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भारतीय किसान आन्दोलन के सामने चुनौतियाँ और मुद्दे

मानवीय सभ्यता के विकास के आरम्भिक दौर में पूरे विश्व में कृषि ही इनसानी आबादी के बहुत बड़े हिस्से के लिए आजीविका का साधन थी। लगभग चार शदाब्दियों पहले यूरोप में ज्यों ही औद्योगिक विकास शुरू हुआ और बढ़ने लगा, त्यों ही कृषि से मानवीय आजीविका का बोझ कम होने लगा। आजकल विश्व के विकसित पश्चिमी हिस्से में लगभग 10 फीसदी आबादी ही आजीविका के लिए कृषि पर निर्भर रह गयी है, हालाँकि कृषि और जमीन का महत्त्व उसी तरह से कायम है। जहाँ तक एशिया, अफ्रीका और लातिनी अमरीका के विकासशील और अविकसित देशों और क्षेत्रों का सवाल है, इनकी 70 फीसदी आबादी आज भी आजीविका के लिए कृषि पर ही निर्भर है। इस सन्दर्भ में यदि हम मानवीय इतिहास पर नजर डालें तो पता लगता है कि यह एक तरह से किसान आन्दोलन और संघर्षों का ही इतिहास है। भारत में औद्योगीकरण और औद्योगिक विकास के बावजूद हमारी लगभग 70 फीसदी आबादी आज भी आजीविका के लिए कृषि और जमीन पर ही निर्भर है। आबादी के इतने बड़े हिस्से की समस्या सिर्फ इस हिस्से की ही समस्या नहीं रह जाती, बल्कि यह पूरे देश की समस्या बन जाती है।

भारत के इतिहास का यदि वैज्ञानिक दृष्टिकोण से अध्ययन किया जाये तो इतिहास के हर दौर में समस्याओं से बुरी तरह प्रभावित होने के बावजूद किसानी ही हर आन्दोलन, हर मोड़ और हर मौके पर इतिहास की चालक शक्ति रही है। इतिहास या मिथिहास की हर लड़ाई, वो चाहे रामायण और महाभारत की मिथिहासिक लड़ाई हों चाहे सिकन्दर, पोरस, मौर्य वंश, गुप्त वंश से लेकर कनिष्क, हर्षवर्धन, पृथ्वीराज चैहान, तुर्कों, मुगलों समेत ब्रिटिश उपनिवेशवाद का ऐतिहासिक दौर हो, देश की किसानी हमेशा संघर्ष के मैदान में रही है। अगर वर्गीय निर्णय के तौर पर देखा जाये तो पंजाब की सिख लहर भी किसान लहर ही थी। ऐतिहासिक नायक बाबा बन्दा बहादुर के समय इतिहास में पहली बार जागीरदारी व्यवस्था पर प्रहार करते हुए किसानों को उनके द्वारा जोती जा रही जमीनों का मालिकाना हक दिया गया। यह पंजाब के किसानों की वर्गीय जीत थी। ब्रिटिश उपनिवेशवादियों के विरुद्ध सिख फौजों द्वारा लड़ी गयी सभरावां, मुदकी, फेरू शहर की जंग, अंग्रेजों द्वारा पंजाब पर कब्जा किये जाने के बाद भाई महाराज सिंह की बगावत, बाबा राम सिंह की अगुवाई वाली कूका लहर, अजीत सिंह की अगुवाई वाली पगड़ी सम्भाल जट्टा लहर, गदर लहर, गुरुद्वारा सुधार लहर, अकाली लहर, बब्बर अकाली लहर, प्रजा मण्डल लहर, किरती लहर, शहीद भगत सिंह की लहर, ये सभी लहरें वर्गीय तौर पर किसानी लहरें ही थीं।

