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डिजिटल युग में मीडिया

डिजिटल मीडिया तेजी से हमारे जीवन पर कब्जा कर रहा है - चाहे वह सोशल मीडिया हो, डिजिटल क्लासरूम हो या नेटफ्लिक्स जैसे ओवर द टॉप (ओटीटी) प्लेटफॉर्म। यहां तक कि विश्व कप का प्रसारण भी न केवल टीवी बल्कि विभिन्न ऐप के माध्यम से भी किया जा रहा है।

आज के नौजवानों का अपने मोबाइल फोन के साथ एक भावनात्मक रिश्ता है, वे हमें केवल उनकी मोबाइल स्क्रीन के लोड होने तक के बीच ही समय देते हैं। डिजिटल मीडिया के उभार के साथ, हमें ताकतवर डिजिटल प्लेटफ़ॉर्म का भी उभार देखने को मिलता है जो तेजी से यह तय करता है कि हम अपने समाचार और मनोरंजन कैसे हासिल करें और साथ ही यह दुनिया के सबसे बड़े एकाधिकारियों में से एक बने।

जबकि अक्सर इन डिजिटल प्लेटफॉर्म, जैसे कि गूगल और फेसबुक/मेटा, को मीडिया से अलग करते हुए सोशल मीडिया कहा जाता है, आज हमें यह पहचानने की जरुरत है कि वे आधुनिक मीडिया के बड़े दायरे का ही एक हिस्सा हैं। लेकिन आधुनिक मिडिया के एक हिस्से के रूप में ही इन्हें सोशल मिडिया कहकर पुराने मिडिया से अलग करते हैं। इसलिए नयी डिजिटल मीडिया इस बात को छुपाने में सक्षम है कि किस तरह यह पुराने मीडिया जैसा ही है।

एक मार्क्सवादी होने के नाते हमारे लिये अहम सवाल यह है कि मीडिया अपना राजस्व कैसे कमाता है? और जवाब यह है कि नए सोशल मीडिया और पुरानी तरह का मीडिया, दोनों के राजस्व की उनके पास एक ही मॉडल है: विज्ञापन! फिर हमें यह जांचने की जरूरत है कि नए डिजिटल प्लेटफॉर्म ने मीडिया में अपना एकाधिकार कैसे बनाया है और मीडिया के ढाचे में क्या बदलाव किया है। 

पृष्ठभूमि: डिजिटल क्रान्ति

सिर्फ गूगल और फेसबुक ही नहीं, डिजिटल क्रान्ति ने नये-नये डिजिटल एकाधिकारी बनाये हैं। 2006 में, माइक्रोसॉफ्ट शीर्ष के दस वैश्विक एकाधिकारियों में से एकमात्र डिजिटल कम्पनी थी। आज, दुनिया की सबसे बड़ी तेल कम्पनी, सऊदी अरामको को पीछे छोड़ चुकी एप्पल समेत शीर्ष दस के आधे से अधिक या छह  डिजिटल एकाधिकारी हैं, (चित्र 1).

चोटी के पांच वैश्विक एकाधिकारियों में से चार डिजिटल एकाधिकारी हैं जिनका बाजार पूंजीकरण खरबों डॉलर में है। एप्पल आइफ़ोन का सबसे बड़ा उत्पादक है, लेकिन इसके उत्पादन के लिए उसकी अपनी एक भी फैक्ट्री नहीं है। छह में से केवल दो सोशल मीडिया कम्पनियां हैं. गूगल को सोशल मीडिया के रूप में गिना जाता है, हालांकि इसके मुनाफे का बड़ा हिस्सा सर्च इंजन से आता है।

डिजिटल क्रांति के बारे में गलत धारणाओं में से एक यह धारणा है कि डेटा अपने आप में एक उत्पाद है, और यह डिजिटल अर्थव्यवस्था को ताकत दे रहा है, डेटा को नये इंधन के रूप विश्व आर्थिक मंच ने प्रचारित किया है। दुसरे, इतालवी स्कूल "ऑटोनॉमिस्तास" से प्रभावित हुए लोग जिन्होंने इस एक एल्गोरिथम अधिशेष की अवधारणा के बारे में बताया की कि कैसे एल्गोरिदम, उनकी गणनाओं के माध्यम से, एक अधिशेष का उत्पादन करता है ।

 

जिस मुद्दे पर वे चुक जाते हैं वह है इसका मकसद जिसके लिये कम्पनियां  असल दुनिया में डेटा या एल्गोरिदम का इस्तेमाल करती हैं। डिजिटल एकाधिकारी एकसमान संस्थाएं नहीं हैं और डेटा और एल्गोरिदम का उपयोग अलग-अलग तरीके से करते हैं और यह इस पर निर्भर करता है कि वे अमेज़ॅन, माइक्रोसॉफ्ट, गूगल या फेसबुक हैं या नहीं।

अगर हम चोटी के दस वैश्विक एकाधिकारियों में डिजिटल एकाधिकारियों के व्यापार मॉडल को देखें, तो वे एक-दुसरे से काफी अलग हैं। चोटी के दस वैश्विक एकाधिकारियों में से केवल दो डिजिटल एकाधिकारी, गूगल और फेसबुक, मीडिया एकाधिकारी हैं।

वे अपने निश्चित उपयोगकर्ताओं का इस्तेमाल दुसरे क्षेत्र जैसे कि, गूगल पे, फेसबुक पे और अमेज़ॅन पे के जरिये वित्तीय क्षेत्र में फ़ैलाने की कोशिश कर रहे हैं, लेकिन अब भी उनके राजस्व का बड़ा हिस्सा विज्ञापन से आता है। गूगल और फेसबुक का मुख्य व्यापार हमें, यानी उनके उपयोगकर्ताओं को, विज्ञापनदाताओं के हाथों बेचना है, और उनका व्यवसाय मॉडल विज्ञापन के पुराने जमाने का मीडिया व्यवसाय ही है।
बिलकुल अलग व्यापार मॉडल के साथ चोटी के दस वैश्विक एकाधिकारियों में अन्य चार डिजिटल एकाधिकारी हैं। डिजिटल प्लेटफोर्म पर अमेज़ॅन का सामान खरीदने और बेचने के क्षेत्र में एकाधिकार है, जिस तरह सामानों की पारम्परिक खरीद-बिक्री में वालमार्ट का एकाधिकार था और अब भी है। और माइक्रोसॉफ्ट का प्रमुख राजस्व इसका विंडोज एकाधिकार है, अन्य मालिकाना सॉफ्टवेयर और सेवा जो माइक्रोसॉफ्ट सूट के बुनियाद पर निर्मित है ठीक वैसे ही जैसे एप्पल का एकाधिकार, मुख्य रूप से प्रीमियम ब्रांड, आईफोन जैसे उपकरणों के विक्रेता के रूप में है। टीएसएमसी (ताइवान सेमीकंडक्टर्स), चोटी के दस में सबसे नयी आमद, दुनिया में सबसे बड़ी चिप निर्माता है।

जाहिर है, डिजिटल क्रान्ति पूंजीवाद की संरचना में बदलाव ला रही है। तो, डिजिटल क्रान्ति क्या है?

