुदरत के नूर को हर ओर फैलाकर वह सबके लिए मोहब्बत और ख़्ौरियत की दुआ करता है,
भड़का रहा हूँ आतिशे–इस्यां1 हरेक सिम्त2,
फैला रहा हूँ रहमते–परवरदिगार3 को।
(1– पाप की आग 2– हर तरफ़ 3– ईश्वर कृपा)
वह दुनिया में हरेक के लिए सलामती की दुआ करते रहे और ख़्ाुद को नज़रअन्दाज़ कर अपना शरीर गलाते रहे। नशे की लत ने भी आग में घी का काम किया। शराब दिन–रात पीने लगे। उन्होंने स्वीकार भी किया है कि,
सबको मारा जिगर के शे’रों ने,
और जिगर को शराब ने मारा।
उन्होंने शराब छोड़ने की बहुत कोशिशें कीं। निदा फ़ाज़ली ने लिखा है कि, “शराब जिगर के ख़्ाून में शामिल हो गयी थी। उनकी धार्मिकता उन्हें लानत–मलामत करती थी, वह शराब पीकर रोते थे और बुज़ुर्गोें से इस लानत से छुटकारा पाने के लिए दुआओं का अनुरोध भी करते थे।”(4)
यह दुआ का कमाल है या कुछ और, पता नहीं, लेकिन एक दिन जिगर ने शराब से तौबा कर ली और मरते दम तक शराब नहीं पी। वह सख़्त बीमार पड़ गये। डॉक्टरों ने कहा भी कि एकाएक शराब छोड़ देने के कारण आपकी जान पर बन आयी है। थोड़ी मात्रा में शराब लीजिए, जान बच जाएगी। लेकिन जिगर नहीं माने। इस ग़ज़ल का हर शे’र उनकी हालत का दुखता हुआ बयान है,
ये हुजूमे–ग़म1 ये अन्दोहो–मुसीबत2 देखकर,
अपनी हालत देखता हूँ उनकी सूरत देखकर।
कँपकँपी सारे बदन में, ज़र्द चेहरा, दिल उदास,
चुप खड़े हैं दूर मेरी ख़्ााके–तुर्बत3 देखकर।
चारासाज़ों से4 मरीज़े–ग़म को फ़ुर्सत मिल गयी,
हो चुके मायूस आसारे–तबीयत5 देखकर।
(1– दुखों का आक्रमण 2– दु:ख और व्यथा 3– क़ब्र की मिट्टी 4– चिकित्सक 5– तबीयत के लक्षण)
दुखों ने चारों ओर से घेर लिया है। बदन दर्द से टूट रहा है। चेहरा बुझ गया है और दिल बेतरह उदास है। कँपकँपी है, जीने की चाहत बची नहीं है। दर्द में डूबे शरीर की दुर्दशा देखकर चिकित्सक भी मायूस हो चुके हैं। इससे बड़ा शोक और क्या होगा कि वो मेरे मिट्टी होते शरीर को दूर से देख रहे हैं।
जिगर दर्द और पीड़ा का ज़हर सहते रहे, पीते रहे। दु:ख हमलावर रहा लेकिन उन्हें पराजित नहीं कर सका। दु:खों का चक्रव्यूह वे तोड़ते रहे और नये रास्तों को ढूँढकर उस पर चले और दूसरों को भी प्रेरित करते रहे। जिगर साहब की यह ग़ज़ल देखिए जिसका हर शे’र इनसान बनने और हर हाल में इनसानियत को बचाए रखने के लिए हर संघर्ष से गुज़र जाने की बात करता है,
बाज़ीच–ए–अर्बाबे–सियासत1 से गुज़र जा,
इस कारगाहे–मक्रो–ज़लालत2 से गुज़र जा।
क़िस्मत तिरी ख़्ाुद है तिरे किरदार में मुजि़्मर3,
क़िस्मत को बनाना है तो क़िस्मत से गुज़र जा।
होती है युं ही नश्बो–बुमा4 फ़िक्रो–अमल5 की,
हँसता हुआ हर जब्रे–हुकूमत6 से गुज़र जा।
