अनियतकालीन बुलेटिन

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लघु-पत्रिका ‘धरती’

“आज मुख्यधारा की पत्रिकाएँ और अखबार कारपोरेट जगत और साम्राज्यवादी ताकतों के प्रभाव में समाहित हो रही हैं। इस वजह से देश के चौथे स्तंभ के प्रति पाठकों में संशय उत्पन्न होता जा रहा है। ऐसी स्थिति में लघु-पत्रिकाओं की भूमिका महत्वपूर्ण हो जाती है। आप जितना बेहतर और वैज्ञानिक ढ़ंग से प्रिंट टैक्नोलॉजी के इतिहास से वाकिफ होंगे उतने ही बेहतर ढ़ंग से लघु-पत्रिका प्रकाशन को समझ सकते हैं। लघु-पत्रिका का सबसे बड़ा गुण है कि इसने संपादक और लेखक की अस्मिता को सुरक्षित रखा है।

लघु-पत्रिकाएँ पिछलग्गू विमर्श का मंच नहीं हैं। लघु-पत्रिका का चरित्र सत्ता के चरित्र से भिन्न होता है, ये पत्रिकाएँ मौलिक सृजन का मंच हैं। साम्प्रदायिकता का सवाल हो या धर्मनिरपेक्षता का प्रश्न हो या वैश्वीकरण (ग्लोबलाईजेशन) का प्रश्न हो मुख्य धारा की व्यावसायिक पत्रिकाएँ सत्ता विमर्श को ही परोसती रही हैं। सत्ता विमर्श और उसके पिछलग्गूपन से इतर लघु-पत्रिकाएँ अपनी सामाजिक प्रतिबद्धता, संघर्षशीलता और सकारात्मक सृजनशीलता की पक्षधर हैं। इन बातों के मद्देनज़र इतना स्पष्ट है कि लघु-पत्रिकाओं की आवश्यकता हमारे यहां आज भी है, कल भी थी, भविष्य में भी होगी।“ यह कहना है 'धरती' पत्रिका के संपादक, वरिष्ठ कवि-आलोचक शैलेन्द्र चौहान का।

‘धरती’ पत्रिका एक प्रतिबद्ध और स्तरीय लघु-पत्रिका है। आज चकाचौंध वाले इस विमर्शवादी युग में जब अन्य पत्रिकाएँ व्यवसायिकता और बाज़ार के प्रभाव में आती जा रही हैं ऐसे वक़्त में भी 'धरती' अपनी विशिष्ट पहचान बचाए हुए है। सादगी, सहजता और जनोन्मुखी स्तरीय सामग्री से समाहित यह पत्रिका अलग से ही पहचान में आ जाती है। यह एक गहरी उत्सुकता जगाती है अपने बारे में कुछ जानने-समझने के लिए।

1979 में ‘धरती’ पत्रिका का पहला अंक विदिशा जैसी छोटी जगह से प्रकशित हुआ। यह प्रवेशांक था और इसकी अपनी सीमाएँ थीं... अंक छोटा था सामग्री सीमित। लेकिन 'नई दुनिया' इंदौर के रविवारीय परिशष्ट में स्वर्गीय सोमदत्त ने इसकी चर्चा की। संपादक की दृष्टि और लगन से यह लग रहा था कि भविष्य में यह पत्रिका अपना मुकाम बना सकेगी। इसके एक वर्ष बाद कवि-गीतकार जगदीश श्रीवास्तव के संयुक्त संपादन में पत्रिका का हिंदी ग़ज़ल अंक प्रकाशित होता है। इस अंक में कुछ अधिक परिपक्वता दृष्टिगत होती है। अधिकांश महत्त्वपूर्ण गज़लकारों की गज़लें इसमें आती हैं और ग़ज़लों के ऊपर कुछ आलेख भी इसमें प्रकाशित होते हैं। हिंदी जगत में इसका स्वागत भी होता है और सराहना भी। कई हिंदी अख़बारों और पत्रिकाओं में इस अंक का जिक्र होता है। इस अंक का लोकार्पण विदिशा के म्युनिसिपल हाल में सुप्रसिद्ध चित्रकार भाऊ समर्थ के हाथों सम्पन्न होता है। इसके बाद 'धरती' का समकालीन कविता अंक नांदेड, महाराष्ट्र से प्रकाशित होता है। इस अंक से 'धरती' एक सुनियोजित और परिपक्व पत्रिका बन कर सामने आती है। इस अंक का देश के सभी भागों में बहुत गर्मजोशी से स्वागत होता है। इस अंक में कई महत्त्वपूर्ण कवियों कि कविताएं, अनुवाद और स्तरीय आलेख प्रकाशित होते हैं। हिंदी और मराठी पत्र-पत्रिकाओं में इसकी पर्याप्त चर्चा होती है। ‘धरती’ पत्रिका का सर्वाधिक चर्चित अंक सन 1983 में इलाहबाद से प्रकाशित होता है। यह कवि त्रिलोचन के कृतित्व पर केन्द्रित होता है। इस अंक में "स्थापना" के अंकों के बाद त्रिलोचन पर महत्त्वपूर्ण सामग्री प्रस्तुत की गई थी। हिंदी जगत की अधिकांश लघु-पत्रिकाओं यथा पहल, समवेत, धरातल, कदम से लेकर सारिका, दिनमान और साप्ताहिक हिंदुस्तान जैसी पत्रिकाओं में इस अंक की चर्चा होती है। त्रिलोचन अंक के पश्चात् 'धरती' हिंदी साहित्य की गिनी चुनी महत्त्वपूर्ण पत्रिकाओं में शामिल हो जाती है। तदुपरांत कानपुर से 'धरती' के तीन सामान्य अंक प्रकाशित होते हैं जिनसे ‘धरती’ की अपनी पहचान बनी रहती है।

