इब्ने इंशा : ख़ामोश रहना फ़ितरत में नहीं
साहित्य विजय गुप्त(एक हमीं हुशियार थे यारो एक हमीं बदनाम हुए)
व्यंग्य का तीर वही तीरन्दाज़ चला सकता है, जो अपने तर्इं ईमानदार हो, जो ज़िन्दगी की आग में जलकर खरा सोना बना हो और जिसका हर तीर निशाने पर लगता हो। उर्दू के ऐसे ही विख्यात कवि और व्यंग्य रचनाकार हैं–– इब्ने इंशा। उन्होंने हमेशा सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक अन्याय और ग़ैरबराबरी के ख़्िालाफ़ लड़ाई लड़ी है। उनका घराना मीर, कबीर, नज़ीर का है। उन्हीं की तरह इंशा समाज के सुख–दु:ख, हँसी–आँसू, आनन्द और पीड़ा से बावस्ता रहे। मनुष्य की स्वतंत्र चेतना और स्वाभिमान के वह प्रबल पक्षधर रहे।
उनके पाँवों में ‘सनीचर’ था। वह घूमते रहे। घाट, मैदान, नदी, पहाड़ लाँघते रहे। अपनी भाषा को लगातार माँजते रहे, धारदार और मारदार बनाते रहे। उनकी मारक भाषा पाठक को तिलमिला कर रख देती है। ग़ुस्से, चिढ़ और ज़िद से भरी भाषा को इब्ने इंशा कलात्मकता और सहजता के साथ अपने पढ़ने–सुनने वालों के दिल–दिमाग़ में ‘ट्रांसफ़र’ कर देते हैं। इन्हें अपने भीतर महसूस करने वाला हालात को नये नज़रिये से देखने–परखने लगता है और इंशा के साथ आर–पार की लड़ाई में शामिल हो जाता है। वह कार्यपालिका, व्यवस्थापिका, न्यायपालिका और इन पर नज़र रखने वाली पत्रकारिता एवं पत्रकार का कार्य–व्यापार समझने लगता है। ‘अख़बार’ शीर्षक रचना में इब्ने इंशा की तिरछी नज़र का लुत्फ़ लीजिए और खबरदार रहिए––
यह अख़बार वाला बड़ा निडर है।
बातिल1 से नहीं डरता।
लोगों से नहीं डरता।
कभी–कभी खुदा से नहीं डरता।
बस सरकार से डरता है।
बड़ा अच्छा करता है।
(1– झूठ, ज़ंजीर)
हर बन्द में इंशा की ज़ुबान तल्ख़्ा और आरीदार होती जाती हैय
जब तक खुशनूदिये–सरकार2 है अख़बार है
रोज़गार है, कोठी और कार है।
पुराने लोग ऐसा नहीं करते।
पुराने लोग भूखे भी तो मरते थे।
फिर भी मियाँ अख़बार वाले।
अखबार काला कर।
अपना किरदार काला मत कर।
सिर्फ़ अखबार बेच – ईमान मत बेच।(1)
(2– सरकार की खुशी)
ईमान बेच देना, खुदी को नीलाम कर देना, अपनी रूह पर कालिख पोत देना आज का सबसे बड़ा और इज़्ज़तदार कारोबार है। इस चारों तरफ़ फैले कारोबार ने शिक्षा, सभ्यता, कला, संस्कृति, इतिहास, दर्शन को भी मुनाफ़े के एक विशाल वृत्त में समेट लिया है। इंशा ने लिखा है कि, “दायरे (वृत्त) छोटे–बड़े हर क़िस्म के होते हैं। लेकिन यह अजीब बात है कि क़रीब–क़रीब सभी गोल होते हैं।”(2) इस गोल–मोल में बहुत गोल–माल है। गोल–माल पर सवाल उठाने, पड़ताल करने पर जान जाने या क़ैद–ए–बा–मशक्कत का ख़तरा है। वह चेतावनी भी देते हैं कि,
सच अच्छा, पर उसके जिलौ1 में, ज़हर का है एक प्याला भी
पागल हो? क्यों नाहक को सुकरात बनो, खामोश रहो।
(1– चमक में)(3)
ख़ामोश रहना इंशा की फ़ितरत में ही नहीं है। वह खतरे उठाते हैं और सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक बद्नीयती का पर्दाफ़ाश करते हैं। वह कहते भी हैं कि,
ज़ाहिद1 नहीं, मैं शैख2 नहीं, कुछ वली3 नहीं
(1– विरक्त 2– धर्मगुरु 3– पैग़म्बर)
वह सिर्फ़ जनता का हाल–अहवाल बयान करने वाले, बाज़ वक़्त उसे भी आईना दिखाने वाले रचनाकार हैं। वह अपने पढ़ने–सुनने वालों को ताक़ीद करते हैं कि अपनी पक्षधरता तय करो। अनिश्चय और ऊहापोह में रहने वाले ग़ाफ़िल लोगों को बेईमान कहते हैं। लाहौर से प्रकाशित ‘सवेरा’ 1954 के अपने एक लेख में इंशा बिना लाग–लपेट के ऐलान करते हैं कि, “जंग और अमन, ग़रीबी और खुशबाशी, क़ैद और आज़ादी, बराबरी और ग़ैर जानिबदारी को मैं बेईमानी समझता हूँ।”(4)
बेईमानी तो आज हर शै में है। इसे उजागर करने के लिए इंशा तंज़निगारी को नया रूप–रंग, तेवर और तीखी धार देते हैं।
उनकी पेशकश सीधे दिल पर चोट करती है। दिमा़ग में गहरी उथल–पुथल होती है। भावों के कई शेड्स रफ़्तार से आते–जाते हैं। मुस्कान, विस्मय और करुणा आपको घेर लेती है। आप इंशा के सुर में सुर मिलाकर गाने लगते हैं,
