जन्म 1735 – निधन 1830

नजीर अकबराबादी सिद्ध और सच्चे हिन्दुस्तानी कवि हैं। बिलकुल धूप की तरह उजले, मिट्टी की तरह गीले, पहाड़ की तरह ऊँचे, बरछी की तरह नुकीले और बहार की तरह रंगीले। उन्होंने आदमी और चीजों की असलियत कुछ इस तरह से बयाँ की है कि दिल छलनी–छलनी हो जाता है। एक तर्जे बयाँ देखिए––

याँ आदमी पे जान को वारे है आदमी

और आदमी पे तेग को मारे है आदमी

पगड़ी भी आदमी की उतारे है आदमी

चिल्ला के आदमी को पुकारे है आदमी

और सुन के दौड़ता है सो है वह भी आदमी (आदमीनामा)

कविता के इतिहास में नजीर लोककवि की हैसियत रखते हैं। उनका पूरा वजूद जैसे मिट्टी, हवा, पानी और आग से बना हुआ है। वह मिट्टी के, यानी धरती के कवि हैं। पानी की चमक से भरे हुए पानीदार और हवा की तरह आजाद खयाल और आग की तासीर से भरे हुए। इसीलिए वह लगातार खेत–खलिहान, कुल जहान–आसमान और इनसान की बातें करते हैं। उनके शब्द, शब्दकोश से नहीं निकलते बल्कि खुशी, आँसू और खून से तरबतर जिन्दगी के हसीन और तल्ख तजुर्बों से निकलते हैं। वह कबीर की तरह ‘कागद की लेखी’ नहीं ‘आँखिन की देखी’ कहते हैं। सीधी–सीधी और खरी–खरी। उनकी बातें दिल से निकलती हैं और दिल तक पहुँच जाती हैं। दिल से निकले सीधे–सादे मगर जलते हुए सच्चे शब्द अपनी आग और ताब से आडम्बर, झूठ और पाखण्ड से भरे नकली शब्द–महल को तहस–नहस करके रख देते हैं। नजीर देसी बोली–बानी के साथ भाषा की अद्भुत दौलत का शानदार समन्वय करते हैं। अपने अनूठे काव्य–विषयों और नवीन प्रयोगों से वह महाकवि ठहरते हैं।

वह कई भाषाओं और बोलियों के गहरे जानकार थे। उर्दू, हिन्दी, अरबी, फारसी, पंजाबी, ब्रजभाषा, मारवाड़ी और पूरबी का जादू उन्होंने अपनी कविता में इस तरह जगाया कि आम जनता उनकी मुरीद हो गयी। उनकी सहृदयता, सहजता और सबों पर प्यार लुटाने की अदा कुछ ऐसी थी कि सभी उन्हें अपना मानते थे और उन पर अपना हक भी जताते थे। वह सर से पाँव तक जनता के आदमी थे और उनकी कविता जनता की कविता थी। उर्दू के मशहूर आलोचक प्रोफेसर सैयद एहतेशाम हुसैन ने बिलकुल ठीक लिखा है कि, “जनता से उनका ऐसा घनिष्ठ सम्बन्ध था कि उनके यहाँ ऊँच–नीच, हिन्दू–मुस्लिम, बड़े–छोटे का भेदभाव मिट गया था। उनके स्वभाव में ऐसी सरलता और व्यवहार में ऐसी स्वच्छन्दता पायी जाती थी कि सभी उनके मित्र थे। भिखारी और खोमचेवाले भी उनसे अपने लिए कविताएँ लिखा लेते थे।”(1)

यह सोचकर ही छाती चैड़ी हो जाती है कि हाशिये के लोग, शिष्ट समाज और ऊँचे तबके के द्वारा ठुकराये गये नीची और दलित श्रेणी के लोग उन्हें अपना दोस्त–कवि मानते थे। उन्हें अपने सुख–दु:ख और पेशे से जोड़ लेते थे। शायद कविता की लोक–परम्परा, कविता की द्वन्द्वात्मकता (डाइलेक्टिक्स) यही है। जनता के साथ, जनता के लिए और जनता के बीच। नजीर हमेशा जनता के महबूब शायर रहे। बिलकुल जलेबी की तरह मीठे, रसभरे और जबान पर चढ़े हुए। उन्होंने लिखा भी है कि,

