अनियतकालीन बुलेटिन

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विज्ञान और “संस्कृति” का विच्छेद

एक वक्त था जब वैज्ञानिक अपने कार्य को व्यापक रूप से बोधगम्य बनाने की कोशिशों में जी-जान से लगे रहते थे। लेकिन, आज की दुनिया में ऐसा रुख दिखायी देना नामुमकिन है। आधुनिक विज्ञान के आविष्कारों ने सरकारों के हाथों में अच्छा या बुरा करने की अभूतपूर्व ताकत दे दी है। जबतक इन्हें इस्तेमाल करने वाले राजनेताओं को इन ताकतों की प्रकृति के बारे में बुनियादी समझ न हो, मुश्किल है कि वे इन्हें समझदारी के साथ इस्तेमाल करेंगे। और लोकतान्त्रिक देशों में न सिर्फ राजनेताओं, बल्कि आम लोगों को भी कुछ हद तक वैज्ञानिक समझदारी रखना जरूरी है।

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इस समझदारी का व्यापक पैमाने पर प्रसार करना कोई आसान काम नहीं है। जो लोग तकनीकी वैज्ञानिकों और जनता के बीच सम्पर्क स्थापित करने का काम प्रभावी तरीके से कर सकते हैं, दरअसल वे ऐसा काम कर सकते हैं जो न सिर्फ मानव कल्याण के लिये, बल्कि मानव प्रजाति के अस्तित्व के लिये भी बेहद जरूरी काम हैं। मुझे लगता है उन लोगों की शिक्षा के लिये और भी बहुत कुछ करना जरूरी है जो विज्ञान के क्षेत्र के विशेषज्ञ बनने की चाहत नहीं रखते हैं। जो लोग इस मुश्किल काम को करने की कोशिश कर रहे हैं उन्हें प्रोत्साहित करके कलिंग पुरस्कार एक महत लोकसेवा कर रहा है।

मेरे अपने देश में और इससे थोडा ही कम पश्चिम के देशों में “संस्कृति” को मुख्यतः पुनर्जागरण काल की परम्परा की एक दुर्भाग्यपूर्ण कमजोरी के चलते ऐसा माना जाता है जैसे इसका वास्ता केवल साहित्य, इतिहास और कला से ही हो। अगर किसी व्यक्ति को गलीलियो, देकार्ते और उनके बाद के लोगों के योगदान के बारे में कुछ भी जानकारी नहीं है तो उसे अशिक्षित नहीं समझा जाता है। मैं पूरी तरह कायल हूँ कि सभी तरह की उच्च शिक्षा में सत्रहवीं सदी से लेकर आज तक के विज्ञान के इतिहास को शामिल करना चाहिये और आधुनिक वैज्ञानिक ज्ञान की मोटा-मोटी रुपरेखा को बगैर किसी तकनीकी कठिनाई के पढ़ाया जाना चाहिये। जब तक इस तरह का ज्ञान विशेषज्ञ तक सीमित है, किसी भी राष्ट्र के लिये आज अपने कामों को समझदारी से संचालित करना बहुत मुश्किल है।

मानवीय उपलब्धियों को नापने के दो बिलकुल जुदा तरीके हैं – या तो आप इसे उस चीज से नाप सकते हैं जिसे आप इसकी स्वाभाविक उत्कृष्टता मानते हैं, या आप इसे उसकी मानव जीवन और मानव संस्थानों को रूपान्तरित करने की सामान्य कुशलता से नाप सकते हैं। मैं यह नहीं कहता कि इनमें कोई तरीका दूसरे से बेहतर है। मेरा बस इतना ही कहना है की उनके महत्व के स्तर बहुत अलग-अलग हैं। अगर होमर और ऐस्किलास नहीं होते, अगर दान्ते और शेक्सपियर एक भी लाइन नहीं लिखते, अगर बाख और बीथोवेन खामोश रहते तो ज्यादातर लोगों की रोजमर्रे की जिन्दगी कमोबेश वैसी होती जैसी आज है।  लेकिन अगर पाइथागोरस और गैलिलियो और जेम्स वाट न होते, न सिर्फ पश्चिमी यूरोपीय और अमरीकी लोगों की, बल्कि भारतीय, रूसी और चीनी किसानों की रोजमर्रे की जिंदगी आज से बहुत ही अलग होती। और यह गहरे बदलाव बस शुरुआत हैं। इन सारी चीजों ने वर्तमान पर जितना असर डाला है, भविष्य पर उससे ज्यादा असर डालेगी।

आज वैज्ञानिक तकनीक चालकहीन टैंकों की सेना की तरह अंधी, निर्मम और उद्देश्यहीन रूप से विकसित हो रही है। ऐसा इसलिये हो रहा है क्योंकि वे लोग जो मानवीय मूल्यों और जिंदगी को जीने लायक बनाने के प्रति गम्भीर हैं, वे अब भी उद्योगिक क्रान्ति से पहले की पुरानी दुनिया में खोये रहते हैं जिसे ग्रीक साहित्य ने और क्रान्ति से पहले कवियों, कलाकारों, संगीतकारों की उपलब्धियों ने परिचित और आरामदेह रूप में पेश किया है, जिनके काम की हम ठीक ढंग से सराहना करते हैं।

विज्ञान से “संस्कृति” का अलगाव एक नयी परिघटना है। प्लेटो और अरस्तु के दिल में अपने ज़माने के विज्ञान के लिये गहरी इज्जत थी। पुनर्जागरण का विज्ञान की वापसी से भी उतना ही वास्ता था जितना की साहित्य और कला से। लिओनार्दो दा विन्ची ने अपनी उर्जा का बड़ा हिस्सा चित्रकारी के बजाय विज्ञान में ज्यादा खर्च किया था। पुनर्जागरण के कलाकारों ने परिप्रेक्ष्य का ज्यामितिक सिद्धान्त विकसित किया था। न्यूटन और उनके समसामयिक वैज्ञानिकों के कार्यों के जन प्रसार के लिये अठारहवीं सदी में बहुत कोशिश की गयी। लेकिन उन्नीसवीं सदी की शुरुआत से ही वैज्ञानिक अवधारणायें और वैज्ञानिक तरीके ज्यादा से ज्यादा दुर्बोध होते गये और उन्हें आमतौर पर सुगम बनाने की कोशिश को ज्यादा से ज्यादा बेकार समझा जाने लगा। नाभिकीय, भौतिक विज्ञानियों के आधुनिक सिद्धान्त और व्यवहार ने नाटकीय अचरज के साथ साबित कर दिया है कि विज्ञान की दुनिया के बारे में पूरी तरह अनजान रहना अब अस्तित्व के साथ सामंजस्यपूर्ण नहीं है।

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