इनसान बन इनसान, यही है तिरी मेराज7,
रंगो–वतनो–क़ौम की लानत8 से गुज़र जा।
(1– सियासत यानी राजनीति के खिलौनों से 2– धोखा और फ़रेब की जगह से 3– चरित्र में शामिल है 4– फलना–फूलना 5– विचार और कर्म 6– हुकूमतों के अत्याचार 7– लक्ष्य 8– धिक्कार)
जिगर मुरादाबादी अपने में गुमसुम और सिमटे हुए शायर नहीं हैं। उन्हें अपनी ज़ातीय ज़िन्दगी से बहुत प्यार है तो अपने हमवतनों और क़ौम की भी गहरी फ़िक्र है। वह खुली आँखों से इनसान की बर्बादी और इनसानियत की हत्या होते देख कर विचलित होते हैं और कविता को सामाजिक आह्वान का सशक्त रूप देकर एक सावधान करने वाली पुकार में बदल देते हैं। असरदार पुकार के साथ काव्य–स्तर को भी उच्चस्तरीय बनाये रखना अत्यन्त जटिल कार्य है। जिगर इस सच को बख़्ाूबी समझते हैं कि घृणित राजनीतिक दौर में कला–रूपों की सुन्दरता और शुद्धता बचा कर ही दुष्ट और मानव विरोधी राजनीतिक शक्तियों को जवाब दिया जा सकता है।
मुझे डर है इस नापाकतर दौरे–सियासी में1,
बिगड़ जाये न ख़्ाुद मेरा मज़ाक़े–शे’रो–फ़न2 साक़ी।
(1– घृणित राजनीतिक युग 2– काव्य–स्तर)
कविता उनके लिए संजीवनी बूटी है, अपूर्व शक्ति है। इसी काव्य–शक्ति को वह अपने समकालीन और उभरने वाली नयी पीढ़ी के रचनाकारांे में विकसित होते देखना चाहते हैं। इसके लिए अपनी पसन्द–नापसन्द को भी दरकिनार कर देते हैं। वह तरक़्क़ीपसन्द अदबी आन्दोलन के समर्थक नहीं रहे लेकिन नये प्रगतिशील रचनाकारों की ईमानदारी और जज़्बे से बहुत प्रभावित हुए। उन्होंने मजाज़, जज़्बी, मसऊद अख़्तर ‘जमाल’, मजरूह सुल्तानपुरी आदि कई शायरों की हौसला अफ़जाई की। अपने खर्चे से प्रगतिशील सम्मेलनों में भाग लिया। लोगों की सुनी और अपनी सुनाई। मजरूह सुल्तानपुरी साहब की गिरफ़्तारी पर रंज प्रकट किया। हमेेशा सच्चाई और उदण्डता और गंुडई के विरुद्ध निर्भीक लड़ाई का समर्थन किया। वह सदैव सच्ची और जन पक्षधर कविता के समर्थक रहे।
विडम्बना देखिए, उन्होंने कविता तो बचाये रखी लेकिन नशे की आदत ने जीवन का खेल बिगाड़ना शुरू कर दिया। शराब की लत से जिगर निकल तो गये लेकिन सिगरेट अब उन्हें जलाने लगी। वह दोस्तों से रू–ब–रू होते, ग़ज़लें लिखते, वाहवाही के बीच सिगरेट का धुआँ उड़ता रहता और कलेजा फुँकता रहता।
बिजलियाँ तूरे–तसव्वूर1 पे गिराने वाले,
फूँक दे फूँक दे हस्ती के सियह ख़ाने2 को।
(1– कल्पना का तूर–तूर सीरिया का पवित्र पहाड़ जहाँ पैग़म्बर मूसा को दैवीय प्रकाश दिखाई पड़ा था। 2– कै़दख़्ााना)