डिजिटल क्रान्ति के दो धुरी हैं: एक है संचार नेटवर्क और इसकी बैंडविड्थ(एक डेटा प्रसारण दर; सूचना की अधिकतम मात्रा (बिट्स/सेकेंड) जिसे एक चैनल के माध्यम से प्रेषित किया जा सकता है-अनु.), और दूसरा, इस संचार नेटवर्क पर उपकरणों की जटिल गणना करने की क्षमता। डिजिटल मीडिया संचार नेटवर्क यानी इंटरनेट -  जिसके माध्यम से हम सूचना भेजते या प्राप्त करते हैं और वे उपकरण जो खुद नेटवर्क से जुड़े होते हैं, दोनों में क्रांतिकारी परिवर्तनों का परिणाम है. 

मैं संचार नेटवर्क की बढ़ी हुई पहुंच, इंटरनेट पर नोड्स (कनेक्शन) की संख्या और नेटवर्क में प्रसारित होने वाले डेटा की मात्रा की एक सरल पैमाने का उपयोग करूंगा। इससे पता चलता है कि नेटवर्क में प्रसारित होने वाले डेटा की मात्रा मोटे तौर पर हर साल चालीस फिसदी की दर से और उपकरणों की संख्या लगभग अटठारह फीसदी सालाना दर से बढ़ रही है। डेटा संचार की यह विस्फोटक वृद्धि हमारे उपकरणों के चिप्स में अधिक गणना करने की क्षमता की जरुरत को संचालित करती है।

मीडिया के लिए चिप्स की प्रसंस्करण शक्ति इतना महत्त्वपूर्ण क्यों है? चिप्स मीडिया तंत्र में दो तरीकों से दाखिल होते हैं। पर्दे पर उतारने के लिए गतिमान छवियों का प्रसारण न केवल एक तेज़ संचार नेटवर्क की बल्कि नेटवर्क के दोनों सिरों पर प्रसंस्करण शक्ति की मांग करती है।

अपोलो 11 के चंद्रमा पर उतरने का मार्गदर्शन करने वाले ऑनबोर्ड कंप्यूटर की तुलना में आज एक मोबाइल फोन में सैकड़ों-हजारों गुना अधिक गणना करने की क्षमता है! वास्तविक समय में चलती-फिरती तस्वीरें देखने के लिए हमें यही चाहिए-चाहे कोई फिल्म हो, फेसबुक या यूट्यूब पर कोई वीडियो हो या खेल देखना हो।

एक आम समझ यह है कि डेटा की अंदरूनी व्यावसायिक मूल्य है, और डिजिटल क्रान्ति का अभिप्राय केवल डेटा ही है। यह विचार गूगल और फेसबुक की सफलता और इस मत पर आधारित था कि उन्होंने हमसे, उपयोगकर्ताओं से डेटा हासिल  किया, और यह डेटा एक ऐसा अटूट संसाधन प्रदान करता है जिससे वे कमाई कर रहे हैं। यह विचार न केवल डिजिटल क्रान्ति को केवल सोशल मीडिया कम्पनियों तक सीमित करता है बल्कि डिजिटल एकाधिकारी कम्पनियां कहाँ से अधिशेष पैदा करते हैं और उसकी प्रकृति को गलत तरीके से समझता है।

इंटरनेट के युग में मीडिया और विज्ञापन

पिछले एक दशक में विज्ञापन राजस्व निर्णायक रूप से डिजिटल एकाधिकारियों की ओर स्थानांतरित हुआ है। जैसा कि चित्र 2 से देखा जा सकता है, प्रिंट और टीवी, जो 2015 में कुल विज्ञापन राजस्व का क्रमशः लगभग एक चौथाई और आधा था, 2022 में कुल विज्ञापन राजस्व के क्रमशः दसवें हिस्से और लगभग एक चौथाई से भी कम हो गया है. महज सात साल में एक नाटकीय गिरावट। तमाम डिजिटल प्लेटफॉर्म का लाभ, जो पुरे विज्ञापन राजस्व का केवल एक चौथाई हुआ करता था, पर आज दुनिया के सभी विज्ञापन राजस्व के आधे से अधिक है।

गूगल और फेसबुक की कितनी कमाई विज्ञापन से होती है? 2021 में,गूगल के 258 बिलियन डॉलर के राजस्व में से 81% विज्ञापन से था। मेटा के लिए, जिसे पहले फेसबुक के नाम से जाना जाता था, 2021 में इसके 118 बिलियन डॉलर के राजस्व का 97.4% हिस्सा विज्ञापन से था। इसलिए, हमें गूगल और फेसबुक को मीडिया और विज्ञापन के व्यापक संदर्भ में रखने की आवश्यकता है।

इस लेख के बाकी हिस्सों के लिए, मैं खुद को केवल डिजिटल मीडिया प्लेटफॉर्म तक ही सीमित रखूंगा, किस तरह से वे पहले के मीडिया प्लेटफॉर्म के समान हैं और किस तरह से नहीं हैं।

हम पहले ही स्थापित कर चुके हैं कि दो डिजिटल प्लेटफॉर्म-गूगल और फेसबुक-के बिजनेस मॉडल विज्ञापन राजस्व पर आधारित हैं। मार्क्सवादी संदर्भ में, हमें इस अधिशेष के स्रोत को भी समझना होगा और यह भी समझना होगा कि डिजिटल प्लेटफॉर्म के इस युग में एक मीडिया कंपनी विज्ञापनदाताओं को बदले में क्या देती है जो इस पर अपने माल का विज्ञापन करते हैं। मैं इजारेदार पूंजीवाद में विज्ञापन की भूमिका को भी छोड़ने जा रहा हूं क्योंकि यह एक बहुत बड़ी कवायद है।

मैं मीडिया और एकाधिकार पर अन्य अध्ययनों से केवल दो धारणाएँ बनाऊँगा। एक यह कि कम्पनियों के लिए विज्ञापन प्रतियोगिता मूल्य प्रतिस्पर्धा से बेहतर है क्योंकि यह अधिशेष की कुल मात्रा को बरकरार रखती है, प्रतियोगिता केवल इसके पुनर्वितरण के लिए है।यह कोका-कोला और पेप्सी के बीच प्रसिद्ध प्रतियोगिता है, जिन्होंने विज्ञापन प्रतियोगिता की खातिर मूल्य प्रतिस्पर्धा से किनारा किया। दूसरी बात यह है कि विज्ञापन कंपनियों का राजस्व केवल उस अधिशेष का पुनर्वितरण करता है जो उत्पादन से आता है । जबकि विज्ञापनदाता भी विज्ञापन, विज्ञापनों और होर्डिंग का उत्पादन करते हैं और उनका अपना उत्पादन चक्र होता है, यह उत्पादन चक्र अन्य कंपनियों/एकाधिकारों के अधिशेष द्वारा वित्त पोषित होता है।

  क्या होता है यदि एक विज्ञापन कंपनी किसी विशेष माध्यम में दर्शकों पर एकाधिकार रखती है, उदाहरण के लिए, मान लीजिए कि यह किसी देश के सभी सिनेमा हॉल या टीवी चैनलों का मालिक है? इसके बाद वह माल का उत्पादन करने वाले से विज्ञापनदाताओ तक अधिशेष के पुनर्वितरण की अगुवाई करेगा क्योंकि माल के उत्पादक विज्ञापनदाता के बिना अपने उपभोक्ताओं तक नहीं पहुंच सकते हैं, और विज्ञापनदाता माल के निर्माता से अधिक किराया/लगान ले सकता है।