ब्रिटिश साम्राज्यवाद के दो सौ सालों के शासन के दौरान उनका सबसे बड़ा उद्देश्य भारत की कृषि–व्यवस्था को इस प्रकार ढालना रहा कि यहाँ से अधिक से अधिक कच्चा माल तैयार करके इंगलैंड स्थित उद्योगों को फलने–फूलने दिया जा सके। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए अंग्रेज हुकूमत ने भारत में जागीरदारी व्यवस्था की न केवल रक्षा की, बल्कि इसे और ज्यादा मजबूत किया। किसानी को अधिक से अधिक लूटने के लिए टैक्स–मालगुजारी आदि का बोझ डाला गया। इन नीतियों के कारण भारत की किसानी कर्ज के व्यापक मकड़ जाल में इस कदर फँसती चली गयी कि इससे छुटकारा पाने का कोई चारा ही नहीं रहा। इस समय के दौरान प्रसिद्ध भारतीय लेखक मुंशी प्रेमचंद ने किसानी कर्ज की समस्या की गम्भीरता को इन शब्दों में बयान किया–– ‘भारत का किसान कर्ज में पैदा होता है, कर्ज में ही जीता है और कर्ज में ही मर जाता है।’ इस दौर में भारत के किसान आन्दोलन के सामने जो मुद्दे पैदा हुए, उनमें मुख्य थे जागीरदारी व्यवस्था का खात्मा, भूमि सुधार यानी जमीन का पुन% बँटवारा, असहनीय करों के बोझ को खत्म करना, कर्ज के मकड़जाल से किसानों और किसानी जमीन को मुक्त कराना आदि। इस दौर में जितने भी किसान संघर्ष हुए, आन्दोलन और बगावतें हुर्इं, वे ज्यादातर इन्हीं मुद्दों पर ही केन्द्रित थीं। आजादी से शुरुआती 10–12 सालों के दौरान हुए किसान संघर्ष भी ज्यादातर इन्हीं मुद्दों पर आधारित थे। इनमें रियासत हैदराबाद का महान तेलंगाना किसान संघर्ष, महाराष्ट्र का वारली आदिवासी विद्रोह, ट्रावनकोर रियासत (वर्तमान केरल) में पुन्नप्रा और वायालूर की किसान बगावत, बंगाल के महान तेभागा आन्दोलन, आसाम में सुरमा वैली का किसान संघर्ष, बिहार की बक्सर किसान लहर, मालाबार का किसान संघर्ष, त्रिपुरा की आदिवासी किसान बगावत, पंजाब में पैपसू और दूसरे जागीरदारी क्षेत्रों की मुजारा लहर और ऐसे ही अनेकों महत्त्वपूर्ण सुनहरे अक्षरों में लिखे गये ऐतिहासिक संघर्ष हैं। ये सभी संघर्ष जन–संघर्ष थे, लेकिन इन्होंने शिखर पर पहुँचकर हथियारबन्द संघर्ष का रूप भी अख्तियार किया। इन संघर्षो के दौरान किसानों ने बहादुरी और कुर्बानी के बेमिसाल जौहर दिखाये। अकेले तेलंगाना संघर्ष के दौरान ही करीब चार हजार किसानों ने अपनी जान देकर शहीदी और कुर्बानी की बेमिसाल गाथा लिखी।

पंजाब के संदर्भ में पगड़ी सम्भाल जट्टा लहर (1907), डौल से आध–आध का संघर्ष (1938), साहूकारा कर्ज के विरुद्ध संघर्ष (1937–38), लाहौर का मोर्चा (1939), हर्षा छीना मोघा मोर्चा (1946), ऐतिहासिक मुजारा लहर (1959) आदि उल्लेखनीय किसान संघर्ष हैं। इन किसान संघर्षो के दौरान ही 1936 में देश के ऐतिहासिक किसान संगठन ऑल इण्डिया किसान सभा और 1937 में पंजाब किसान सभा की स्थापना हुई।  