खेलने दें उन्हें इश्क़ की बाज़ी, खेलेंगे तो सीखेंगे
क़ैस की या फ़रहाद की खातिर खोलेंगे क्या स्कूल मियाँ
स्कूल तो प्रेम, करुणा, मनुष्यता और उदारता का पाठ पढ़ाने के लिए ही खोले गये, लेकिन इल्म का भी कारोबार होने लगा। सिलेक्शन, पोस्टिंग, प्रमोशन, एडमिशन, इक्ज़ामिनेशन सब रुपइया–रुपइया का खेल हो गया। सरस्वती पीछे और लक्ष्मी आगे हो गयीं। शिक्षा–संस्थानों में बाज़ार का अट्टहास गूँजने लगा। हंस पिछड़ गया और उल्लू की बाँछें खिल गयीं। अब आप तय कीजिए कि आप हंस हैं या उल्लू? इंशा आपके भीतर के लाभ–लोभ और दौलत की हवस पर तंज़ करते हैं––
इल्म बड़ी दौलत है
तू भी स्कूल खोल।
इल्म पढ़ा।
दौलत कमा।
फीस ही फीस।
पढ़ाई के बीस।
बस के तीस
यूनिफ़ॉर्म के चालीस।
खेलोें के अलग।
वेरायटी प्रोग्राम के अलग।
पिकनिक के अलग।
लोगों के चीख़ने पर न जा।
दौलत कमा।
––———
पढ़ाई बड़ी अच्छी है।
पढ़
बहीखाता पढ़।
टेलीफ़ोन डाइरेक्ट्री पढ़।
बैंक असिस्मेंट पढ़।
ज़रूरते–रिश्ता के इश्तेहार पढ़।
और कुछ मत पढ़।(5)
आजकल यही सब तो पढ़ा जा रहा है। दरअसल हम अब पासबुक में बदल गये हैं। मुर्दा एकाउंट नम्बर में तब्दील हो गये हैं। ‘एक लड़का’ शीर्षक रचना में इंशा बतलाते हैं कि कैसे इनसान पैसा बनाने के उधेड़बुन में अपना बचपन, यौवन खो बैठा। अल्हड़ता और बेफ़िक्री गँवा बैठा।
एक छोटा–सा लड़का था मैं जिन दिनों
एक मेले में पहुँचा हुमकता हुआ
जी मचलता था इक–इक शै पर
जेब खाली थी कुछ मोल न ले सका
लौट आया लिए हसरतें सैकड़ों
एक छोटा–सा लड़का था जिन दिनों
ख़्ौर महरूमियों के वो दिन तो गये
आज मेला लगा है उसी शान से
आज चाहूँ तो इक–एक दुकाँ मोल लूँ
आज चाहूँ तो सारा जहाँ मोल लूँ
ना–रसाई1 का अब जी में धड़का कहाँ?
वो छोटा–सा, अल्हड़–सा लड़का कहाँ?(6)
(1– पहँुच के बाहर)
दुनिया की आपाधापी और मारामारी में इंशा बाल हृदय की गहराइयों तक पहँुचते हैं और सवाल करते हैं। एक मासूम बच्चे की हँसी, खुशी और आरज़ू के बीच भूख, दर्द और आँसू कौन बोता है? और कौन सौदागर दु:ख और भूख की फसल काटता है? रोटी का व्यापार करता है? पूँजीवादी समाज की निर्ममता उनकी कालजयी कविता ‘यह बच्चा किसका बच्चा है?’ में महसूस की जा सकती है। बाल वर्ष पर लिखी यह कविता आपसे सवाल करती है कि किधर हैं जनाब? अमीर–उमरा के साथ या ग़रीब–गुरबों के साथ? क्या आपने किसी भूखे बच्चे को रोटी के लिए तरसते–तड़पते नहीं देखा? उसके गन्दे गालों पर सूखे हुए आँसू की छाप नहीं देखी? कविता सात बन्दों में है। विष बुझे हृदयबेधी बाण लिये तने हुए धनुष की तरह। सीधी–सच्ची प्रश्नाकुल कविता के पहले बन्द में इंशा पूछते हैं,
ये बच्चा किस का बच्चा है
ये बच्चा कैसा बच्चा है
जो रेत पे तन्हा बैठा है
ना इसके पेट में रोटी है
ना इसके तन पर कपड़ा है
ना इसके सर पर टोपी है
ना इसके पैर में जूता है
ना इसके पास खिलौनों में
कोई भालू है, कोई घोड़ा है
ना इसका जी बहलाने को
कोई लोरी है, कोई झूला है
ना इसकी जेब में धेला है
ना इसके हाथ में पैसा है
ना इसके अम्मी अब्बू हैं।
ना इसकी आपा खाला है
ये सारे जग में तन्हा है
ये बच्चा कैसा बच्चा है
कविता का हर बन्द, हर सवाल आपको झिंझोड़ता है, शर्मसार करता है। क्या यही प्रजातंत्र है? क्या यही लोकतंत्र है? कविता के छठे बन्द में दर्ज सवालों के जवाब ढूँढिये और गुनहगारों को चिन्हित कीजिए,
इस बच्चे की कहीं भूक मिटे
(क्या मुश्किल है हो सकता है)
इस बच्चे को कहीं दूध मिले
(हाँ दूध यहाँ बहतेरा है)
इस बच्चे का कोई तन ढाँपे
(क्या कपड़ों का यहाँ तोड़ा है)
इस बच्चे को कोई गोद में ले
(इनसान जो अब तक ज़िन्दा है)
फिर देखें कैसा बच्चा है
ये कितना प्यारा बच्चा है
कविता के सातवें बन्द में इंशा रास्ता बताते हैं, और यही रास्ता प्रेम का, विवेक का, बराबरी और साझेदारी का है। समाजवादी समाज का है।
सब अपने हैं कोई ग़ैर नहीं
हर चीज़ में सब का साझा है