आइए हम टेलीविजन से शुरुआत करें, क्योंकि इससे यह समझना आसान हो जाता है कि एक मीडिया कंपनी उन लोगों को क्या बेचती है जो अपने चैनलों पर विज्ञापन देना चाहते हैं। टिम वू ने अपनी पुस्तक द अटेंशन मर्चेंट्स में तर्क दिया है कि हम सभी के पास ध्यान की एक सीमित मात्रा है - वह इसे अटेंशन कैपिटा कहते हैं। मीडिया कंपनियों का काम जितना ज्यादा हो सके उतना इस पर कब्ज़ा करना और हमारा ध्यान विज्ञापनदाताओं को बेचना है। दिलचस्प बात यह है कि न्यूयॉर्क के समाचार पत्र के बारे में बात करते हुए, वह(लेखक-अनु.) पाठक को ही उत्पाद के रूप में शिनाख्त करता है, लेकिन वह पाठक के ध्यान को वस्तु के रूप में अधिक चिन्हित करता है, न कि स्वयं पाठकों को वस्तु के रूप में।

वू द्वारा अटेंशन कैपिटल की सूत्रीकरण से काफी पहले, 1977 में डलास स्माइथ ,ने ज्यादा सटीक ढंग से चिन्हित किया कि मीडिया कंपनियां हमें-मीडिया के उपभोक्ताओं को-विज्ञापनदाताओं को बेचती हैं। इसे ही उन्होंने ऑडियंस कमोडिटी करार दिया। उन्होंने यह भी लिखा कि सुचना-संचार का यह पहलु पश्चिमी मार्क्सवाद की समझ से बाहर था, जो मीडिया की राजनीतिक अर्थशास्त्र को नहीं समझ रहा था केवल उसकी प्रचार की भूमिका पर ध्यान केंद्रित कर रहा था।

जबकि मीडिया के अंतर्वस्तु, इसकी विचारधारा और इसके द्वारा निभाई जाने वाली वर्चस्वशाली भूमिका का विश्लेषण करना महत्वपूर्ण है, इसके साथ ही मीडिया की आर्थिक भूमिका का विश्लेषण भी होना चाहिए। और यदि मीडिया कंपनियाँ वैश्विक पूंजी के बड़े हिस्सेदारों में से हैं, तो उनके द्वारा निभाई जा रही एक महत्वपूर्ण आर्थिक भूमिका को हमें समझने की जरुरत है।

मीडिया कंपनियों द्वारा विज्ञापनदाताओं को जो बेचा जाता है, वह दर्शकों के, उनकी खरीदने की क्षमता, भूगोल, संभावित जरूरतों और अन्य विवरणों के आधार पर छोटे-छोटे हिस्सों में बटे अलग-अलग समूह होते हैं। इस तरह डिजिटल प्लेटफॉर्म द्वारा हमारे डेटा का उपयोग किया जाता है, न कि अपने आप में एक माल  के रूप में, बल्कि हमारा खाका बनाने के लिए ताकि हमें अधिक प्रभावी ढंग से विज्ञापनदाताओं को बेचा जा सके। डेटा के इन संग्रह का मिलान उत्पाद के साथ या कंपनी के उत्पादों से किया जाता है और फिर उनके हिसाब से विज्ञापनों को पेश किया जाता है। हम गूगल और फेसबुक प्लेटफ़ॉर्म पर विज्ञापनों को स्वीकार करने और बेचने की जटिल प्रक्रिया में नहीं जाएंगे, लेकिन मोटे तौर पर, सभी मीडिया कंपनियां दो कार्य करती हैं: एक कंपनी के उत्पादों के संभावित उपभोक्ताओं की पहचान करना और दूसरा, ऐसे विज्ञापनों के खरीद-बिक्री की असल प्रक्रिया।

बड़े मीडिया घरानों का उद्देश्य विज्ञापन व्यवसाय है

जन-मीडिया और जन-संचार के दो उद्देश्य हैं: 1) समाचार और मनोरंजन देकर हमारा ध्यान खींचना और उसपर नियंत्रण रखना और 2) हमें विज्ञापनदाताओं को मालों के रूप में बेचना। विज्ञापन बेचने में माहिर होने के लिए, मीडिया कंपनियों को हमारी नजर या हमारे ध्यान की जरुरत होती है। खरीदारी करने के आदि हो चुके कुछ बीमारों को छोड़कर हम में से कोई भी विज्ञापन देखना नहीं चाहता। समाचार, विश्लेषण या मनोरंजन प्राप्त करते वक्त हम उन्हें अनिवार्य बुराई मानते हैं।

द टाइम्स ऑफ इंडिया के मालिकाने वाली कंपनी बेनेट एंड कोलमैन के प्रबंध निदेशक विनीत जैन, ने न्यू यॉर्कर से एकदम सही कहा, “हम अखबार के कारोबार में नहीं हैं; हम विज्ञापन कारोबार में हैं।” हो सकता है कि इसने समाचार पढ़ने वालों और यहां तक कि पत्रकारों को भी चौंका दिया हो, लेकिन यह सदमा केवल क्रूरता से उस बात को कहने का था जो हम सभी को पता है!

केवल विज्ञापनदाताओ के अलावा मिडिया के खर्च वहन के दुसरे विकल्प भी थे। यदि इसका खर्च केवल ग्राहकों द्वारा ही उठाया जाता, तो इसकी कीमत इसे जनसंचार बनने से रोक देती। इसका विकल्प राज्य द्वारा खर्च वहन या आर्थिक सहायता हो सकती थी। लेकिन उन तरीकों को नहीं अपनाया गया और 19वीं सदी में समाचार पत्रों से लेकर टेलीविजन तक, समाचार संस्थानों के लिए विज्ञापन प्रमुख व्यवसाय मॉडल रहे हैं ।

मै मिडिया के दुसरे पहलु को नहीं छु रहा हु, जोकि, उदहारण के लिए, नोंम चोमस्की(हरमन एडवर्ड के साथ सहलेखक) ने मैन्युफैक्चरिंग कंसेंट में बहुत विस्तार से लिखा है, जो आज भी प्रासंगिक और एक क्लासिक रचना है। अगर इस पर कोई भ्रम था कि कैसे परम्परागत प्रिंट, टेलीविजन मीडिया या नये डिजिटल मीडिया समाचार प्रसारित करते हैं, तो हमें केवल उनकी लगभग एक जैसी प्रतिक्रिया को देखना होगा: चाहे इराक, अफगानिस्तान या यूक्रेन युद्ध से लेकर चीन के खिलाफ आर्थिक युद्ध हो। चाहे वह न्यूयॉर्क टाइम्स , बीबीसी , सीएनएन या फेसबुक और गूगल की नीतियां हो, वे बिलकुल एक जैसी रही हैं। शासक वर्ग के लिए सहमति बनाने का कार्य पुराने और नए मीडिया दोनों के लिए आम है।

   चीन और रूस जैसे देशों के अपने डिजिटल स्पेस की रक्षा के लिए सचेत फैसलों की वजह से या अमेरिका द्वारा लगाए गए प्रतिबंधों के कारण जैसे ईरान के अतिसुरक्षित डिजिटल बाजारों को छोड़कर, गूगल और फेसबुक वर्चस्वशाली सोशल मीडिया खिलाड़ी हैं। इन दो प्लेटफार्मों में आज दुनिया के डिजिटल विज्ञापन राजस्व का 90% से अधिक हिस्सा है। तो, वह क्या चीज है जिसपर वे एकाधिकार हासिल करते हैं, और वे इस तरह के एकाधिकार को कैसे हासिल करते हैं?