इन संघर्षो का सबसे बड़ा हासिल यह था कि 1947 से पहले के संघर्षो ने जन–लामबन्दी के चलते देश के करोड़ों किसानों को देश के स्वतन्त्रता संग्राम में शामिल कर लिया। इसके साथ ही जमीन का पुन% बँटवारा, यानी भूमि सुधार का सवाल देश के एजेंडे पर आ गया। लगभग सभी प्रान्तों में भूमि सुधार कानून पास करने पड़े। इन कानूनों में अनेक खामियों, कमजोरियों और चोर–रास्तों के बावजूद देशभर में, खास तौर से पश्चिमी बंगाल, केरल, त्रिपुरा, पंजाब, आन्ध्र–प्रदेश, तामिलनाडु, महाराष्ट्र, आसाम, बिहार आदि प्रान्तों में करोड़ों एकड़ जागीरी और सरकारी जमीन का मालिकाना किसानों को मिला। अकेले पंजाब में ही पैपसू के 1953 के मुजारा ऐक्ट के तहत बीस लाख एकड़ से ज्यादा जमीन का मालिकाना हक मुजारों को प्राप्त हुआ। कर्ज से राहत के लिए भी कुछ प्रभावशाली कानून बनाये गये। 1937 में पंजाब में सर छोटू राम द्वारा पास किये गये कर्ज राहत कानून इसके बेहतरीन उदाहरण हैं। किसानों की लाखों एकड़ जमीन, जो कर्ज के कारण साहूकारों के पास गिरवी पड़ी थी, इन कानूनों के कारण मुक्त हो गयी। करों के बोझ से भी प्रभावशाली रियायतें हासिल हुई।

किसान आन्दोलन के इतिहास में ये उपलब्धियाँ बेशक बहुत बड़ी थीं, लेकिन कृषि संकट इतना विशाल और विकराल था, और आज भी है कि किसानी की आर्थिक हालत में कोई बुनियादी सुधार न हो सका। इन उपलब्धियों के बावजूद खेती में पिछड़ापन बना रहा और किसान लहर के सामने भूमि सुधार का मुद्दा एक अहम मुद्दा बना रहा और आज भी है। 1950 के आखिर में केन्द्र सरकार ने किसान लहर के दवाब में बाँटने के लिए सरप्लस जमीन की निशानदेही करने के लिए महालोनोबिस कमेटी का गठन किया। इस कमेटी की रिपोर्ट के मुताबिक अलग–अलग प्रान्तों के भूमि सुधार ऐक्टों के कानूनी घेरे में रहते हुए भी लगभग 6 करोड़ 30 लाख एकड़ सरप्लस जमीन गरीब और भूमिहीन किसानों में बाँटने के लिए उपलब्ध थी, लेकिन इस विशाल रकबे का एक बहुत छोटा सा भाग, केवल 53 लाख एकड़ से भी कम जमीन, सारे देश में बाँटी गयी। इसमें से भी अकेले पश्चिमी बंगाल में करीब साढ़े 10 लाख एकड़ जमीन शक्तिशाली किसान लहर और वाम मोर्चे की सरकार के प्रयत्न के कारण बाँटी गयी। बाकी सारी जमीन जागीरदारों और दूसरी लुटेरी वर्गीय शक्तियों द्वारा चोर–दरवाजों से खुर्द–बुर्द कर ली गयी।

धरती पर जीवन, विशेषकर मानवीय जीवन के लिए कृषि एक बुनियादी शर्त और जरूरत है। इसलिए मानवता को कृषि को इसी सन्दर्भ में लेना चाहिए, न कि एक लाभदायक कारोबार के तौर पर। लेकिन आज की साम्राज्यवादी और कॉरपोरेटी ताकतें कृषि को एक लाभदायक धन्धे के तौर पर और दुनिया की कुल आबादी और सारे देशों को अपने अधीन करने के लिए एक हथियार के तौर पर इस्तेमाल कर रही हैं।

