जैव-चिकित्सा अनुसंधान की मदद कैसे हो
अवर्गीकृत डॉ पी के राजगोपालनभारत में स्वास्थ्य विज्ञान में अनुसंधान वर्षों के जमीनी काम पर आधारित समस्या-समाधान की दिशा में नहीं किये जा रहे हैं, यही एक ऐसी मुख्य वजह है कि तमाम पुरानी और नयी बीमारियां लगातार हमें अपना शिकार बना रही हैं।
कभी भारत स्वास्थ्य अनुसंधान में अग्रणी था। भारत और ब्रिटिश के दिग्गजों ने आजादी से पहले और बाद में भी कुछ दिनों तक मिलकर प्लेग अनुसंधान (1900 के दशक का महान प्लेग आयोग) और मलेरिया अनुसंधान पर शानदार काम किया था। 1900 के दशक में भारतीय अनुसन्धान कोष संस्था की शुरुआत हुई, यह संस्था स्वास्थ्य अनुसंधान के लिए अनुदान देती थी। आजादी के बाद यही भारतीय स्वास्थ्य अनुसंधान परिषद (आईसीएमआर) बन गई, जिसके पहले डायरेक्टर डॉक्टर सी जी पंडित बने। हैदराबाद में देश की पहली स्वास्थ्य अनुसंधान संस्था नॅशनल इंस्टिट्यूट ऑफ़ नुट्रिशन की स्थापना हुई, दूसरी संस्था वायरस अनुसन्धान केंद्र (वीआरसी) 1952 में शुरू हुई। आजादी के बाद आईसीएमआर के डाइरेक्टर की पोस्ट को बढ़ाकर डायरेक्टर जनरल कर दिया गया, क्योंकि आजादी के बाद अब कई सारे संस्था शुरू हो गए थे।
दूरदर्शी डॉ सी जी पंडित के समय से अब तक आईसीएमआर ने लम्बी यात्रा तय कर ली है। उनके समय में उत्कृष्टता की जो परम्परा विकसित हुई थी वह सालों तक बाद कई डायरेक्टर जनरल की देखरेख में चलती रही। डॉ सी गोपालन, प्रोफेसर वी रामलिंगस्वामी और डॉ ए एस पैंटल (जो 1990 में रिटायर हुए) जैसे दिग्गज थे। इनके कार्यकाल को अनुसंधान की तरक्की और प्रसार के लिए सुनहरा काल कहा जा सकता है। ये सभी रॉयल सोसाइटी के सदस्य थे, अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त वैज्ञानिक थे जिन्होंने गुणवत्तापूर्ण अनुसन्धान पर ध्यान केंद्रित किया। कई संस्था मलेरिया, फाइलेरियासिस, काला जार और तमाम तरह की बीमारियों के समाधान की दिशा में अनुसंधान काम की अलग-अलग विशेषज्ञता लेकर आगे बढ़े। समय जैसे-जैसे बीता अनुसन्धान धीरे-धीर रूटीन के काम यानी नौकरी में बदल गया।
मौजूदा अनुसंधान
कोई पूछ सकता है कि आजकल भारत का बायोमेडिकल अनुसन्धान किस राह पर चल रहा है। यहाँ अलग-अलग क्षेत्रों में कई सारे संस्था हैं। जब मैं वेक्टर कण्ट्रोल रिसर्च सेंटर, पांडिचेरी में काम कर रहा था तब की एक मजेदार घटना बताता हूँ। 1989 की बात है, प्रधानमंत्री इंदिरागांधी ने यूनियन हेल्थ मिनिस्टर बी शंकरानंद से पूछा- आईसीएमआर क्या करती है। तब आईसीएमआर में एक मीटिंग आयोजित की गई और इंदिरा गांधी को न्योता दिया गया। आईसीएमआर के अलग-अलग संस्थाओं के डाइरेक्टर्स ने प्रेजेंटेशन देकर अपने कामों के बारे में बताया।
इंदिरा गांधी ने ध्यानपूर्वक सुना, नोट्स बनाये। तब उन्होंने वैज्ञानिकों को प्रेजेंटेशन के लिए आभार व्यक्त किया और आयोजनकर्ताओं को धन्यवाद बोला। अंत में उन्होंने कहा कि उनकी समझ में नहीं आता कि राजस्थान में रतौंधी रोग इतना ज्यादा क्यों फैला हुआ है, बहुत सारी औरतें गले के कैंसर से क्यों पीड़ित हैं? मलेरिया जैसी बीमारियों से बहुत सारे लोग क्यों मर जाते हैं? वह जानना चाहती हैं कि आईसीएमआर ने उनके लिए क्या किया?
