जोश मलीहाबादी : अंधेरे में उजाला, उजाले में अंधेरा
साहित्य विजय गुप्तशब्बीर हसन खाँ के जोश मलीहाबादी बनने की कहानी एक भरे–पूरे, आसमान छूते पहाड़ के टूटने और बिखरने की कहानी है। जिन्दगी के आखिरी दिनों के असह्य दु:ख, उपेक्षा और जानलेवा एकान्त के बीच जब जोश अतीत के सुख भरे पलों को याद करते हैं तो मानो आह भरते हैं,
अपने कभी के रंगमहल में जो हम गये
आँसू टपक पड़े दर–ओ–दीवार देखकर।
और जरा ‘बिलखती यादें’ नज्म के आखिरी दो बन्द देखिए, आप भी तार–तार हो उठेंगे––
मकबरों से आ रही है झुटपुटे की छाँव में
एक–एक करके रफीकांे1 के बिछड़ जाने की याद
‘जोश’ अब्रे–तीरह2 में गुम है मेरा माहे–मुनीर3
कुश्ता4 शम्मों के धुएँ में जैसे परवाने की याद
(1– साथियों के 2– काले बादलों में 3– प्रकाशमान चाँद 4– बुझी हुई)
धुआँ–धुआँ होती यादों को जोश साहब ने हवाओं में गुम होने नहीं दिया, बल्कि उन्हें खुशबू में बदलकर अपनी तहरीर की फुलवारी में चारों तरफ बिखेर दिया। बिखेरने की इस प्रक्रिया में जोश स्वयं भी बहुत बिखर गये। फूल और सुगन्ध तो दुनिया को मिले, लेकिन काँटे खंजर की तरह उनके दिल में उतर गये। अपनी आपबीती ‘यादों की बारात’ में उन्होंने लिखा भी है कि, “––––– माजी (अतीत) से अपने को डसवा चुका तो कलम को खून में डूबो–डूबोकर सबकुछ कलमबन्द कर लिया और आपको सुनाने बैठ गया।”(1) अपनी बेहतरीन नज्म ‘सूनी जन्नत’ में वह सिरजनहार का हाल–अहवाल भी दिखलाते हैं––
चुभ रही है दिल में मिश्ले–नेश्तर1 कमबख्त साँस
ये मकाँ है, या कोई चुभती हुई सीने की फाँस।
(1– नश्तर की तरह)
अपने ही जिस्मो–जाँ का किस्सा सुनाना जलती हुई भट्टी से गुजरना होता है। अपने ही आँसुओं में भीगना और अपने ही खून में नहाना होता है।
कविता तो दिल के खून में डूब कर ही सुर्खरू होती है और हर्फ दर्द के सान पर चढ़कर ही मानीखेज और सच्चे होते हैं। गालिब की तरह जोश मलीहाबादी भी अपने एक–एक हर्फ पर अटूट विश्वास रखते हैं और पूरे मन–प्राण से उन हर्फों में जान फूँक देते हैं। उनके शब्द–चुनाव और प्रयोग पर आप उँगली नहीं रख सकते। कविता की माला में वह शब्दों के फूल पिरोते हैं। वह बहुत सावधान और पारखी शब्द–शिल्पी हैं। उनकी साँस–साँस साहित्य और कला में रची–बसी हुई है। गद्य उनकी देह है और पद्य उनकी आत्मा। कबीर ने लिखा है कि ‘मोको कहाँ ढूँढे रे बन्दे, मैं तो तेरे पास।’ जोश भी अपने ढूँढने वालों से कहते हैं कि––
ऐ शख्श! अगर ‘जोश’ को तू ढूँढना चाहे
वो पिछले पहर हल्का–ए–इर्फां1 में मिलेगा
और सुबह को वो नाजिरे–नज्जारा–ए–कुदरत2
तरफे–चमनो–सहने–बयाँबा3 में मिलेगा
और दिन को वो सरगश्ता4–ए–इसरारो–मआनी5
शहरे–हुनरो6–कुए–अदीबाँ7 में मिलेगा
(1– अध्यात्मवादियों में 2– प्राकृतिक सौन्दर्योपासक 3– उद्यानों और वनों की ओर 4– ढूँढने वाला 5– भाषा की गुत्थियाँ सुलझाने वाले 6– कलाविदों के शहर में 7– साहित्यिकों की गली में)
खुदा तो बन्दे के पास है और जोश कुदरत के करिश्मों में, वन–उपवन में, कला मर्मज्ञों में, लिखने वालों के गली–कूचों में और भाषा को सजाने–सँवारने और उसकी पेचीदगियों को सुलझाने वालों के पास हैं। भाषा की शुद्धता और सटीकता जोश की इबादत है। वह गलत शब्द–प्रयोग बर्दाश्त ही नहीं करते थे। इस मामले में उनके कई किस्से बहुत मशहूर हैं। “जवाहर लाल नेहरू को एक किताब दी तो उन्होंने कहा, ‘मैं मशकूर हूँ।’ जोश ने उन्हें फौरन टोका, ‘आपको कहना चाहिए था, शाकिर हूँ’।” किसी से चूक हुई नहीं कि वह अपना नफा–नुकसान छोड़कर बड़े–बड़े तोपचन्द से भी भिड़ जाया करते थे। जोश के पोते फर्रुख जमाल लिखते हैं कि “एक बार पाकिस्तान के राष्ट्रपति जनरल अयूब खाँ ने उन्हें खुश करने के लिए कहा कि आप बहुत बड़े आलम हैं। जोश ने फौरन जवाब दिया सही लफ्ज आलिम है न कि आलम।
इस पर अयूब नाराज हो गये और उन्होंने आदेश दिया कि जोश को दी गयी सीमेंट एजेंसी उनसे वापस ले ली जाये और ऐसा ही हुआ।”(2) दु:ख और अपमान की लपट उनकी लम्बी नज्म ‘एतिराफे–अज्ज’ (हीनता स्वीकृति) में महसूस की जा सकती है,
बस यही सतही सी बातें, बस यही ओछे से रंग
बेखबर था मैं कि दुनिया राज–अन्दर–राज है
वो भी गहरी खामोशी है जिसका नाम आवाज है
ये सुहाना बोसताँ1 सर्वो–गुलो–शमशाद2 का
एक पल भर का खिलंदरापन है आबो–बाद3 का
इब्तिदा–ओ–इन्तहा4 का इल्म नजरों से निहाँ5
टिमटिमाता सा दिया, दो जुल्मतों6 के दर्मियाँ
(1– फुलवारी 2– सुन्दर वृक्षों और फूलों का 3– बादल तथा वायु का 4– आदि तथा अन्त 5– गुप्त 6– दो लोकों के अन्धकार के।)