कृषि के बारे में एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण स्थापना यह है कि इतिहास के हर दौर में, दुनिया के हर देश में, समाज की हर सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक व्यवस्था में, चाहे यह व्यवस्था गुलामगीरी की हो, जागीरदारी या पूँजीवाद की हो या समाजवाद की हो, अर्थात हर दौर में कृषि सरकारी सहायता, सरकारी सुरक्षा और सरकारी निवेश के बिना किसी भी लिहाज से विकास नहीं कर सकती या साफ शब्दों में कृषि क्षेत्र केे कायम रहने और विकास करने के लिए सरकारी सहायता बुनियादी शर्त और जरूरत है। इसके लिए दुनिया के किसी भी देश की किसी भी किस्म की किसी भी सरकार के लिए कृषि क्षेत्र की हर तरह से सहायता करना लाजिमी है।

किसान की परिभाषा

यहाँ यह स्पष्ट करना जरूरी है कि शब्द ‘किसान’ से हमारा तात्पर्य केवल जमीन के मालिक किसान से नहीं है, बल्कि कृषि धन्धे से किसी भी तरह जुड़ा हुआ व्यक्ति चाहे वह मुजारा हो, साझीदार हो, बटाईदार हो, सिरी हो, खेत मजदूर हो, देहाती मजदूर हो, दिहाड़ीदार हो या दूसरे किसी भी रूप से कृषि से जुड़ा हुआ व्यक्ति हो, वह किसान है और किसान के ये सभी रूप किसान आन्दोलन के अभिन्न अंग हैं।

1947 के बाद भी हमारी कृषि पिछड़ी ही रही, जिसके कारण हमारा देश अनाज के लिए अमरीका, कनाडा, आस्टेªलिया जैसे देशों का मोहताज ही रहा। साम्राज्यवादी देशों से अनाज प्राप्त करने के लिए भारत को पी एल–480 जैसी शर्मनाक और घुटने–टेक शर्तें माननी पड़ी। 1960 के दशक के उत्तरार्ध में भारत के शासकों ने अनाज की कमी को पूरा करने के लिए जागीरदारी प्रथा को खत्म किये बगैर ही कृषि क्षेत्र में पूँंजीवादी नीतियाँ लागू करने की योजना बनायी। इस योजना को हरित क्रान्ति का लुभावना नाम दिया गया। इसके तहत पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश, पंजाब से जुड़े राजस्थान के इलाकांे और दक्षिण में आन्ध्र प्रदेश, तामिलनाडु, कर्नाटक, महाराष्ट्र आदि प्रान्तों के उन इलाकों पर ध्यान केन्द्रित किया गया, जहाँ शेष भारत की तुलना में सिंचाई सुविधााएँ बेहतर उपलब्ध थीं। इन क्षेत्रों के लिए कृषि मशीनरी, ट्रैक्टर, थ्रैशर, कम्बाईनें, आदि उपलब्ध कराये गये। सिंचाई सुविधााएँ ट्यूबवेल आदि बढ़ायी गयी। नये बीज, नयी खाद, कीट नाशक और खरपतवार नाशक दवाईयाँ आदि की सुविधााएँ दी जाने लगीं। न्यूनतम समर्थन मूल्य और उपज की सरकारी खरीद प्रणाली लागू की गयी। कृषि क्षेत्र के लिए ज्यादा फण्ड और सब्सिडी दी जाने लगी। परिणामस्वरूप अनाज की पैदावार में भारी वृद्धि होने लगी और देश अनाज के मामले में आत्मनिर्भर होना शुरू हो गया। इन क्षेत्रों के किसानों की आर्थिक स्थिति भी पहले से बेहतर हो गयी, लेकिन हरित क्रान्ति के इस दौर के डेढ़–दो दशकों के दौरान ही नयी समस्याएँ पैदा होने लगीं। सरकारी सहायता, सुविधाओं, सब्सिडियों का बड़ा हिस्सा बड़े भूपतियों और धनी किसानों को ही मिला। छोटे किसानों को वक्त के साथ चलने के लिए खेती में ज्यादा पूँजी निवेश करना पड़ा। इस पूँजी को प्राप्त करने के लिए उन्हें कर्ज का सहारा लेना पड़ा। यह कर्ज खास तौर पर बैंक, साहूकार, आढ़ती से लेना पड़ता था। भारी ब्याज दर के कारण किसान कर्ज के मकड़जाल में फँसने लगा। करीब डेढ़ दशक बाद अनाज उत्पादन के क्षेत्र में वृद्धि दर कम होने लगी, लेकिन कृषि लागत में बढ़ोतरी होती रही। फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्यों में बढ़ोतरी पहले से कम हुई। सरकारी खरीद प्रणाली का असर भी धीरे–धीरे कम होने लगा। इन सभी परिस्थितियों के परिणामस्वरूप किसान के आर्थिक हालात फिर से बिगड़ने लगे। हरित क्रान्ति के इस दौर में किसान लहर के सामने मौजूदा मुद्दों के साथ–साथ नये मुद्दे भी पैदा होने लगे। ये मुद्दे थे ––किसानी जिन्सों के न्यूनतम समर्थन मूल्य लाभदायक बनाये जाये, सरकारी खरीद प्रणाली को और भी प्रभावशाली बनाया जाये और यह सभी किसानी जिन्सों पर लागू होता हो। कृषि लागत सस्ती करने के लिए सब्सिडी बढ़ायी जाये। कृषि क्षेत्र में सरकारी निवेश बढ़ाया जाये, कुदरती आपदाओं के कारण फसलों के हुए नुकसान का उचित मुआवजा दिया जाये। कर्ज की सुविधाएँ बढ़ायी जायें और ब्याज दर 4 फीसद सलाना की जाये। ऐसे ही मुद्दों पर आधारित हरित क्रान्ति के क्षेत्रों में 1980 के दौरान किसान आन्दोलन पैदा हुए, चले और विकसित हुए।

