मखदूम मोहिउद्दीन उर्दू अदब के अनोखे और बिल्कुल नयी रौशनी से भरे हुए सितारे हैं। उनकी निखरती हुई आभा हैरान करती है और बाहें फैलाकर अपने सौंदर्यपाश में बाँध लेती है। यह बन्धन हमें किसी दायरे में कैद नहीं करता बल्कि आजाद करता है। नये पंख देता है और उड़ने के लिए नया आकाश। एक नयी दुनिया और एक नये आदम को गढ़ने का ख्वाब और हौसला देता है।

इस जमीन–ए–मौत परवर्दा को ढाया जाएगा

इक नयी दुनिया, नया आदम बनाया जाएगा।

सिब्ते हसन साहब ने बिल्कुल ठीक कहा है कि, “तुम्हारा मुशाहदा (अवलोकन), तजुर्बा (अनुभव) और जाविए नजर (नजरिया) कभी किसी जेहनी बीमारी का शिकार नहीं हुआ, जिसका असर तुम्हारी शायरी पर पड़ता। तुम्हारा इश्क और जिन्दगी का तसव्वुर और समाजी कशाकश का शऊर सभी सेहतबख्श थे।”(1)

उनकी सेहतबख्श शायरी पढ़ने–सुनने वालों को बेखबर नहीं, बाखबर करती है। दीन–दुनिया की मुश्किलों, मुसीबतों, बदकारियों, मक्कारियों और सियासी–समाजी चालबाजियों को बेनकाब करती है। जन्नत और दोजख की हकीकत बयाँ करती है और सच्ची खूबसूरती और पाक मोहब्बत का तराना गाती है। मखदूम के तराने सात सुरों और सात रंगों में सराबोर करते हैं लेकिन हमारी चेतना को सोने नहीं देते, उसे जगाए रखते हैं। होशियार और खबरदार रखते हैं। जुल्म और वहशत के सामने घुटने टेकने नहीं देते, बल्कि आगे बढ़कर जुल्मो–सितम को जड़ से उखाड़ फेंकने की हिम्मत और ताकत देते हैं। वह प्रेम, जागरण, आन्दोलन और आह्वान के योद्धा कवि हैं। वह ललकारते हैं,

वक्त है आओ दो आलम1 की दिगरगूँ2 कर दें

कल्बे गेती में3 तबाही के शरारे भर दें

(1– दो संसार 2– बदल दें 3– संसार का दिल)

मखदूम के लिए शायरी दिलबहलाव से कहीं ऊपर की चीज है। शायरी और अन्य कलाएँ उनके लिए बहेलिए का तीर है और पंछी का आर्तनाद भी। सदियों से ब्रह्माण्ड में गूँजती हुई आदि कवि की आँसू और रक्त से भीगी हुई अमर पुकार है। चट्टानों के सीनों में तराशी गयी मूर्तियाँ हैं। गुफाओं, खोहों की चित्रवलियाँ हैं। जम गयी चीखें हैं। जंजीरों की झनकार है। गुलामी का सर्द अँधेरा और आजादी का सुर्ख सवेरा है। सुख की लाली और दु:ख की कालिमा है। मखदूम अपनी नज्म ‘शायर’ में कहते भी हैं कि,

कुछ कौसे कजह1 से रंगत ली कुछ नूर चुराया तारों से

बिजली से तड़प को माँग लिया कुछ कैफ2 उड़ाया बहारों से।

फिरदौसे खयाली3 में बैठा इक बुत को तराशा करता हूँ

फिर अपनी दिल की धड़कन को पत्थर के दिल में भरता हूँ।

(1– इन्द्रधनुष 2– आनन्द 3– स्वर्ग की कल्पना)

मखदूम कविता को ‘मैं’ और ‘हम’ का कलात्मक रूपान्तरण और सभ्यता का उत्कर्ष मानते हैं। बिसात–ए–रक्स में वह लिखते भी हैं कि, “फुनून–ए–लतीफा (ललित कलाएँ) इन्फिरादी (व्यक्तिगत) और एजतमाई (सामूहिक) तहजीब–ए–नफस (सभ्यता की साँस) का बड़ा जरिया है, जो इनसान को वहशत से शराफत की बुलंदियों पर ले जाते हैं।”(2) कविता सभ्यता और संस्कृति की सर्जनात्मक और केन्द्रीय शक्ति है। कविता साँस है और जीवन का रक्षा कवच भी। वह एकवचन है और बहुवचन भी। वह एक दिल है और लाख दिल भी है। वह एक ख्वाब है और सबका ख्वाब है। मखदूम मोहिउद्दीन कविता की इसी वैश्विकता को अपनी रचना ‘सबका ख्वाब’ में कुछ इस तरह व्यक्त करते हैं,

वो शबे मय वो शबे माहताब, मेरी ही न थी

वो तो सबका ख्वाब था

वो जो मेरा ख्वाब कहलाता था, मेरा ही न था

वो तो सबका ख्वाब था

साय–ए गेसू में बस जाने के अरमाँ दिल में थे

मेरे दिल ही में न थे

वो तो सबका ख्वाब था

लाख दिल होते थे लेकिन

जब धड़कते थे तो इक दिल की तरह

जब मचलते थे तो इक दिल की तरह

जब उछलते थे तो इक दिल की तरह

जब महक उठते तो दुनिया का महक उठता था दिल

वोल्गा का, यांगसी का, नील का, गंगा का दिल

आप में इक गर्मी–ए–एहसास होती थी

नहीं मालूम वो क्या हो गयी

चाँदनी सी मेरे दिल के पास होती थी

नहीं मालूम वो क्या हो गयी।

मखदूम को पढ़ते–गुनते हुए महान अफ्रीकी लेखक, विचारक, कवि और मुक्तियोद्धा अमिल्कर कबराल की सन् 1946 में लिखी ‘कविता’ शीर्षक की पंक्तियाँ याद आती हैं,

ओह कविता,

मेरी बाँह ले जाओ दुनिया को बाहों में भरने के लिए

मुझे अपनी बाँहें दो जीवन को बाहों में भरने के लिए

मैं स्वयं हूँ अपनी कविता।(3)

मखदूम अपने आप में एक मुकम्मल कविता हैं। हमारे पुरखे कवि घनानन्द ने सदियों पहले लिखा था कि,

लोग हैं लागि कवित्त बनावत

मोहि तौ मोरे कवित्त बनावत।

मखदूम मोहिउद्दीन का पूरा वजूद कविता के रसायन से बना हुआ है। इस रसायन में फूलों का अर्क है तो तेजाब भी। लोहा है तो सोना भी। क्रोध है तो करुणा भी। निर्माण है तो विध्वंस भी। वह स्वयं के बारे में लिखते हैं,

