अनियतकालीन बुलेटिन

वर्गीकृत

कॉपीराइट © देश-विदेश पत्रिका. सर्वाधिकार सुरक्षित

​अतीत की खोज: भारतीय संस्कृति की उत्पत्ति और विकास का अध्ययन करने के लिए समित का गठन

विद्वानों और राजनेताओं ने केंद्र सरकार द्वारा भारत के प्राचीन इतिहास का अध्ययन करने के लिए गठित समिति की आलोचना की है। उन्होंने इसके पीछे छिपे एजेंडे पर संदेह व्यक्त किया है। 

अक्टूबर 2014 में, प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने गणेश की प्लास्टिक सर्जरी के बारे में प्रसिद्ध टिप्पणी की थी-- “हम सभी महाभारत में कर्ण के बारे में पढ़ते हैं। अगर हम थोड़ा और सोचें तो हमें पता चलता है कि महाभारत कहता है कि कर्ण अपनी माँ के गर्भ से पैदा नहीं हुआ था। इसका मतलब है कि उस समय आनुवांशिक विज्ञान मौजूद था। यही कारण है कि कर्ण अपनी माता के गर्भ से बाहर पैदा हो सका.... हम भगवान गणेश की पूजा करते हैं। उस समय कुछ प्लास्टिक सर्जन रहे होंगे जिन्होंने एक इंसान के शरीर पर हाथी का सिर लगाया था और प्लास्टिक सर्जरी का अभ्यास शुरू किया था” मोदी ने मुंबई में डॉक्टरों की एक सभा में यह कहा था। तब से, इतिहास और पौराणिक कथाओं के बीच का अंतर कम हो गया है, और इतिहास को नए सिरे से लिखने के लिए लगातार प्रयास किए जा रहे हैं।

अब प्राचीन भारतीय संस्कृति का अध्ययन करने के लिए एक समिति की घोषणा की गई है जो इतिहास और पुरातत्व के बीच के अंतर को धुंधला कर सकती है-- इसमें  इतिहास के अध्ययन की जिम्मेदारी पुरातत्वविदों को दी गई है। लोकसभा में एक लिखित जवाब में, पर्यटन और संस्कृति राज्य मंत्री प्रह्लाद पटेल ने खुलासा किया कि “आज से 12,000 साल पहले तक भारतीय संस्कृति की उत्पत्ति और विकास, साथ ही दुनिया की अन्य संस्कृतियों के साथ समन्वयन का समग्र अध्ययन करने के लिए 16 सदस्यीय समिति का गठन किया गया है।” इसमें शामिल हैं भारतीय पुरातत्व सोसायटी, नई दिल्ली के चेयरमेन और भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के पूर्व संयुक्त महानिदेशक के.एन. दीक्षित, भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के पूर्व सयुक्त महानिदेशक आर एस बिष्ट;  राष्ट्रीय संग्रहालय, दिल्ली के पूर्व महानिदेशक बी.आर. मणि, संस्कृत अध्ययन केंद्र, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से संतोष शुक्ला; राष्ट्रीय संस्कृति संस्थान के कुलपति पी एन शास्त्री ; संगमर्ग विश्व ब्राह्मण महासंघ के अध्यक्ष, एम आर शर्मा,; और लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संकल्प विद्यापीठ के कुलपति रमेश कुमार पांडेय।

दक्षिण भारत से कोई प्रतिनिधि नहीं है, जिसका मतलब है द्रविड़ संस्कृति के महत्व को कम आँकना।  समिति में कोई महिला भी नहीं है। मुस्लिम, ईसाई और सिख जैसे अल्पसंख्यक समुदायों के कोई प्रतिनिधि नहीं हैं। समिति के ऊपर यह आरोप लगा है कि यह एक देश, एक संस्कृति, एक धर्म जैसी सत्ता की विभाजनकारी सोच को प्रभावी ढंग से आगे बढ़ाने और बहुलता और विविधता को तोड़ने का काम कर सकती है।

प्रख्यात राजनीतिक वैज्ञानिक नीरा चंढोके, जिनकी किताब "रिवर्टिंग प्लुरलिज्म" ने भारत के साझा सांस्कृतिक स्वभाव पर खुलकर बात की, उन्होंने कहा-- "यह सब इस बात पर निर्भर करता है कि सरकार का संस्कृति से क्या मतलब है। क्या समिति भारतीय संस्कृति या हिंदू संस्कृति का अध्ययन करने के लिए बनाई गई है? यह एक दुर्लभ काम है। समिति में जाने-माने इतिहासकारों के बिना, इतिहास  में उचित अध्ययन न किये हुए लोगों के साथ यह काम और भी दूभर होगा। यह बहुत जोखिम भरा काम है। एक राष्ट्र, एक संस्कृति की सोच बहुत ही सत्तावादी है। हम लोगों को ऐसे ही क्यों नहीं छोड़ देते? हम एक बहुसांस्कृतिक, बहुधार्मिक समाज हैं। समिति में कोई महिला नहीं है, दक्षिण से कोई नहीं है, अल्पसंख्यकों में से कोई नहीं है, इस पर जोरदार बहस होनी चाहिए। ऐसा लगता है कि यह समिति धर्मनिरपेक्षता के ताबूत में एक और कील है।”