जोश की कविता अपने दु:ख के आइने में संसार को भी समेट लेती है। अपनी पीड़ा जग की पीड़ा बन जाती है। कवि का सुख–दु:ख, विरोध, क्रोध और प्रतिकार अपने लाभ–लोभ और निजता की सीमा लाँघ कर सर्वजन हिताय और सर्वजन सुखाय की ओर बढ़ जाता है। कविता की यही सामाजिकता जोश मलीहाबादी को सार्वभौमिक बना देती है। वह अपना ही नहीं, सबका कवि हो जाता है। उसके व्यक्तित्व का सार्थक रुपान्तरण हो जाता है। यह रुपान्तरण आसान नहीं है। जोश लिखते हैं कि, “व्यक्तित्व तो बनता है एक जुग बीत जाने और सालहा–साल खूने–जिगर थूकने के बाद।”(3)
गद्य हो या पद्य वह दोनांे विधाओं में जी–जान लगा देते हैं। हर शब्द, हर वाक्य पर वह इतनी मेहनत करते हैं कि हैरानी होती है। ‘स्टेट्समैन’ के रिपोर्टर और बाद में सम्पादक बने आर व्ही स्मिथ ने लिखा है कि, “सुबह चार बजे उठकर लिखना शुरू कर देते थे और शाम 6.30 बजे तक लिखते रहते थे।”(4) जोश मलीहाबादी की आत्मकथा ‘यादों की बारात’ कितनी मेहनत और मुश्किलों से लिखी गयी, यह उनकी ही जबानी सुनिए, “मैंने अपनी जिन्दगी के हालात लिखने के सिलसिले में पूरे छह बरस तक ज्यादातर लगातार और कभी–कभी रुक–रुककर मेहनत की है। डेढ़ बरस की मेहनत के बाद पहला मुसव्वदा (पाण्डुलिपि) तैयार किया, उसे रद्दी की टोकरी में डाल दिया। फिर डेढ़ बरस में दूसरा मुसव्वदा मुकम्मिल किया, उस पर भी लकीर खींच दी। फिर डेढ़–पौने दो बरस लगाकर नौ सौ पृष्ठों का तीसरा मुसव्वदा तहरीर किया और तीन हजार रुपये में उसकी किताबत भी मुकम्मिल करा ली। मगर जब उस पर एक गहरी नजर डाली तो पता चला कि इस मुसव्वदे को भी मैंने ऐसे घबराये हुए आदमी की तरह लिखा है, जो सुबह बेदार होकर रात के ख्वाब को इस खौफ से जल्दी–जल्दी उल्टा–सीधा लिख मारता है कि कहीं वह जेहन की गिरफ्त से निकल न जाये। और खुदा–खुदा करके यह चैथा मुसव्वदा छप रहा है।”(5)
जोश अपने हर मुसव्वदे पर एक बढ़ई की मानिन्द काम करते हैं। उसे काटते हैं, छीलते हैं, खराद पर कसते हैं, रंग–रोगन करते हैं, चमकाते हैं। ये सारे काम वे तब तक करते हैं, जब तक भाषा और कला की कसौटी पर रचना सौ फीसदी टंच न हो जाये। रचना रचनाकार के पसीने और रक्त के साथ अन्तर्रात्मा के प्रकाश से प्रकाशित होती है न कि अल्लाह के नूर से। अपनी एक रूबाई में जोश अल्लाह से भी गुमान करते नजर आते हैं––
अपने ही से कस्बे–नूर1 करता हूँ मैं
कब ख्वाहिशे–बर्के–तूर2 करता हूँ मैं
बन्दे मेरे नाजे–शायरी से न बिगड़
अल्लाह से भी गरूर करता हूँ मैं
(1– ज्योति प्राप्त 2– भाव यह है कि मैं ईश्वर से प्रकाश पाने के बजाय स्वयं अपने आपको प्रकाशमान कर रहा हूँ (पर्वत ‘तूर’ पर हजरत मूसा ने बिजली के रूप में ईश्वर के दर्शन किये थे।)
भाषा और रचना उनके लिए ईश्वर से भी बड़ी है। वह अपनी जबान और फन से कितनी मोहब्बत करते हैं, इस बातचीत से जाहिर है–– आर व्ही स्मिथ ने उनसे पूछा कि “ उर्दू शायरी के बारे में आपकी क्या राय है ? जोश बोले, “पाकिस्तान में तो वो मर रही है, लेकिन कम से कम भारत में उससे दिखावटी इश्क किया जा रहा है।”(6)
इसी दिखावटी इश्क का दुष्परिणाम है कि आज भारत में उर्दू अपनी पहचान कायम रहने के लिए लड़ रही है। हिन्दी–उर्दू का जिक्र आते ही, गंगा–जमुनी संस्कृति की बात छिड़ते ही साम्प्रदायिक हिन्दू और मुसलमान आमने–सामने आ जाते हैं। दोनों के बीच तलवारें खिंच जाती हैं। जातीय मेल–मिलाप, सद्भाव और भाईचारे के अनूठे और अनुकरणीय इतिहास को भुला दिया जाता है।
नज्म ‘हुब्बे वतन और मुसलमान’ में जोश लिखते भी हैं कि––
बाज आया मैं तो ऐसे मजहबी ताऊन1 से
भाइयों का हाथ तर हो भाइयों के खून से
(1– प्लेग )
यह मजहबी प्लेग और साम्प्रदायिक राजनीति का निर्मम ‘पावर गेम’ ही है जिसने लोकतंत्र का बार–बार खून किया है और इनसानियत को शर्मसार किया है। एक रूबाई में जोश इनसानी पतन की कहानी कहते हैं––
खंजर है कोई तो तेगे–उरियाँ1 कोई
सरसर2 है कोई तो बादे–तूफाँ3 कोई
इनसान कहाँ है ? किस कुर्रे4 में गुम है
याँ तो कोई ‘हिन्दू’ है ‘मुसलमाँ’ कोई
(1– नंगी तलवार 2– शीतल वायु 3– तूफानी हवा 4– मण्डल में )
हिन्दू–मुस्लिम दंगाइयों के वहशी कारनामों को जोश साहब ने आजादी के पहले बँटवारे के समय देखा था और आजादी के बाद हुए उत्पातों में भी देखा था। झल्ला कर उन्होंने अपनी आत्मकथा ‘यादों की बारात’ में लिखा था कि, “हम सब छुटभैये हैं। आजादी के बाद भी हम कुत्तों की तरह लड़ते और एक–दूसरे को झिंझोड़ते रहेंगे।”(7)