कई लोगों के लिए यह रहस्य से पर्दा हटाने जैसी बात होगी कि आईसीएमआर में होने वाले अनुसंधानों का आम आदमी को कोई फ़ायदा नहीं मिला। आजादी के बाद के कई वर्षों तक, और यहां तक कि कुछ वर्षों पहले, रॉकफेलर फाउंडेशन (आरएफ) और फोर्ड फाउंडेशन जैसे परोपकारी विदेशी संगठन भारत में काम कर रहे थे, पहले स्वास्थ्य क्षेत्र में और बाद में कृषि क्षेत्र में। वीआरसी को रॉकफेलर फाउंडेशन द्वारा आईसीएमआर के सहयोग से शुरू किया गया था और वह आर्थ्रोपोड-संचारित वायरल रोगों पर अपने काम के लिए विश्व प्रसिद्ध हो गया।
वीआरसी द्वारा भारत में 1949 में पहली बार एक मिनी सीरोलॉजिकल सर्वेक्षण किया गया। उस समय इस सर्वेक्षण में पाया गया कि मानव सीरा में ज़ीका सहित कई वायरल रोगों के लिए एंटीबॉडी उपस्थिति थी। जापानी इंसेफेलाइटिस (जेई), और कयासूर वन रोग (केएफडी) पर वीआरसी का काम पारिस्थितिकी और महामारी विज्ञान के क्षेत्र में उत्कृष्ट था। रॉकफेलर फाउंडेशन ने 1970 में अपने कामों को समेट लिया। आईसीएमआर काम के माहौल को बनाए नहीं रख सका और एक बड़ा सरकारी संगठन बन गया।
महत्वपूर्ण सवाल यह है कि क्या हमने मलेरिया, डेंगू, चिकनगुनिया, जापानी इंसेफेलाइटिस, और केएफडी जैसे रोगों के नियंत्रण में कोई प्रगति हासिल की है। हम अभी भी साल दर साल घटनाओं का (और महामारी) का सामना कर रहे हैं। कुछ उपेक्षित उष्णकटिबंधीय रोग (एनटीडी) भी हैं जैसे स्क्रब टाइफस जिसे पूरी तरह से नजरअंदाज कर दिया गया था। कई अनुसंधान संस्थाओं को विचित्र कारणों से भारत के विभिन्न हिस्सों में शुरू किया गया था, उदाहरण के लिए कुछ राजनीतिज्ञ अपने निर्वाचन क्षेत्र में एक संस्था चाहते थे या कुछ वैज्ञानिकों को निदेशक के पद के साथ पुरस्कृत किया जाना था।
वीसीआरसी और मलेरिया अनुसंधान केंद्र (एमआरसी) से निकले हुए अनुभवी और योग्य वैज्ञानिक कर्मियों को स्थानांतरित करने के लिए संस्थाओं का निर्माण किया गया था, और कभी-कभी उन वैज्ञानिकों को भी कोई जगह देने के लिए जिन्हें सरकार नहीं जानती थी कि इनके साथ क्या किया जाय (उदाहरण के लिए, मेडिकल एंटोमोलॉजी अनुसंधान केंद्र, सीआरएमई)। तब क्षेत्रीय आकांक्षाओं को संतुष्ट भी करना होता था, इसलिए क्षेत्रीय चिकित्सा अनुसंधान केंद्र स्थापित किया गया। कुछ संस्थाओं में, स्पष्ट रूप से काम की दुहराव वाली प्रवृत्ति भी है। समस्या-समाधान सम्बन्धी रिसर्च करने वाला कोई नहीं है।