इंटरनेट ने संचार नेटवर्क की कनेक्टिविटी में भारी वृद्धि की है जैसे कि लोग अपने मोबाइल फोन और लैपटॉप के माध्यम से इंटरनेट से जुड़ते हैं। इस बढ़ी हुई कनेक्टिविटी ने दर्शकों के रूप में हमें जोड़ने और विज्ञापनदाताओं को माल के रूप में हमें बेचने के वैकल्पिक तरीकों की संभावना को खोल दिया है।

  पहले के सभी प्रकार के डेटा रूपों और नए डिजिटल मीडिया के बीच एक संरचनात्मक अंतर है। पुराने मीडिया में मीडिया कम्पनियां विषयवस्तु और वितरण तंत्र बनाती हैं। इंटरनेट पर, हम, इसके उपयोगकर्ता, अन्य सभी मीडिया कम्पनियों की तुलना में कहीं अधिक विषयवस्तु बनाते हैं। और वितरण तंत्र(कम से कम, शुरू में) इंटरनेट ही था, जो मौजूदा टेलीकॉम ढाँचे पर चल रहा था।

आज, इंटरनेट पर विषयवस्तु का बड़ा हिस्सा प्लेटफार्मों द्वारा नहीं बनाया गया है, बल्कि उन लोगों द्वारा बनाया गया है जो उनका इस्तेमाल करते हैं, या जिसे उपयोगकर्ता-जनित विषयवस्तु कहा जाता है। इंटरनेट पर वेब पेजों की संख्या इससे जुड़े लोगों की कुल संख्या का लगभग आधा है। अगर हम ऐसे अरबों फेसबुक और चीनी सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म उपयोगकर्ताओं को जोड़ते हैं, जिनके ऐसे प्लेटफॉर्म पर पेज हैं, तो व्यावहारिक रूप से इंटरनेट से जुड़ा हर व्यक्ति एक उत्पादक के साथ-साथ उसी विषयवस्तु का उपभोक्ता भी है। यदि हम यूटूयब और इन्स्टाग्राम रील्स से लेकर टिकटोक जैसे विभिन्न प्लेटफ़ॉर्म पर उपयोगकर्ताओं द्वारा पोस्ट की जाने वाली वीडियो विषयवस्तु जोड़ते हैं, तो आज कोई भी मीडिया कम्पनी उपयोगकर्ता-जनित विषयवस्तु की इस मात्रा का मुकाबला नहीं कर सकती है।

नए डिजिटल एकाधिकार विषयवस्तु का निर्माण नहीं करते हैं बल्कि हमें अपने प्लेटफॉर्म पर अपनी विषयवस्तु बनाने या पोस्ट करने के लिए उपकरण और एक मंच पेश करते हैं। इसलिए उन्हें "मध्यवर्ती संस्थाए" कहा जाता है, या जो दुसरे लोगों की विषयवस्तु को अपने प्लेटफॉर्म पर प्रदर्शित करते हैं। बढ़ती उपयोगकर्ता-जनित विषयवस्तु के चलते पिछले ज़माने के सार्वजनिक और निजी संवाद की जगह के बीच का अंतर तेजी से कम हो गया है। फेसबुक या ट्विटर पर लिखने वाले लोग मानते है कि वे एक निजी जगह पर बातचीत कर रहे हैं, जबकि यह सार्वजनिक जगह पर ही हो रही होती है।

  जबकि गूगल और फेसबुक  के व्यवसाय का एक हिस्सा समान है - हमें विज्ञापनदाताओं को बेचना – हमारे लिए इन हर एक प्लेटफ़ॉर्म पर जाने का उद्देश्य अलग हैं। हमारे द्वारा गूगल को इस्तेमाल करने का सबसे संभावित कारण जानकारी ढूँढना है, जिसमें से अधिकतर हमारे जैसे अन्य उपयोगकर्ताओं द्वारा तैयार की गयी हैं। सर्च इंजन पर लगभग इसके एकाधिकार ने इसे विज्ञापन राजस्व हासिल करने में पहले ही अग्रणी बना दिया। इस राजस्व ने गूगल के लिए यूटयूब, विडियो प्रदर्शित करने का अग्रणी वेबसाईट, और एंड्राइड, आईफ़ोन को छोड़कर अधिकांश मोबाइलके लिए ऑपरेटिंग सिस्टम (ओस) जैसी कंपनियों का अधिग्रहण करना संभव बना दिया है, ताकि उनकी पहुंच को और भी बढ़ाया जा सके।

हालाँकि एंड्राइड  एक ओपन-सोर्स प्रोजेक्ट है जिसे गूगल  द्वारा देखरेख किया जाता है, इसके वितरण पर इसके नियंत्रण का मतलब है कि अधिकांश मोबाइल फ़ोन निर्माता गूगल की शर्तों, इसके ऐड-ऑन और इसके प्रतिबंधों को स्वीकार करते हैं। भारतीय प्रतिस्पर्धा आयोग और अन्य नियामकों ने गूगल की ऐसी प्रतिस्पर्धा-विरोधी प्रथाओं के खिलाफ कड़ी निंदा की है। चीनी फोन निर्माता हुआवेई पर अमेरिकी प्रतिबंधों का मतलब था कि उसे अपने ऐप्स के साथ अपना संचालनतंत्र(ओएस) विकसित करने के लिए मजबूर होना पड़ा, क्योंकि गूगल ने हुआवेई को अपने प्ले स्टोर का उपयोग करने से रोक दिया और इस तरह से, अधिकांश उपयोगकर्ता को उन सभी ऐप्स तक पहुंचने से रोक दिया, जिनसे वे परिचित हैं.