आज का भारत भयानक जानवरों और रक्तपिपासु प्रेतों के चंगुल में छटपटा रहा है। कोरोना महामारी के दौर में डूबती साँसों के लिए न ऑक्सीजन है, न पानी, न दवा, न डॉक्टरी अमला। यहाँ तक कि हालचाल पूछने वाला कोई हमदर्द भी नहीं। और तो और चैन से मरने के लिए अस्पताल में बिस्तर भी नहीं, उखड़ती साँसों को बचाने के लिए ऑक्सीजन सिलेण्डर भी नहीं। न धीरज बँधाने वाला कोई, न मरने के बाद अन्तिम विदाई देने वाला कोई। और तमाशा देखिए कि देश का चैकीदार बनाम फकीर प्रधानमंत्री आपदा को अवसर में बदलने की जुगत में लगा हुआ है।
देश की आम जनता को भूख–प्यास, गरीबी, बेरोजगारी और बीमारी से मरने का सुनहरा अवसर मिला है और चन्द अमीर घरानों, बड़े व्यापारियों एवं कारपोरेटों और उनका छाता बने राजनीतिज्ञों को बेहिसाब धन बटोरने का अवसर मिला है। एक तरफ खुशियों का समन्दर है तो दूसरी तरफ दुखों का तूफान। इस तूफान में देश की नइया डूब रही है और देश का खेवनहार चुनावी रैलियाँ कर रहा है। भारी भीड़ देखकर खुशी से पागल हो रहा है। भाषण दे रहा है। अपनी ही छवि पर लहालोट हो रहा है। विरोधियों को पानी पी–पीकर कोस रहा है और जनता से लगातार झूठ बोल रहा है। भूख–प्यास, बेरोजगारी, हारी–बीमारी और गरीबी से जूझते–मरते लोगों से कह रहा है कि भारत संसार की सबसे बड़ी आर्थिक शक्ति बनने जा रहा है। भारत की दुनिया भर में तारीफ हो रही है। जबकि सच्चाई यह है कि हम न भूख पर काबू पा सके हैं, ना ही लोगों को रोटी–कपड़ा और मकान दे सके हैं। आज तो हमारी स्वास्थ्य सेवाओं की भी पोल खुल चुकी है। डॉक्टरों और स्वास्थ्य कर्मचारियों का एक बड़ा हिस्सा भी पाँच सितारा, सात सितारा और सिताराविहीन अस्पतालों की ग़्ाुलामगिरी में लगा हुआ है और लोगों की जिन्दगी भर की जमा–पूँजी को लूट रहा है। पैसा नहीं तो दवा और इलाज भी नहीं। चारों ओर हहाकार मचा हुआ है।
जोश साहब ने ऐसे ही सिरफिरे तमाशाबाज सत्तानशीनों से कहा था कि––
आपके हिन्दुस्ताँ के जिस्म पर बोटी नहीं
तन पे इक धज्जी नहीं है, पेट को रोटी नहीं
बोटी, धज्जी और रोटी जीवन की निशानियाँ हैं। आज जीवन पर मृत्यु भारी पड़ रही है। मृत्यु की गन्ध से बोझिल शोकपूर्ण वातावरण में बस प्रेतों का अट्टहास है और निरीह जनता का रुदन है। खेवइए का ताण्डव नाच है और हवा में लहराती हुई रंग–बिरंगी झण्डियाँ हैं। जोश साहब ने अपनी कालजयी रचना ‘दीने आदमीयत’ में धर्म और राजनीति की घृणित मिलीभगत से तड़पती और पिसती हुई जनता के हाल–अहवाल पर जलता हुआ सच लिखा है कि––
कस्रे–इनसानी1 पे जुल्मों–जहल2 बरसाती हुई
झण्डियाँ कितनी नजर आती हैं लहराती हुई
(1– इनसानियत के महलों पर 2– अत्याचार और मूढ़ता )
जोश मलीहाबादी ने तंज करते हुए लिखा है कि––
शैतान एक रात में इनसान बन गये
जितने नमकहराम थे कप्तान बन गये
इनसान का भेस धारे नमकहराम शैतानों की आजादी के पहले भी चाँदी थी और आजादी के बाद भी चाँदी है। नमकहराम कप्तान और गुर्गों की साँठ–गाँठ और बदकारियों को जोश साहब अपनी रचना ‘मातमे–आजादी’ में खोलकर रख देते हैं। एक बन्द देखिए और उसकी रोशनी में आज के हिन्दुस्तान की भयानकता समझिए––
सिक्कों की अंजुमन के खरीदार आ गये
सेठों के खादिमाने वफादार आ गये
खद्दर पहन–पहन कर बद–अवतार आ गये
दर पर सफेदपोश सियहकार आ गये
दुश्मन गये तो दोस्त बने दुश्मने–वतन
खिलअत की तह खुली तो बरामद हुआ कफन
आज का हिन्दुस्तान सफेदपोश कफनचोरों और चरित्रहीनों का हिन्दुस्तान है। भूख, गरीबी, बेरोजगारी और मौत के सही आँकड़े छुपाये जाते हैं और चमकती हुई अर्थव्यवस्था के झूठे आँकड़े दिखाये जाते है और फाइव ट्रिलियन इकानॉमी का बेसुरा राग गाया–बजाया जाता है। आज श्मशान और कब्रिस्तान में लाशों की कतारें लगी हुई हैं। देह की अन्तिम शरणस्थली में भी सौदागर डेरा जमाये हुए हैं। रिश्वत के बिना मइयत को भी चैन नहीं।
दाह–संस्कार और मिट्टी देने की रस्में भी व्यापार के चकरघिन्नी में घूम रही हैं। साँस–साँस का सौदा हो रहा है। लाश को कन्धा देने का रेट पाँच हजार रुपये है। अस्पताल से लाश घर तक ले जाने का रेट दस हजार रुपये है। अभी एक दिल दहला देने वाली तस्वीर सोशल मीडिया पर देखने को मिली है। कोरोना से मृत एक औरत को गाँव वालों ने न कन्धा दिया और ना ही श्मशान में जलाने दिया। मजबूर बूढ़े पति को उसे साइकिल पर लादकर ले जाना पड़ा। बाद में पुलिस की मदद से दाह–संस्कार हो सका। अब तो पतिततारिणी गंगा में सैकड़ों लाशें बह रही हैं। संसार का गुरु बनने का अहंकार पालने वाले देश का यह हाल! पूरा देश जैसे क्रूर और नीच महाजन का खाता–बही हो गया है। कला, साहित्य संगीत और शराफत की कोई कद्र नहीं। दिल को खून–खून करके जोश ‘गलत–बख्शी’ शीर्षक नज्म में लिखते हैं कि––
इलाही अगर है यही रोजगार
कि सीने रहें अहले–दिल के फिगार1
रनायत2 को हासिल हों सरदारियाँ