रअद1 हूँ, बर्क2 हूँ, बेचैन हूँ, पारा हूँ मैं

खुदपरस्तार3, खुदआगाह खुदआरा4 हूँ मैं।

गरदने जुल्म कटे जिससे वो आरा हूँ मैं

खिरमने–ए–जौर5 जला दे वो शरारा6 हूँ मैं।

                मेरी फरियाद पर अहले दवल7 अंगुश्तबगोश8

                ला तबर9, खून के दरिया में नहाने दे मुझे।

(1– बादल 2– बिजली 3– उपासक 4– स्वयं सजाना 5– जन्म का घर 6– चिंगारी 7– दौलत वाले 8– कान बन्द कर लेना 9– कुल्हाड़ी जैसा हथियार)

सामन्ती–पूँजीवादी तंत्र धर्म और राजनीति से नापाक गठबन्धन कर किसानों, मजदूरों, दलितों, आदिवासियों और मध्यवर्गीय गरीबों का भयानक और अमानवीय शोषण करता है। मखदूम पूँजी के इर्द–गिर्द घूमते और उन्हीं की दिन–रात चाकरी बजाते धर्माधिकारियों और सत्ताधीशों की घृणित कारगुजारियों को समझते और समझाते हैं। वह इस सच को बखूबी जानते हैं कि केवल कविता लिखना पर्याप्त नहीं है। जरूरी है कविता को जन–जन तक पहुँचाना। अपनी बाँहें फैलाना और लाखों–लाख बाहों से मिल जाना। एक पुकार का समवेत पुकार में बदल जाना। मखदूम ‘बागी’ नज्म में अपनी चाहत का इजहार करते हैं,

                तोड़ डालूँगा मैं जंजीरे असरान–ए–कफस1

                दहर को पंज–ए–उसरत2 से छुड़ाने दे मुझे।

बर्क बनकर बुत–ए–माजी को गिराने दे मुझे

रस्मे कुहना को तहे खाक में मिलाने दे मुझे।

तफरके3 मजहबो मिल्लत4 को मिटाने दे मुझे

ख्वाबे फर्दा5 को अब हाल बनाने दे मुझे।

                आग हूँ, आग हूँ, हाँ एक दहकती हुई आग

                आग हूँ, आग अब, अब आग लगाने दे मुझे।

(1– जेल के कैदियों की जंजीरें 2– जमाने को गरीबी के पंजे से 3– भेदभाव 4– धर्म)

मखदूम अपनी दिली चाहत को पूरा करने के लिए कलम के साथ बन्दूक उठा लेते हैं। वह आराम–आराइश की जिन्दगी छोड़ कर संघर्ष और बगावत के तूफानी और बारूदी रास्तों पर चल पड़ते हैं और एक सच्चे एक्टिविस्ट कवि और समर्पित वामपंथी कार्यकर्ता के रूप में चारों ओर छा जाते हैं। वह अपने कम्युनिस्ट उसूलों और ख्वाबों की तामीर के लिए 1943 में लेक्चरर की नौकरी छोड़ देते हैं। इतना ही नहीं वह अंग्रेजों और उनके लगुए–भगुए सामन्तों, नवाबों और जागीरदारों के खिलाफ मोर्चा खोल देते हैं। महान तेलंगाना विद्रोह के दौरान तत्कालीन हैदाराबाद रियासत के नवाब ने उनकी हत्या के लिए 5000 रुपये का ईनाम रखा था। प्रसिद्ध लेखक विष्णु प्रभाकर ने लिखा है कि,“1946 में जब तेलंगाना के किसानों ने सामन्तों के खिलाफ अपनी खुदमुख्तारी की लड़ाई शुरू की तो मखदूम उसमें किसानों के साथ पेश–पेश थे।”(4)

वह आम जनता को हर तरह के शोषण, उत्पीड़न और बेचारगी से मुक्त करना चाहते हैं। वह मेहनतकशों के खून से चमकने और पलने वाले परजीवियों की दुनिया, उनके वंशजों और महलों को भस्म कर देना चाहते हैं। खून से रंगा अतीत फासिज्म की शक्ल में सामने खड़ा थाय घोर अनैतिक, भयानक प्रदूषित और इनसान को हत्यारी भीड़ में बदलता हुआ। मखदूम अपनी कविता से आदमी को शैतान बनने से रोक रहे थे और अपनी पूरी ताकत से तहजीब और इनसानियत को बचा रहे थे। यही काम महान मनोवैज्ञानिक कार्ल जी युंग भी कर रहे थे। युंग लिखते हैं कि, “तहजीब ही हमारा अकेला हथियार है, जिसके दम पर हम भारी भीड़ के जमावड़े की वजह से पैदा होने वाले खौफनाक खतरे का मुकाबला कर सकते हैं।”(5) सिर पर खड़े खतरे को मखदूम महसूस करते हैं और ऊँचे स्वरों में पुकारते हैं,

                दौर–ए–नाशाद1 को अब शाद2 किया जाएगा

                रूह–ए–इनसान को आजाद किया जाएगा।

नाला–ए–बेअश्र3 अल्लाह के बन्दों के लिए

सिल–ए4 दार ओ रसन5 हक के रसूलों के लिए

कस्रे6 शद्दाद7 के दर बन्द हैं भूखों के लिए।

                फूँक दे कस्र को गरकुन का तमाशा है यही8

                जिन्दगी छीन लो दुनिया से जो दुनिया है यही।

जलजलों आओ दहकते हुए लावो आओ

बिजलियों आओ गरजदार घटाओं आओ

आँधियों आओ जहन्नुम की हवाओं आओ।

                आओ ये कुर्र–ए–नापाक9 भसम कर डालें

                कास–ए–दहर10 को मामूरे करमकर11 डालें।

(1– अप्रसन्न 2– प्रसन्न 3– प्रभावहीन आर्तनाद 4– उपहार स्वरूप 5– फाँसी 6– महल 7– अत्याचारी राजा 8– अगर भगवान ने दुनिया ही इसीलिए बनायी है 9– अपवित्र सृष्टि 10– संसार रूपी प्याला 11– दया और कृपा से परिपूर्ण)

मखदूम रौशनाई और बारूद के अद्भुत मिश्रण के महाकवि हैं। वह प्रेम, त्याग और इन्कलाब का ध्रुवतारा हैं। उनका प्रेम इन्कलाब की तलवार से अज्ञान और शोषण की बेड़ियाँ काटता है और आजादी के नगमे गाता है। कॉमरेड एस ए डाँगे उनकी खुसूसियात इस तरह बयाँ करते हैं, “मखदूम शायरे इन्कलाब है, मगर वह रूमानी शायरी से भी दामन नहीं बचाता, बल्कि उसने जिन्दगी की इन दोनों हकीकतों को इस तरह जमा कर दिया है कि इनसानियत के लिए मोहब्बत को इन्कलाब के मोर्चों पर डट जाने का हौसला मिलता है।”(6)