जो बढ़ता है जो उगता है
वो दाना है या मेवा है
जो कपड़ा है जो कम्बल है
जो चाँदी है जो सोना है
वो सारा है इस बच्चे का
जो तेरा है जो मेरा है
ये बच्चा किस का बच्चा है
ये बच्चा सब का बच्चा है।(7)
इब्ने इंशा साझी दुनिया, साझी संस्कृति और समाजवादी दर्शन के हिमायती हैं। जात–पात का रोड़ा, मंदिर–मस्जिद का झगड़ा, पंडित–मुल्लों का रगड़ा, डंडे–झंडे का खेला इसलिए है कि रोटी, कपड़ा, मकान, रोज़गार और रोज़मर्रा की समस्याओं से जनता ग़ाफ़िल रहे और ईश्वर–अल्लाह के नाम पर खड्गहस्त हो जाये। राजसिंहासन और राजसी ठाठबाट को महफूज़ रखने के लिए वर्तमान राजनीतिक दल वही टोटका इस्तेमाल करते हैं जो कभी हिन्दुस्तान पर हुकूमत करने वाले अंग्रेज़ करते थे। बाज़ दफ़ा वह अपने आकाओं से भी आगे बढ़ जाते हैं। अपनी व्यंग्य रचना ‘बरकाते हुकूमते ग़ैर इगलिशिया’ (ग़ैर अंग्रेज़ी राज के गुण) में इंशा चुटकी लेते हैं, “अंग्रेज़ शुरू–शुरू में हमारे दस्तकारों के अँगूठे काट देते थे। आज कारखानों के मालिक हमारे अपने लोग हैं, दस्तकारों के अँगूठे नहीं काटते। हाँ, कभी–कभी पूरे दस्तकार को काट देते हैं।”(8) नोटबन्दी के दिनों में लाखों लोग नौकरी से निकाले गये। कोरोना लाकडाउन में ख़ाली पेट, खाली जेब लिये अपने गाँव–देहात लौटते हुए रास्ते में जान गँवायी। साहूकार, गुण्डे–मवाली खेत–खलिहान पर क़ब्ज़ा करते रहे। ज़िन्दगी रेहन पर उठती रही और लोग बेमौत मरते रहे, मारे जाते रहे।
‘तारीख के चन्द दौर’ नज़्म में हम देश–दुनिया को देख सकते हैं। ज़रा आप भी देखने–समझने की ज़हमत उठाइए––
मिलावट की सनअत1।
रिश्वत की सनअत।
कोठी की सनअत।
पकौड़ी की सनअत।
हलवे की सनअत।
माँडे की सनअत।
बयानों और नारों की सनअत।
ताबीज़ों और गण्डों की सनअत।
ये हमारे यहाँ सनअती का दौर है।(9)
(1– व्यापार)
इस सनअती दौर में हर चीज़ दाँव पर लगी है। मान, सम्मान, ईमान यहाँ तक कि मुल्क भी। चारों ओर क़ातिल, ठग, लुटेरे और बहुरूपिये घूम रहे हैं। बचिए और अपनी खाल बचाइए, वरना खाल उधड़ने में देरी नहीं लगेगी। शेरों का ज़माना नहीं रहा। इंशा ‘बयान जानवरों के’ उन्वान से सनअती दौर का कच्चा चिट्ठा खोलकर रख देते हैं। ‘शेर’ नज़्म में फ़रमाते हैं,
शिकारी शेरों को मार लाते हैं।
उनके सर दीवारों पर सजाते हैं।
उनकी खाल फ़र्श पर बिछाते हैं।
उनपर जूतों समेत दनदनाते हैं।
मेरे शेर! तुझ पर भी रहमत खुदा की
तू भी वाज़1 मत कर
अपनी खाल में रह।(10)
(1– प्रवचन)
खाल में रहने का इंशा जी का नुस्ख़्ाा भी कमाल का है। वह जनता–जनार्दन की बोली–बानी में रचे–बसे मुहावरों को एक नया तेवर और अन्दाज़ देकर चार सौ चालीस वोल्ट का झटका दे देते हैं। इस झटके को आप भी झेलिए और इंशा की तंज़निगारी पर रश्क कीजिए। ‘मक्खन’ शीर्षक रचना में उनकी वाक्पटुता देखिए,
“मक्खन कहाँ है?”
“मक्खन खत्म, ख़लास।”
“सारा खा लिया?”
“नहीं सारा लगा दिया। यह खाने की चीज़ थोड़े ही है। जिसको लगाओ फिसल पड़ता है।”
“जो फिसलेगा उसकी टाँग टूटेगी।”
“यह सोचना उसका काम है, हमारा काम तो लगाना है।”(11)
टाँग तोड़ने और मक्खन लगाने में आज लोग जी–जान से लगे हुए हैं। उसी में भलाई है वरना पूरी जन्म–कुण्डली खोल दी जाएगी। बहुत सारे सरकारी–ग़ैर सरकारी विभाग इसी काम में दिन–रात लगे हुए हैं। इसकी टोपी, उसके सिर करने से बाज़ आइए। जोड़, घटाव, गुणा, भाग से बचिए, वरना भुगतिये। इंशा जानते हैं कि हर शख़्स गणित के तिलिस्म के साथ, इतिहास, भूगोल, पुरातत्व, विज्ञान, मनोविज्ञान, स्वप्न और यथार्थ से घिरा हुआ है। इसलिए वह अपनी अद्भुत व्यंग्य रचना ‘उर्दू की आखिरी किताब’ में आदमी से जुड़ी हर होनी–अनहोनी पर नज़र डालते हुए मसविदे का ताना–बाना बुनते हैं। ‘एक सबक़ जुगराफ़िये का’ में वह भूगोल की व्याख्या करते हैं, “जुगराफ़िया में सबसे पहले यह बताया जाता है कि दुनिया गोल है–– गोल होने का फ़ायदा यह है कि लोग मशरिक (पूर्व) की तरफ़ जाते हैं, मग़रिब (पश्चिम) की तरफ़ जा निकलते हैं। कोई उनको पकड़ नहीं सकता। स्मगलरों, मुजरिमों और सियासतदानों के लिए बड़ी आसानी हो गयी है।”(12)