जब हम इसके किसी भी उत्पाद का इस्तेमाल करते हैं – गूगल सर्च, जीमेल या कोई भी एंड्रॉइड-आधारित मोबाइल फोन, गूगल हमारे स्थान के अनुसार हमारी रुपरेखा तैयार करता है, हमारे द्वारा किये गए सवाल, हमारे दोस्त कौन हैं, आदि, यह सब हमारी रुपरेखा में जोड़ता हैं। इसके साथ ही, जब हम उनकी वेबसाइटों या उत्पादों का इस्तेमाल करते हैं, तो वे दुसरे ऐप्स या वेबसाइटों की तरह हमारे कंप्यूटर/फोन पर कुकीज़(डेटा की छोटी छोटी फाइल्स-अनु.) डालते हैं। यह सब गूगल को हमें विज्ञापनदाता को अधिक कुशलता से बेचने में मदद करता है, जिसका अर्थ है कि गूगल पर विज्ञापन पर खर्च किया गया पैसा किसी भी अन्य प्लेटफॉर्म की तुलना में अधिक प्रभावी है, संभवतः फेसबुक / मेटा को छोड़कर।

 डिजिटल प्लेटफॉर्म बाजार में दूसरी बड़ी एकाधिकारी फेसबुक ने एक अलग रास्ता चुना। इसने एक ऐसी जगह बनायीं जहां आप अपने विषय में जानकारी डाल सकते थे और अपने जानकर दोस्तों या रिश्तेदारों से जुड़ सकते थे। फेसबुक हमारे डेटा और फेसबुक पर हमारे मित्रों और संबंधों के नेटवर्क के डेटा की निगरानी करता है, जिससे यह हमें और अधिक कुशलता से मुद्रीकृत करने में सक्षम बनाता है।

फेसबुक को हमारी रुपरेखा बनाने और उपभोक्ताओं को हमें बेचने में गूगल के समान ही महारत हासिल है। बाजार में मंदी से पहले, इसका मार्केट कैप एप्पल, माइक्रोसॉफ्ट, अल्फाबेट और अमेज़न जैसे दुसरे महारथी कम्पनियों से एक ट्रिलियन से अधिक था। यह गिरावट विज्ञापनदाताओं को हमें—अपने वर्तमान  उपयोगकर्ताओं—को बेचने में असमर्थता के कारण नहीं है। निवेशकों का मानना है कि जुकरबर्ग अपने चहेते प्रोजेक्ट मेटावर्स में जो भारी मात्रा में पैसा लगा रहे हैं, उससे उन्हें उपयुक्त मुनाफा नहीं होगा। इसलिए, मेटा/फेसबुक के बाजार पूंजीकरण में यह गिरावट आई है जो पूंजी पर मुनाफे के भविष्य की उम्मीद पर आधारित है।

  केवल गूगल  का सर्च इंजन ही ऐसा नहीं था जिसने जानकारी खोजने की समस्या को हल करने का प्रयास किया; इसने शुरुआती बढ़त बनायीं, क्योंकि इसका सर्च इंजन शायद बेहतर था, खोज परिणाम पक्षपाती नहीं थे, और संभवत: किस्मत से ऐसा था। जिस तरह फेसबुक दोस्तों और परिवारों को जोड़ने के विचार वाली पहली सोशल मीडिया कंपनी नहीं थी, उसने शुरुआत में ही बेहतर प्रदर्शन किया और इस सोशल नेटवर्किंग की दुनिया में बाजार के अगुआ के रूप में उभरी।

जिस खेल में जीतने वाले सब लूट लेते हैं उसमे किसी न किसी को जीतना ही था. जिसने भी पहले सम्बंधित क्षेत्र में अगुआई की वही कंपनी सरताज बनी. जैसे की ट्विटर और टिकटोक ने बाद में किया उन्होंने बाजार में जगह बनाया जहाँ ये अगुआ है।

कोई भी मीडिया कंपनी, चाहे वह अखबार हो या टीवी स्टेशन, हमारा ध्यान खीचने और उस पर पकड़ बनाये रखने के लिए बड़ी रकम खर्च करती है। समाचार पत्रों को प्रिंटिंग प्रेस में, वितरण और समाचार इकठ्ठा करने के परिचालन व्यय के लिये पूंजी निवेश की आवश्यकता होती है। इसी तरह, टीवी उद्योग को उत्पादन और वितरण के लिए या स्थलीय नेटवर्क या उपग्रहों को इलेक्ट्रॉनिक सन्देश भेजने के लिए निवेश की आवश्यकता होती है।

 चूंकि हम विषयवस्तु बनाते हैं, गूगल और फेसबुक का निवेश शुरू में न तो विषयवस्तु बनाने पर था और न ही वितरण का ढांचा तैयार करने पर। हम, उपयोगकर्ताओं ने विषयवस्तु प्रदान की, और दूरसंचार तंत्र ने वितरण के लिए आधारभूत ढांचा प्रदान किया। उनका मुख्य कार्य उपकरण बनाना था, जिसका इस्तेमाल हम या तो अपनी रुचि की विषयवस्तु खोजने के लिए कर सकते हैं या अपने मित्रों और संबंधों के लिए अपनी विषयवस्तु डालकर कर सकते हैं।

ऑनलाइन प्लेटफॉर्म पर विज्ञापन देने का तरीका भी प्रसारण मीडिया से अलग है। चूँकि प्रसारण, बहुत हदतक इसकी संरचना के कारण, एक-से-कई तक संचार के रूप में पहुचते हुये, इसलिए पता नहीं चलता है कि ऐसी विषयवस्तु किन व्यक्तियों तक पहुँच रहा है। इस तरह के प्रसारण प्लेटफॉर्म, जैसे टीवी, के पास नीलसन रेटिंग्स के माध्यम से एकमात्र जानकारी यह है कि कितने लोग कौन सा कार्यक्रम देख रहे हैं । इन कार्यक्रमों को देखने वाले लोगों के पास एक ही विकल्प होता है कि वे चैनल बदले या टीवी न देखें। विज्ञापन के लिए यह दृष्टिकोण भीड़ के ऊपर छींटे बरसाने जैसे है: विज्ञापनों को इस उम्मीद में बिखेरे कि वे कुछ लोगों पर चिपक जाए और जब आप बाहर जाकर खरीदारी करेंगे तो आपको उनका ब्रांड या उत्पाद याद होगा।

इंटरनेट प्लेटफॉर्म ने एक अलग रास्ता अपनाया। वे अपने उपयोगकर्ताओं को अच्छी तरह जानते थे; आम इंटरनेट के लिए फायदे की बात यह है कि गूगल और फेसबुक आपको आपकी मां से बेहतर जानता है। इन्टरनेट के जरिये विज्ञापन से उपयोगकर्ता को उपभोक्ता बनाने की ऊँची दर प्राप्त करने के लिए उपयोगकर्ता अनुरुप विज्ञापन भेज सकता है जिसे प्रसारण मिडिया कभी कर ही नहीं सकता। यदि आप गूगल  सर्च के जरिये एक वीडियो कैमरे को ढूढ़ते हैं, तो गूगल आपको वीडियो कैमरों के विज्ञापन हफ्तों बाद तक दिखाएगा। या आपकी सहेली अपना ख़रीदा गया नया वीडियो कैमरा दिखाती है तो फेसबुक पर उसके दोस्त के रूप में आपको कैमरा के विज्ञापन मिलते है.

विज्ञापन राजस्व में इस बदलाव का असर आज दिख रहा है। प्रिंट समाचारपत्र तेजी से विज्ञापन खो रहे हैं जिसकी वजह से वे बंद हो रहे हैं या ऑनलाइन "समाचारपत्र" में तब्दील हो रहे हैं। टीवी का विज्ञापन राजस्व डिजिटल विज्ञापन राजस्व (चित्र 2) की तुलना में बहुत धीमी रफ़्तार से बढ़ रहा है। 2017 में, डिजिटल विज्ञापन राजस्व ने संयुक्त टीवी (प्रसारण और केबल) विज्ञापन राजस्व को पीछे छोड़ दिया था। और इसमें से चोटी के दो– गूगल और फेसबुक- का लगभग 70% राजस्व है। चार्ट (चित्र 3) न केवल डिजिटल मीडिया कंपनियों के विज्ञापन राजस्व में तेज वृद्धि को दिखाता है, बल्कि साफ तौर पर यह भी स्थापित करता है कि समाचार पत्रों के विज्ञापन राजस्व में गिरावट गूगल और अब फेसबुक के उभार के साथ मजबूती से जुड़ा है।

गूगल और फेसबुक कैसे एकाधिकारी बन गये?