हरित क्रान्ति के इस दौर में ग्रामीण क्षेत्रों में एक और महत्त्वपूर्ण बदलाव आया है। भूमिहीन किसान, जो पहले मालिक किसानों के साथ बतौर सीरी, साझी आदि (फसल में से हिस्सा लेने के आधार पर काम करने वाले) काम किया करते थे, उनके आपसी रिश्तों में बदलाव आये हैं। अब वे रोजाना दिहाड़ी, यानी उजरत लेने लगे हैं। इस प्रक्रिया से खेत मजदूर वर्ग के रूप में एक नया और भिन्न अमल सामने आया। इस नये विकसित हुए तबके, जिसकी संख्या कुल किसानी आबादी का लगभग 35 फीसद है, उसके नये मुद्दे पैदा हो गये। मुख्यत: ये मुद्दे थे–– योग्य उजरत, उजरत में महँगाई में वृद्धि के अनुसार बढ़ोतरी, सस्ता अनाज और दूसरी जरूरी वस्तुओं के लिए प्रभावशाली सार्वजनिक वितरण प्रणाली, घरों के लिए प्लाट, मकानों के लिए सरकारी सहायता, उनके अधिकारों और हितों की रक्षा के लिए व्यापक केन्द्रीय कानून आदि। ऐसे ही कई दूसरे मुद्दों पर पिछले समय के दौरान देश भर में बड़े पैमाने पर संघर्ष हुए हैं, जिन्हे हम किसान आन्दोलन का अभिन्न अंग मानते हैं।