मखदूम मोहिउद्दीन की जिन्दगी और शायरी की मंजिल है इनसानी शऊर में इजाफा और हर तरह की गुलामी के खिलाफ लड़ने और कुर्बान होने का जज्बा। उन्होंंने किसानों और मजदूरों को दिन–रात दूसरों के मुनाफे के लिए खटते–मरते देखा था। उन्होंने संसार के लाजवाब शिल्पियों को भूख और गम से निढाल होते देखा था। रचनात्मकता और कलात्मकता से लबरेज रचने–गढ़ने वाली उत्पादक ताकतों को अमानवीय परिस्थितियों में जानवरों की तरह जीते–मरते देखा था। उन्होंने आवारा पूँजी और फासिस्ट सत्ता के शर्मनाक गठबन्धन और दमनात्मक कार्रवाईयों को देखा था। उनके लिए देश–दुनिया से अलग–थलग और बेपरवाह रहना असम्भव था। उन्होंने सक्रिय प्रतिरोध का रास्ता अपनाया और अभिव्यक्ति की आजादी और सच्ची लोकशाही का सपना देखा। अपनी नज्म ‘चाँद तारों का बन’ में वह देश के अतीत और भविष्य का नक्शा खींचते है,

कुछ इमामाने1 सद् मकरोधन2

उनकी साँसों में अफई3 की फुन्कार थी

उनके सीने में नफरत का काला धुआँ

इक कमींगाह4 से

फेंक कर अपनी नोकेजुबाँ

खूने नूरे सहर5 पी गये

रात की तलछटें हैं अँधेरा भी है

सुबह का कुछ उजाला, उजाला भी है

हमदमो

हाथ में हाथ दो

सूए6 मंजिल चलो

मंजिलें प्यार की

मंजिलें दार7 की

कूए दिलदार8 की मंजिलें

दोश9 पर अपनी अपनी सलीबें उठाए चलो।

(1– नेता 2– सैकड़ों छल–कपट 3– सर्प 4– छुपने की जगह 5– सुबह के प्रकाश के खून की 6– मंजिल की ओर 7– फाँसी की मंजिल 8– प्रेमिका की गली 9– कन्धों पर)।

मखदूम सुबह के उजाले को डसने वाले छुपे हुए साँपों को सामने लाते हैं। हमदमों को सुबहे–नूर की मंजिल दिखाते हैं। सभी मुश्किलों का सामना करते हुए, दिलो–जाँ को दाँव पर लगाते हुए उसकी ओर बढ़ने और हर कीमत पर हासिल करने को प्रेरित करते हैंय और कमाल कि, दिलदार की मंजिल भी याद रखते हैं। यानी न खुद को भूलते हैं और ना ही समाज को। उनकी निजता सार्वजनिकता से मिलकर जीवन और कविता को उच्चतर मंजिल की ओर ले जाती है। जीवन और काव्य को एक नया आयाम देती है। सिब्ते हसन बजा फरमाते हैं कि, “तुम्हारे फन्नी शऊर में हर जगह समाजी शऊर की रूह जरूर तड़पती आती है।”(7)

यह शऊर और रूहानी तड़प बहुत मुश्किल से कभी–कभार, भीषण आत्म संघर्ष और अपने को लहूलुहान करने के बाद ही एकाध कवि को नसीब होती है। मखदूम मोहिउद्दीन उर्दू अदब के ऐसे ही दुर्लभ कवि हैं। उनकी कविता में जो लाल–ओ–गुहर हमें मिलते हैं, जो गहराई, चमक और तड़प मिलती है उसका रहस्य उनकी रचना प्रक्रिया में है। रचना प्रक्रिया की एक झलक हम उनकी मशहूर नज्म ‘स्तालिन’, (बुजुर्ग तातारी शायर जम्बूल जाबर की नज्म का मुक्त अनुवाद) की निम्न पंक्तियों में देख सकते हैं,

जू1–ए–पुरजोश बनो, बर्क का सैलाब बनो और बहो

इक दहकते हुए पिघले हुए लोहे का समन्दर बनकर

गजबआलूद2 भँवर बन जाओ    

(1– दरिया 2– गजब ढाने वाली)।

रचना कर्म दोतरफा और मुसलसल लड़ाई है। एक बाहर से और दूसरी भीतर से। इस लड़ाई के लिए मखदूम बहुत तैयारी की बात करते हैं। और तैयारी भी कैसी? उफनते दरिया में बेखौफ तैरने, बिजली का सैलाब बनने और पिघले हुए लोहे के समन्दर में जबर्दस्त भँवर पैदा करने जैसी। मखदूम ‘बिसात–ए–रक्स’ में लिखते भी हैं कि “शायर अपने दिल में छुपी हुई रौशनी और तारीकी (अँधेरे) की आवेजिश (गुत्थमगुत्था) को और रूहानी (आत्मा की) करब (बेचैनी) और इज्तराब (व्याकुलता) की अलामतों (निशानियों) को उजागर करता और शेर में ढालता है। रूहानी करब और इज्तराब की भट्टी में तपता है, शेर की तखलीक करता है।”(8) आग और बिजली के सैलाब से गुजरकर ही शायर कुन्दन हो सकता है। जिसमें ऐसा करने की कूव्वत हो वही अदब के मैदान में सीना तान कर उतरे और जोर–जबर और जुल्म की सल्तनत को तबाह–ओ–बरबाद कर दे। इसी नज्म का आखिरी बन्द है,

अपनी ताकत को समेटे हुए उठ

खैज1 बासद हश्म2 व जाह3–ओ–जलाल4

बहजाराँ जबरुत5

एक जान एक जसद6

फूँक दे दुश्मने नापाक की खाकिस्तर7 को।

(1– मौज–तरंग 2– सैकड़ों आँखें 3– प्रतिष्ठा 4– तेजस्विता 5– हजारों श्रेष्ठताएँ 6– शरीर 7– राख)।

मखदूम मोहिउद्दीन अपनी कविता से जनता को जागरूक बनाने और यथास्थिति को बदलने के लिए लामबन्द करते हैं। वह साहित्य को राजनीति से अलग नहीं करते बल्कि सक्रिय हस्तक्षेप करते हुए अपनी भूमिका का निर्वाह करते हैं। उनकी लगातार सामाजिक–राजनीतिक सक्रियता उन्हें दूसरे रचनाकारों से बिल्कुल अलग–थलग करती है। उनकी सजगता, दूरदर्शिता, आम जनता से गहरा लगाव और धर्मनिरपेक्ष समरस समाज की स्थापना की हरचन्द कोशिश केन सारो वीवा की याद दिलाती है। महान नाइजीरियन कवि और मुक्तियोद्धा केन सारो वीवा भी मानते थे कि, “यूरोप के लेखकों के विपरीत अफ्रीका के लेखकों को केवल मनोरंजन के लिए नहीं लिखना चाहिए। अगर वे अपने लेखन के जरिये जनता को उद्वेलित कर सकते हैं तो अपनी इस क्षमता को उन्हें सामाजिक बदलाव की शक्तियों को गोलबन्द करने में लगाना चाहिए।”(9)