शराफत को कफस बरदारियाँ3
सरे–बज्म जुहल4 आयें, अहले–नजर
बशक्ले–ग़्ाुलामाने–जर्रीं कमर5
हुनर हो, और इस दर्जा बेआबरू
तुफू बर तू ए चर्खे गरदाँ तुफू6
(1– चलनी 2– कमीनों 3– जूते सीधे करें 4– भूखे भट्टाचार्य 5– सुयोग्य व्यक्ति कमर में सुनहरी पेटियाँ बाँधे गुलामों की तरह खड़े हों 6– ऐ आसमान तुझ पर लानत है, लानत है।)
जोश मलीहाबादी सौन्दर्य–बोध और सामाजिक–बोध के महान कवि हैं। उनका रोमेंटिक व्यक्तित्व उन्हें संकीर्ण और स्वार्थी नहीं बनाता। वह हुस्न और इश्क में रमते हैं। मोहब्बत के सुरीले नगमें गाते हैंंंंं। कुदरत की खूबसूरती पर रीझते हैं। इनसानी आजादी का भरपूर समर्थन करते हैं, पर व्यक्तिवादी नहीं होते। उनकी नजर समाज पर बनी रहती है। वह वैयक्तिकता के साथ सामाजिकता का घनघोर समर्थन करते हैं। उनकी शायरी में हम आदमी के सुख–दु:ख और समस्याओं के साथ देश–दुनिया की भी समस्याओं से दो–चार होते हैं। उन्होंने लिखा भी है कि––
मेरे शेरों में फकत एक तायराना1 रंग है
कुछ सियासी रंग हैं, कुछ आशिकाना रंग है
कुछ मनाजिर2 कुछ मबाहिस3 कुछ मसाइल4 कुछ ख्याल
इक उचटता–सा जमाल5 इक सर–ब–जानू6 सा ख्याल
(1– ऊपरी 2– दृश्य 3– तर्क 4– समस्याएँ 5– सौन्दर्य 6– घुटनों पर रखा हुआ (तुच्छ)।)
जोश मलीहाबादी के गद्य और पद्य को पढ़ते और गुनते हुए यह बात याद आती है कि ‘बुद्धिमानों का समय काव्य–शास्त्र विनोद में व्यतीत होता है, और मूर्खों का समय व्यसन, निद्रा या कलह में व्यतीत होता है।’ जोश साहब को मूर्खों, बद्तमीजों और असभ्य लोगों का साथ जरा भी पसन्द नहीं था। उन्हें तो शब्द और सुर–साधकों के दिन–रात का सानिध्य पसन्द था। साहित्य और कलाविदों का अपमान करने वाले जाहिलों की इमदाद और बख्शीश को भी वो ठुकरा देते थे। हैदराबाद के निजाम और जोश का झगड़ा तो जग प्रसिद्ध है। उन्हीं की जबानी सुनिए, “मैने ‘गलत–बख्शी’ के नाम से निजाम के खिलाफ एक नज्म कही थी।––– दरअस्ल, यही नज्म मेरे यहाँ से निकाले जाने का सबब बन गयी। ––– मुझ कमबख्त घर फूँक तमाशा देखने वाले की यह आदत है, चाहे इसे हुनर समझा जाये या ऐब, कि मैं अवाम के कदमों पर सर झुका देने को इन्तहाई शराफत और सत्ताधारियों के तख्त के रू–ब–रू गर्दन जरा भी नीचा करने को कमीनगी समझता हूँ और मीर तकी मीर की मानिन्द––
सर किसूसे फर्द नहीं आता
हैफ बन्दे हुए खुदा न हुए”(8)
अवाम के कदमों पर सर झुकाने और सत्ताधारियों के सामने गर्दन ऊँची रखने का हुनर बिरले लोगों में ही होता है। जोश मलीहाबादी में यह काबिले तारीफ हुनर था। उनकी कलम हमेशा जनता के पक्ष में उठी, उसकेे संघर्षों, बलिदानों और त्याग पर फूल बन कर बरसी, जबकि सरमायादारों और साम्राज्यवादियों पर बिजली बन कर टूटी। अपने इस हुनर के लिए उन्होंने बहुत तकलीफें और जिल्लतें भी झेलीं, लेकिन जन–शत्रुओं के सामने अपना और देश का सर झुकने नहीं दिया। अपनी कला और स्वाभिमान की खतिर उन्होंने जनरल अयूब खाँ से रार मोल ले ली और पाकिस्तान में जलीलो–खार हुए। अयूब खाँ ने अपनी ओर से दी गयी सम्पत्ति उनसे छीन ली। अंग्रेज गवर्नर मार्श मुशीरे ने उनके मुसद्दस ‘हुसैन और इनकलाब’ से प्रभावित होकर उनसे दरख्वास्त की कि वो हर हफ्ते हिटलर और मुसोलिनी के खिलाफ आल इण्डिया रेडियो से एक नज्म ब्रॉडकॉस्ट करें जिसके एवज में आठ सौ रुपये का मासिक ऑनरेरियम यू पी सरकार उन्हें देगी। जोश साहब ने मिस्टर मुशीरे के ऑफर को ठुकरा दिया और कहा कि आप हिन्दुस्तान की आजादी और कांग्रेस के खिलाफ हैं, “अगर मैं ऐसा करूँगा तो इसका जो ग्राण्ड टोटल निकलेगा वह आपकी हुकूमत के मनमुताबिक ही होगा।”(9)
ब्रिटिश राज और ब्रिटिश साम्राज्यवाद से उन्हें इतनी नफरत थी कि उन्होंने दतिया के काजी सर अजीजुद्दीन का, ‘प्रो–ब्रिटिश’ होने की शर्त पर अखबार ‘सल्तनत’ निकालने और सुख–चैन से जिन्दगी बिताने का प्रस्ताव ठुकरा दिया। उनके बीच हुई बातचीत का यह टुकड़ा सुनिए और आज की मोदी सत्ता की चापलूसी में कालीन की तरह बिछे और कालीन को पाँव–पोश में बदलते लेखकों और कलाकारों की हकीकत जानिए, और उनमें फर्क कीजिए, “जोश साहब, ब्रिटिश एम्पायर एक नेमत है, और एक बहुत बड़ी नेमत। अगर हुकूमत खुदा–ना–खास्ता बाकी न रही तो मेरी यह बात कान खोलकर सुन लीजिए कि हिन्दू हमें कच्चा चबा डालेगा। वह आपका जीना दूभर कर देगा। गाय आपकी खेतियाँ चर लेंगी। आप गाय पर हाथ उठाएँगे, तो कम से कम, आपका हाथ तोड़ डाला जाएगा और यह भी मुमकिन है कि आप कत्ल कर डाले जायें। हिन्दू आपके खून से होली खेलेगा। आपके एम–ए– लड़कों पर हिन्दू मैट्रिक को तरजीह दी जाएगी। फरमाइए क्या आप इस पर तैयार हैं ?”