इंदिरा गांधी ने कई दशक पहले जो सवाल उठाए थे, वे अब भी प्रासंगिक लगते हैं। तमाम स्वास्थ्य समस्याएं हमें घेरे रहती हैं, उनमें से कुछ विज्ञान के लिए नई हैं जैसे कि कोविड-19, और इनका हम अभी युद्ध स्तर पर सामना करने में सक्षम नहीं हैं। मेरे विचार में, भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आईसीएआर) ने अपनी हरित क्रांति (प्रो एम एस स्वामीनाथन के लिए धन्यवाद) और श्वेत क्रांति (प्रो वर्गीज कुरियन के लिए धन्यवाद) के जरिये राष्ट्र को अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया। बेशक, स्वास्थ्य के क्षेत्र में प्रगति दिखाई नहीं देती और जर्नल्स, में, पत्र-पत्रिकाओं में पेपर छप जाना कोई समाधान नहीं है।
सार्वजनिक स्वास्थ्य समस्याएं
अब भी, पूरे भारत में लोग मलेरिया, फाइलेरिया, काला ज़ार और केएफडी से पीड़ित हैं या मरते रहते हैं। मैंने जर्नल ऑफ कम्युनिकेबल डिजीजेज और फ्रंटलाइन जैसी पत्रिकाओं में बायोमेडिकल रिसर्च के बारे में हमारी दृष्टिकोण से जुड़ी कमियों को उजागर करने के लिए कई लेख लिखे हैं। लेकिन लगता है कि किसी ने भी इन पर कोई संज्ञान नहीं लिया।
1930 के दशक में, हिटलर के जर्मनी और स्तालिन के रूस ने क्षेत्र विशेष के अनुसन्धान में जोर दिया, विज्ञान को इससे नुकसान पहुँचा, कई वैज्ञानिक दूसरे देशों में चले गए। हमारी वर्तमान में भी स्थिति ऐसी ही है। बायोमेडिकल रिसर्च में प्राथमिकता वाले क्षेत्रों को अब केवल तभी धन मिलता है, जब आणविक जीव विज्ञान और जलवायु परिवर्तन जैसे आकर्षक वाक्यांश शामिल हों। विदेशी सहयोग अब इतनी हास्यास्पद हद तक पहुंच गया है कि हम विदेशी सहयोगियों के अनुसंधान के लिए कच्चे माल के आपूर्तिकर्ता बन गए हैं (उदाहरण के लिए मलेरिया / फाइलेरिया परजीवी से संक्रमित मानव रक्त के नमूने भेजते हैं) बदले में डॉलर अनुदान और विदेशी यात्राएं मिलती हैं। इस तरह के विदेशी सहयोग ने सार्थक स्वदेशी अनुसंधान को दबा दिया है, और वैज्ञानिक कार्यकर्ता, विशेष रूप से जो विदेशों में उच्च प्रशिक्षण के बाद भारत लौटते हैं, वातानुकूलित प्रयोगशालाएं और महंगे आयातित उपकरण चाहते हैं, और वे ऐसे कागजात भी प्रकाशित करना चाहते हैं, जिन्हें छापना स्वास्थ्य समस्याओं से कोई प्रासंगिकता नहीं रखता।
जहां तक सार्वजनिक स्वास्थ्य का सवाल है, समस्याएं लोगों के बीच हैं और लोगों में काम करने पर जोर दिया जाना चाहिए। दुर्भाग्य से, यह हमारी राजनीति में एक बुनियादी समस्या है, जैसा कि दुनिया के कई हिस्सों में है, विज्ञान और अनुसंधान अब समस्या-समाधान के लिए निर्देशित नहीं हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्लूएचओ) के एक महानिदेशक डॉ हॉफडन टी महलर के अनुसार, बायोमेडिकल अनुसंधान दर्द निवारक की ओर उन्मुख है, जो उन लोगों की तरफ आकर्षित है जो शोध के लिए रुपया देते हैं न कि इलाज खोजने की ओर। उन्होंने महसूस किया कि जो "बाजार को लेकर कट्टर और मुक्त व्यापार के धर्मशास्त्री थे" उनको स्वदेशी योजना और काम करना पसंद नहीं आया।