1990 के दशक के आरम्भ से सोवियत यूनियन और दूसरे पूर्वी यूरोपीय देशों में समाजवादी व्यवस्था टूटने के बाद विश्व शक्ति सन्तुलन में भारी बदलाव आये हैं। विश्व एक धु्रवीय हो जाने से अमरीकी साम्राज्यवाद दुनिया की अकेली महाशक्ति रह गया। अमरीकी साम्राज्यवाद की अगुवाई में विश्व की सभी साम्राज्यवादी ताकतों ने पूरे विश्व की, विशेषकर विकासशील और अविकसित देशों की अर्थव्यवस्था को अपने हितों के अनुरूप ढालने के लिए तेजी से कार्रवाई शुरू कर दी। ईराक, अफगानिस्तान आदि देशों पर तो खुलेआम सैनिक हमले ही कर दिये गये। भारत को आसान टारगेट समझते हुए विश्व बैंक, अन्तरराष्ट्रीय मुद्रा कोष, विश्व व्यापार संगठन आदि साम्राज्यवादी संस्थाओं ने यहाँ अपनी लूट–खसोट को बढ़ाने के लिए इसे अपनी आर्थिक जकड़ में लपेटना शुरू कर दिया। भारतीय अर्थव्यवस्था की रीढ़, कृषि क्षेत्र को साम्राज्यवादी नीतियों का विशेष तौर पर निशाना बनाया गया। स्थिति का अफसोसनाक पहलू यह है कि भारत का शासक वर्ग और लगभग सभी केन्द्रीय और राज्य सरकारें अपने वर्गीय हितों के कारण साम्राज्यवादी नीतियों का विरोध करने के बजाय उनको स्वीकार करते हुए लागू करने पर तुल गयीं। इन अपमानपूर्ण नीतियों को नयी आर्थिक नीतियाँ, उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण की नीतियाँ आदि सम्मानजनक नाम दिये गये।

उदारीकरण की नीतियों का कृषि पर प्रभाव

इन नीतियों के तहत देश में भूमि सुधार के अमल को, जो अभी भी बहुत बड़े स्तर पर होना बाकी है, उलटी दिशा में ले जाना शुरू कर दिया गया। लाखों–करोड़ों एकड़ सरकारी, अतिरिक्त और निजी जमीन बहु–राष्ट्रीय कॉरपोरशनों और देश के कॉरपोरेट घरानों को दी जाने लगी। इन जमीनों से उजाड़े गये करोड़ों किसानों, खेत मजदूरों और दूसरे गरीब तबकों के पुनर्वास और रोजगार के वैकल्पिक संसाधन पैदा करने की ओर नाममात्र भी ध्यान नहीं दिया गया। जमीन हथियाने के लिए भूमि अधिग्रहण कानून को बड़ी बेरहमी और बेशर्मी से इस्तेमाल किया जा रहा है।

किसान और खेती को तबाह करके बहु–राष्ट्रीय कॉरपोरेशनों और देसी कॉरपोरेट घरानों के हवाले करने के लिए कृषि क्षेत्र से सरकारी पूँजी निवेश बड़े पैमाने पर कम किया जा रहा है। कृषि–सब्सिडियाँ तेजी से कम की जा रही हैं। किसी समय भारतीय कृषि को विकसित करने वाली न्यूनतम समर्थन मूल्य प्रणाली, सरकारी खरीद प्रणाली, सार्वजनिक वितरण प्रणाली और ऐसी ही दूसरी नीतियों को सोचे–समझे तरीके से तेजी से खत्म किया जा रहा है। कृषि को संस्थागत कर्ज सहूलियते, जो पहले से ही बहुत कम थीं, अब उन्हंे खत्म करके किसानों को प्राईवेट साहूकारों/आढ़तियों के रहमो–करम पर छोड़ा जा रहा है, जो लहू–चूस ब्याज लगाते हैं। नतीजतन देश की किसानी कर्ज के ऐसे मकड़जाल में फँस चुकी है और लगातार फँसती जा रही है, जिसमें से निकलने का कोई रास्ता नजर नहीं आ रहा। कर्ज की दलदल में धँसी संकटग्रस्त किसानी निराशा के आलम में संघर्ष करने के बजाय 1990 के दशक के दौरान आत्महत्या की ओर बढ़ गयी। पिछले लगभग दो दशकों के दौरान देश के तीन लाख से ज्यादा किसान और खेत मजदूर आत्महत्या कर चुके हैं। आत्महत्या की ये घटनाएँ मुख्यत% हरित क्रान्ति के क्षेत्रों में घटित हो रही हैं। दुखदायी हकीकत यह है कि ये घटनाएँ आज भी न केवल बादस्तूर जारी हैं बल्कि और भी तेज हुई जा रही हैं।