“काजी साहब, आप मेरे बुजुर्ग हैं और यह भी मानता हूँ कि आप मुझे फलता–फूलता देखना चाहते हैं। मैं आपकी इस हमदर्दी का शुक्रिया अदा नहीं कर सकता। लेकिन इसे क्या करूँ कि मुझे अंग्रेजी हुकूमत से नफरत है।”
मेरी बात काटकर उन्होंने कहा कि “आप अपने दोस्त जवाहरलाल के बहकावे में आ गये। देखिए यह आपकी रोजी और तमाम मुसलमानों की भलाई का सवाल है। –––अगर आप ब्रिटिश हुकूमत की मुखालिफत करेंगे तो मुझे अफसोस है कि रियासत आपका हाथ नहीं बँटा सकेगी।”
“काजी साहब, मैं आपका बेहद शुक्रगुजार हूँ। आपने तो दिल से चाहा था कि मेरी जिन्दगी सुधर जाये, लेकिन मेरे मिजाज ने सब खेल बिगाड़ कर रख दिया। खता आपकी नहीं मेरी है।”(10)
खता जोश साहब की नहीं थी। असली खतावार तो काजी सर अजीजुद्दीन और उन जैसे साम्प्रदायिक सोच और जहर से भरे हुए लोग थे। ऐसे तंग दिल–दिमाग के शैतान हिन्दू भी थे, मुसलमान भी। इन जहरीले लोगों कोे धर्मनिरपेक्ष और आधुनिक भारत के निर्माता जवाहर लाल नेहरू कभी पसन्द नहीं आये। आजादी के पहले भी धर्म को हथियार बनाकर हिन्दू–मुस्लिम एकता और भाईचारे को तोड़ने वाले आरएसएस और मुस्लिम लीग के कट्टर अनुयाइयों और उनकी शाखाओं–प्रशाखाओं ने देश को दंगों और नफरत की आग में झोंक दिया।
आजादी के बाद भी नेहरू की चरित्र–हत्या का खेल रुका नहीं बल्कि आरएसएस और भारतीय जनता पार्टी की अगुआई में पूरी रफ्तार से खेला जाने लगा। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी तो घृणा और चरित्र हनन के खेल में नम्बर वन हैं। यह उन्होंने गुजरात में भी किया। हाल ही में सम्पन्न 2021 के पश्चिम बंगाल विधान सभा चुनाव में तो उन्होंने कीर्तिमान ही रच दिया। ‘दीदी ओ दीदी’ की ध्वनि में कहीं ‘नेहरू ओ नेहरू’ भी सुनाई देता है। नेहरू को देश और इतिहास का खल पात्र बनाने के फेर में वह स्वयं लघु से लघुतर होते गये और नेहरू विराट से विराटतर। जोश मलीहाबादी नेहरू को ‘शराफत के आसमान का सूरज’ कहते हैं।
मानव जाति के प्रति अथाह प्रेम और मनुष्यता पर अडिग विश्वास ही जोश को प्रेम और विद्रोह का बड़ा कवि बनाता है। वह दुनिया की चमक–दमक, ऐश्वर्य और तरक्की का कारण मनुष्य की जिजीविषा और उसके अथक संघर्ष को मानते हैं और उसे मान देते हुए ‘इनसानियत का कोरस’ नज्म में कहते हैं कि––
बढ़े चलो, बढे चलो, रवाँ दवाँ बढ़े चलो
बहादुरों वो खम1 हुर्इं बुलंदिया बढे़ चलो
पय–सलाम2 झुक चला वो आस्माँ बढ़े चलो
फलक3 के उठ खड़े हुए वो पासबाँ4 बढ़े चलो
ये माह है5 वो मेहर6 है ये कहकशाँ7 बढ़े चलो
लिए हुए जमीन को कशाँ–कशाँ8 बढ़े चलो
रवाँ दवाँ बढ़े चलो, रवाँ दवाँ बढ़े चलो
(1– झुक गयीं 2– सलाम के लिए 3– आकाश 4– रक्षक 5–चाँद 6– सूरज 7– आकाश गंगा 8– खींचते हुए।)
रवाँ–दवाँ बढ़ने वाली बहादुर जनता के सामने बुलन्दियाँ झुक जाती हैं। आकाश सलाम करता है। चाँद, सितारे, धरती, आसमान, ग्रह–नक्षत्र सब उसके रक्षक बन जाते हैं। ऐसी जाँबाज जनता का जोश स्वागत करते हैं, उसके हुजूर में सिर नवाते हैं, लेकिन उस पर जुल्मो–जबर करने वालों को पल भर भी बरदाश्त नहीं करते और हुंकार भरते हैं कि––
क्या उनको खबर थी जेरो–जबर1 रखते थे जो रूहे मिल्लत2 को
उबलेंगे जमीं से मारे–सियह3 बरसेंगी फलक से शमशीरें
–––
क्या उनको खबर थी सीनों से जो खून चुराया करते थे
इक रोज इसी खामोशी से टपकेंगी दहकती तहरीरें
(1– दबा कर 2– जाति की आत्मा को 3– काले नाग।)
शमशीरें और तहरीरें मिलकर जर्रे–जर्रे को आग बना देती है और बन्दी आत्मा बेड़ियों से मुक्त हो जाती है––
चैंकिये जल्दी, हवा–ए–तुन्दो–गर्म आने को है
जर्रा–जर्रा आग में तब्दील हो जाने को है
और यह अन्दाजे बयाँ भी देखिए,
जिसके अन्दर आग है, दुनिया पे छा जाये वो आग
नारे–दौजख1 को पसीना जिससे आ जाये वह आग
(1– नरक की आग।)
हंसराज रहबर बिल्कुल सही फरमाते हैं कि, “––– जोश साहब में अभिव्यक्ति की अद्भुत शक्ति थी। वह अल्फाज में आग भर सकते थे और दिलों में आग लगा सकते थे।”(12) आग करुणा और आँसू के मिश्रण से ही प्रज्ज्वलित और रचनात्मक होती है। यह प्रज्ज्वलन ही कविता है, प्रेम है, विद्रोह है। जोश मलीहाबादी की कविता बहुरेखीय बहुरंगीय और बहुकोणीय जीवन का कोलाज है। कविता की सजलता और उष्णता पाठकों को बाँध लेती है और उन्हें भी भीतर से तरल और तेजस्वी बना देती है। जोश काव्य रसिक और स्वयं के बीच कोई परदा नहीं रखते। उनके बीच लगातार आवाजाही चलती रहती है। सदाएँ आती–जाती रहती हैं।
ये सदाएँ बराबर आती हैं
दिल का दरवाजा खटखटाती हैं
जोश साहब की रचना प्रक्रिया को उन्हीं के अल्फाजों से समझने की कोशिश करते हैं––
अंजुमन1 में तखलिये2 हैं, तखलियों में अंजुमन
हर शिकन3 में इक खिचावट, हर खिचावट में शिकन
हर गुमाँ4 में इक यकीं–सा हर यकीं में सौ गुमाँ
नाखुने–तदबीर5 भी खुद एक गुत्थी बेअमाँ6
एक–एक गोशे7 से पैदा वुसअते कौनो–मकाँ8
एक–एक खोशे9 में पिन्हाँ10 सद बहारे–जाविदाँ11
बर्क12 की लहरों की वुसअत13 अलहफीजो–अलअमाँ14
और मैं सिर्फ एक कौन्दे की लपक का राजदाँ15