हलवाई तो बनाते हैं मैदे की, ऐ ‘नजीर’

हमने ये सुखन की बनायी जलेबियाँ (जलेबियाँ)

(बातों की, कविता की)

सुखन की ये जलेबियाँ जनता ने जी भर कर चखीं और अपने प्रिय कवि को सर–आँखों पर बिठाया। नजीर अकबराबादी को जैसी लोकप्रियता और व्यापक जन–स्वीकृति मिली थी वह उनके युग के किसी और शायर को नहीं मिली। उन्होंने जैसे जात–पात, धर्म और भेदभाव से भरे सामाजिक नियम–कायदों को धता बताकर मनुष्य को बड़ा और महत्त्वपूर्ण माना था, उसी तरह उन्होंने मुख्तलिफ जबानों के बीच खड़ी हर दीवार को तोड़कर भाषाओं का एक पुल बनाया था जिस पर चलकर हिन्दुस्तानी कविता मालामाल हो गयी। “नजीर ने मातृभाषा की अकूत समृद्धि को जग जाहिर किया। इस लिहाज से उन्होंने वह कर दिखाया है जो सिर्फ कवि कुलचूड़ामणि चैसर और शेक्सपियर ही कर पाये। नजीर का हिन्दी शब्द–संयोजन अद्भुत है और विस्तृत भी और उनमें प्रतिभा का साहस व आत्मविश्वास ऐसा है कि वे शब्दों की नित नयी जमावट करने में गुरेज नहीं करते और मजे की बात तो यह है कि उनके आनन्दप्रद अर्थ उभरते चले जाते हैं।”(2) एक उदाहरण देखिए––

कौड़ी न हो तो फिर ये झमेला कहाँ से हो

रथखाना, फीलखाना1, तबेला2 कहाँ से हो

मुँडवा के सर फकीर का चेला कहाँ से हो

कौड़ी न हो तो सार्इं का मेला कहाँ से हो

कौड़ी के सब जहान से नक्शों–नगीन3 हैं

कौड़ी न हो तो कौड़ी के फिर तीन–तीन हैं (कौड़ी)

(1– हाथीखाना 2़ घुड़साल 3– शान–शौकत)

‘कौड़ी के तीन’ हिन्दी का बहुत प्रचलित मुहावरा है। इसका अर्थ है धनहीन, दीन और अपमानित होना। सामन्ती और आभिजात्य समाज में गरीब होना, धनवंचित होना अपराध है। शिष्ट समाज में इस अपराध की यही सजा है कि सर झुका के चलो, नजरें चुराकर चलो। जिनके पास कौड़ी नहीं है, रुपयों की खनखनाती थैली नहीं है, वह इतने गये–बीते हैं कि उनकी इज्जत परचूनियों से भी गयी बीती है। अपनी नज्म ‘कौड़ी’ में नजीर लिखते भी हैं कि,

बिन कौड़ी खुरदिये1 के बराबर भी पत2 न थी

(1– परचूनिये 2– इज्जत)

पत तो समाज में पहले भी उन्हीं की थी और आज भी उन्हीं की है जिनके पास दौलत का अम्बार है। सोने–चाँदी, जवाहरात की भरमार है। दौलत है तो गधा भी शेर है। सोने का भण्डार है तो मूर्ख भी विद्वान है। रुपयों का पहाड़ है तो चोर भी साहूकार है। प्लीडर और लीडर है। अठारहवीं सदी में भी धन का बोलबाला था और इक्कीसवीं सदी में तो धन का नशा जैसे सर चढ़कर बोल रहा है। चारांे तरफ धन का ही राज है, चोरों, डकैतों और ठगों का साम्राज्य है। अगर आप आँख के अंधे और गाँठ के पूरे हैं लेकिन बेहिसाब धन–दौलत से भरे–पूरे हैं तो यकीनन आप शहंशाहे आलम बन सकते हैं। आलिम–फाजिल लोगों के आका बन सकते हैं। अपनी जय–जयकार करा सकते हैं। और तो और सच को झूठ और झूठ को सच बना सकते हैं। धन की महिमा ही न्यारी है। यह निकृष्ट लोगों को उत्कृष्ट बना सकता है। कातिल को मुंसिफ बना सकता है। यह पीत स्वर्ण–काल है। पीत स्वर्ण यानी पीला सोना। पीले सोने के काले जादू ने हमारी सदी को जैसे डस लिया है। शेक्सपियर ने अपने नाटक ‘टिमॉन ऑफ एथेन्स’ में लिखा है कि,