सरकार रुपया देने को लेकर उदार है। संस्था के पास विशाल इमारतें, महंगे उपकरण हैं और पैसे को पानी की तरह बहाया गया है। इनमें से अधिकांश ने देश की तत्काल स्वास्थ्य आवश्यकताओं में लगभग कोई योगदान नहीं दिया है; बस कुछ दूसरे संस्थाओं के काम की नकल कर रहे हैं। लेकिन वे सब जर्नल्स में कई-कई पत्र प्रकाशित करते हैं। 1975 में, आईसीएमआर के डॉ गोपालन ने प्रत्येक संस्था के लिए वैज्ञानिक सलाहकार समितियों (एसएसी) की शुरुआत की। इसका मतलब संस्था के कार्य-प्रदर्शन का ऑडिट होना था। डीजी की अध्यक्षता में प्रत्येक एसएसी संस्था की सलाहकार समितियों के पास आईसीएमआर के बाहर के कई वैज्ञानिक थे, जो उन विषयों के विशेषज्ञ थे, जिन विषयों में संस्थायें काम कर रही थीं। वास्तव में इनमें बौद्धिक चर्चायें होती थी, और सकारात्मक निर्देश दिए जाते थे। इस पद्धति को उनके उत्तराधिकारी, प्रो वी रामलिंगस्वामी और प्रो ए.एस. पेंटाल, ने मजबूत निर्णय लेकर और सुधारा।
आजकल, किसी भी संस्था के सलाहकार समिति में डीजी शामिल नहीं होते हैं। आईसीएमआर के बाहर के वैज्ञानिक जो सेवानिवृत्त हो चुके हैं, उन्हें अध्यक्ष के रूप में नियुक्त किया जाता है। हालांकि निश्चित रूप से सलाहकार समितियों के अध्यक्ष के रूप में बाहरी लोगों की भूमिका को कम करना मेरा उद्देश्य नहीं है, पर उनमें से कई अपने पद के योग्य नहीं हैं। आईसीएमआर अपने स्वयं के प्रतिनिधि भेजता है और वे आईसीएमआर की नीतियों, पंचवर्षीय योजनाओं इत्यादि के बारे में यंत्रवत बोलते हैं। यदि आप उनसे कुछ और पूछते हैं, तो वे कहते हैं कि इस सिलसिले में उनके पास कोई सूचना और निर्देश नहीं है।
एक प्रसिद्ध वैज्ञानिक, जो आज ज़िंदा नहीं हैं, कहते थे कि ज्यादातर संस्थाओं में काम नियमित और दोहराव वाला होता था, जैसे मरे हुए घोड़े को भगाना, समस्या का कोई हल कभी हाथ नहीं आता। इन संस्थाओं से अधिकांश प्रकाशित सामग्री पहले से प्रकाशित पेपरों की समीक्षा मात्र होती हैं। प्रत्येक संस्था से नियमित रूप से सिफारिशें की जाती हैं, आईसीएमआर में एक सलाहकार समिति द्वारा इस पर चर्चा की जाती है, और फिर स्वास्थ्य मंत्रालय और अंततः सरकार को भेजा जाता है, जहां ये रिकॉर्ड में दर्ज कर लिए जाते हैं। क्या किया गया है और क्या वे देश की स्वास्थ्य आवश्यकताओं के लिए उपयोगी हैं, इसका कोई मूल्यांकन नहीं किया जाता है। क्या यह जैव चिकित्सा अनुसंधान में प्रगति का संकेत देता है? ऐसा नहीं है कि विशेष संस्थाओं के साथ कोई समस्या नहीं है। उनके सामने