मखदूम मोहिउद्दीन ने यही किया। वह ताजिन्दगी मातृभूमि, जनता और साहित्य की सेवा करते रहे। किसानों, मजदूरों के हक में अपनी आवाज बुलन्द करते रहे। उन्हें गोलबन्द करते रहे। कविता को सजे–संवरे भव्य मंचों, कुलीन गोष्ठियों और बन्द कमरों से निकालकर खुली सड़क पर ले आये। खेत–खलिहान, खदान–फैक्ट्रियों तक ले आये और धूल, धुएँ, पसीने और रक्त से उसका अभिषेक किया। उन्होंने प्रताड़ना झेली, कष्ट उठाए, जेल गये लेकिन अपने लक्ष्य से कभी पीछे नहीं हटे। उन्होंने पहले और दूसरे विश्वयुद्ध का खूनखराबा, बरबादी और भयानक जुल्मो–सितम देखा था। अंगे्रजों की नफरत और हिन्दुस्तानियों की तकलीफ और आजादी की लड़ाई में उनका हौसला, कुर्बानी और मौत का ताण्डव देखा था। ‘जंग’ शीर्षक नज्म में उन्होंने जंग में धरती और इनसान की तबाही के साये में रहमत बरसाने वाले नेकी के खुदा क्रान्ति–सूर्य के प्रकट होने की कामना की हैय

इनसानियत के खून की अरजानिया1 तो देख

उस आसमान वाले की बेदारियाँ2 तो देख।

                मासूमि–ए–हयात3 की बेचारगी तो देख

                दस्ते हवस से हुस्न की गारतगिरी4 को देख।

खुद अपनी जिन्दगी पे पशेमाँ5 है जिन्दगी

कुर्बान गाहे मौत6 पे रक्साँ है जिन्दगी।

                इनसान रह सके कोई ऐसा जहाँ भी है

                इस फितना जा7 जमीं का कोई पासबाँ भी है।

ओ आफताबे रहमते दौराँ8 तुलू9 हो

ओ अन्जुमे10 हम्मीयते11 यजदाँ12 तुलू हो।

(1– गिरावट 2– जाग्रत अवस्था के कर्म 3– जीवन 4– बरबादी 5– लज्जित 6– मृत्यु की बलिवेदी पर 7– उपद्रवी 8– युग के कृपालु सूर्य 9– उदय 10– सितारे 11– स्वाभिमानी 12– नेकी का खुदा)।

रहमत का सूर्य और गर्वीले सितारों का उदय यूँ ही नहीं होगा। आसमान की कालिख को मिटाना होगा और एक नया उज्ज्वल आसमान बनाना होगा। कालिख को मिटाने और शुभ्र वातावरण बनाने का काम कविता करती है। कविता पूर्ण रूप से सामाजिक–राजनीतिक–नैतिक जिम्मेदारियों से भरा हुआ सांस्कृतिक कर्म है और जन प्रतिरोध का सार्थक मंच भी। इतिहास साक्षी है कि मुक्ति आन्दोलन और हर प्रकार की गुलामी से आजाद होने की लड़ाई भी सांस्कृतिक कर्म है। मखदूम मोहिउद्दीन उर्दू अदब के शानदार सांस्कृतिक योद्धा हैं। उन्होंने कलम, बन्दूक और सार्वजनिक मंचों का उपयोग सामन्तवाद और साम्राज्यवाद के खात्मे के लिए किया। उनका पूरा शाहकार जन–आन्दोलनों के प्रति उनके प्रेम और प्रतिबद्धता का अनुकरणीय उदाहरण है। आज भी मंचों पर जब उनकी नज्म ‘जंगे आजादी’ गायी जाती है तो पूरा माहौल जोश–ए–जुनून से भर जाता हैय

लो सुर्ख सवेरा आता है आजादी का आजादी का

गुलनार तराना गाता है आजादी का आजादी का

देखो परचम लहराता है आजादी का आजादी का।

ये जंग है जंगे आजादी

आजादी के परचम के तले।

गुलाम हिन्दुस्तान में मखदूम का यह तराना आजादी के दीवानों का सिगनेचर ट्यून बन गया। जलसों की शुरुआत और समापन इसी तराने से होने लगी। जब समूह स्वरों में यह नज्म गायी जाती है तो गीत और संगीत का अनोखा जादू अपनी गिरफ्त में ले लेता है। रौशनी की तलवार अँधेरे को काटती चलती है और सुर्ख सवेरा हमें उम्मीद और जीवन–संगीत से भर देता है। मखदूम का व्यक्तित्व और कृतित्व शब्द और सुर की जादुई जुगलबन्दी और जीवन्त अभिव्यक्ति है। शब्दों का उतार–चढ़ाव और सुरों की ऊँचाई और गहराई हमारी ठहरी हुई सोच और निष्क्रिय मानसिकता पर बिजली की तरह गिरती है और हमें हर बन्धन और अवरोध तोड़ने को विवश कर देती है। मखदूम को पढ़ते–सुनते हुए हमारी पूरी केमिस्ट्री बदल जाती है और हम जैसे पहले थे, वैसे नहीं रह जाते। शब्द हथियार में बदल जाते हैं और संगीत जलती हुई मशाल में। मखदूम के ‘इकबाल’ नज्म में जलती हुई मशाल और शब्दों की चमचमाती धार देखिए,

इस अँधेरे में ये कौन आतिशनवा1 गाने लगा

जानिबे मशरिक उजाला–सा नजर आने लगा।

                मौत की परछाइयाँ छँटने लगीं छटने लगीं

                जुल्मतों2 की चादरें हटने लगीं हटने लगीं।

इक शरारा उड़ते उड़ते आसमानों तक गया

आसमाँ के नूर पैकर3 नौजवानों तक गया।

                आलमे बाला4 पे बाहम मशवरे होने लगे

                आसमानों पर जमीं के तजकिरे5 होने लगे।

फिर अँधेरे में वही आतिशनवा पाया गया

जिन्दगी के मोड़ पर गाता हुआ पाया गया।

(1– अग्निमय 2– अंधकार 3– ज्योतिमय शरीर 4– ऊपरी दुनिया 5– चर्चे)