यहाँ घपला करो, वहाँ निकल जाओ। हिन्दुस्तान को लूटो, पनामा में पनाह ले लो। सच खतरनाक है, झूठ का लबादा ओढ़ लो। गैलीलियो ने सच बोला, बहुत तकलीफ़ें और ज़िल्लतें उठायीं। कोलम्बस ने अमरीका ढूँढा। क्या ज़रूरत थी? नाहक हमारी जान साँसत में पड़ गयी। इंशा आखिर में लिखते हैं कि, “–––कोलम्बस ने जानबूझकर यह हरकत की, यानी अमरीका दरयाफ़्त किया। बहरहाल, अगर यह ग़लती भी थी तो बहुत संगीन ग़लती थी। कोलम्बस तो मर गया, उसका खामियाज़ा हम लोग भुगत रहे हैं।”(13) एक यहूदी कहावत है कि, “शब्दों को गिनने के बजाय तौला जाना चाहिए।” इंशा एक–एक अल्फ़ाज़ तौल के रखते हैं। वह अल्फ़ाज़ की अहमियत और ताक़त को पहचानते हैं।
अपनी व्यंग्य रचना ‘इब्तेदाई अल्जबरा’ (प्रारंभिक बीजगण्ति) में इंशा लिखते हैं, “अल्जबरा का हमारी तालिबइल्मी के ज़माने में कोई खास मसरफ़ न था। उससे सिर्फ़ तुलबा (विद्यार्थियों) को फेल करने का काम लिया जाता था। लेकिन आजकल ये अमली ज़िन्दगी में खासा इस्तेमाल होता है। दुकानदार और गुज़ागर (व्यापारी) इस क़ायदे का ज़्यादा इस्तेमाल करते हैं।
पैसा ला–ला–और–ला।
बाज़ रिश्तों में अल्जबरा यानी जब्र (अत्याचार) का शाएबा (मिलावट) होता है, जैसे मदर–इन–ला, फ़ादर–इन–ला वग़ैरह। मारशल–ला को भी अल्जबरे का ही एक क़ायदा समझना चाहिए।”(14) पूँजीवाद और कॉरपोरेट कल्चर का बस एक ही क़ायदा है। फ़ायदा बस फ़ायदा। इसी नुक्ते के इर्द–गिर्द सारी पॉलीसिज़ बनायी जाती हैं। अपने मतलब के इनसान गढ़े जाते हैं। गढ़े हुए साँचे के बाहर का इनसान ना–क़ाबिल–ए–बरदाश्त है। ‘तारीख के चन्द दौर’ नज़्म में इंशा की टेढ़ी नज़र की दुरन्देशी देखिए। हँसिए और अपने सिर के बाल नोचिए।
काग़ज़ के नोट।
काग़ज़ के ओट।
काग़ज़ के ईमान।
काग़ज़ के मुसलमान।
काग़ज़ के अखबार।
और काग़ज़ के कॉलमनिगार।
ये सारा काग़ज़ का दौर है।
अब इस आखिरी दौर को देखिए।
पेट रोटी से खाली।
जेब पैसे से खाली।
बातें बसीरत1 से खाली।
वादे हक़ीक़त से खाली।
शहर फ़रज़ानों2 से खाली।
जंगल दीवानों से खाली।
ये खलाई3 दौर है।(15)
(1–समझदारी 2–बुद्धिमानों 3–अन्तरिक्ष )
विज्ञान कहता है कि दो ग्रहों या तारों के बीच के शून्य स्थान को अन्तरिक्ष कहते हैं। इस शून्य को, बोलचाल में अंडा भी कहते हैं। स्कूल की परीक्षा में जब हमारे जवाब ग़लत होते तो हमें मास्टर जी बड़ा वाला शून्य देते। कान मरोड़ते, कहते कि, “बेटा, ये अंडा अपने अब्बा–अम्मी को दिखाना और कहना, हम हैं इस देश का भविष्य।” अब ऐसे दो–टूक कहने और ठोक–बजाकर समझदार इन्सान बनाने वाले मास्टर नहीं रहे। अब तो रिंग मास्टर हैं। बिजली वाले हंटर चलाकर दिल और दिमाग़ का कनेक्शन फ़्यूज़ कर देने वाले। अब तो चारों ओर फ़्यूज़ और कनफ़्यूज लोग हैं, यानी बत्ती बन्द, डिब्बा गुल। इंशा लिखते हैं,
ये और दौर है।
लोग नंगे घूमते हैं।
नंगे नाचते हैं।
नंगे–क्लबों में जाते हैं।
एक–दूसरे को जलसों में नंगा करते हैं।
अवाम तक के कपड़े उतार लेते हैं।
बल्कि खाल खींच लेते हैं।
खालों से ज़रे–मबादला1 कमाते हैं।
गोश्त कच्चा खा जाते हैं।
न चूल्हा है न सींख है।
ये ज़माना कब्ल–अज़तारीख2 है।(16)
(1– विदेशी मुद्रा 2– प्राचीन–इतिहास काल )
ये नंगई का दौर है। इतिहास बैक गियर में है। जालसाज़ों और जुआरियों से भरी कौरव सभा टॉप गियर में है। पाण्डव बन्धु र्फ़्स्ट गियर में हैं। महाभारत के पन्ने हर युग में खुल जाते हैं। इब्ने इंशा लिखते हैं, “महाभारत कौरवों और पाण्डवों की लड़ाई की दास्तान है। कौरव तो जैसा कि नाम से ही ज़ाहिर है, बड़े कोर चश्म (अन्धे) थे। हाँ, पाण्डव अच्छे थे। इतना ज़रूर है कि कभी–कभी जुआ खेल लेते थे। जुए में बेईमानी कभी न करते थे और जीता हुआ माल कभी न छोड़ते थे।”(17)