वह दुआ करते हैं कि कल्पना के पवित्र पहाड़ ‘तूर’ पर बिजलियाँ गिराकर जिस तरह तूने पैग़म्बर मूसा को करिश्माई रौशनी दिखाई थी, उसी तरह मेरे अस्तित्व के स्याह कै़दख़ाने को फूँक दे, मुझे रौशन कर दे। मालूम नहीं, यह रौशनी उन्हंे मिली या नहीं लेकिन, जिगर मुरादाबादी हमेशा अंधेरे के विरुद्ध प्रकाश की जोत तलाशते रहे। उन गुनहगारों की पहचान सामने लाते रहे, जो प्रकाश का मुखौटा पहनकर समाज के हर गोशे में अंधेरा फैलाते हैं। ऐसे लोगों में राजनीतिज्ञ, समाज सुधारक, धार्मिक कठमुल्ले, सटोरिये और पाखण्डी कारोबारी हैं। बम्बई के दंगों पर जिगर कहते हैं,
हुकूमत के मज़ालिम1 जब से इन आँखों ने देखे हैं,
जिगर हम बम्बई को कूच–ए–क़ातिल2 समझते हैं।
(1– ज़ुल्म 2–क़ातिल की गली)
आज तो ज़्यादातर दुनिया क़त्लगाह में बदलती जा रही है। हुकूमत के ज़ुल्म बढ़ते जा रहे हैं। इज़राइल–फ़िलिस्तीन हो, पाकिस्तान–अफ़गानिस्तान हो, ईरान–इराक़ हो, असम–मणिपुर हो या आदिवासी इलाक़े हर ओर प्रतिहिंसा की आग बढ़ती जा रही है। जिगर एक शान्त और मोहब्बत से भरी धरती चाहते हैं। उनके नेक ख़्वाबों–ख़्यालों के रास्ते में सबसे बड़ी बाधा थी, किसी न किसी लत का शिकार होते जाना। इस बार उन्हें ताश खेलने का चस्का लग गया। वह दिन–रात ताश खेलने लगे। दुनिया जानती है कि ताश का महल कभी मुकम्मल नहीं होता, वह ढह ही जाता है।
आख़्िारकार 9 सितम्बर, 1960 को उर्दू ग़ज़ल का बेताज बादशाह हमेशा के लिए चला गया। प्रकाश पण्डित ने लिखा है कि, “जिगर साहब के उठ जाने से उर्दू शायरी और विशेषकर उर्दू ग़ज़ल के दुनिया में जो स्थान रिक्त हुआ है, उसकी पूर्ति होना मुश्किल ही दिखाई देता है। ‘जिगर’ साहब उर्दू साहित्य के इतिहास में अपना नाम स्वयं अपने हाथ से मोटे अक्षरों में लिख गये हैं।”(5)
जो ज़ीस्त1 को न समझें, जो मौत को न जानें,
जीना उन्हीं का जीना, मरना उन्हीं का मरना।
दरिया की ज़िन्दगी पर सदक़े2 हज़ार जानें,
मुझको नहीं गवारा साहिल3 की मौत मरना।
(1– ज़िन्दगी 2– न्योछावर 3– तट या किनारा)
सन्दर्भ :
1– जिगर मुरादाबादी, मोहब्बतों का शायर, भूमिका लेखक और सम्पादक: निदा फ़ाज़ली, वाणी प्रकाशन, दरियागंज, नयी दिल्ली, पृष्ठ 11।
2– लोकप्रिय शायर जिगर मुरादाबादी, सम्पादक: प्रकाश पण्डित, नया संस्करण: सह–सम्पादक सुरेश सलिल, राजपाल एण्ड सन्स, दिल्ली, पृष्ठ 7, संस्करण 2022।
3– उपर्युक्त, पृष्ठ 9, 10।
4– जिगर मुरादाबादी, मोहब्बतों का शायर, भूमिका लेखक और सम्पादक: निदा फ़ाज़ली, वाणी प्रकाशन, दरियागंज, नयी दिल्ली, पृष्ठ 11।
5– लोकप्रिय शायर जिगर मुरादाबादी, सम्पादक: प्रकाश पण्डित, नया संस्करण: सह–सम्पादक सुरेश सलिल, राजपाल एण्ड सन्स, दिल्ली, पृष्ठ 17, संस्करण 2022।
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