सार्वजनिक कम्पनियों का विनिवेशीकरण या नीलामी
राजनीतिक अर्थशास्त्र जुनूनी विशालकेंद्र सरकार जिन 5 बड़ी कंपनियों के हिस्से को बेचने की योजना बना रही है, उनमें बीपीसीएल, एससीआई, कॉनकोर, एनईईपीसीओ (नीपको) और टीएचडीसीआई शामिल है। इनमें से नीपको और टीएचडीसीआई की पूरी हिस्सेदारी बेचने की योजना बनाई है, जिसके लिए केंद्र सरकार के विनिवेश विभाग ने 12 विज्ञापन जारी किए हैं। इन विज्ञापनों के जरिये एसेट वैल्यूवर, लीगर एड्वाइजर की नियुक्ति और हिस्सा बेचने की बोलियाँ मंगायी गयी है। अगर कंपनियों में सरकारी हिस्सेदारी 51 फीसदी से कम होती है तो ये कम्पनियाँ कैग और सीवीसी के दायरे से बाहर हो जाएगी। नीति आयोग के उपाध्यक्ष राजीव कुमार ने बताया है कि केंद्र सरकार के पास बिक्री के लिए 46 कंपनियों की एक सूची है और कैबिनेट ने इनमें 24 को बेचने की स्वीकृति दे दी है। दरअसल भारत सरकार का राजकोषीय घाटा बढ़ते-बढ़ते 6.45 लाख करोड़ रुपए को पार कर गया है। उसे ही पूरा करने के लिए सरकार का इस साल का लक्ष्य 1.05 लाख करोड़ रुपए विनिवेश के जरिये जुटाने का है। यह किसी से छिपी बात नहीं है कि सरकार ने सार्वजनिक कंपनियों की निजी हाथों बिक्री को ही ‘विनिवेशीकरण’ के लुभावने नाम के साथ पेश किया है।
केंद्र सरकार की इन कंपनियों में अलग-अलग हिस्सेदारी है। सरकार ने दर्जनों कंपनियों में अपनी हिस्सेदारी 51 फीसदी से कम करने की योजना बनाई है। कंटेनर कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया (कॉनकोर) में सरकार की हिस्सेदारी 54.8 फीसद है, इसमें से वह 30.8 फीसद को बेच देगी। टिहरी हाइड्रो डेवेलपमेंट कॉर्पोरेशन इंडिया लिमिटेड (टीएचडीसीआई) में 75 फीसद केंद्र सरकार और 25 फीसद उत्तर प्रदेश सरकार की हिस्सेदारी है। सरकार निमुलीगढ़ रिफाइनरी को छोड़कर सरकार की भारत पेट्रोलियम कॉरपोरेट लिमिटेड (बीपीसीएल) में अपनी कुल 53.29 फीसदी हिस्सेदारी शिपिंग कॉर्पोरेशन ऑफ इंडिया (एससीआई) की अपनी पूरी 63.75 फीसद हिस्सेदारी बेचने को तैयार है। सार्वजनिक क्षेत्र की बिजली कंपनी एनटीपीसी के निदेशक मंडल ने नीपको में भारत सरकार की पूरी 100 प्रतिशत हिस्सेदारी और टीएचडीसी में 74.5 प्रतिशत हिस्सेदारी को खरीदने की स्वीकृति दे दी।
एयर इंडिया को बेचने के लिए सरकार उतावली है। लेकिन उसे कोई खरीदने के लिए तैयार नहीं दिख रहा है। पहले सरकार इसमें 24 प्रतिशत हिस्सेदारी अपने पास रखना चाहती थी लेकिन अब सरकार इसे पूरी तरह बेचने की घोषणा कर चुकी है। इसके बावजूद कोई ग्राहक नजदीक नहीं आ रहा है। इस कम्पनी पर लगभग 58 हजार करोड़ रूपये का कर्ज है। इस मामले में सरकार की हताशा इसी बात से जाहिर हो जाती है कि पिछले साल नवम्बर में नागर विमानन मंत्री हरदीप सिंह पुरी ने राज्यसभा यह बयान देकर हंगामा मचा दिया था कि अगर एयर इंडिया का निजीकरण नही हो पाया, तो उसे बंद कर देना पड़ेगा। विमानन उद्योग के कर्मचारी गिल्ड ने प्रधानमन्त्री को पत्र लिखकर मंत्रीजी के इस बयान को अत्यधिक नुकसानदेह बताया। इस साल की जनवरी के तीसरे हफ्ते केंद्रीय मंत्री पीयूष गोयल ने कहा कि अगर वह मंत्री नहीं होते तो एयर इंडिया के लिए बोली जरूर लगाते। उन्होंने इस कम्पनी को सोने की खान बताया। लेकिन उसके बाद भी निवेशक मेहरबान होते नहीं दिख रहे हैं।
कंपनियों को बेचने के लिए क्या प्रक्रिया अपनाई जा रही है?