(1– सभा 2– एकान्त 3– सल्वट 4– भ्रम 5– उपाय का नाखून 6– अनन्त 7– कोने से 8– ब्रह्माण्ड की–सी विशालता 9– बाल 10– निहित 11– सैकड़ों शाश्वत वसन्त ऋतुएँ 12– बिजली 13– विशालता 14– खुदा की पनाह 15– भेदी।
कविता एक बिन्दु से शुरू होती है जो ब्रह्माण्ड तक फैल जाती है। वह पानी की बूँद है जो अपनी काया में समन्दर समेटे हुए है। वह सभाओं और गहन एकान्त में गूँजती है। शोरगुल में चुप्पी और चुप्पी में मुखरता उसका दायरा है। भ्रम और यकीन के बीच वह बिजली की कौंध है। कल्पना और यथार्थ के भँवर में वह तिरती हुई अकेली नाव है। वह लगातार खुद से, समाज से, ‘सिस्टम’ और सरकार से जूझता और ललकारता हुआ सवाल है। वह पहेली है जिसे सुलझाने की तदबीर उलझती–सुलझती रहती है। कविता का हर कोना अछोर ब्रह्माण्ड का विराट रहस्य है, जिसमें ऋतुओं के उतार–चढ़ाव, आँधी–तूफान, बिजली और जलजले हैं। कवि भेदिया है जो कविता के रहस्य लोक में जाता है और पूरी जिन्दगी दाँव पर लगा देने के बाद भी रीता का रीता रह जाता है। कुछ कौड़ियाँ, कुछ सीपी और कुछ राज ही हाथ आ पाते हैं। मीर साहब ने क्या खूब लिखा है कि,
यही जाना कि कुछ न जाना हाय
सो भी एक उम्र में हुआ मालूम
मिर्जा गालिब भी कहते हैं कि,
आह को चाहिए इक उम्र असर होने तक
कौन जीता है तेरी जुल्फ के सर होने तक
एक उम्र के बाद ही जिन्दगी और कविता का तिलिस्म खुलता है और कविता जिन्दगी हो जाती है। वह व्यक्तिगत सम्पत्ति से सार्वजनिक सम्पत्ति हो जाती है। साधना हर साँस के साथ, उम्र के हर पड़ाव में और असरदार, और अर्थवान हो जाती है। मजाज पर लिखते हुए जोश कहते हैं कि, “ यह कोई मुझसे पूछे कि मजाज क्या था और क्या हो सकता था। मरते वक्त तक उसका फकत एक चैथाई दिमाग खुलने पाया था और उसका यह सारा कलाम उस एक चैथाई खुलावट का करिश्मा है। अगर वह अपने बुढ़ापे की तरफ आता तो अपने जमाने का सबसे बड़ा शायर होता।”13
प्रतिभा उम्र की मोहताज नहीं होती, लेकिन लम्बी साँसों का साथ मिल जाये तो वह ज्ञान–विज्ञान, कला–साहित्य के अनदेखे दरवाजे और खिड़कियाँ खोल देती है। रंग, गन्ध, स्वाद और स्पर्श की नित नवीन होती हुई अनुभूतियों से भर देती है। कविता का राग रगों में दौड़ने लगता है। जोश साहब के बिम्ब, प्रतीक, दृश्य और शब्दावली स्मृति में उमड़ते–घुमड़ते रहते हैं। नये रूपों और अर्थों में खुलते रहते हैं। जोश मलीहाबादी सरापा सच्चे कवि हैं। जनता के कवि हैं। सच को कभी उन्होंने चासनी में लपेट कर नहीं कहा। कुनैन पर चीनी का मुलम्मा कभी नहीं चढ़ाया। ‘रिश्वत’ नामक लम्बी नज्म में उनका कटीला, आँखें खोल देने वाला व्यंग्य देखिए और कल के आईने में आज के हत्यारे सत्ताधीशों, नीच पूँजीपतियों और स्याह कारोबारियों के खून सने चेहरों की शिनाख्त कीजिए, और, खुदाया मुट्ठियाँ भींचिए––
ये है मिलवाला, वो बनिया, औ‘ये साहूकार है
ये है दूकाँदार, वो है वेद, ये अत्तार है
वो अगर ठग है, तो ये डाकू है, वो बटमार है
आज हर गर्दन में काली जीत का इक हार है
हैफ1 मुल्को–कौम की खिदमत–गुजारी के लिए
रह गये हैं इक हमीं ईमानदारी के लिए
भूख के कानून में ईमानदारी जुर्म है
और बेईमानियों पर शर्मसारी2 जुर्म है
डाकुओं के दौर में परहेजगारी जुर्म है
जब हुकूमत खाम3 हो तो पुख्ताकारी4 जुर्म है
लोग अटकाते हैं क्यों रोड़े हमारे काम में
जिसको देखो, खैर से नंगा है वो हम्माम में
देखिए जिसको दबाए है बगल में वो छुरा
फर्क क्या कि इसमें मुजरिम सख्त है या भुरभुरा
गम तो इसका है जमाना है कुछ ऐसा खुरदुरा
एक मुजरिम दूसरे मुजरिम को कहता है बुरा
हम को तो जो चाहें कह लें हम तो रिश्वतखोर हैं
नासहे–मुशफिक5 भी तो, अल्लाह रक्खे, चोर हैं
तोंद वालांे की तो हो आईनादारी6, वाहवा
और हम भूखों के सर पर चाँदमारी वाहवा
उनकी खातिर सुबह होते ही नहारी7 वाहवा
और हम चाटा करें ईमानदारी वाहवा
सेठ जी तो खूब मोटर में हवा खाते फिरें
और हम सब जूतियाँ गलियों में चटखाते फिरें
(1– अफसोस 2– लज्जा 3– अपरिपक्व 4– परिपक्व होना 5– धर्मोपदेशक 6– रक्षा 7– नाश्ता।)
क्रोध की सात्विकता और यथार्थ की भयावहता कविता साथ–साथ दिखलाती है। आत्मनिरीक्षण के लिए विवश करती है और हिन्दुस्तान की सूरत और सीरत बदलने को प्रेरित करती है। जोश साहब की रचनाओं से गुजरते हुए हम कविता और गद्य के सौन्दर्य को आत्मसात करते हैं। मानवीय नजरिये से जीवन को समझते हैं। इतिहास, समाजशास्त्र, धर्म, विज्ञान, मनोविज्ञान और मिथकीय किस्से–कहानियों से वाबस्ता होते हैं। भारत और इस्लामिक देशों के साथ यूरोप के प्रखर राजनीतिक–सामाजिक–साहित्यिक वाद–विवाद और विमर्शों का हिस्सा बनते हैं। स्वाधीनता संग्राम के जाँबाज और लड़ाकू किरदारों के रू–ब–रू होते हैं। हम प्रश्न पूछना सीखते हैं, सही को सही, और गलत को गलत कहने की हिम्मत पाते हैं। आजादी का अर्थ और मोल समझते हैं। संक्षेप में कहूँ तो हम ज्ञानवान, तार्किक, सावधान और सार्थक मनुष्य बनते हैं। आजादी के शिल्पकारों को वह बहुत प्यार और सम्मान देते हैं। ‘सरोजनी नायडू’ रेखाचित्र में जोश लिखते हैं कि, “लहजे में अरगनूं (ऑर्गन), बातों में जादू, मैदाने–जंग में झाँसी की रानी, गोकुलवन की गोया मधुर बीन, बुलबुले–हिन्दुस्तान। अगर यह दौर मर्दों में जवाहरलाल और औरतों में सरोजनी की–सी हस्तियाँ पैदा न करता तो पूरा हिन्दुस्तान अन्धा होकर रह जाता।”(14) अफसोस कि जिन्दगी और मुल्क को बचाने और सँवारने वाली वो नायाब हस्तियाँ अब मूर्तियों में तब्दील की जा चुकी हैं। अगरबत्ती और लोहबान के धुएँ में उड़ायी जा चुकी हैं। इतिहास की किताबों में दबायी जा चुकी हैं। आँखें हैं पर देखने की कूवत छीन ली गयी है। आज का हिन्दुस्तान लफ्फाजियों और झूठ के नागपाश में अन्धा हो चुका है।