यह पीत दास

धर्मों की श्रृंखलाओं को जोड़ेगा–तोड़ेगा,

देगा अभिशप्तों को शुभाशीष,

श्वेतकेशी कोढ़ी को भी बना देगा यह पूज्य,

चोरों को बैठाएगा साँसदों के संग,

और देगा उन्हें मान, सम्मान और स्तुति–गान

नजीर भी शेक्सपियर की तरह धन–दौलत की नीव पर टिके सभ्यता और संस्कृति के महल को अपनी बारीक नजर से देखते और परखते हैं और अपने जमाने की सच्चाई को बिना लाग–लपेट के सामने रख देते हैं।

देते हैं जान कौड़ी पर तिफलो1–जवानो–पीर

कौड़ी अजीब चीज है, मैं क्या कहूँ ‘नजीर’

(1– बच्चा)

अमीरों के चोचले, लूटपाट, पाखण्ड, विलासप्रियता, शोषण और बेशर्मी ने ही गरीबी को जन्म दिया है और गरीबों के जीवन को नरक बना दिया है। नजीर अकबराबादी ने इस नरक को देखा था। इसके बीच से गुजरे थे और आम जनता की तकलीफों को दिल से महसूस किया था। उन्होंने दरबारी कविता की आसान और धनवान बनने की राह नहीं पकड़ी बल्कि जन कविता की ऊबड़–खाबड़ और खाई–खन्दकों से भरी राह पकड़ी। वह राजकवि बन सकते थे। ऐशो–इशरत का जीवन बिता सकते थे। सोने के महल में चाँदी के बिस्तर पर रुपयों की चादर ओढ़कर सो सकते थे। लेकिन रुपया कभी उनके पाँव की बेड़ी न बन सका। उन्होंने बड़ी हिकारत से रुपयों के दलदल में गर्क लक्ष्मीपतियों का खाका खींचा है,

इक आदमी हैं जिनके ये कुछ जर्क–बर्क1 हैं

रूपे के जिनके पाँव हैं सोने के फर्क2 हैं

झमके तमाम गर्ब3 से ले ता–ब–शर्क4 हैं

कमख्वाब, ताश, शाल, दुशालों में गर्र्क5 हैं

और चीथड़ों लगा है सो है वह भी आदमी (आदमीनामा)

(1– भड़कदार (कपड़े) 2– माथे 3– पश्चिम

4– पूर्व तक 5– डूबे)

आदमी को कभी उसकी हैसियत और रुतबे से नजीर अकबराबादी नहीं आँकते। वह तो इस दर्शन के हिमायती और अलम्बरदार हैं कि ‘सब ठाठ पड़ा रह जावेगा जब लाद चलेगा बंजारा’। ठाठ–बाट और रुपया कभी उन्हें आकृष्ट न कर सका। नवाब सआदत अली खाँ ने उन्हें लखनऊ बुलाया लेकिन उन्होंने जाने से इनकार कर दिया। इसी प्रकार भरतपुर के नवाब ने उन्हें बुलाया किन्तु वे न गये।”(4) उन्होंने तो अपने पूर्वज कवि सन्त कुंभनदास की बहुत सुनी और गुनी हुई पंक्ति को फिर से चरितार्थ कर दिया कि, सन्तन को कहा सीकरी सों काम।

वह सीकरी के रास्ते नहीं गये। दौलत और शोहरत उन्होंने ठुकरा दी और ताजिन्दगी ‘प्राइवेट ट्यूशन’ करते हुए आगरे के ही बने रहे। आगरा के गली–कूचों और लोगों के वह शैदाई रहे। यमुना के जल और ब्रजमण्डल की आबोहवा से उनकी आत्मा नहाती और नित नवीन होती रही। उन्होंने गर्व से लिखा है कि,