आज भी राजनीतिक बिसात बिछी हुई है। जुआरी जुटे हुए हैं। चाल–दर–चाल चली जा रही है, और हर हाल में जीतने और माल बटोरने का काम चरम पर है। हालाते हाज़रा तो देखिए। रास्तों पर जगह–जगह ‘सावधानी हटी, दुर्घटना घटी’ के साइनबोर्ड के बीच, देह दिखाती, ध्यान भटकाती हसीनाओं की तस्वीरें बुद्धिहरण कर रही हैं। तो भैया, काण्ड तो होना ही है। सो, धाँय, धड़ाम और किस्सा तमाम! जीने का प्रबन्धन और मरने का इन्तज़ाम साथ–साथ। रौशनी की चकाचैंध में अंधेरे का ही राज है। इब्ने इंशा इस राज का राज़ खोलते हैं। “रौशनी की रफ़्तार एक लाख छियासी हज़ार मील फ़ी घण्टा है। अंधेरे की रफ़्तार कभी नापी नहीं गयी। आज उसकी रफ़्तार रौशनी की रफ़्तार से कुछ ज़्यादा ही समझिए।”(18)
रफ़्तार से होश–ओ–हवास छीनने के लिए आज़माया हुआ सटीक हथियार चलाया जा रहा है। अंग्रेज़ों ने इसे ‘डाइवर्ट एण्ड अटैक’ कहा था। यानी ‘भटकाओ और हमला करो।’ इसी हथियार में एक विनाशक और जोड़ा गया–– ‘डेविएशन’, यानी विचलन। विचलित करो, भेद पैदा करो और मारो। सो, ग़रीबी, भुखमरी, बेरोज़गारी का असली मुद्दा डूब गया और उतराने लगा–– हिन्दू,–मुस्लिम, मन्दिर–मस्जिद, हिन्दी–उर्दू। हुकूमत और बेहिसाब ताक़त ने इल्म, मोहब्बत ईमानदारी, नैतिकता और ज्ञान को मटियामेट कर मूर्खता, अज्ञानता और दौलत को सर्वोपरि बना दिया। इब्ने इंशा का कटाक्ष दूध का दूध, पानी का पानी कर देता है। “अकबर अनपढ़ था। बाज़ लोगों को गुमान है कि अनपढ़ होने की वजह से ही इतनी उम्दा हुकूमत कर गया। उसके दरबार में पढे–लिखे नौकर थे। नवरत्न कहलाते थे। यह रिवायत उस ज़माने से आज तक चली आती है कि अनपढ़ लोग पढ़े–लिखों को नौकर रखते हैं और पढ़े–लिखे इस पर फ़ख्ऱ करते हैं।”(19) हर चीज़ पर क़ातिलों का क़ब्ज़ा है, बेरूह सौदागरों की ज़ालिम हुकूमत है।
‘अम्न का आख़िरी दिन’ के अशआर खून और आँसू से तर–ब–तर हैं––
जीम वो ‘जंग’ का बाज़ार है जिसमें जाकर
इतनी सदियों में भी इनसान की क़ीमत न बढ़ी
चे वो ‘चाँदी’ है, वो चाँदी के चमकते सिक्के
जिससे दुनिया की हर इक चीज़ खरीदी न गयी
फिर भी हर बीस बरस बाद वही सौदे हैं
वही ताज़िर1 हंै, वही जिंस2 है क़ीमत भी वही(20)
चारों ओर उजाड़ बंजर की भाँय–भाँय और उल्लू की मनहूस आवाज़ है––
फ़े है वो ‘फ़त्ह’ कि कुछ ले तो गयी दे न सकी
फ़े है ‘फ़र्दा’3 कि छलावे का छलावा ही रहा
काफ़ ‘क़रिया’4 है कि इतना भी न वीराँ था कभी
अब न चूल्हों से धुआँ उठता है नीला–नीला
और न वो खेत न वो फ़सलें न वो रखवाले
एक इक गाँव में उल्लू बोला(21)
(1– व्यापारी 2– वस्तु 3– आने वाला कल 4– गाँव)
एक वक़्त था जब व्यंग्य को कविता ही नहीं माना जाता था। लम्बे समय तक मनोविनोद, हँसी–मज़ाक और ‘टाइमपास’ में ही यह विधा छीजती रही। अपनी चमक और असर खोती रही। व्यंग्योक्ति की धार कुन्द हुई और यथार्थ से नाता टूटता चला गया। इब्ने इंशा ने इस बेधार और बेजान रवायत को तोड़ा। उसे जीवन–राग से जोड़ा। नया फ़लसफ़ा दिया और मुस्कान बिखेरते हुए उर्दू की तंज़िया शायरी को प्रतिवाद का कलात्मक हथियार बनाया। अब्दुल बिस्मिल्लाह सही लिखते हैं कि, “मीर, नज़ीर और कबीर की परम्परा का यह कवि उर्दू का निराला कवि है। इब्ने इंशा ने उर्दू शाइरी के प्रचलित विन्यास को हाशिये में डाल दिया है और अपनी शाइरी में नया सौन्दर्य–बोध उत्पन्न किया है।”(22) उनका सौन्दर्य–बोध अतीत की भूलों को दुरुस्त करता हुआ, आज को हर कोण से प्रतिबिम्बित करता है। ‘लब पर नाम किसी का भी हो’ नज़्म की इन पंक्तियों पर ग़ौर कीजिएय
ले जानी अब अपने मन के पैराहन की गिरहें खोल
ले जानी अब आधी शब है, चार तरफ़ सन्नाटा है
तूफ़ानों की बात नहीं है, तूफ़ाँ आते–जाते हैं
तू इक नर्म हवा का झोंका, दिल के बाग़ में ठहरा है
या तू आज हमें अपना ले, या तू आज हमारा बन
देख कि वक़्त गुज़रता जाये, कौन अबद1 तक जीता है
फ़रदा2 महज़ फ़ुसूँ3 का पर्दा, हम तो आज के बन्दे हैं
हिज्रो–ओ–वस्ल, वफ़ा और धोका, सब कुछ आज पे रक्खा है(23)
(1– हमेशा 2– आने वाला कल 3– जादू)