मखदूम मोहिउद्दीन सच्चे आशिक और आतिशनवा हैं। वह आग का गीत गाते हैं और ओस में भीगते हुए चाँदनी का गीत भी गाते हैं। वह फूल की खूबसूरती और काँटे की चुभन के कायल हैं। हुस्न उन्हें रचनात्मक बनाता है और इश्क हौसलामन्द। मोहब्बत के जज्बे ने उन्हें क्रान्ति का सबक पढ़ाया था, और क्रान्ति ने उन्हें धरती, कुदरत और इनसान से टूट कर मोहब्बत करना सिखाया था। ‘चारागर’ नज्म कुदरत के साये में दो देह और दो रूह के एकमेक हो जाने की अद्भुत बयानी है। नज्म के आखिरी दो बन्द देखिए और सृष्टि की इकाई स्त्री और पुरुष की, आदम और हौव्वा की आदिकाल से चली आ रही कालजयी प्रेम भावना और सर्जना की कीमियागिरी को अन्तरतम से महसूस कीजिएय

हमने देखा उन्हें

दिन में और रात में

नूरो जुल्मात में

                मस्जिदों के मीनारों ने देखा उन्हें

                मन्दिरों के किवाड़ों ने देखा उन्हें

                मैकदे की दराड़ों ने देखा उन्हें

अज अजल ता अदब1

ये बता चारागर

तेरी जन्बील2 में

नुस्ख–ए कीमिया–ए मोहब्बत3 भी है

कुछ इलाज–ओ मदावा–ए उल्फत भी है?

इक चम्बेली के मँडवे तले

मयकदे से जरा दूर उस मोड़ पर

दो बदन प्यार की आग में जल गये।

(1– दुनिया के पहले दिन से दुनिया के अन्तिम दिन तक 2– थैले में 3– प्रेम के उपचार का नुस्खा)

मखदूम की प्रेमावेग से भरी मुश्किल नज्म को संगीत में बाँधना असम्भव–सा दिखता है, लेकिन इसे सम्भव किया उनके जिगरी दोस्त और मशहूर संगीतज्ञ इकबाल कुरैशी साहब ने। इकबाल कुरैशी बहुत संजीदा और काबिल संगीतकार रहे हैं। उन्होंने लोक और शास्त्र्ीय संगीत के मेल से अद्भुत और बेहद कर्णप्रिय धुनों की सर्जना की है। ‘चारागर’ उनकी बहुत लोकप्रिय और अमर संगीत रचना है। फिल्म अभिनेता चन्द्रशेखर ने अपनी फिल्म ‘चा चा चा’ में इस नज्म का कलात्मक इस्तेमाल किया है। परदे पर चन्द्रशेखर और अपने जमाने की बेजोड़ नृत्यांगना हेलन हैं। हेलन के मनमोहक नृत्य और भाव–भंगिमा ने नज्म को अप्रतिम ऊँचाई तक पहुँचा दिया है। मोहम्मद रफी और आशा भोसले की जादुई आवाज आत्मा में उतरती चली जाती है और आप ताजा खिले हुए फूल की ताजगी और खुशबू से भर उठते हैं। मंदिर, मस्जिद और मयकदे के साथ घर–आँगन भी खुशबू से तर हो जाते हैं। प्रेम का कायान्तरण हो जाता है, सामाजीकरण हो जाता है। ‘मैं’ और ‘तुम’ एक दूसरे में घुल–मिल कर ‘हम’ में बदल जाते हैं। मखदूम ‘हम’ के नामवर नगमानिगार हैं। वह हर कीमत पर ‘हम’ को, सामूहिकता को, जीवन और प्रेम को बचाना चाहते हैं। वह चारागर से पूछते भी हैं कि वैद्यराज क्या तुम्हारे थैले में जिन्दगी को सोना बनाने वाले प्यार की कीमियागिरी का कोई नुस्खा भी है? और क्या प्यार के मारों का कोई इलाज भी है? प्यार को हर्फे वफा और खुदा मानने वाले मखदूम इस बात से अनजान नहीं हैं कि पूँजीवादी–साम्राज्यवादी निजाम के लिए औरत एक जिन्स और सिक्कों का खनकता हुआ बाजार है जबकि प्यार जिस्मानी जरूरत और एक बायोलॉजिकल फेनामेना के सिवा और कुछ नहीं है। उनका खुदा, उनका ईमान सिर्फ मुद्रा और मुनाफा है।

मुद्रा और मुनाफे की क्रूर रीति–नीति और उसके हासिल पर ‘वादि–ए फर्दा’ (आने वाले कल की घाटी) नज्म में मखदूम लिखते हैं,

झाड़ियाँ दर्द की

दु:ख के जंगल

नदियाँ

जिनमें बहा करते हैं दिल के नासूर

कोह–ए गम

नाग की मानिन्द

सियह फन खोले

हर गुजरगाह को खा जाते हैं

रात ही रात है, सन्नाटा ही सन्नाटा है।

मखदूम मोहिउद्दीन ने जानलेवा खौफनाक सन्नाटे को, पहाड़ जैसे दु:ख और जिन्दगी को दिन–रात नरक और जहरीला बनाते पूँजी के काले नागों को तेलंगाना विद्रोह के दौरान देखा था। झेला था और डटकर इन हैवानों का सामना किया था। उनके फनों को कुचला था। कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व में महान तेलंगाना विद्रोह सन् 1946 के सितम्बर माह में शुरू होता है और अक्टूबर, 1951 तक चलता है। किसानों–मजूरों के साथ आम लोग और बुद्धिजीवी भी इस आन्दोलन में शामिल थे। प्रारंभ में आन्दोलन का स्वरूप हड़ताल, जुलूस और धरने तक सीमित था। एक हद तक प्रतिरक्षात्मक था। आँध्र प्रदेश की जुझारू जनता ने अपने संयम को बरकरार रखते हुए तीन हजार गाँवों की ग्राम पंचायतों में ग्राम–राज कायम कर लिया था और निजाम और उसके खोरपोशदारों को मुँह की खानी पड़ी और मुँह छुपा कर भागना पड़ा था।

संघर्षशील जनता की इन उपलब्धियों के बावजूद अंग्रेज सरकार और उसके पिट्ठुओं के जुल्म बढ़ते चले गये। आजादी के बाद भी जुल्म कम नहीं हुए, बल्कि भयानक और असहनीय होते चले गये।