प्रोफेसर रोमिला थापर ने कहा कि उन्हें "सरकार या किसी अधिकृत संस्था द्वारा समिति के बारे में नहीं बताया गया था"। "मुझे इसके बारे में थोड़ी भी जानकारी नहीं है," उन्होंने कहा। प्रसिद्ध इतिहासकार डी एन झा ने भी कहा कि उन्हें समिति के बारे में समाचार पत्रों के माध्यम से पता चला। उन्होंने देखा-- "समिति में विद्वानों को उनके संतुलित विचारों के लिए नहीं बल्कि भारत के अतीत के दक्षिणपंथी विचारों को बढ़ावा देने के लिए जाना जाता है। वे एक 'हिंदू’ भारत की महिमा करने के लिए प्रतिबद्ध हैं, जो कहीं भी मौजूद नहीं है।

अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के प्रसिद्ध इतिहासकार सैयद अली नदीम रिज़वी ने समिति में शामिल लोगों के बारे में और इसके उद्देश्य पर सवाल उठाया। उन्होंने कहा-- “समिति के सामने सरकार ने अध्ययन के लिए जिन तारीखों को रखा है, वे खुद समस्याग्रस्त हैं। कोई भी नहीं जानता कि क्या हम उस समय अस्तित्व में थे! वे एक ऐसी अवधि का अध्ययन करेंगे, जिसके बारे में इतिहासकारों को भी यकीन नहीं है।

इसके अलावा, समिति के कुछ नाम संदिग्ध हैं। दलित या मुसलमान को भूल जाइए, समिति में अच्छी मेरिट की योग्यता वाला भी कोई विद्वान नहीं है। वे सभी विवादों में घिरे लोग हैं। उन्होंने एकतरफा छात्रवृत्ति प्राप्त की है। चाहे वह बी.आर. मणि या कोई और, वे सभी एक विशेष दृष्टिकोण वाले हैं। यही कारण है कि वे समिति में हैं। यह अपनी ही आवाज को दोहराने वाला कमरा जैसा लगता है। और कुछ नहीं।"

प्रोफेसर रिज़वी ने प्रोफेसर माखन लाल के समिति में शामिल होने पर ध्यान आकर्षित किया क्योंकि अटल बिहारी वाजपेयी मंत्रिमंडल में जब मुरली मनोहर जोशी मानव संसाधन विकास मंत्री थे, प्रोफेसर माखन लाल ने पाठ्य पुस्तकों के लिए इतिहास के पुनर्लेखन का कार्य किया था।  “समिति में कोई दलित, कोई अल्पसंख्यक नहीं हैं। ज्यादातर पुरातत्ववेत्ता हैं। इतिहासकार कौन हैं? उनकी साख क्या है? प्रो माखन लाल हैं ... वे कभी दीप्तमान थे, जिन्होंने एनसीईआरटी (नेशनल काउंसिल ऑफ एजुकेशनल ट्रेनिंग एंड रिसर्च) की पाठ्यपुस्तकों को फिर से लिखने की कोशिश की, जब जोशी मंत्री थे। और कोई क्या कह सकता है!”

कई शिक्षाविद समिति और सत्तारूढ़ दल की सोच को आगे बढ़ाने में इसकी संभावित भूमिका के बारे में आगे बढ़कर बोल रहे हैं। यहां तक ​​कि संसद सदस्यों ने, पार्टी लाइनों से आगे बढ़कर, आपत्ति दर्ज की है और राष्ट्रपति से समिति को भंग करने का अनुरोध किया है। मीडिया रिपोर्टों के अनुसार, संसद के 32 सदस्यों ने राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद को पत्र लिखकर अपने हस्तक्षेप और "सलाह" की मांग करते हुए भारत के सांस्कृतिक इतिहास का अध्ययन करने के लिए केंद्र सरकार द्वारा गठित विशेषज्ञ समिति को इस आधार पर भंग करने की सलाह दी है कि इसके सदस्य देश के बहुलतावादी समाज को प्रतिबिंबित नहीं करते। हस्ताक्षर करने वालों में के. पी. चिदंबरम, कनिमोझी, ए. एम. आरिफ, एस जोथिमनी और टी. सुमथी हैं।