उनका मन बन्धन मुक्त है और घराना आज़ाद। सच्चाई को अपदस्थ करने वाला सत्ता–पक्ष निरन्तर भ्रम भरे बिम्ब, प्रतीक रचता रहता है। झूठ को पदस्थ करता है। इब्ने इंशा पूरी दृढ़ता के साथ प्रतिपक्ष की आवाज़ बनते हैं,
उनका दावा उनकी अदालत और उन्हीं की ताज़ीरात1
उनका दोस्त ज़माना सारा, अपना दोस्त खुदा की ज़ात(24)
(1– दण्ड संहिता)
इब्ने इंशा साहस, सत्य और धैर्य की जोत को मन्द पड़ने नहीं देते। उनकी शाइरी में हम वर्तमान–भूत काल देख सकते हैं और भविष्य का नक़्शा बना सकते हैं। बरसों–बरस पहले लिखी गयी नज़्म ‘दरवाज़ा खुला रखना’ का कथ्य और शिल्प समाजार्थिक –राजनीतिक बिसात की हर चाल को सामने रख देती है। उनकी कला का कमाल महसूस कीजिए,
शिक्वों को उठा रखना, आँखों को बिछा रखना
इक शम्मा दरीचे की चैखट पे जला रखना
मायूस न फिर जाये, हाँ पासे वफ़ा रखना
दरवाज़ा खुला रखना
दरवाजा़ खुला रखना(25)
लेकिन जंग लगे लोगों ने अपने दरवाज़े बन्द कर दिये। खुले दिल–दिमाग़ वाले इस महान जनकवि को जीते जी तो क्या मरने के बाद भी चैन और सुकूँ नहीं मिला। सत्ता पर काबिज़ तंगनज़र लोगों ने अपने दुश्मन शाइर को क़ब्रिस्तान के उजाड़, झाड़–झंखाड़ भरे एक कोने में दफ़ना दिया। नफ़रत की इन्तहा कि, क़ब्र का पत्थर (टॉम्बस्टोन) तक नहीं लगाया गया। नाम–ओ–निशाँ मिटाकर वे मुतमइन थे कि क़िस्सा खत्म। अन्दर से खुश और बाहर से प्यार दिखाने का ड्रामा। क़ब्रिस्तान के भायँ–भायँ सन्नाटे में, साँय–साँय हिलती डालियाँ और पत्ते मानो इब्ने इंशा में ही तब्दील हो गयी हों,
“तुम और हमसे प्यार करोगे? झूठ है लोभी बंजारो
बेचोगे व्योपार करोगे, तुमसे दूर भले प्यारो!”
बेचना, व्यापार करना, पारिवारिक–सार्वजनिक सम्पत्ति हड़पना इन लोभियों का एकमात्र इष्ट है। रास्ते में आने वाली हर बाधा को छल–बल–कपट से मिटा देने का इतिहास बहुत प्राचीन है। स्वतंत्रता, स्वाभिमान, क्रान्ति, वैज्ञानिक चेतना, तर्कसिद्ध सत्य और सुसंगत शिक्षा के वाहकों को इन्होंने क्रूरता से मारा। उनके निष्कर्षों, किताबों, शोध–पत्रों और उनकी उपस्थिति दिखाने वाले संकेतों को जलाने–मिटाने की हर सम्भव कोशिश की। अपनी रचनाओं में इब्ने इंशा इतिहास को भुलाते नहीं हैं। वह उसके खाई–खन्दक में उतर हमें मुँहतोड़ जवाब देने के लिए, जिरह–बख़्तर के साथ तैयार करते हैं।
ज़माने ने गेली1 गुलामों से अब तक
हज़ारों बरस फ़ासला तय किया है
हर इक गाम पर ये मुसाफ़िर ने देखा
कोई बेस्टिल2 राह रोके खड़ा है
ज़मीं–ज़ादगाँ3 पर ज़मीं–ज़ादगाँ ने
कभी तीर छोड़ा कभी दाम4 फेंका
कभी शहरो–क़रिया को बिल्सन5 बनाया
कभी किश्तो–गुलशनद6 पे नैपाम7 फेंका
कभी अपने तर्रार8 बम्बर भेजे
कभी अपनी जर्रार9 फ़ौजें बढाई(26)
(1– गुलामों का एक प्रकार 2– फ्रांस का मशहूर क़ैदखाना जो फ्रांस की क्रान्ति में टूटा 3– पश्थ्वीपुत्रों 4– फन्दा 5– नाज़ियों का कुख्यात बन्दी कैम्प 6– खेतों और फुलवारियों पर 7– बम 8– तेज़ 9– बड़ा लश्कर)।
वह याद दिलाते हैं कि, सुकरात और मीरा को विष का प्याला दिया गया। आदि विद्रोही स्पार्टकस को सूली पर चढ़ाया गया। खगोलशास्त्री कॉपरनिकस को चर्च ने बहुत बदनाम और अपमानित किया। महान् वैज्ञानिक गैलीलियो गैलीली को एकान्त कारावास देकर मार डाला।
आज भी यही कुछ दोहराया जा रहा है। हिन्दी साहित्य के सिलेबस में भयानक फेर–बदल हो रहा है। जिन कवियों, लेखकों, वैज्ञानिकों, दार्शनिकों और शाइरों ने हर चीज़ पर सन्देह करना सिखाया, निरन्तर प्रयोग, सूक्ष्म प्रेक्षण–परीक्षण–मनन कर सत्य की पुष्टि की, जनहित में सार्वजनिक कार्य किया, उन्हें विस्मृति के गर्त में फेंका जा रहा है। कलम के सितारों और विज्ञान के जियालों की जगह तथाकथित लुगदी साहित्य और अवैज्ञानिक गोबर–गणेशों को उतारा जा रहा है। जुगनुओं को सूरज बनाया जा रहा है। अंधविश्वास और अज्ञान की दीवार खड़ी की जा रही है। इब्ने इंशा सवाल दागते हैं,
मगर ऐसे हक़ बात रुकती है सार्इं?