11, सितम्बर, 1947 को भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व में रवि नारायण रेड्डी, बी भल्ला रेड्डी और मखदूम मोहिउद्दीन ने हथियारबन्द मुक्ति संघर्ष का ऐलान किया। इतिहास का यह अप्रिय और क्रूर सच है कि तेलंंगाना के ऐतिहासिक किसान संघर्ष को कुचलने का काम न केवल अंगे्रज सरकार और उसके टुकड़खोर सामन्तों, जागीरदारों, राजे–रजवाड़ों और नवाबों ने किया था बल्कि हिन्दुस्तान की आजाद सरकार ने भी किया था। कम्युनिस्ट नेता पी सुन्दरैया लिखते हैं कि, “चार हजार कम्युनिस्ट और किसान लड़ाकू मारे गये, दस हजार से भी अधिक कम्युनिस्ट और अन्य लोग तीन से चार साल तक के लिए बन्दीगृह में डाल दिये गये। पचास हजार से अधिक लोग समय–समय पर पकड़कर सैनिक शिविर में लाए गये और पीटे गये, उन्हें यातना दी गयी। यह क्रम हफ्तों, महीनों तक चलता रहता। हजारों गाँवों में लाखों लोगों के यहाँ पुलिस और सेना ने छापामारी की, लोगों को लाठियों से पीटा, उनकी करोड़ों की संपत्ति को लूटा या नष्ट कर दिया। हजारों महिलाओं को बेइज्जत किया गया।”(10)

मखदूम ने तेलंगाना के मुक्ति युद्ध को अपनी नज्म ‘तेलंगाना’ में अजर–अमर कर दिया है। नज्म ‘तेलंगाना’ शहीदों के इस्तकबाल से शुरू होती है,

दयारे हिन्द का वो राहबर1 तेलंगाना

बना रहा है नयी इक सहर तेलंगाना

बुला रहा है बसिम्ते–दिगर2 तेलंगाना

वो इन्कलाब का पैगम्बर तेलंगाना।

(1– नेता 2– दूसरी दिशा में)

नज्म अन्तरा दर अन्तरा मुक्तियोद्धाओं की बेमिसाल बहादुरी का लाजवाब चित्रण करते हुए बढ़ती है,

उठे हैं तेग बकफ3 यूँ बसद हजार जलाल4

वो कोह वो दश्त के फरजन्द5 खेतियों के लाल

चमक रही है दरान्ती उछल रहे हैं कुदाल

बिनाए कस्रे इमारत शिकिस्ताँ–व–पामाल6।

                लरज–लरज के गिरे सकफ–ओ बाम–ए जरदारी7

                है पाश–पाश निजाम–ए हलाकू व जारी8

                पड़ी है फर्क–ए–मुबारक9 पे जरबतेकारी10

                हुजूरे आसिफे साबे11 पे है गशी तारी।

(3– हाथ में तलवार लिए हुए 4– प्रताप, तेज 5– पुत्र 6– टूट कर गिरी हुई 7– धन रूपी छत और दीवारें 8– जालिम बादशाह और जार 9– बादशाह के माथे पर 10– गहरी चोटें 11– आसिफजाही खानदान के सातवें बादशाह)

और आखिर में शायर बड़े गर्व और श्रद्धा के साथ शहीदों के सम्मान में सिर झुका कर अपना सलाम पेश करता है,

सलाम सुर्ख शहीदों की सरजमीन सलाम

सलाम अज्म–ए–बुलन्द1 आहनी यकीन सलाम।

मुजाहिदों की चमकती हुई जबीन2 सलाम

दयारे हिन्द की महबूब अर्ज चीन3 सलाम।

(1– दृढ़ संकल्प 2– मस्तक 3– धरती)

पराधीन भारत में किसानों का खून बहता था। जमीन, खेती–किसानी और खून–पसीने की कमाई कौड़ियों के मोल बिकती थी। धरती के लाल हर पल सेठ–साहूकारों, दलालों, रसूखदारों, सरमायादारों और सरकार बहादुर के हाथों लुटते थे, लूटे जाते थे। जमीन हाथ से निकलती जाती थी और साँसें देह से। स्वाधीन भारत में भी किसानों–मजूरों का हाल बेहाल है। भाजपा सरकार ने तीन कृषि कानूनों को संसद में पास कर साबित कर दिया है कि वह जनता–जनार्दन की सरकार नहीं है। भले ही वह जनता–जनता का जाप दिन–रात करे लेकिन अपनी करनी से उसने साबित कर दिया है कि वह कॉरपोरेट पूँजीपतियों की सरकार है। पिछले ग्यारह महीनों से किसान सिंघु बॉर्डर पर सड़को पर मोर्चा खोले हुए हैं। गर्मी, बरसात और ठंड की मार झेल रहे हैं। पुलिसिया ज्यादतियों और किसान–मित्र का मुखौटा पहने सरकार की तानाशाही का सामना कर रहे हैं, फिर भी डटे हुए हैं। उनकी माँग है कि तत्काल तीनों कृषि कानूनों को रद्द किया जाये।

आन्दोलन के दौरान सैकड़ों किसान शहीद हो चुके हैं। पिछले दिनों उत्तर प्रदेश के लखीमपुर में भाजपा साँसद के बेटे ने अपनी गाड़ी से आन्दोलनरत चार किसानों और एक पत्रकार को कुचलकर मार डाला लेकिन किसानों को अन्नदाता कहने वाली सरकार के कान पर जूँ तक नहीं रेंगी। उल्टे किसानों को ही मुजरिम साबित करने की शर्मनाक कोशिशें होने लगींं। कल भी किसान अपने हक और स्वाभिमान की लड़ाई लड़ रहे थे। आज भी किसान लड़ रहे हैं। इस लड़ाई में जनता का प्रगतिशील तबका किसानों के साथ खड़ा है लेकिन एक तबका भ्रम को यथार्थ और झूठ को सच मानता हुआ असमंजस में पड़ा गुमसुम और चुप–चुप है। मखदूम अपनी नज्म ‘चुप न रहो’, (जो उन्होंने कांगो के पहले प्रधानमंत्री और राष्ट्रवादी नेता पेट्रिस लुमुम्बा के कत्ल पर लिखी थी) में खबरदार करते हैं कि,

जब तलक दहर में कातिल का निशाँ बाकी है

तुम मिटाते ही चले जाओ निशाँ कातिल के

रोज हो जश्ने शहीदाने वफा चुप न रहो

बार–बार आती है मकतल1 से सदा चुप न रहो, चुप न रहो।

(1– वध–स्थल)

मखदूम मोहिउद्दीन ताजिन्दगी किसानों और श्रमजीवियों के अधिकार और सम्मान की लड़ाई लड़ते रहे। जमीन किसानों की हो और फसल पर हक किसानों का हो। मेहनतकशों की इज्जत हो और एक नयी दुनिया बने जिसकी बागडोर जनता के हाथ में हो। नज्म ‘जहाने नौ’ इसी ख्वाब को पाने की तदबीर और ताबीर हैय