गूगल और फेसबुक दोनों का नेतृत्व तकनीकी लोगों द्वारा किया गया था जो समझते थे कि इस क्षेत्र में प्रौद्योगिकी की गुणवत्ता कंपनियों के बीच के अन्तर को दिखाएगी. चूँकि वे सॉफ़्टवेयर नहीं बेच रहे थे, इसलिए गूगल और फेसबुक दोनों ने अपने मतलब के टूल विकसित करने के लिए मौजूदा मुफ़्त और मुक्त (यानी जिनका कोई पेटेंट नहीं था- अनु.) सॉफ़्टवेयर टूल और साझेदारी का इस्तेमाल किया..

 उन्होंने इस तरह के टूल्स खुले स्रोतों के रूप में भी जारी किये हैं। कुछ टूल्स/प्लेटफार्म को उपलब्ध करना गूगल और फेसबुक को एक अनुकूल माहौल देता है जो मुक्त संसाधनों को टूल्स के आगे के विकास के लिए मदद करता है.

जबकि गूगल और फेसबुक अपने राजस्व का कुछ हिस्सा विषयवस्तु निर्माताओं के साथ साझा करते हैं, गणना उतनी सरल नहीं है जितना वे दावा करते हैं। गूगल के खिलाफ एकाधिकार जांच में से एक यह है कि यह विज्ञापन बोलियों में कैसे धांधली करता है। जब यूट्यूब कहता है कि वह अपने विज्ञापन राजस्व का 55% विषयवस्तु बनानेवालो के साथ साझा करता है, तो हमें यह नहीं बताता है कि यूट्यूब कितना विज्ञापन राजस्व हासिल करता है और गूगल के दुसरे बिचोलियों को कितना जाता है । ये अमरीका में एकाधिकारी व्यापार विरोधी और यूरोपीय संघ और यूके में एकाधिकार/प्रतियोगिता आयोगों के मुकदमों विषय हैं। फेसबुक भी दोनों जगहों पर इसी तरह की एकाधिकार-विरोधी और प्रतिस्पर्धा-विरोधी कानूनी कार्रवाई का सामना कर रहा है। यह यूरोप में "प्रतिस्पर्धा" कानून कहे जाने वाले  एकाधिकार कानूनों को सुनियोजित रूप से कमजोर करने के बाद है। हालांकि अमेरिका में, कानूनों को नहीं बदला गया, उन्हें बड़े पैमाने पर कमजोर कर दिया गया था। अब व्याख्या पूरी तरह बदल गयी, कि एकाधिकार अपने-आप में कोई मुद्दा नहीं है; नियामक अधिकारियों को एकाधिकार विरोधी कार्रवाई करने के लिए यह दिखाने की जरूरत थी कि एकाधिकार की वजह से उपभोक्ताओं या प्रतियोगी आहत हुये हैं। इस व्याख्या ने एकाधिकार के खिलाफ कार्रवाई को कहीं ज्यादा मुश्किल कर दिया.

जब गूगल नंबर एक सर्च इंजन बन गया, तो हमें कोई अंदाजा नहीं था कि यह दुनिया के अग्रणी दिग्गजों में से एक कैसे बन सकता है। यह हमें अधिक आसानी से विषयवस्तु खोजने में मदद कर रहा था, इसका कोई विज्ञापन व्यवसाय नहीं था, और इसका नारा था "बुराई नहीं"। एक अच्छा और सोम्य एकाधिकार! हकीकत बदल चुकी है.

2004 में गूगल के सह-संस्थापक लैरी पेज ने दावा किया था कि इसका उद्देश्य आपको उन साइटों पर ले जाना था जिनमें आपकी खोज के लिए प्रासंगिक विषयवस्तु थी। आज, दो-तिहाई—या तीन में से दो—आपकी खोजें अगला क्लिक के बिना समाप्त हो जाती हैं, जिसे सर्च इंजन विशेषज्ञ रैंड फिशकिन जीरो-क्लिक सर्च कहते हैं। मोबाइल फोन में खोजने के मामले में यह संख्या और भी बढ़ जाती है - पांच में से चार तक ।

गूगल पर किये गये अधिकांश खोज  प्रदर्शित खोज पेजों के लिंक पर ख़त्म हो जाता है जिसके आगे कोई क्लिक करने का रास्ता नहीं होता है। या यदि खोज पृष्ठों के लिंक पर क्लिक किया जाता है, तो वे अधिकतर अन्य गूगल साइटों पर ले जाते हैं, न कि मूल विषयवस्तु निर्माताओं की साइट पर। यही कारण है कि गूगल का इंटरनेट खोजों पर एकाधिकार है, एकमात्र अपवाद है फेसबुक और अमेज़ॅन जैसे स्वतंत्र जगह हैं।

 गूगल का इंटरनेट पर सभी खोजों पर नियंत्रण समस्या का केवल एक हिस्सा है। दूसरा यह है कि यह दो तरफा एकाधिकार है। दीना श्रीनिवासन, एकाधिकार पर एक प्रमुख शोधकर्ता लिखती हैं, “विज्ञापन की दुनिया में, एक ही कंपनी, अल्फाबेट (गूगल), एक ही समय प्रमुख व्यापारिक केंद्र के साथ-साथ प्रमुख बिचोलियों का संचालन करती है जिनके जरिये खरीदार और विक्रेता व्यापार करते हैं। साथ ही साथ, गूगल खुद वैश्विक स्तर पर विज्ञापन की जगह के सबसे बड़े विक्रेताओं में से एक है।" इसका मतलब यह है कि इंटरनेट विज्ञापनों का बाज़ार गूगल के पक्ष में बहुत अधिक झुका हुआ है। यही वजह है कि अमेरिका के कई राज्य गूगल के खिलाफ मुक़दमे दर्ज कर रहे हैं।

फेसबुक के पास खुली जगह होने का कोई ढोंग नहीं है। यह इंटरनेट पर एक "दीवारों से घिरा बगीचा" है जो आपको प्लेटफॉर्म पर दोस्तों, संबंधियों और एक जैसे सोच रखने वाले लोगों से जोड़ता है। जब आप फेसबुक से जुड़ते हैं और दूसरों के साथ बातचीत करते हैं, तो प्लेटफॉर्म आपको अपने विज्ञापनदाताओं को बेच देता है। इसका उद्देश्य है इस प्लेटफार्म पर होने वाली सरगर्मी को जितना ज्यादा हो सके जारी रखना है - यानी आपको फेसबुक पर बनाए रखना।