“हम आपका ध्यान दिलाना चाहते हैं कि 16-सदस्यीय अध्ययन समूह में बहुलतावादी समाज का कोई प्रतिबिंब नहीं है। दक्षिण भारतीय, पूर्वोत्तर भारतीय, अल्पसंख्यक, दलित और महिलाएं नहीं हैं। पत्र में कहा गया है कि उक्त समिति के लगभग सभी सदस्य कुछ विशिष्ट सामाजिक समूहों से हैं, जो भारतीय समाज की जाति पदानुक्रम में सबसे ऊपर हैं। इसमें कहा गया है कि समिति के पास "तमिल सहित दक्षिण भारतीय भाषाओं का कोई शोधकर्ता नहीं है, जिसका गौरवशाली इतिहास है और जिसे केंद्र सरकार द्वारा शास्त्रीय भाषा के रूप में मान्यता दी गई है।"

महिलाओं के संगठनों और अल्पसंख्यक समुदाय की प्रतिक्रियाएँ न के बराबर रहीं। हालांकि, द्रविड़ मंचों के एक संघ ने देश की विविधता को प्रतिबिंबित करने में इसकी असफलता के लिए समिति को भंग करने की मांग की। थंथाई पेरियार द्रविड़ कषगम, सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी ऑफ इंडिया, और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) सहित एक दर्जन से अधिक संगठनों ने इस वजह से द्रविड़ संस्कृति महासंघ का गठन किया है, जिससे यह तो तय हो गया है कि भारतीय संस्कृति में वर्चस्व की लड़ाई निर्विरोध नहीं चल सकती।

सत्ता के विभाजनकारी रवैये से वैचारिक संबद्धता के कारण इतिहासकारों ने अक्सर यह तर्क दिया है कि आर्य भारत के मूल निवासी थे और मध्य एशिया से नहीं आए थे, जैसा कि व्यापक रूप से माना जाता है। प्रो थापर 'ए हिस्ट्री ऑफ इंडिया में लिखती हैं, “आर्यन वास्तव में एक भाषाई शब्द है जो इंडो-यूरोपियन मूल के भाषा समूह को दर्शाता है, और यह एक जातीय शब्द नहीं है। यह भारतीय प्रागितिहास के लोगों और संस्कृतियों की इस पृष्ठभूमि के खिलाफ था कि आर्य-भाषी जनजातियाँ उत्तर में पहुंचीं, और भारतीय सभ्यता में अपना योगदान दिया।"

जामिया मिलिया इस्लामिया के प्रसिद्ध इतिहासकार रिज़वान क़ैसर ने कहा कि समिति का गठन सरकार के निर्वाचन क्षेत्र को खुश रखने के लिए एक जनसंपर्क की कोशिश है। उन्होंने कहा-- “यह एक पुराना खेल है जिसका पीछा किया जा रहा है। वे राखीगढ़ी में मिले नए तथ्यों की अलग व्याख्या देना चाहते हैं। वे कई अन्य चीजों की एक अलग व्याख्या देना चाहते हैं, अकबर की, ताजमहल की एक अलग व्याख्या। इस तरह का इतिहास कभी भी भरोसे लायक नहीं होगा। ऐसी समिति की रिपोर्ट इतिहासकारों की जांच से बच नहीं पाएगी। यह प्रयास सिर्फ सरकार द्वारा अपने निर्वाचन क्षेत्र को यह बताने की एक कोशिश है कि देखो, इतिहास के मामले में भी, हम कुछ बहुत गंभीर काम कर रहे हैं। और आपके अनुकरण करने के लिए कुछ मजेदार निकलेगा। मुझे समिति में किसी तरह की समझदारी नहीं दिखती। यदि वे गंभीर थे, तो उनके पास एक इतिहासकार होता  ... एक या दो गंभीर, ऐसे जिन्होंने अपना जीवन इतिहास के अध्ययन के लिए समर्पित कर दिया। लेकिन सरकार सब कुछ अपारदर्शी रखती है; सरकार ने एक महामारी के बीचोंबीच यह समिति बनाई है।

कल जब रिपोर्ट आएगी तो लोग अचंभित हो जाएंगे। यह सरकार महामारी के बारे में या लोगों के दुखों के बारे में परेशान नहीं है। सरकार खुद को छोड़कर किसी को खुश करने के लिए नहीं हैं।”

(फ्रंटलाइन से साभार)

अनुवाद-- राजेश कुमार

(अंग्रेजी में पढ़ें...
https://frontline.thehindu.com/the-nation/inventing-a-past/article32734799.ece)

 

हाल ही में

अन्य