नगमे शरर फिशाँ1 हूँ उठा आतिशी रबाब2

मिजराब3–ए–बेखूदी से बजा साजे इन्किलाब

मैमारे अहदे नौ4 हो तेरा दस्ते–पुरशबाब5

बातिल6 की गरदनों पे चमक जुल्फकार7 बन।

ऐसा जहान जिसका अछूता निजाम8 हो

ऐसा जहान जिसका अखूव्वत9 पयाम10 हो

ऐसा जहान जिसकी नयी सुबहो शाम हो

                ऐसे जहाने नौ का तू परवरदिगार11 बन।

(1– चिन्गारियाँ बिखेरने वाला 2– अग्निमय रबाब (एक साज) 3– रबाब बजाने का उपकरण जो उंगली में पहना जाता है 4– नवयुग का निर्माण 5– सौन्दर्य से भरपूर हाथ  6– झूठ 7– हजरत अली की तलवार जो बद्र के युद्ध में उन्हें रसूल ने प्रदान की थी 8– प्रबन्ध, व्यवस्था 9– प्यार 10– समाचार 11– ईश्वर)

उर्दू के महान साहित्यकार मुज्तबा हुसैन सोलह आने सच कहते हैं कि, “हम हैदराबादियों के लिए मखदूम  सिर्फ शाइर और दानिश्वर नहीं थे, बल्कि बहुत कुछ थे।”(11) इस ‘बहुत कुछ की जब तहें खुलती हैं तो मखदूम मोहिउद्दीन का बहुस्तरीय व्यक्तित्व सामने आता है। वह बूँद में समुद्र थे। वह एक साथ शायर, संगठनकर्ता, उर्दू में रोमेन्टिक रिवोल्यूशनरी धारा के प्रवर्तक, अनुवादक, कम्युनिस्ट पार्टी, किसान सभा और ट्रेड यूनियन के अग्रणी कार्यकर्ता और नेता रहे हैं। सड़क की लड़ाई को वह एसेम्बली तक ले गये। वह आन्ध्र प्रदेश में कम्युनिस्ट पार्टी और प्रगतिशील लेखक संघ के संस्थापक रहे। उन्होंने रवीन्द्रनाथ टैगोर पर एक महत्वपूर्ण किताब लिखी है। जॉर्ज बर्नार्ड शॉ के नाटक ‘विडोवर्स हाउस’ का ‘होश के नाखून’ उन्वान से उर्दू में अनुवाद किया है। साहित्य को जनता तक पहुँचाने के लिए उन्होंने हर माध्यम का सार्थक उपयोग किया है। कवि सम्मेलनों और गोष्ठियों के साथ उन्होंने सार्वजनिक सभाओं और विधान सभा का इस्तेमाल जन–जागरण के लिए बखूबी किया है। उर्दू के मशहूर आलोचक प्रोफेसर सैयद एहतेशाम हुसैन का कहना है कि, “मखदूम की रचनाएँ बड़ी चेतनापूर्ण, मनोहर और शक्तिशाली होती हैं। उनकी कला और क्रान्तिवादी दृष्टि में ऐसा सामंजस्य मिलता है कि उनकी चेतना की शक्ति रचनाओं में प्रस्तुत हो जाती है। ‘फैज’ की तरह ही ‘मखदूम’ प्रतीकों और बिम्बों से काम लेते हैं और सामाजिक चेतना के भीतर अपने व्यक्तित्व को स्पष्ट करते रहते हैं।”(12)

                ‘मैं’ शीर्षक नज्म में उनका अन्दाजे बयाँ देखिए,

                खुद तराशीदा1 बुते नाज आफ्रीं2 मेरा वजूद

                मेरी जाते पाक मस्जूदे3 जहाने हस्त ओ बूद4

दूसरा कोई नहीं रहता जहाँ रहता हूँ मैं

अपने सैलाबे खुदी में आप ही बहता हूँ मैं।

(1– स्वयं का गढ़ा हुआ 2– सृजनकर्ता पर गर्व करने वाला 3– सृजनकर्ता 4– है और था)

मखदूम को स्वयं तराशे हुए रचनात्मक व्यक्तित्व पर अभिमान है। वह अपने अस्तित्व को सृजनकर्ता की तरह पवित्र और गतिमान मानते हैं, जो कल भी था, आज भी है अपने सृजन के सैलाब में अविराम बहता हुआ, रचता हुआ, तराशता हुआ। रचाव के संसार में रचनाकार के सिवा कोई दूसरा नहीं रहता। रह भी नहीं सकता। कबीर कहते हैं कि,

प्रेम गली अति साँकरी, जा में दो न समाय।

मखदूम की शब्द–साधना में भी हुस्न और इश्क एकाकार होते हैं जबकि दिन और रात गुजरते जाते हैं। कहीं कोई द्वैत नहीं। दो बदन और एक जान की तरह प्रेम पूर्ण होता है और कविता अपने उत्कर्ष को छूने लगती है। ‘मोहब्बत की छाँव’ नज्म की दिल छू लेने वाली पंक्तियाँ देखिए,

रात और दिन यूँ ही आते–जाते रहे

हुस्न और इश्क तकमील1 पाते रहे।       (1– पूर्णता)

मखदूम के इसी अन्दाजे–बयाँ और मोहब्बत से भरे हुए ख्वाब और बगावती शाइरी पर जान छिड़कता था हैदराबाद और बाकी संसार। उनके दीवानों का हाल मुज्तबा हुसैन कुछ यूँ बयाँ करते हैं, “मखदूम से अकीदत का यह आलम था कि मेरे एक दोस्त मखदूम के मज्मुआए–कलाम ‘सुर्ख सवेरा’ को रिहल पर रखकर न सिर्फ पढ़ा करते थे बल्कि मुतालआ (अध्ययन) के दौरान आगे और पीछे डोलते भी थे! है कोई शाइर जिसका कलाम इस तरह पढ़ा गया हो?”(13)

मखदूम के चाहने वालों में उस जमाने की नामचीन हस्तियों के साथ बागी तेवर से लैस, दुनिया को बदलने का जज्बा रखने वाले नयी नस्ल के जवाँ भी थे। फैज, मजाज, सज्जाद जहीर, मुज्तबा हुसैन, अली सरदार जाफरी, कृश्न चन्दर, ख्वाजा अहमद अब्बास, सिब्ते हसन, कमर रईस, एम एफ हुसैन, डॉ– राज बहादुर गौड़–– कहाँ तक नामोल्लेख किया जाये, उनके परस्तार हैदराबाद से लेकर पूरे हिन्दुस्तान और अन्य मुल्कों में फैले हुए थे। “डॉक्टर राजबहादुर गौड़ ने तो अपने घर का नाम ‘चंबेली का मँडवा’ रख छोड़ा था जो मखदूम की एक मशहूर नज्म का उन्वान है। लोग अपने घरों का नाम रखते हैं, डॉ– गौड़ ने अपने घर का उन्वान रखा था। अब भी उनके घर में ‘चंबेली का मँडवा’ कम और मखदूम की नज्म ज्यादा नजर आती है।”(14) सज्जाद जहीर तो उन्हें तरंग और उछाह से भरा हुआ शब्द और सुर का जादूगर मानते थे। वह अपनी अनोखी कृति ‘रौशनाई’ में लिखते हैं कि, “मखदूम एक शाइर होने के साथ–साथ एक स्वर–साधक संगीतकार भी हैं।”(15) ख्वाजा अहमद अब्बास का मानना था कि, “वे क्रान्तिकारी छापामार की बन्दूक थे और संगीतकार का सितार भी। वे बारूद की गन्ध थे और चमेली की महक भी।”