और तंज़िया बुमरैंग चलाते हैं,
हम भी तेरे कौनैन1 भी तेरे दुनिया क्या और उक़्बा2 क्या
बीच में क्यों ऐ दोस्त उठा दी नाहक़ की दीवार कहो(27)
(1– दोनो लोक 2– परलोक)
दीवार उठाकर ये बदबख़्त समझते हैं कि हमें जनता से दूर कर देंगे। यह खामख़्याली है। दर्द और प्यार भरा नाता एक–दूसरे को समझने और ना भूलने की याद दिलाता रहता है।
देख हमारे माथे पे ये दश्ते–तलब1 की धूल मियाँ
हमसे अजब तेरा दर्द का नाता, देख हमें मत भूल मियाँ(28)
(1– याचना का जंगल )
याचना के जंगल में दर्द से तराशी हुई उनकी लपट भरी पुकार है––
जो कंगाल हैं उनको धरती की दौलत
इनायत करें मसनदों पर बिठाएँ
जो मज़दूर हैं उनको मेहनत का हासिल
जो दहकान1 हैं उनको खेती दिलाएँ
जो नाकाम हों तो ग़ज़लख़्वाँ ग़ज़लख़्वाँ2
बढ़ें बहरे–पादाश3 बेखौफ़ होकर
मरें तो मरें मिस्ले गिब्रेलपेरी4
जिएँ तो जहाँ में दिमित्रोफ़5 होकर(29)
(1– किसान 2– ग़ज़ल गाते हुए 3– अच्छाई या बुराई के फलरूपी समुद्र 4– नाज़ियों के हाथों शहीद हुआ फ्रांसीसी क्रान्तिकारी 5– बुल्गारियावासी महान कम्युनिस्ट जिन्होंने बेखौफ़ होकर राइशटाग मुक़दमे का सामना किया था और विजयी हुए थे।)
जीने–मरने का अन्दाज़ रचनाशील युवा पीढ़ी ने इब्ने इंशा से सीखा। अपने महबूब शाइर को कभी नहीं भुलाया। सत्ता की साज़िशों, तोहमतों, चालों को समझा–बूझा और इब्ने इंशा को आत्मसात करते हुए उनकी राह चले। तवील नज़्म ‘इंशा जी बहुत दिन बीत चुके’ की इन पंक्तियों को गुरु–मंत्र बनाया और फिर अपनी बिल्कुल अलग राह बनायी। हो सके तो आप भी इस मंत्र को आज़माएँ,
धूनी न रमा, बिसराम न कर
बस अलख जगा कर चलता हो
तू अपना रह, तू अपना बन
तू इंशा है, तू इंशा हो।(30)
उर्दू साहित्य में रमे हुए, शायर, पत्रकार और अभिन्न मित्र भाई एहतेशाम हुसैन सिद्दीकी़ (गोरखपुर) ने पाकिस्तान के युवा रचनाकारों के अनुभव के बारे में बताया। एक दिन ये रचनाकार क़ब्रिस्तान पहँुच गये। बुज़ुर्ग चैकीदार से इंशा साहब की क़ब्र के बारे में पूछा। कुछ देर वह इन्हें देखता रहा फिर एक ओर चल पड़ा। लम्बी दूरी के बाद एक उजाड़ स्थान पर खड़ा हो गया। वह जगह दुर्गंध, गन्दगी और असहनीय तनाव से भरी हुई थी। चैकीदार बोला, “यह है उनकी क़ब्र। बदनसीब शायर को उन्होंने बेमन से दफ़ना दिया। रस्म–अदायगी की और चलते बने। कभी पलटकर नहीं देखा। कोई खोज–खबर नहीं ली। हरदम चुभने वाला काँटा जो निकल गया था।” उसके चेहरे पर यादों की परछाइयाँ थीं। युवा फूट–फूट कर रोने लगे।
दर्द का सैलाब थमा तो सभी जी जान से सफ़ाई में जुट गये। राज मिस्त्री, कुली, सीमेंट और टाइल्स की व्यवस्था की गयी। लगातार काम के बाद क़ब्र का स्वरूप निखर गया। युवाओं ने फूल चढ़ाये और टॉम्बस्टोन लगवाया। अक्षर चमकने लगे–– इब्ने इंशा। वे देर तक अपने प्यारे कवि को याद करते रहे। सर झुकाया, सलाम किया और चुपचाप क़ब्रिस्तान से निकल गये। क़ब्र की रौनक उनके एक शेर से और उज्ज्वल हो गयी,
जनम–जनम के सातों दुख हैं उसके माथे पर तह्रीर
अपना आप मिटाना होगा यह तह्रीर मिटाने में(31)
उन्होंने अपने आप को मिटा दिया और अपने घराने को सँवारने और चारो तरफ़ फैलाने का ज़िम्मा युवा पीढ़ी को सौंप दिया।
सीधे मन को आन दबोचें, मीठी बातें सुन्दर बोल
मीर, नज़ीर, कबीर और इंशा सबका एक घराना–हो(32)
ज़िन्दगी भर इब्ने इंशा अपने घराने के लोगों की सुध लेते रहे। उनके सुख–दु:ख और संघर्ष से सम्बद्ध रहे। वह पाकिस्तान की मिट्टी में जालन्धर की खूशबू ढूँढते रहे। पाकिस्तान में हिन्दुस्तान और हिन्दुस्तान में पाकिस्तान खोजते रहे। सीमा रेखाओं ने देश को बाँटा हैय लेकिन, आर–पार बसने–लिखने वालों को बाँट नहीं सकी। बाहर चारों तरफ़ घिरे जानलेवा तारों में दौड़ती बिजली की धारा, जबकि रचनाकारों के भीतर, मिट्टी, सुर्खी, और चूने से सने प्रगाढ़ पे्रम का गारा। इसी अटूट पे्रम के गारे ने जाँनिसार इब्ने इंशा को गढ़ा था। वह अपनी नज़्म ‘ये कौन आया’ में लिखते भी हैं कि,
तू दर्द के दरमाँ1 है, तू धूप के साया है
नैना तेरे जादू हैं, गेसू तेरे खुशबू हैं