गूगल का यह बहाना था कि उसके सर्च इंजन का उद्देश्य आपको उन लोगों तक पहुँचाना है जिन्होंने मूल विषयवस्तु तैयार की है। फेसबुक शुरू से ही, उदाहरण के लिए, गूगल के सर्च इंजन को अपने पृष्ठों की सूचि बनने और इसके खोज परिणामों पर ऐसे लिंक दिखाने से, यानी दूसरों के किसी भी दखलअन्दाजी को रोकता है. । इसलिए हम ऐसी साइट को निजी बगीचा कहते हैं क्योंकि उन तक केवल मालिक की स्पष्ट अनुमति से ही पहुँचा जा सकता है।

तो फेसबुक कैसे अपनी साइट/साइटों पर हमारा अधिकतम ध्यान खीचता है और हमें वहां बनाये रखता है? उन्होंने खोज लिया है कि फेसबुक पर होने वाली संवाद हमारी भावनाओं से चलता है। डर और नफरत दूसरी भावनाओं की तुलना में अधिक मजबूत हैं, और इसलिए, ऐसी भावनाएं उत्पन्न करने वाले पोस्ट अधिक ध्यान खीचते हैं और फेसबुक के भीतर गहराई से और आगे बढ़ते हैं। नफरती समूहों के मामले में फेसबुक की यही समस्या है। जनता में अपनी छवि बनाने के लिए वे चाहे जितना भी शोर मचा ले लेकिन वे नफरत फ़ैलाने वाले पोस्ट, और यहां तक कि गलत समाचार की संक्रामकता के बारे में अच्छी तरह जानते हैं , यही इसके व्यापार मॉडल की कुंजी है।

किसी भी नयी प्रौद्योगिकी की चुनौती यह होती है कि उसके प्रसार की गति उसके सामाजिक प्रभाव की समझ से तेज होती है। यह नयी डिजिटल तकनीकों तक ही सीमित नहीं है।

प्रिंटिंग प्रेस का आविष्कार जनसंचार का पहला साधन था, जिसे अब हम सार्वजनिक दुनिया कहते हैं। इससे साक्षरता बढ़ी, ज्ञान का लोकतंत्रीकरण हुआ और समाज में बदलाव आया। इसने समाचार पत्रों को भी जन्म दिया, जो मुद्रित होते थे, और इसलिए, बड़े पैमाने पर पाठक हासिल कर पाया। बेनेडिक्ट एंडरसन ने राष्ट्र राज्य के निर्माण के मुख्यबिंदु के रूप में प्रिंट पूंजीवाद और समाचार पत्रों को चिन्हित किया है।

लेकिन प्रिंटिंग प्रेस के अन्य परिणाम भी थे। जब गुटेनबर्ग द्वारा यूरोप में प्रिंटिंग प्रेस की शुरुआत की गई, तो पहली और सबसे लोकप्रिय पुस्तक बाइबिल थी , जिसे गुटेनबर्ग बाइबिल के नाम से जाना जाता है। दूसरी सबसे लोकप्रिय पुस्तक मैलेयस मालेफिकारम थी, जिसे आमतौर पर द हैमर ऑफ द विचेस, इन्कुईजिशन (इसाई धर्म के सर्वोच्च न्यायाधिकरण) की कुंजी का करार दिया जाता है। इसके परिणामस्वरुप कितने लोग धर्म के नाम पर मारे गये? कितने लोग यूरोप में  राष्ट्रवादी युद्ध के चलते मारे गये? कितने लोग एशिया, अफ्रीका और अमरीकी महाद्वीपों में औपनिवेशिक शक्तियों द्वारा लूटपाट, नरसंहार और गुलामी के कारण मारे गये?.

और इसके बावजूद हम प्रिंटिंग प्रेस और इसके चलते सार्वजनिक क्षेत्र के विस्तार को इतिहास के आगे बढ़ते कदमताल के हिस्से रूप में देखते हैं। इसने सार्वजनिक भागीदारी और साक्षरता में वृद्धि की, जो पहले सामंती अभिजात वर्ग के लिए संरक्षित थी, और यहाँ तक कि उसमें मजदुर वर्ग को भी शामिल कर लिया। यह कोई संयोग नहीं है कि लेनिन ने इस्क्रा को न केवल पार्टी के मुखपत्र के रूप में बल्कि पार्टी के निर्माण के एक साधन के रूप में भी माना।

ऐसा नहीं है कि प्रौद्योगिकी अपने आप में मुक्तिदायी या गुलाम बनाने वाली कोई चीज है। प्रौद्योगिकी में किसी भी प्रगति के लाभकारी और हानिकारक दोनों सामाजिक परिणाम होते हैं। प्रौद्योगिकी की उत्पादक क्षमता में वृद्धि से अधिक उत्पादन होता है और इससे  समाज को लाभ होता है। चूँकि यह वर्ग-विभाजित समाजों में- धन और शक्ति के संकेंद्रण की ओर ले जाता है, इसलिए प्रौद्योगिकी प्रगति के लाभ समाज के सभी तबकों के लिए समान नहीं होता है। इसलिए, लड़ाई प्रौद्योगिकी के पक्ष में या उसके खिलाफ नहीं है, बल्कि प्रौद्योगिकी का मालिक कौन है और किसके लाभ के लिए समाज में बढ़ी हुई उत्पादक शक्तियों का उपयोग किया जाता है।

प्रिंटिंग प्रेस के विस्तार और समाचार पत्रों के निर्माण से विज्ञापन उद्योग का निर्माण हुआ। यही पूंजीवादी देशों में सार्वजनिक क्षेत्र को मजबूत बनाता है। कामोत्तेजक तेल, और यहाँ तक कि कोकीन के विज्ञापन ने ही– शुरुआत में कोका-कोला के गुप्त फोर्मुले में कोकीन का मिलावट भी शामिल था- समाचार पत्रों और बाद में रेडियो तथा टेलीविजन के लिए पैसे का इन्तेजाम किया था।

हालाँकि अधिकांश देशों में विशेष प्रकार के विज्ञापनों पर आधिकारिक तौर पर प्रतिबंध या नियमन लगा दिया गया है, लेकिन विज्ञापन जगत की वास्तविकता हमें यह विश्वास दिलाने के लिए है कि हम, अपनी स्वाभाविक अवस्था में, जैसे कि एक परफ्यूम या एक गोरेपन की क्रीम, ख़रीद कर काफी हद तक सुधार कर  सकते है! यह समाज के सबसे खराब पूर्वाग्रहों को बढ़ावा देता है, जिनमें से फेयर एंड लवली जैसे विज्ञापन केवल एक मार्जित संस्करण है।

 उदाहरण के लिए, अमेरिका में, विज्ञापनों ने काले समुदाय को नियमित रूप से अपराधी या स्वाभाविक रूप से हिंसक के रूप में दिखाया है। लेकिन विज्ञापन व्यवसाय ने तमाम समस्याओं के बावजूद मीडिया व्यवसाय के साथ सार्वजनिक जगह भी बनायी है। ठीक उसी तरह जैसे उसने मुसोलिनी और हिटलर को बनाने में भी मदद की थी। मुसोलिनी के रेडियो व्याख्यान और लेनि रिफेनस्टाल फिल्में फिर से उदाहरण हैं कि जन मीडिया भी जनता के खिलाफ एक शक्तिशाली हथियार हो सकता है।