सरकार के अनुसार कंपनियों की हिस्सेदारी एक साथ नहीं बेची जाएगी बल्कि अलग-अलग किस्तों में बेचने की योजना है। सरकार का तात्कालिक उद्देश्य यह है कि विनिवेश के जरिये 1.05 लाख करोड़ रूपये जुटाये जायें। सरकार ने 2019-20 की पहले तिमाही में 2357.10 करोड़ रूपये जुटाये हैं। सरकार को चालू वित्त वर्ष में विनिवेश से अब तक 12995.46 लाख करोड़ प्राप्त हुए हैं, जिसमें आईआरसीटीसी के आईपीओ के 637.97 करोड़ रूपये भी शामिल हैं।
सरकार ने कंपनियों की हिस्सेदारी 51 फीसदी से कम करने के लिए कंपनी कानून 241 में संसोधन करने की बात कर रही है। इससे इनकी विनिवेश की सीमा को बढ़ाने का रास्ता आसान हो जाएगा। सरकार का प्राथमिक उद्देश्य 3-4 साल में निजीकरण को और तेजी से बढ़ावा देने की है। यह भी कहा गया है कि जो कंपनी बेचने योग्य नहीं है उसे भी बेचने का प्रयास किया जाएगा।
किस क्षेत्र की कंपनियों को प्राथमिकता के तौर पर बेचे जाने की योजना है।
प्राथमिकता के तौर पर सरकार ईंधन से संबन्धित कारोबार करने वाली कम्पनियों को बेचने की योजना बना रही है । जिसके अंतर्गत पेट्रोलियम ईंधन का खुदरा कारोबार करने वाली देश की दूसरी सबसे बड़ी कम्पनी भारतीय पेट्रोलियम कॉरपोरेशन (बीपीसीएल) है। वह बीपीसीएल को देशी-विदेशी कम्पनियों को बेचने का विचार बना रही है। अगर ऐसा करने में सरकार कामयाब होती है एक बहुमूल्य कम्पनी देश की झोली से बाहर चली जाएगी। बाजपेयी सरकार के समय भी एचपीसीएएल में सरकार की अपनी 51.1 फीसदी हिस्सेदारी में से 34.1 फीसदी हिस्सा बेचने की तैयारी थी, लेकिन सरकार सफल नहीं हो पायी थी।
हाल ही में केन्द्रीय मंत्रिमंडल ने नीलांचल इस्पात लिमिटेड में एचएमटीसी सहित छः सार्वजनिक उपक्रमों की भी हिस्सेदारी बेचने को हरी झंडी दिखा दी है। एचएमटीसी में 49 फीसदी, ओड़ीशा माइनिंग कॉरपोरेशन में 20 फीसदी, ओड़ीसा इन्वेस्टमेंट कॉरपोरेशन में 12 फीसदी, एनएमडीसी में 10 फीसदी हिस्सेदारी बेचने का फैसला किया गया है। इन सब को अंजाम देने के लिए केबिनेट ने अध्यादेश को मंजूरी दी है।
इनडारेक्ट होल्डिंग एक बहाना है
संसद और आम जनता के बीच विरोध से बचने के लिए सरकार कहती है कि सार्वजनिक कंपनियों में डारेक्ट होल्डिंग कम करके इनडारेक्ट होल्डिंग बढ़ाएगी। लेकिन यह एक बहाना है। सबसे पहले, डारेक्ट और इनडारेक्ट होल्डिंग का एक मामला देखते हैं। इंडियन ऑयल कॉरपोरेशन लिमिटेड (आईओसीएल) में सरकार की सीधे (डारेक्ट होल्डिंग) 51.5 प्रतिशत हिस्सेदारी है। इसके अलावा इस कम्पनी में एलआईसी की हिस्सेदारी 6.5 प्रतिशत है, जो पूरी तरह सरकारी कंपनी है। इसका मतलब आईओसीएल में सरकार की 6.5 प्रतिशत इनडारेक्ट होल्डिंग है। सरकार कह रही है कि वह कंपनियों में इनडारेक्ट होल्डिंग बढ़ाएगी। अपने एक विभाग से पैसा निकालकर दुसरे विभाग में लगाने से घाटे में चल रहे विभाग को राहत तो मिल सकती है, लेकिन इससे सरकार के कुल घाटे में रत्ती भर भी फर्क नहीं पड़ेगा और न ही घाटे में चल रही कम्पनी में कोई सुधार होगा। यह बात सरकार जानती है। इसलिए इनडारेक्ट होल्डिंग की आड़ में वह सार्वजनिक कंपनियों को निजी हाथों में बेचने की पूरी तैयारी कर चुकी है।
सरकार की कम्पनियों को बेचने के पीछे की क्या मंशा है?