कानपुर प्रवास के दौरान ही शैलेन्द्र चौहान जन कवि मन्नूलाल शर्मा (त्रिवेदी) 'शील' के घनिष्ठ संपर्क में आते हैं और उनपर ‘धरती’ का एक अंक निकालने का मन बना लेते हैं। यहां परेशानी यह होती है कि अधिकांश प्रगतिशील-जनवादी धारा के स्थापित रचनाकारों के पास शील जी की रचनाएँ उपलब्ध नहीं होती हैं या उन्होंने पढ़ी नहीं होती हैं। अतः उन पर लिख पाना संभव नहीं हो पाता। दो वर्षों के लगातार प्रयत्नों के बावजूद जब शील जी पर कोई रचनाकार लिखने को तैयार नहीं हुआ तो शैलेन्द्र, ‘धरती’ में सिर्फ और सिर्फ शील जी की रचनाएँ प्रकाशित करते हैं। उनकी चुनी हुई कवितायेँ, कुछ कहानियां और कुछ लेख। मंतव्य यही कि जिन लोगों ने शील जी को पढ़ा नहीं कुछ उनकी सहायता ही की जाये। कोटा में भारतेंदु समिति हाल में औपचारिक रूप से इसका लोकार्पण सम्पन्न होता है जिस आयोजन में बावजूद अस्वस्थता के स्वयं शील जी अपने भतीजे के साथ शामिल होते हैं। अंक का लोकार्पण कथाकार हेतु भरद्वाज द्वारा किया जाता है और एक बहुत ही अच्छा पत्र-आलेख सुप्रसिद्ध कवि ऋतुराज प्रस्तुत करते हैं। इस आयोजन में राजस्थान के सभी भागों से कवि-लेखक उपस्थित होते हैं, स्थानीय रचनाकार तो थे ही। इस आयोजन में शिवराम और महेंद्र नेह की भागीदारी अत्यंत महत्त्वपूर्ण होती है, शैलेन्द्र जी का कहना है कि उनके बिना यह कार्यक्रम संभव नहीं हो सकता था। यह सन 1991 की बात है।