आशिक कहो, असीर कहो, आगरे का है।

मुल्ला कहो, दबीर कहो, आगरे का है।।

मुफलिस कहो, फकीर कहो, आगरे का है।

शायर कहो, ‘नजीर’ कहो, आगरे का है।।

आगरे के इस शायर–फकीर ने जिन्दगी के साथ शायरी के भी सारे बन्धन तोड़ दिये। बदनाम गलियों में वह हँसते–खिलखिलाते और दुआ देते रहे। मन्दिरों, मस्जिदों और पूजाघरों में हाथ जोड़ते, सजदा करते सन्तों–भक्तों की तरह प्रेम की गंगा और ज्ञान की यमुना बहाते रहे। उन्होंने अपने दिल में अनैतिक और बद्चलन करार दी गयी औरतों को बाइज्जत जगह दी और बहिष्कृत और अपमानित लोगों को गले से लगाया। वह साधारण जनों के असाधारण कवि थे। साधारण और तुच्छ विषयों पर, जिनका जिक्र आते ही बड़े और नामवर कवि नाक–भौंह सिकोड़ने लगते थे, नजीर ने मस्ती में डूब कर लिखा। उनके काव्य–विषयों की विविधता और वर्णन करने की शैली हैरान कर देती है। उन्होंने हर मौसम यानी वसन्त, गर्मी, जाड़ा और बरसात के विविध रंग दिखाये। आदमी के जीवन–चक्र यानी बचपन, जवानी और बुढ़ापे की बड़ी अनोखी और दिलकश तस्वीरें खींचीं और मौत के सन्नाटे का हौलनाक नजारा भी दिखाया। आगरे की ककड़ी, तिल के लड्डू, तरबूज, सन्तरा और जलेबी के स्वाद चखाये तो भंग के तरंग में डुबोया भी। मेले–ठेले, पशु–पक्षी, तैराकी, कुश्ती के साथ जिन्दगी की दुश्वारियाँ भी दिखायीं। ताजमहल की खूबसूरती के साथ रोटी की जरूरत और रोटी के दर्शन को भी रेखांकित किया। भक्ति भाव में रसलीन होकर जहाँ कन्हैया, शिवजी, हजरत मोहम्मद साहब, हजरत अली, गुरुनानक, सूफी सन्त शेख सलीम चिश्ती के गुण गाये और श्रद्धा के फूल चढ़ाये वहीं होली, दिवाली और शब–बरात से जिन्दगी के हर अंधेरे कोने को रंग और रौशनी से गुलजार किया।

कविता जैसे उनकी साँसों में रची–बसी थी। उन्हांेने ऐसे विषयों पर कविता लिखी जो काव्य–विषय माने ही नहीं जाते थे। उन पर लिखना बेअदबी, बाजारूपन और बेहूदगी समझी जाती थी। नजीर ने सामन्ती समाज की काव्य रूढ़ियों को, उसके सौन्दर्य–शास्त्र को तोड़–फोड़कर रख दिया। उन्होंने आम आदमी, जिसकी कोई वकत नहीं है, जिसके कंधे पर पहाड़ है, जिसकी आँखों में तूफान है, जिसके पावों में धरती को नाप लेने का हुनर है और जिसका दिल दु:ख और दर्द से भरा हुआ है, उसे पूरी जिद और ताकत के साथ कविता के केन्द्र में स्थापित कर दिया। अपनी बातें कहने, लिखने और सुनाने में उन्होंने किसी की भी परवाह नहीं की, न आभिजात्य कवि–आलोचकों की और न उनके प्रतिमानों की। वह अपनीे पर आयेंगे तो “––––वे कुछ ऐसी बातें भी कह जायेंगे जो सामन्ती युग के सभ्य समाज में वर्जित थीं–– जैसे गरीबी का रोना, मौत का डर और रोटियों का महत्त्व। स्पष्ट है कि साधारण किन्तु सम्पूर्ण जीवन के ऐसे यथार्थवादी कवि को सम्भालना उस समय की सामन्ती दरबारी चेतना के वश की बात नहीं थी। इसलिए तत्कालीन आलोचकों ने बाजारूपन के नाम पर उनकी लोकप्रियता से छुट्टी पा ली।”(5)