हर तरह के अन्धेपन की मुखालिफत जोश मलीहाबादी की खासियत है। उनकी शायरी धार्मिक, साम्प्रदायिक और साम्राजी नागपाश का ‘एण्टीडॉट’ है। उनकी काट का जोरदार और ताकतवर मंत्र है। वह जात–पात, धर्म और सम्प्रदाय में बँटे–छँटे, टुकड़े–टुकड़े इनसान को मुकम्मल और एकजुट करने की कोशिश करते हैं। उसकी फिरकावाराना सोच पर जबर्दस्त चोट करते हैं। ‘दीने आदमियत’ नज्म के कुछ शेर देखिए,
शैखो–पण्डित ने भी क्या अहमक बनाया है हमें
छोटे–छोटे तंग खानों में बिठाया है हमें
कुछ तमद्दुन1 के खलफ2 कुछ दीन3 के फर्जन्द4 हैं
कुलजमों5 के रहने वाले बुलबुलों6 में बन्द है
(1– संस्कृति के 2– सन्तान 3– मजहब के 4– पुत्र 5– समुद्रों के (मिश्र के समीप समुद्र का नाम) 6– पानी के बुलबुलों में।)
फिर रहा है आदमी भूला हुआ भटका हुआ
इक–न–इक लेबिल हर इक माथे पे है लटका हुआ
अपने हमजिन्सों1 के कीने2 से भला क्या फायदा
टुकडे़–टुकड़े होके जीने से भला क्या फायदा (1– साथी मनुष्यों के 2– द्वेष से)
हिन्दी–उर्दू के नामचीन विद्वान प्रकाश पंडित ने जोश साहब का आकलन करते हुए उचित लिखा है कि, “–––‘जोश’ की शायरी ने क्रान्ति के लिए न केवल मार्ग बनाया है, बल्कि हजारों–लाखों नौजवानों को क्रान्ति–संग्राम के लिए तैयार किया है। अपनी शायरी द्वारा उन्होंने भारत राष्ट्र को अंग्रेजी राज तथा साम्राज्य के विरुद्ध उभारा, प्रतिक्रियावादी संस्थाओं का भण्डाफोड़ किया। मूढ़ता, धर्मोन्माद, अन्धविश्वास और परम्परागत नैतिकता की जंजीरे काटीं। अतएव उनकी इस प्रकार की नज्में आज भी हमारा लहू गरमा देती हैं और उनके अध्ययन से अपने देश, अपनी जाति, अपनी सभ्यता, संस्कृति तथा अपने साहित्य से हमारा प्रेम दुगुना हो जाता है।”(15)
जोश के व्यक्तित्व में कबीर हैं, तो हाफिज और उमर खय्याम भी। मिल्टन, शेली, बायरन, वर्ड्सवर्थ हैं, तो गेटे, दाँते, शॉपेनहार, रूसो और नीत्शे भी हैं। वह दुनिया की महान प्रतिभाओं का विलक्षण मिश्रण हैं। उन्होंने अपने व्यक्तित्व निर्माताओं से विद्रोह और क्रान्ति का पाठ सीखा है। हर तरह के पाखण्ड और दिखावट को ध्वस्त करना जाना है। बगावत उनके खून में है,
बिगड़ी हुई अक्ल से हिमाकत बेहतर
धोके की मोहब्बत से अदावत1 बेहतर
शैतानो–अबुजहल2 की अजमत3 की कसम
सौ बार गुलामी से बगावत बेहतर
(1– दुश्मनी 2– शैतान और महामूर्खों के 3– गौरव )
उन्होंने हमेशा जिन्दगी और मुल्क को हसीन से हसीनतर बनाने का ख्वाब देखा और ख्वाब को सच करने के लिए दिन–रात एक किया। जनता तक अपनी आवाज और सन्देश पहुँचाने के लिए उन्होंने मुशायरों, साक्षात्कारों, बहस–मुबाहिसों और रेडियो प्रसारण का इस्तेमाल किया। समाजवादी दर्शन और विचारों पर केन्द्रित पत्रिका का प्रकाशन भी किया। साहित्यिक–राजनीतिक पत्रिका निकालने की योजना हिन्दुस्तान की बुलबुल सरोजनी नायडू की थी और उन्होंने इसके प्रकाशन में जोश साहब की बहुत मदद की। दिल्ली की एक मुलाकात में उन्होंने जोश से कहा कि, “मैं आपके टेम्प्रामेंट (मिजाज) से वाकिफ हूँ, कुछ न कहिए। मेरे सोने के कमरे में जाइए। तकिये के नीचे एक बड़ा–सा लिफाफा रखा हुआ है, उसे खोले बगैर अपनी जेब में रख लीजिए। ––– अब आपका काम यह होगा कि दिल्ली में एक नीम अदबी और नीम सियासी रिसाला निकालेंगे और किसी रियासत की तरफ मुड़कर भी नहीं देखेंगे।”(16)
इस तरह ‘कलीम’ (वार्ताकार) पत्रिका की शुरुआत हुई। ‘कलीम’ ने इतिहास रच दिया। प्रगतिशील शक्तियाँ एकजुट होकर जोश साहब की नुमाइंदगी में जनता की आवाज बन गयीं। हिन्दुस्तान की आजादी का एक नया राग चारों दिशाओं में गूँजने लगा। यह बरतानवी सरकार और उसके पिट्ठुओं को सख्त नागवार गुजरा। बाहरी और भीतरी दुश्मनों के घात–प्रतिघात ने एक शानदार पहल के रास्ते अनन्त अवरोध खड़े कर दिये। नतीजतन, रिसाला बन्द करना पड़ा। जोश मलीहाबादी के खिलाफ कुफ्र के फतवे जारी होने लगे, उन्हें कत्ल करने की धमकियाँ मिलने लगीं। आज भी सत्ता से सवाल पूछने और सरकार बहादुर को कठघरे में खड़ा करने वालों को यही धमकियाँ दी जाती हैं। उन पर अमल भी किया जाता है। कल भी हत्याएँ की जाती थीं, आज भी की जा रही हैं। न्याय के हक में आवाज उठाने वाले अनगिनत स्त्री–पुरुष आज भी भारतीय जेलों में बन्द हैं, दु:ख और अकेलेपन से लड़ते हुए।