कामोत्तेजक तेलों के विज्ञापनों के खिलाफ संघर्ष के परिणामों में से एक यह है कि इसने अधिकांश देशों को कानून बनाने के लिए प्रेरित किया कि क्या विज्ञापित किया जा सकता है और क्या नहीं। इन कानूनों ने यह भी नियंत्रित किया कि दवाओं के रूप में क्या बेचा जा सकता है। समस्या इन कानूनों का उपयोग करने की मंशा रही है-चाहे यहां बाबा रामदेव के पतंजलि साम्राज्य के खिलाफ हो या अमेरिका में अफीम बेचने वाली फार्मा कंपनियां के। इसके अलावा, यह माना गया है कि मीडिया का राजनीति पर बड़ा प्रभाव है, और इसलिए, मीडिया के एकाधिकार को नियंत्रित करने की आवश्यकता है। दुर्भाग्य से, एकाधिकार आयोगों और कानूनों को कमजोर करने और उन्हें प्रतिस्पर्धा आयोगों में परिवर्तित करने से इन कानूनों को काफी ढीला कर दिया है। अपने आप में एकाधिकार को तब तक स्वीकार्य माना जाता है जब तक कि इस तरह का एकाधिकार अन्य कंपनियों या लोगों को नुकसान नहीं पहुँचाता है. यह अमरीका में जब स्टैंडर्ड ऑयल और एटी एंड टी, टेलीफोन एकाधिकार को तोड़ने की कानून बनायी गयी थी उससे कठिन पैमाना है। ज़्यादातर देशों में इस बारे में भी कानून हैं कि क्या प्रकाशित किया जा सकता है या क्या दिखाया जा सकता है.

  डिजिटल मीडिया क्षेत्र में समस्या यह है कि, जैसा कि हमने पहले चर्चा की है, निजी और सार्वजनिक जगहों के बीच के अंतर का खात्मा है। जब हम फेसबुक पर पोस्ट करते हैं, यूट्यूब पर एक विडियो क्लिप डालते हैं या ट्विटर पर कोई टिप्पणी करते हैं, तो हम मानते हैं कि हम निजी तौर पर बोल रहे हैं, भले ही हम जो कह रहे हैं वह सार्वजनिक है। विषयवस्तु की मात्रा फिल्मों की निगरानी करने वाली सेंसर बोर्ड जैसे, किसी सार्वजनिक संस्थानों की क्षमता से बहुत ज्यादा है.

 इसलिए, डिजिटल मीडिया के क्षेत्र में, अधिकांश सरकारें प्लेटफॉर्मों को खुद से  निगरानी करने के लिए कह रही हैं: फ़ेसबुक और गूगल जैसी कंपनियों के पास नकली समाचारों को फ़िल्टर करने के लिए एल्गोरिदम होना चाहिए। बड़े डिजिटल प्लेटफॉर्म से भारत सरकार भी यही करने को कह रही है।

मैं यहां एल्गोरिदम की समस्याओं की जांच नहीं करने जा रहा हूं कि क्या सेंसर करना है और क्या सेंसर नहीं करना है। कैथी ओ'नील ने अपनी पुस्तक वेपन्स ऑफ मैथ डिस्ट्रक्शन में मानवीय निर्णय लेने के लिए एल्गोरिदम का उपयोग करने की समस्याओं से निपटा है। यह मुद्दा—क्या हानिकारक है और क्या नहीं—बेहतर गणित से हल नहीं किया जा सकता ।

समस्या यह नहीं है कि विषयवस्तु की निगरानी कौन करे। यह विषयवस्तु के रचनाकारों का काम है- ऐसे प्लेटफॉर्म के उपयोगकर्ता- कि वे कानूनों के अनुरूप चले। यदि वे ऐसा नहीं करते हैं, तो राज्य और डिजिटल प्लेटफार्म को मिलकर यह देखना होगा कि ऐसी विषयवस्तु को बाहर कर दिया जाए। समस्या यह है कि प्लेटफार्मों के पास न केवल सामान बेचने की शक्ति है बल्कि चुनावों में उम्मीदवारों को "बेचने" और यहां तक कि विधायकों को विधि निर्माण और कानून "बेचने" की भी शक्ति है। उन्हें पहरेदार बनने के लिए कहना भेड़ियों को भेड़ों की रखवाली करने के लिए कहने जैसा है।

ये प्लेटफॉर्म आज खनिज तेल की तुलना में कहीं अधिक शक्ति का उपयोग करते हैं, जो वित्तीय कुलीनतंत्र ने पिछली शताब्दियों में किया था। उनका शुद्ध मूल्य, या बाजार पूंजीकरण, अधिकांश देशों के सकल घरेलू उत्पाद से अधिक है।.

हमें एक वैकल्पिक दृष्टिकोण की जरूरत है। टिम वू, अपनी नई किताब द कर्स ऑफ बिगनेस में कई छोटी संस्थाओं को बनाने के लिए इन एकाधिकारों के टूटने की वकालत करते हैं - बिग ऑयल और मा बेल / एटी एंड टी के लिए समान दृष्टिकोण। जस्ट नेट कोएलिशन ने ददिल्ली डिक्लेरेशन फॉर ए जस्ट एंड इक्विटेबल इंटरनेट में प्रस्तावित किया है कि ये प्लेटफॉर्म आज आवश्यक बुनियादी ढांचे हैं और इन्हें या तो सार्वजनिक सुविधाओं के रूप में विनियमित किया जाना चाहिए या सार्वजनिक मालिकाने के अधीन होना चाहिए।

प्रौद्योगिकी संभावनाएं पैदा करती है; यह हम ही हैं जो इन संभावनाओं को वास्तविक बनाते हैं, जिसमें सामाजिक और आर्थिक संरचनाएं शामिल हैं जिनके भीतर मीडिया संचालित होता है। इसमें से कुछ भी नहीं हो सकता था यदि जनसंचार की प्रौद्योगिकी नाटकीय रूप से नहीं बदलती, जिससे सर्च इंजन, सोशल मीडिया और प्लेटफॉर्म अर्थव्यवस्था को पैदा किया है।

 

हमने ऐसे बदलावों की कल्पना नहीं की थी। लेकिन एक बार ये परिवर्तन हो जाने के बाद, हमें यह देखने की जरूरत है कि कैसे उन्हें मानवता और अधिक मानवीय समाज के बड़े लक्ष्यों के अनुरूप ढाला जा सकता है। मुख्य मुद्दा यह है कि इस प्रौद्योगिकी और उन उपकरणों जो प्रिंट, ऑडियो या विज़ुअल रूप में समाचारों या विचारों के बड़े पैमाने पर उत्पादन के साधन हैं उसका मालिक कौन है.। पूंजी या इस देश की मेहनतकश जनता? यह आज हमारे सामने इतिहास की चुनौती है-सार्वजनिक क्षेत्र का सार्वजनिक मालिकाना।

 

नोट: यह निबंध 'कोलैप्सिंग द पब्लिक एंड प्राइवेट इन द एज ऑफ सोशल मीडिया, इन सोशल मीडिया इन ए नेटवर्क्ड वर्ल्ड', (संस्करण) प्रतीक कांजीलाल और ओमिता पर पहले के एक निबंध से लिया गया है। गोयल , आईआईसी त्रैमासिक, शीतकालीन-वसंत 2019-2020।

02 जनवरी 2023

(अनुवाद : सतेन्द्र सिद्धार्थ)

 

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