नजीर ने काव्य वर्जनाओं को ही नहीं तोड़ा बल्कि सामाजिक विज्ञान को, जो सिर के बल उलटा खड़ा था उसे सीधा खड़ा कर दिया। उन्होंने यथार्थ के इतने तीखे, सच्चे, चमकदार, परतदार और साफ चित्र दिखाये कि आँखें फटी की फटी रह गयीं। उन्होंने मुफलिसी, बीमारी, लाचारी, बेगारी, बेकारी के साथ भूख, मौत और रोटी के बीच पिसते और मरते आदमी का जो शोकगीत अठारहवीं और उन्नीसवीं सदी में रचा था, उसे इक्कीसवीं सदी के हिन्दुस्तान में हम आज सुन रहे हैं। सुन ही नहीं रहे हैं बल्कि ध्वनि तरंगों को आँखों के परदे पर चलता–फिरता हुआ देख रहे हैं। गोया इतिहास की परछाइयाँ अपनी कब्रों से निकलकर जीती–जागती सामने आ गयी हैं। ‘कोरोना लॉकडाउन’ के इस मनहूस समय में हजारों–हजार दुखी, भूखी और सतायी हुई गरीब–गुर्बों की पैदल चलती थकी–हारी भीड़ हमारी तथाकथित पूँजीवादी सभ्यता के मुँह पर जोरदार तमाचा है। नजीर अकबराबादी ने जमाने पहले लिखा था, जरा पढ़िए और आज के दर्दनाक हालात पर उसे चस्पा कीजिए, बाखुदा दिल चूर–चूर हो जायेगा––

जब आदमी के हाल पर आती है मुफलिसी1

किस–किस तरह से उसको सताती है मुफलिसी

प्यासा तमाम रोज बिठाती है मुफलिसी

भूखा तमाम रात सुलाती है मुफलिसी

ये दु:ख वो जाने जिस पे कि आती है मुफलिसी (मुफलिसी)

(1– गरीबी)

दु:ख और विपत्ति की इस भीषण घड़ी में जब पूँजीपतियों की सरकार भलमनसाहत का ड्रामा करती है, भूखे–प्यासे, बेचैन और मरणान्तक थकान से जूझते लोगों से क्षमा माँगकर दानवीरता का चोला धारण करती है तब अतीत से आती हुई नजीर की तंज भरी पुकार शैतान के चेहरे से इंसानियत का नकाब नोच कर फेंक देती है,

जब रोटियों के बँटने का आकर पड़े शुमार

मुफलिस को देवें एक तवंगर1 को चार–चार

गर और माँगे वह तो उसे झिड़के बार–बार

इस मुफलिसी का आह बयाँ क्या करूं मैं यार

मुफलिस को इस जगह भी चबाती है मुफलिसी

(1– मालदार)

मालदार और मुफलिस, करोड़पति और खाकपति को सत्तापक्ष एक नजर से नहीं देखता। अमीर उसके सर का ताज है और गरीब पैरों की जूती। गरीब का खून वह चूसता है और उसी खून से अमीर को सुर्खरू बनाता है। सुर्खरू बनाने का यह खेल सदियों से चल रहा है।

नजीर अकबराबादी भी आज से लगभग डेढ़ सदी पहले तुलसी की भावभूमि पर पहुँचते हैं और लिखते हैं कि,

किस्मत से चार पैसे जिन्हें हाथ आते हैं।

अलबत्ता रूखी–सूखी वो रोटी पकाते हैं।।

जो खाली आते हैं, वो करज लेके जाते हैं।

यूँ भी न पाया कुछ तो फकत गम को खाते हैं।।

सोते हैं कर किवाड़ को इक आह मार बन्द।।

जितने हैं आज आगरे में कारखाना–जात।

सब पर पड़ी है आन के रोजी की मुश्किलात।।

किस–किस के दु:ख को रोइए और किसकी कहिए बात।

रोजी के अब दरख्त का मिलता नहीं है पात।।

ऐसी हवा कुछ आ के हुई है एक बार बन्द।।

                                                                (‘शहरे आशोब’)

 सत्ता और मालिकों द्वारा ठुकराये गये जीविकाविहीन लोगों का कुसूर क्या था? ये दु:ख और अभाव के मारे हुए लोग रोजी के दरख्त से कुछ पत्ते ही तो तोड़ने निकले थे ताकी रोटी खरीद सकें। रोटी के लिए ही तो घर से बेघर हुए थे और रोटी के लिए ही फिर घर जा रहे थे। रोटी ने कैसे–कैसे खेल दिखाये और कैसे–कैसे नाच नचाये!