जोश साहब ने आत्मकथा में अपने दु:ख और अकेलेपन को कुछ यूँ व्यक्त किया है, “कलीम की तरक्की ने मेरे बहुत से दुश्मन भी पैदा कर दिये थे। ऐसा क्यों न होता ? फिरंगी हुकूमत से बगावत, सरमाएदारी का विरोध, समाजवाद का प्रचार और कांग्रेस की तरफदारी। नतीजा यह कि कांग्रेस के गुलामी–परस्त मुखालिफीन, मुस्लिम लीग के ‘खिताबयाफ्ता’ मुजाहिदीन और हुकूमत के टुकड़ों और वजीफों पर पलने वाले हुक्काम और उल्माए–कराम लंगर–लंगोटे बाँधकर अखाड़े में उतर आये। उधर पलटनें थीं और इधर मैं अकेला।”(17)
यह अकेलापन लगातार सघन होता गया। पाकिस्तान जाने के फैसले ने एकाकीपन को मानो स्थायी भाव में बदल दिया। पंडित जवाहर लाल नेहरू ने उन्हें हिन्दुस्तान में रोकने की बहुत कोशिश की। उन्होंने जोश से कहा कि, “अपने बच्चों को पाकिस्तानी बना दें, लेकिन आप यहीं रहें–––।”(18) हिन्दुस्तान और पाकिस्तान के बीच झूलते हुए जोश अन्तत: बच्चों के आर्थिक और सांस्कृतिक भविष्य की खातिर पाकिस्तान चले गये। उर्दू से मोहब्बत और उसकी तरक्की भी एक वजह थी। पाकिस्तान में वैसा स्वागत नहीं हुआ, जैसा उन्होंने सोचा था। उन्हें हमेशा वहाँ शक की निगाहों से देखा गया। हिन्दुस्तान का भी विश्वास उन पर से उठ गया। न वह हिन्दुस्तानी रहे और न ही पाकिस्तानी बन सके। वह जैसे देशविहीन हो गये। सरोजनी नायडू की भविष्यवाणी मानो शब्दश: सच हो गयीय “अगर मुल्क तकसीम हो गया तो आपका बहुत बुरा हश्र होगा। हिन्दुस्तानी हिन्दू आपको मुसलमान समझकर काबिले–नफरत समझेंगे और पाकिस्तानी मुसलमान आपको काफिर समझकर काबिले–कत्ल खयाल करेंगे।”(19) उन्होंने पाकिस्तान में अपने स्वागत–सत्कार पर लिखा है कि, “मेरे पाकिस्तानी बनते ही एक कयामत का शोर बरपा हो गया। पूरे पाकिस्तान में और शहर कराची में तो इस कदर वलवला उठा, गोया कयामत का सूर (बिगुल) फूँक दिया गया है। तमाम छोटे–बड़े उर्दू–अंग्रेजी अखबारों के लश्कर ताल ठांेककर मैदान में आ गये। तमाम अदीब, शायर और कार्टूनसाजों ने अपनी–अपनी कलमों की तलवारें म्यान से निकालकर मेरे खिलाफ लेख, कविता और कार्टूनों की भरमार कर दी।”(20)
हिन्दुस्तान में जिस जोश को चाहनेवालों ने सिर–आँखों पर बिठाया था, पाकिस्तान में उसी ‘शायरे–इन्कलाब’ को हंसी और उपहास का पात्र बना दिया गया। मंच की सारी बत्तियाँ एक–एक कर बुझती गयीं। तमाशाई पत्थर हो गये। तालियाँ तंज और चीख में बदल गयीं। गद्दार, जासूस, विदेशी एजेण्ट के तोहमतों के साथ जोश तन्हाई, गुमनामी और बदनामी के गर्त में डूबते चले गये। कराची के एक अखबार में उनका बयान छपा कि, “मैंने तन्हाई की जिन्दगी बसर करने का फैसला कर लिया है ताकि किसी को इल्म न हो सके कि मैं जिन्दा हूँ या मुर्दा, या मैं शायर भी था।”(21) उनकी मर्मान्तक पीड़ा इन रूबाइयों में आप महसूस कर सकते हैं,
इक उम्र से जहर पी रहा हूँ ऐ दोस्त
सीने के शिगाफ1 सी रहा हूँ ऐ दोस्त
गोया सरे–कोहसार2 तन्हा पौदा
यूँ अपने वतन में जी रहा हूँ ऐ दोस्त
’ ’ ’
सर घूम रहा है नाव खेते–खेते
अपने को फरेबे–ऐश देते–देते
उफ जहदे–हयात3 थक गया हूँ माबूद4
दम टूट चुका है साँस लेते–लेते
(1– छिद्र 2– पर्वत के शिखर पर 3– जीवन संघर्ष 4– ईश्वर)
आखिरकार, 22 फरवरी 1983, को जोश मलीहाबादी की साँस टूट ही गयी। पद्यम्भूषण से सम्मानित उर्दू अदब का एक अनोखा तारा उजाला बिखेर कर आकाशगंगा के अंधेरों में कहीं खो गया। अंधेरे में उजाला हो गया, उजाले में अंधेरा हो गया।
कल उनकी नस्ल का ऐ ‘जोश’ मैं बनूगा इमाम1
खबर करो मेरे मसलक2 के नुक्ता–चीनों3 को
(1– नेता 2– मत 3– आलोचकों को )
(इस आलेख के लिए सामग्री संचयन में वरिष्ठ अधिवक्ता एवं उर्दू साहित्य के मर्मज्ञ जनाब अब्दुल रशीद सिद्द्ीकी साहब का हार्दिक आभार।)
सन्दर्भ :–
1– यादों की बारात, जोश मलीहाबादी, अनुवाद : हंसराज रहबर, संस्करण 2019, राजपाल एण्ड संस, दिल्ली, पृ– 9)।
2– लिंक https://www.facebook.com/
3– यादों की बारात, पृ– 72।
4– लिंक https://www.facebook.com/
5– यादों की बारात, पृ– 7।
6– लिंक https://www.facebook.com/
7– यादों की बारात, पृ– 64।
8– यादों की बारात, पृ– 83, 84।
9– यादों की बारात, पृ– 105।
10– यादों की बारात, पृ– 93।
11– यादों की बारात, पण्डित जवाहर लाल नेहरू, पृ– 127।
12– जोश मलीहाबादी, सम्पादक : प्रकाश पंडित, सह सम्पादक : सुरेश सलिल, संस्करण 2017, राजपाल एण्ड संस, दिल्ली, पृ– 21।
13– यादों की बारात, मजाज, पृ– 139, 140।
14– यादों की बारात, सरोजनी नायडू़, पृ– 134।
15– जोश मलीहाबादी, प्रकाश पण्डित, सह सम्पादक : सुरेश सलिल, पृ– 14।
16– यादों की बारात, रिसाला कलीम, पृ– 96।
17– यादों की बारात, रिसाला कलीम, पृ– 98, 99।
18– यादों की बारात, हिजरत, पृ– 115।
19– जोश मलीहाबादी, प्रकाश पण्डित, सह सम्पादक : सुरेश सलिल, पृ– 15।
20– यादों की बारात, पाकिस्तानी शहरियत, पृ– 116।
21– जोश मलीहाबादी, प्रकाश पण्डित, सह सम्पादक : सुरेश सलिल, पृ– 15।
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