कृश्न चन्दर तो उनके शैदाई थे। उन्होंने मखदूम के जीवन और संघर्ष पर ‘जब खेत जागे’ नामक उपन्यास लिखा। इसी उपन्यास पर तेलगू में गौतम घोष ने ‘माँ भूमि’ नाम से फिल्म बनायी। हैदराबाद के प्रसिद्ध कवि–पत्रकार और मखदूम मोहिउद्दीन के बेटे नुसरत मोहिउद्दीन के जिगरी दोस्त कॉमरेड स्वाधीन अपनी आत्मकथा ‘महादृश्य में अकेले’ में लिखते हैं कि, “हुसैन जब हैदराबाद में थे तो उन्होंने मखदूम मोहिउद्दीन के शेरों पर आधारित चित्र बनाये थे। पेंटिंग्स की प्रदर्शनी की थी।”(16) मखदूम मोहिउद्दीन ने कला और साहित्य की बड़ी हस्तियों को ही प्रभावित और प्रेरित नहीं किया बल्कि नौजवानों के भी वह आदर्श रहे। हिन्दी के प्रसिद्ध कवि वेणुगोपाल ने नुसरत मोहिउद्दीन से एक बार कहा था कि, “आपके पिता मखदूम से प्रभावित होकर ही हम लेखन के क्षेत्र में आये।”(17)

मखदूम मोहिउद्दीन को चाहने वाले लोग आज भी चारों तरफ बिखरे हुए हैं। जरूरत है कि इन बिखरे हुए लोगों को एकजुट किया जाये और मिलकर हर तरह के शोषण, गुलामी और जुल्म के खिलाफ आवाज बुलन्द की जाये। सिर्फ विचार ही पर्याप्त नहीं है, सोचने से ही कुछ नहीं होगा, कार्रवाई करनी होगी।

विचारों को अमल में लाना होगाय भगतसिंह की तरह, चे ग्वेरा की तरह, मखदूम मोहिउद्दीन की तरह।

सन्दर्भ

1– बिसात–ए–रक्स, मखदूम मोहिउद्दीन, मुहिबी मखदूम, सिब्ते हसन, संस्करण, 2015, पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस प्रा– लिमिटेड, नयी दिल्ली, पृष्ठ 5, 6।

2– उपर्युक्त, पढ़ने वालों से, पृष्ठ 13।

3– अमिल्कर कबराल : जीवन–संघर्ष और विचार, अनुवाद और संपादन – आनन्द स्वरूप वर्मा, कविता, अनुवाद–– मंगलेश डबराल, प्रथम संस्करण, 2020, गार्गी प्रकाशन, दिल्ली, पृष्ठ 141।

4– मेहनत और मोहब्बत के शायर मखदूम मोहिउद्दीन, विष्णु प्रभाकर, समकालीन जनमत, 4 फरवरी, 2020।

5– नाजीवादी जर्मनी की मनोदशा, कार्ल जी युंग, अनुवाद–– दिगम्बर, प्रथम संस्करण, 2017, गार्गी प्रकाशन, दिल्ली, पृष्ठ 102।

6– मेहनत और मोहब्बत के शायर मखदूम मोहिउद्दीन, विष्णु प्रभाकर, समकालीन जनमत, 4 फरवरी, 2020।

7– बिसात–ए–रक्स, मखदूम मोहिउद्दीन, मुहिबी मखदूम, सिब्ते हसन, संस्करण, 2015, पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस प्रा– लिमिटेड, नयी दिल्ली, पृष्ठ 7 ।

8– उपर्युक्त, मखदूम मोहिउद्दीन, पढ़ने वालों से, पृष्ठ 13।

9– केन सारो–वीवा : संघर्ष और बलिदान की गाथा, आनन्द स्वरूप वर्मा, प्रथम संस्करण, जनवरी, 2019, गार्गी प्रकाशन, दिल्ली, पृष्ठ 18।

10– सन् 1946 का जन उभार, डॉ– खगेन्द्र ठाकुर, साम्य, अंक 24, 1946, अधूरी क्रान्ति, फरवरी, 1998, सम्पादक–– विजय गुप्त, छ–ग– प्रगतिशील लेखक संघ, अम्बिकापुर, पृष्ठ 64।

11– मुज्तबा हुसैन के खाके, अनुवाद : डॉ– रहील सिद्दीकी, प्रथम संस्करण, 2010, वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली, पृष्ठ 31।

12– उर्दू साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास, एहतेशाम हुसैन, प्रथम संस्करण, 2011, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, पृष्ठ 236।

13– मुज्तबा हुसैन के खाके, अनुवाद : डॉ– रहील सिद्दीकी, प्रथम संस्करण, 2010, वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली, पृष्ठ 30, 31।

14– सरमाया : मखदूम मोहिउद्दीन, संपादक : स्वाधीन, नुसरत मोहिउद्दीन, लेख : मखदूम मोहिउद्दीन : यादों में बसा आदमी, मुज्तबा हुसैन के खाके, प्रथम संस्करण, 2004, वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली, पृष्ठ 40, 41।

15– रौशनाई : तरक्कीपसन्द तहरीक की यादें, उर्दू से अनुवाद : जानकी प्रसाद शर्मा, वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली, पृष्ठ 240।

16– महादृश्य में अकेले : स्वाधीन, प्रथम संस्करण, जुलाई, 2017, द एलिगेण्ट पब्लिकेशन्स, कोलकाता, पृष्ठ 120।

17– उपर्युक्त, पृष्ठ 123।

(इस आलेख के लिए सामग्री संचयन में वरिष्ठ अधिवक्ता और उर्दू साहित्य के मर्मज्ञ जनाब अब्दुल रशीद सिद्दीकी साहब, एहतेशाम सिद्दीकी, शाकिर अली, रफीक खान, डॉक्टर रामकुमार मिश्र और उमाकान्त पाण्डेय का हार्दिक आभार।)