इसके उपरांत कोई एक दशक तक ‘धरती’ का प्रकाशन स्थगित रहता है, शायद व्यक्तिगत-पारिवारिक उत्तरदायित्वों के चलते। सन 2000 में नागपुर से एकाएक स्मरण अंक प्रकाशित होता है जिसमे हिंदी के महत्त्वपूर्ण रचनाकारों-आलोचकों की स्थायी महत्व की रचनाएँ शामिल होती है। शैलेन्द्र जी की यह विशेषता है कि वह अपने कार्यों का बहुत प्रचार और विज्ञापन नहीं करते और चुपचाप अपना काम करते रहते हैं। इस अंक का जोरदार स्वागत होता है। नागपुर के हिंदी अंग्रेजी सभी अखबारों में इसका जिक्र होता है। तदुपरांत नागपुर से ही ‘धरती’ का समकालीन जन कविता अंक प्रकाशित होता है। इस अंक में अनेकों समकालीन रचनाकारों की कवितायेँ शामिल होती हैं। उदय प्रकाश की एक कविता ‘धरती’ से साभार लोकमत समाचार पत्र में प्रकाशित होती है और वह इतनी पसंद की जाती है की उदय प्रकाश को पहल सम्मान मिलने के लिए रास्ता प्रशस्त कर देती है। नागपुर के बाद इंदौर से 'धरती' का शलभ श्रीराम सिंह अंक सन 2005 में प्रकाशित होता है। इस अंक में शलभ जी का वस्तुपरक और सम्यक मूल्यांकन प्रस्तुत किया जाता है, महिमामंडन भर नहीं। शैलेन्द्र की सम्पादकीय दृष्टि और सूझ-बूझ यहाँ भली भांति परिलक्षित होती है। इस अंक पर 'कृत्या' नामक साहित्यिक वेब पत्रिका की टिपण्णी इस प्रकार है -"शलभ" श्री राम सिंह की कविताएँ ठेठ कस्बई अनुराग से प्लावित होने के कारण ऐसी भाषा में संवाद कर पाती हैं जो केवल अपने लोगों की हो सकती है। शलभ की कविता उस आग की तपन लिए है जो सीधे सीने से निकलती है। 'अभी हाल में ही अनियमित कालीन पत्रिका ‘धरती’ ने शलभ पर एक विशेषांक निकाला। कृत्या उसी में कुछ कविताओं का चयन कर एक प्रमुख लेख देना चाहेगी। इस के लिए हम ‘धरती’ पत्रिका के आभारी हैं।' 'लेखन' पत्रिका इलाहबाद) ने इस अंक पर विस्तार से चर्चा की। अब 2009  में जयपुर से ‘धरती’ का 'साम्राज्यवादी संस्कृति बनाम जनपदीय संस्कृति' विषय केन्द्रित अंक निकालता है। यह अंक बेहद सुगठित और स्तरीय सामग्री के साथ आता है। साहित्य और सामाजिक विज्ञान के गंभीर छात्रों के लिए एक सन्दर्भ ग्रन्थ की भांति उपयोगी है। ‘धरती’ का पन्द्रहवां अंक 2011 में कश्मीर की आतंरिक स्थिति और भारत की उलझन विषय को केन्द्रित कर प्रकाशित हुआ। इसमें कश्मीर की अंदरूनी स्थितियां एक परिचर्चा के माध्यम से प्रस्तुत की गई हैं, जिसमें कश्मीर का दर्द और वहां के हालत बखूबी बयान किये गए हैं। लोगों की जानकारी के लिए कश्मीर का संक्षिप्त इतिहास भी दिया गया है सम्पादकीय, वस्तुस्थिति का परिचायक है और हमारी संवेदना को झकझोरता है। अंक में कुछ अन्य सामग्री भी समाहित है। कला का वजूद, मराठी कविताओं का अनुवाद, कवितायें, आलेख और पुस्तक समीक्षा भी समाहित है। यह अंक भी ‘धरती’ की पूर्व प्रकृति की तरह ही यथेष्ट गंभीर, स्तरीय और संग्रहणीय है।

इसके बाद 2013 मेंधरती का अगला अंक भारतीय मीडिया की वास्तविक भूमिका और जनसरोकारों पर केन्द्रित होता है। यह अत्यंत महत्वपूर्ण अंक है। इसमें मीडिया विषयक कई सचाई दर्शाने वाले आलेख तो सम्मिलित हैं ही तीन अलग-अलग पीढ़ी के कवियों की अच्छी कविताएँ भी सम्मिलित हैं। शैलेन्द्र चौहान का सम्पादकीय अत्यंत गंभीर है और समाज, मीडिया, कॉर्पोरेट जगत तथा सत्ता के रिश्तों को बखूबी उजागर करता है। यह अंक मीडिया का सच जानने के लिए एक मील का पत्थर है। ‘धरती’ का संप्रति अंक किसान चेतना, कृषि कर्म की कठिनाइयां, विगत में भारत में हुए किसान आंदोलनों की परंपरा को रेखांकित करता है तो वहीं संपादकीय किसानों की आत्महत्याएँ जैसे संवेदनशील मुद्दे को बहुत शिद्दत से उठाता हैं। साथ ही हिंदी साहित्य में भी अग्रज कवि केदारनाथ अग्रवाल पर अजित पुष्कल जी का संस्मरण, नरेन्द्र मोहन जी का मंटो पर आलेख, सुपरिचित उपन्यासकार सोहन शर्मा के उपन्यास समरवंशी पर आत्माराम का विश्लेषण, कविता, उपन्यास अंश, कला यात्रा के अलावा कोरोना का शिक्षा पर प्रभाव, मजदूर यूनियनों की विफलता के अतिरिक्त भी बहुत कुछ है। यह बहुत समृद्‍ध और जरूरी अंक है। ऐसे बीहड़ समय इस तरह के दृष्टिसंपन्न सृजनात्मक प्रयास की महती आवश्यकता है जिसका ‘धरती’ ने बखूबी निर्वाह किया है।

'धरती' पत्रिका का हिंदी साहित्य में न केवल विशिष्ट योगदान है बल्कि विद्यार्थियों के लिए सदैव इसकी शोधपरक आवश्यकता रही है।

मानविकी संकाय,

राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी संस्थान,

वारंगल (तेलंगाना)

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