सचमुच रोटी के खेल निराले हैं। अमीरजादे के भरे हुए पेट में रोटियों का धमाल देखिए,

रोटी से जिसका नाक तलक पेट है भरा

करता फिरे है क्या वो उछल–कूद जा–बा–जा

दीवार फाँदकर कोई कोठा उछल गया

ठट्ठा, हँसी, शराब, सनक, साकी, उस सिवा

सौ–सौ तरह की धूमें मचाती हैं रोटियाँ (रोटियाँ)

और भूखे पेट की कैफियत देखिए––

पूछा किसी ने यह किसी कामिल1 फकीर से

यह मेह्रो–माह2 हक3 ने बनाये हैं काहे से

वह सुन के बोला, “बाबा, खुदा तुझको खैर दे

हम तो न चाँद समझें न सूरज हैं जानते

बाबा हमें तो यह नजर आती हैं रोटियाँ”

(1– पूर्ण 2– सूर्य–चन्द्रमा 3– ईश्वर)

नजीर अकबराबादी पहले ऐसे शायर हैं जिन्होंने चाँद और सूरज में रोटी देखी। अल्लाह के तसव्वुर में भी रोटियों का दीदार किया, ‘अल्लाह की भी याद दिलाती हैं रोटियाँ।’ उनसे पहले किसी शायर ने पूरी सृष्टि को रोटी के बिम्ब में नहीं बाँधा है। रोटी में पूरा ब्रह्माण्ड देख लेना साधारण आँखों का काम नहीं है। यह उस्तादाना कमाल है और इस कमाल के लिए शिव की तीसरी आँख चाहिए। नजीर के पास कविता की तीसरी आँख है। ध्वंस के साथ सृजन। मृत्यु के साथ जीवन। पतझड़ और वसन्त दोनों को उन्होंने साधा है।

आने को आज धूम इधर है बसन्त की

कुछ तुमको मेरी जान खबर है बसन्त की

होते हैं जिससे जर्द जमीं–ओ–जमाँ1 तमाम

ऐ मेहर तलअतो2 वो सहर3 है बसन्त की (बसन्त)

(1– जमीन और जमाना, धरती और समय

2– खूबसूरत, रूपवान 3– सुबह, भोर)

वसन्त यानी जिन्दगी और पतझड़ यानी मौत।

दिन रात दुन मची है यहाँ और पड़े हैं जंग

चलती है नित अजल1 की सनाँ2 गोली और तुफंग3

                                                                                (मौत)

(1– मौत 2– भाला 3– बन्दूक)