बातें किसी जंगल में भटका हुआ आहू2 है
मक़सूदे वफ़ा सुन ले, क्या साफ़ है सादा है
जीने की तमन्ना है, मरने का इरादा है।
(1– इलाज 2– हिरन )(33)
डोगरी की सुप्रसिद्ध कवयित्री, गुलुकारा, अनुवादक, ब्रॉडकास्टर और हिन्दी की हरदिल अज़ीज़ लोकप्रिय लेखिका पद्मा सचदेव ने इब्ने इंशा पर कालजयी संस्मरण लिखा है, ‘दरवाज़ा खुला रखना’।(34) इस पुस्तक से गुज़रते हुए आँख भर आती है। कलेजा मुँह को आ जाता है। इब्ने इंशा को कैंसर था। वह इस बीमारी से वाकिफ़ थे। पाकिस्तान टेलीविज़न से जुड़े एक साहब उनसे बातचीत रिकॉर्ड करना चाहते थे। इंशा जी की प्रतिक्रिया थी कि, “मुझे पता है कि ये मुझे क्यूँ रिकॉर्ड करने आये हैं। पर इंशा जी इतनी जल्दी जाने वाले नहीं हैं।”(35) “वो मुझे जालन्धर की बातें बताते हैं। लुधियाना की भी। साहिर की, राजेन्द्र सिंह बेदी की, कृश्न चन्दर की और कितने लोगों की। प्रकाश पंडित की बीमारी की उन्हें बेहद फ़िक्र है। साहिर बीमार थे। उनका हाल पूछते हैं। और बम्बई के कई लोगों का, कृश्न चन्दरजी के खत उन्होंने महफ़ूज़ रखे हैं। मुझे पढ़कर सुनाते हैं। फिर उदास होकर कहते हैं–– हमने सोचा था दो बरस कम–से–कम और काटेगा। पर छह ही महीने की मोहलत मिली। देखें अल्लाह मियाँ हमें कितना वक़्त देते हैं।(36)
पद्मा जी आगे बहुत भावविह्वल होकर लिखती हैं, “11 जनवरी, 1978 को आठ–नौ दिन बेहोश रहने के बाद इंशा चले गये। मेरे ज़ेहन में गूँजता है इतनी जल्दी अपने मन में भारत आने की हसरत लिये कुंज गलियों में भटकता वो अलबेला शायर चला गया। आज उनके दोस्तों को और प्रशंसकों को उनकी मौत का यक़ीन नहीं होता। और हो भी क्यों, उर्दू अदब को जितना कुछ उन्होंने दिया, बरसों तक उसकी बदौलत उनका नाम रहेगा। आखिरी बैठक में जनाब मुजीब इमाम साहब ने उनकी शान में क्या ठीक कहा था––
अपने यारों के यार हैं इंशा
बा वज़ा बावक़ार हैं इंशा
इब्ने इंशा हैं तर्ज़े नौ के अमीर
ऐसे इंशा निगार हैं इंशा।”(37)
सन्दर्भ
1– उर्दू की आखिरी किताब, इब्ने इंशा, लिप्यान्तरण एवं सम्पादन : अब्दुल बिस्मिल्लाह, राजकमल पेपरबैक्स, नयी दिल्ली,पटना, पहली आवृत्ति : 2000, पृष्ठ 148।
2– उपर्युक्त, पृष्ठ 105।
3– अशआर, इब्ने इंशा, पाकिस्तानी उर्दू शायरी, खण्ड 1, सम्पादक : नरेन्द्रनाथ, पहली आवृत्ति : 1997, राधाकृष्ण प्रकाशन नयी दिल्ली, पृष्ठ 43।
4– पाकिस्तान में उर्दू कलम, पहल 17–18, सम्पादक : ज्ञानरंजन, कमलाप्रसाद, सौजन्य सहयोग : शकील सिद्दीक़ी, जबलपुर, म– प्र, पृष्ठ 52।
5– उर्दू की आखिरी किताब, पृष्ठ 145, 146।
6– पाकिस्तानी उर्दू शायरी, खण्ड 1, पृष्ठ 42।
7– प्रतिनिधि कविताएँ, इब्ने इंशा, सम्पादक : अब्दुल बिस्मिल्लाह, राजकमल पेपरबैक्स, नयी दिल्ली,पटना, आठवाँ संस्करण : 2022, पृष्ठ 115।
8– उर्दू की आखिरी किताब, पृष्ठ 23।
9– उपर्युक्त, पृष्ठ 34।
10– उपर्युक्त, पृष्ठ 140।
11– उपर्युक्त, पृष्ठ 154, 155।
12– उपर्युक्त, पृष्ठ 23।
13– उपर्युक्त, पृष्ठ 25।
14– उपर्युक्त, पृष्ठ 101।
15– उपर्युक्त, पृष्ठ 34, 35।
16– उपर्युक्त, पृष्ठ 33, 34।
17– उपर्युक्त, पृष्ठ 39।
18– उपर्युक्त, पृष्ठ 120।
19– उपर्युक्त, पृष्ठ 67।
20– प्रतिनिधि कविताएँ, इब्ने इंशा, सम्पादक : अब्दुल बिस्मिल्लाह, राजकमल पेपरबैक्स, नयी दिल्ली,पटना, आठवां संस्करण : 2022, पृष्ठ 126, 127।
21– उपर्युक्त, पृष्ठ 129,
22– उपर्युक्त, भूमिका।
23– उपर्युक्त, पृष्ठ 69।
24– उपर्युक्त, पृष्ठ, 40।
25– उपर्युक्त, पृष्ठ 58।
26– उपर्युक्त, पृष्ठ 136, 137।
27– उपर्युक्त, पृष्ठ 24।
28– उपर्युक्त, पृष्ठ 25।
29– उपर्युक्त, पृष्ठ 138, 139।
30– उपर्युक्त, पृष्ठ 124, 125।
31– उपर्युक्त, पृष्ठ, 33।
32– उपर्युक्त, पृष्ठ 82।
33– उपर्युक्त, पृष्ठ 94।
34– दरवाज़ा खुला रखना, लेखक : इब्ने इंशा, सम्पादक : पद्मा सचदेव, प्रकाशक : सस्ता साहित्य मण्डल, नयी दिल्ली, प्रथम संस्करण : 2011।
35– उपर्युक्त, पृष्ठ 14।
36– उपर्युक्त, पृष्ठ 15, 16।
37– उपर्युक्त, पृष्ठ 17।
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