साम्राज्यवादी संस्थाओं–– विश्व बैंक, अन्तरराष्ट्रीय मुद्रा कोष, विश्व व्यापार संगठन की साम्राज्यवादी नीतियों को लागू करने में हमारे देश की सरकारें पूर्ण सहयोग दे रही हैं। इसके बावजूद यदि कहीं थोड़ी–बहुत अड़चन आती है तो उसे दूर करने के लिए सरकारें इन संस्थाओं से बाहर–बाहर ही इन अड़चनों को दूर कर रही हैं। इस सम्बन्ध में अलग–अलग देशों से मुक्त व्यापार समझौते (फ्री ट्रेड एग्रीमैंट) किये जा रहे हैं। पिछले समय के दौरान आसियान देशों और इजरायल आदि से ये समझौते किये गये हैं। फसली बीजों के क्षेत्र में तरह–तरह के कानून बना कर और समझौते करके मोनसैंटो, कारगिल आदि दैत्याकार बहुराष्ट्रीय कॉरपोरशनों को इजारेदाराना अधिकार दिये जा रहे हैं। अमरीका से ‘ज्ञान आधारित समझौते’ करके पेटेंट कानूनों में साम्राज्यवादी हितों के अनुसार बदलाव किये जा रहे हैं, जमीन हथियाने की राह में आ रही रुकावटों को दूर करने के लिए भूमि–अधिग्रहण कानून में बार–बार संशोधन किये जा रहे हैं, बार–बार अध्यादेश जारी किये जा रहे हैं। 1429 वस्तुओं से विश्व व्यापार संगठन द्वारा निश्चित किये गये समय से भी पहले पाबन्दियाँ हटायी जा चुकी हैं। ये ऐसे कदम हैं जिससे हमारे देश का कृषि अनुसन्धान, विज्ञान, तकनीक आदि को अमरीकी साम्राज्यवादियों के हवाले किया जा रहा है और भारतीय कृषि पर साम्राज्यवादी जबड़े की जकड़ मजबूत हो रही है।

कृषि के विकास के लिए सिंचाई एक बुनियादी जरूरत है, लेकिन आजादी के 70 वर्ष बीत जाने के बाद भी भारत की कुल 14 करोड़ 20 लाख 8 हजार हैक्टेयर कृषि योग्य भूमि में से केवल 40 फीसद रकबे के लिए ही सिंचाई सुविधा उपलब्ध है। बाकी 60 फीसद रकबा केवल वर्षा पर निर्भर है। सिंचाई सुविधा प्राप्त इलाकों, जैसे कि पंजाब आदि में जमीनी पानी के स्रोत खतरनाक हद तक कम हो रहे है। भारत की कुल भूमि (लगभग 33 करोड़ हैक्टेयर) के भौगोलिक रकबे का लगभग तीसरा हिस्सा जमीनी पानी के हिसाब से भयानक स्थिति तक पहुँच गया है। बिजली, सिंचाई और पानी के क्षेत्रों को विदेशी साम्राज्यवादियों और देशी निजी कॉरपोरेट घरानों को सौंपने की प्रक्रिया से यह स्थिति और भी भयानक होती जा रही है।

भारत के किसान आन्दोलन के सामने अहम चुनौती है भारतीय कृषि के विकास और किसानी संकट को दूर करने के लिए साम्राज्यवादी संस्थाओं द्वारा कृषि क्षेत्र पर किये जा रहे चैतरफा हमलों को रोकना, इन हमलों से कृषि क्षेत्र की रक्षा करना, बहुराष्ट्रीय कॉरपोरेशनों को बड़े पैमाने पर लाखों एकड़ जमीन मुहैया करवाने की प्रक्रिया को रोकना, विश्व व्यापार संगठन जैसी साम्राज्यवादी संस्थाओं में पिछड़े और विकासशील देशों को साथ लेकर भारतीय कृषि क्षेत्र के हितों की रक्षा करना और दूसरे सभी पक्षों, जैसे ––बीज, खाद, कृषि अनुसन्धान आदि में साम्राज्यवादी दखल को रोकना।