नजीर ‘अजल की सनाँ’ के बीच बहार की बाँसुरी लिए हुए हैं। वह अजल से आँखें मिलाते हैं और जीवन के सुर साधते हैं। वह सपूर्ण जीवन के कवि हैं। फिराक गोरखपुरी साहब ने उन्हें ‘टेढ़ी–मेढ़ी नदी का बहाव’ और ‘खुले मैदान में गूँजती हुई वंशी’ कहा है। वंशी की इस टेर को, सौन्दर्य और जीवन की पुकार को उनके समकालीनों ने नहीं सुना। सुना भी तो उसे फूहड़ और दो कौड़ी का कहा। उन्नीसवीं सदी के महत्त्वपूर्ण आलोचकों ने उन्हें बाजारू कवि माना। नवाब मुस्तफा–खाँ ‘शेफ्त’ ने तो नजीर को निकृष्ट कवि घोषित कर दिया। नजीर अकबराबादी को उनका वास्वतिक श्रेय उनके जीवन काल में नहीं मिला। वे उपेक्षित, अममानित और शिष्ट साहित्य की चैहद्दी से हमेशा बहिष्कृत रहे। महान नाटककार और आला दर्जे के ड्रामानिगार हबीब तनवीर ने अपने क्लासिक नाटक ‘आगरा बाजार’ में जैसे नजीर और उनके युग को जीता–जागता उतार दिया है। इस नाटक में हम नजीर अकबराबादी को देख सकते हैं। उन्हें छू सकते हैं और अपनी धड़कनों में महसूस कर सकते हैं। यह हबीब साहब का कमाल है कि वह हमें बीसवीं या इक्कीसवीं सदी से उठा कर अठारहवीं–उन्नीसवीं सदी में ले जाते हैं और हम देखते हैं कि नाटक का एक पात्र तजकिरानवीस कहता है कि, “भई बहुत बागो–बहार आदमी है, खुशमिजाज, शुगुफ्ता–उफ्ताद (प्रसन्नचित्त), हर शख्स से हँस कर मिलने वाला, ऐसा कि शायद जिसकी मिसाल दुनिया में मुश्किल से मिलेगी। लेकिन शायरी–आँ चीजे दीगर अस्त (यह दूसरी चीज है)। फोहशकलामी (अश्लील लेखन), हर्जागोई (बकवास, अश्लीलता, फूहड़पन, फक्कड़पन), इब्तजाल और आमियाना मजाक (साधारण रुचि) की तुकबन्दी को हमने शेर नहीं माना। मियाँ नजीर को शायर मानना उन पर बहुत बड़ा बुहतान (लांछन) होगा। शोअरा के तजकिरे में उनकी कोई जगह नहीं है।”

नजीर पूरी जिन्दगी शायर होने का लांछन झेलते रहे। बाहर से वह खुशमिजाज और फक्कड़ दिखे लेकिन भीतर आत्मसंघर्ष और पीड़ा की आग में जलते रहे। आभिजात्य साहित्य ने उन्हें फटीचर माना और आलोचकों ने उन्हें फूहड़ करार दिया। रीछ का रूपक लेते हुए उन्होंने मन के उथल–पुथल और संघर्ष का जिक्र अपनी नज्म ‘रीछ का बच्चा’ में कुछ इस तरह किया है,

कहता था कोई हमसे “ओ मियाँ कलन्दर1

वह क्या हुए अगले वो तुम्हारे थे जो बन्दर?”

हम उनसे ये कहते थे, “ये पेशा है कलन्दर

हाँ छोड़ दिया बाबा उन्हें जंगले2 के अन्दर

जिस दिन से खुदा ने ये दिया रीछ का बच्चा

                                                                (रीछ का बच्चा)

(1– फकीर 2– जंगल)

और यह बन्द देखिए––

जब कुश्ती की ठहरी तो वहाँ सर को जो झाड़ा

ललकारते ही उसने हमें आन लताड़ा

गह1 हमने पछाड़ा उसे, गह उसने पछाड़ा

एक डेड़ पहर फिर हुआ कुश्ती का अखाड़ा

गो हम भी न हारे न हटा रीछ का बच्चा

(1– कभी)

गरज यह कि नजीर कभी अखाड़े से बाहर नहीं हुए। वह धरतीपकड़ पहलवान की तरह खम ठोके रहे। उन पर हमला–दर–हमला होता रहा। वह चोटिल भी हुए, दिल रंजूर हुआ और उदास भी। उनका एक शेर उम्र भर लम्बी उदासी को भी जैसे उदास कर जाता है––

पीरी1 में भी जिस तरह उसको दिल–अफसुर्दगी2

वैसी ही थी उन दिनों जिन दिनों मैं था जवाँ

(1– बुढ़ापा 2– उदासी)