सरकार द्वारा किए जा रहे कार्यों से स्पष्ट हो जाता है कि वो निजीकरण को बढ़ावा देने के उद्देश्य से आयी है। जितनी जल्दी हो सके उतनी जल्दी वो सार्वजनिक उपक्रमों को निजी कम्पनियों के हाथों में देने का कम जोरों से कर रही है। सरकार का बार-बार यही रोना है कि पीएसयू से संबन्धित उपक्रम घाटे में चल रहें हैं, जिसके लिए सरकार को काफी नुकसान उठाना पड़ रहा है। लेकिन न केवल घाटे वाली बल्कि भरपूर मुनाफ़ा देने वाली नवरत्न कंपनियों को बेचने की तैयारी चल रही है। सपष्ट है कि सरकार अपनी असफलता को छुपाने के लिए लगातार नुकसान होने का हवाला देती रहती है। हम जानते हैं कि इन सार्वजनिक कम्पनियों को स्थापित करने के लिए देश की बहुसंख्यक जनता ने कितना खून-पसीना बहाया है। जनता द्वारा स्थापित इन कम्पनियों को कौड़ियों के दाम बेचते हुए सरकार को जरा भी शर्म नहीं आ रही।
सरकार ने देशी-विदेशी पूँजीपतियों के साथ मिलकर देश को फिर से तंगहाल हालत में पहुँच दिया है। सरकारी घाटा बढ़ते हुए आसमान छू रहा है। यहाँ तक कि सरकारी खर्च चलाने के लिए पैसे नहीं है। यह सब सरकारी खजाने की लूट के चलते हुआ है, लेकिन सरकार उस पर लगाम लगाने और इस समस्या का समाधान करने के बजाय सार्वजनिक कंपनियों को बेचने (निजीकरण) पर ही आमादा है, जबकि इसके जरिये वह निजी पूंजीपतियों को फायदा पहुंचाने का काम कर रही है। इस तरह देश की सम्पदा को कौड़ियों के मोल कुछ मुट्ठी भर लोगों को बेच देना चाहती है। इसके चलते इनमें काम करने वाले कर्मचारियों की रोजगार सुरक्षा खतरे में है। वे स्वाभिमान की जिन्दगी छोडकर चंद पूंजीपतियों के गुलाम बन जायेंगे। जैसा कि निजी संस्थाओं और कंपनियों में पहले से ही हो रहा है। यही आर्थिक गुलामी ही आज के दौर की नई गुलामी है। पुरानी गुलामी से फर्क बस इतना है कि तब गोरे विदेशी पूँजीपति राज करते थे और अब देशी-विदेशी पूँजीपति मिलकर राज कर रहे हैं।
सरकार के इन कारनामों से स्पष्ट हो जाता है कि सरकर देश को मजबूत बनाने की दिशा में कार्य नहीं कर रही है बल्कि चंद ऊँचे घरानों के लिए काम कर रही है। सरकारी कंपनियों का निजीकरण जितनी तेजी से बढ़ रहा है उतनी तेजी से देश में बेरोजगारी की समस्या भी बढ़ रही है। एक तरफ अस्थायी रोजगार की समस्या से लोग जूझ रहे हैं वहीं सरकारी कंपनियों के बिक्री से स्थायी रोजगार वाले लोगों पर भी खतरा मंडरा रहा है।
1991 से नव-उदारीकरण की नीतियों के चलते सार्वजनिक कंपनियों को बेचने का सिलसिला शुरू हो गया था। बाद में अटल विहारी की सरकार ने सार्वजनिक कंपनियों को बेचने के लिए ‘विनिवेश विभाग’ बना दिया था, जिसका असली अर्थ है— सार्वजनिक कंपनियों की नीलामी का विभाग। 2016 में लोगों के विरोध के चलते मोदी सरकार ने इस विभाग का नाम बदलकर निवेश और सार्वजनिक संपत्ति प्रबंधन विभाग या 'डिपम' कर दिया। लेकिन इसका भी काम वाही है यानी सार्वजनिक कंपनियों को बेचने वाला विभाग। सरकार आकड़ों का हवाला देते हुए बता रही है कि हम 6.25 लाख करोड़ रूपये घाटे में चल रहे हैं, जिसकी भरपाई इन सार्वजनिक कंपनियों में निजी कंपनियों द्वारा निवेश कर के ही किया जा सकता है। विनिवेश की प्रक्रिया को सुचारु रूप से चलाने के लिए 'डिपम' के सार्वजनिक कंपनियों को कौड़ियों के दाम बेच रही है। यह संभव ही नहीं है कि सरकार इन कंपनियों को निजी हाथों में देकर देश की बिगड़ती आर्थिक हालत को फिर से पटरी पर ला दे।
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