सरकारी पूँूजी निवेश और सब्सिडी आदि में बड़े स्तर पर वृद्धि करना कृषि और कृषि संकट के निवारण के लिए बुनियादी शर्त और जरूरत है। भारत का कृषि क्षेत्र देश की 70 फीसद आबादी को रोजगार मुहैया करवा रहा है, लेकिन केन्द्र सरकार ने अपने इस वर्ष के बजट का केवल 1.3 फीसद हिस्सा ही कृषि के लिए रखा है। कृषि क्षेत्र की महत्ता को समझते हुए केन्द्रीय बजट का कम से कम 10 फीसद हिस्सा कृषि के लिए आरक्षित रखना चाहिए और यह भी सुनिश्चित करना चाहिए कि यह सरकारी निवेश हो तथा सीमान्त और मँझोले किसानों के सहायतार्थ हो। ऐसा न हो कि पहले की तरह ही जागीरदार और धनी किसान इसे हड़प लें। यह भी जरूरी है कि ‘न्यूनतम समर्थन मूल्य प्रणाली’ को ‘लाभकारी मूल्य प्रणाली’ में बदला जाये और इन दोनों प्रणालियों को सभी प्रान्तों में और सभी फसलों पर लागू किया जाये। लाभकारी मूल्य तय करने के लिए डा– स्वामीनाथन फार्मूला (लागत खर्च पर 50 फीसद लाभ) लागू किया जाये। इन दोनों प्रणालियों के लागू न होने की सूरत में प्राईवेट व्यापारी और साम्राज्यवादी बाजार की शक्तियाँ सभी किसानी जिन्सों को कौड़ियों के भाव लूट कर ले जायेंगी।

कृषि सम्बन्धों में बदलाव आ जाने के कारण कुल किसानी आबादी का 35 फीसद भूमिहीन किसान अब उजरती मजदूर, यानी खेत मजदूर बन चुका है। इस तबके की अपनी विशेष माँगे और समस्याएँ हैं। किसान आन्दोलन को हमेशा की तरह खेत मजदूरों के मुद्दे भी किसान आन्दोलन की माँगों के तौर पर अपनी कार्यसूची पर रखने हांेगे। किसान आन्दोलन को यहाँ पूरी तरह सचेत रहना पड़ेगा कि पूँजीवादी ताकतें धनी किसानों के विशेष हितों की रक्षा करने के लिए मालिक किसानों और खेत मजदूरों में फूट डालने और खेत मजदूर खेमे में अपने संकीर्ण सियासी हितों की पूर्ती के लिए हमेशा तैयार रहती हैं। ऐसी ताकतें किसानों और खेत मजदूरों को एक–दूसरे के विरोधी के तौर पर पेश करती हैं। ऐसी फूट डालने वाली ताकतों से सचेत रहना होगा।

बिजली, सिंचाई, जमीन की उर्वरकता, प्राकृतिक आपदाओं से तबाही, फसली बीमा, फसली विविधता, कृषि अनुसन्धान, मनरेगा, सार्वजनिक वितरण प्रणाली की मजबूती आदि अनेकों मुद्दे हैं, जिन्हें समय और स्थान के आधार पर किसान आन्दोलन को उठाना चाहिए। सांगठनिक तौर पर किसान आन्दोलन का कठिन समय का साथी न होना, आन्दोलन में एकता की कमी और मुद्दों के आधार पर साझी समझदारी की कमी आदि भी तो किसान आन्दोलन के मुद्दे ही है, जिनसे इसे रूबरू होना लाजिमी है।

(साभार किसान पुस्तिका एक)

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