लेकिन उदासी कभी उनका स्थायी भाव नहीं रहा। वह तो उत्साह, उम्मीद और प्यार के धागों से कविता का ताना–बाना बुनते रहे। जीवन की छोटी–छोटी खुशियों पर निसार होते रहे। रोजमर्रा की बेहद मामूली चीजों और साधारण लोगों के सुख–दु:ख से उनकी कविता की देह बनी जिसने उनकी आत्मा को आसमान तक उठा दिया। जनता की शक्ति ही उनकी कविता की शक्ति है। वह राजमार्ग के राजकुमार नहीं, तंग गलियों के सिपहसालार हैं। उनकी शक्ति और प्रेरणा का स्रोेत वह जनता है जो गली–कूचों, सड़क–चैबारों, खेतों, खलिहानों और कारखानों तक फैली हुई है। इस फैली हुई, उपेक्षित और बिखरी हुई जनता को कविता के केन्द्र में ले आना नजीर अकबराबादी का क्रान्तिकारी और युगप्रवर्तक कार्य है।

‘आगरा बाजार’ में हबीब तनवीर बहुत खूबसूरती और कलात्मकता के साथ नजीर की शायरी और उनके युग के जीते–जागते पात्रों का पुनर्सृजन करते हैं। फकीर, लड्डूवाला, तरबूजवाला, बरफवाला, कनमैलिया, पानवाला, ककड़ीवाला, मदारी, रेवड़ीवाला, चनेवाला, बरतनवाला, किताबवाला, शायर, तवायफ और तजकिरानवीस जब मंच पर आते हैं तो जैसे नजीर का युग करवटें बदलने लगता है। उनकी शायरी का इन्द्रधनुष सात रंग में जगमगाने लगता है। दूर अतीत के धुंध को चीरती हुई नजीर अकबराबादी की पुकार सुनाई देती है,

आलम है सब मुअत्तर1 तेरे करम2 की बू से

हुरमत है दोस्तों को हजरत तुम्हारे रू से

यह चाहता हूँ अब मैं सौ दिल की आरजू से

रखियो ‘नजीर’ को तुम दो जग में आबरू से

ऐ मूजिदे–हर–अहसाँ3 हजरत सलीम चिश्ती

                                                                (शेख सलीम चिश्ती)

(1– सुगन्धित 2–पा 3–हर—पा करने वाले)

नजीर की यह दुआ कुबूल हो गयी। आज उनके यश की सुगन्ध चारांे दिशाओं में फैली हुई है। कविता के दीवाने आज उन्हें बहुत प्यार, खुलूस और एहतराम से याद करते हैं। गुजश्ता उन्नीसवीं सदी ने उन्हें ठुकराया था लेकिन आने वाली सदियों ने उन्हें सर–माथे पर बिठाया। कविता का आँगन जो कभी उनके लिए बन्द कर दिया गया था, वह अब उनकी अगवानी के लिए सौ–सौ बाँहें फैलाए खड़ा था। जीवन की आग में निरन्तर जलकर, उपेक्षा की ज्वाला में निरन्तर तपकर नजीर कुन्दन बन गये। उन्होंने कविता को सोने की अमिट चमक से भर दिया। वह सच्चे अर्थों में जनता के कवि थे। जनता से ही सब कुछ लिया, जनता के लिए ही रचा और सब कुछ जनता को ही सौंपकर,

‘वह जिन्द–ए–अदब1 हुए ता–हश्र2 बरकरार।’

                                                                                (मौत)

(1– अमर 2– कयामत तक)

सन्दर्भ

1– उर्दू साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास, प्रोफेसर सैयद एहतेशाम हुसैन, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, संस्करण 2016, पृष्ठ 98।

2– हिन्दी–उर्दू साझा संस्कृति, हिन्दुस्तानी–अंग्रेजी कोश (1879) की भूमिका, एस– डब्ल्यू फैलन, हिन्दी अनुवाद : रविकान्त और एना रूथ जे–, राष्ट्रीय पुस्तक न्यास भारत, नयी दिल्ली, पृष्ठ 110।

3– साहित्य और कला, कार्ल मार्क्स–फ्रेडरिक एंगेल्स, सम्पादक और अनुवादक : रमेश सिन्हा, इण्डिया पब्लिशर्स, लखनऊ, प्रथम संस्करण 1984, पृष्ठ 140–141।

4– उर्दू भाषा और साहित्य, फिराक गोरखपुरी, उत्तरप्रदेश हिन्दी संस्थान, लखनऊ, चतुर्थ संस्करण 2008, पृष्ठ 47।

5– उपर्युक्त, पृष्ठ 49।