कई अड़चनें हैं। किसी संस्था के बजट का 90 प्रतिशत से अधिक हिस्सा वेतन में चला जाता है। वरिष्ठ पदों पर रिक्तियां कभी नहीं भरी जाती हैं। और हमेशा सेवानिवृत्त वैज्ञानिकों को सलाहकार के रूप में नियुक्त कर लिया जाता है। एक संस्था का निदेशक प्रशासनिक और वैज्ञानिक दोनों तरह की समस्याओं का सामना करता है। यदि जापानी इन्सेफेलाइट्स और अब कोविड-19 जैसी महामारी से बहुत से लोग मर जाते हैं, इसका मतलब हुआ कि ये संस्था संकटों का सामना करने के लिए तैयार नहीं हैं।
अनुसंधान का सामाजिक मूल्य
प्रो ए. एस. पेंटाल, जो 1990 में आईसीएमआर के डायरेक्टर जनरल के पद से सेवानिवृत्त हुए। वे वैज्ञानिक कार्यकर्ताओं के बीच प्रयोजन के अभिप्राय का परिचय देना चाहते थे। वे प्रकाशित पेपरों की संख्या और उनके उद्धरणों के आधार पर किसी वैज्ञानिक के कार्य-प्रदर्शन का आकलन करने को लेकर काफी आलोचनात्मक थे। उन्होंने कहा, " बहुत जगहों पर एक सामान्य नियम के रूप में अब इसे नहीं माना जाता ... यह ज्यादा जरूरी क्षेत्रों (जैसे कुष्ठ रोग, जिसका पश्चिम के लिए कोई मूल्य नहीं) में कामों को कम महत्व देता है। इसलिए, यह ठीक है कि ऐसे वैज्ञानिकों का मूल्यांकन अन्य मानदंडों के आधार पर किया जाता है जैसे कि उनके काम की उपयोगिता भारतीय एस एंड टी (विज्ञान और प्रौद्योगिकी) और सामाजिक मूल्य के लिए कितनी है। वास्तव में, इन मानदंडों के एक विवेकपूर्ण मिश्रण के आधार पर यह उचित निर्णय लेना संभव है कि सबसे अच्छा ‘टमाटर’ सर्वश्रेष्ठ ‘आलू’ से बेहतर होता है… यहां तक कि एक ही संस्था के भीतर भी। इस तरह के दृष्टिकोण यह सुनिश्चित करते हैं कि कुछ लोग जिन्होंने अपने समय का एक बड़ा हिस्सा वैज्ञानिक संस्थाओं के विकास और रखरखाव के पहलुओं के लिए समर्पित किया है, उन्हें मूल्यांकन प्रक्रिया में नहीं छोड़ा गया है।”यहां तक कि उन्होंने वैज्ञानिक मूल्यों के लिए ही सोसाइटी शुरू की। हालाँकि, भारतीय संस्थाओं में आमूल-चूल सुधारों के लिए आईसीएमआर के डी.जी. और अध्यक्ष के रूप में भारतीय राष्ट्रीय विज्ञान अकादमी (आईएनएसए) के प्रयासों को नकारात्मक प्रतिक्रिया मिली।
जमीनी काम महत्वपूर्ण है
शुक्र है कि मलेरिया जैसी बीमारियों के लिए, जो अभी भी भारत के बड़े इलाकों में प्रचलित हैं, राष्ट्रीय वेक्टर बॉर्न डिजीज कंट्रोल प्रोग्राम (एनवीबीडीसीपी) को दोष दिया गया है, हालांकि नियंत्रण रणनीति का कार्यान्वयन राज्य सरकारों के पास है। जापानी एन्सेफलाइटिस एक ऐसा वायरस रोग है जो समय-समय पर हर साल मानसून के मौसम के बाद महामारी के रूप में होता है। हमारे पास आबादी घनत्व की नियमित निगरानी के लिए बुनियादी ढांचा भी नहीं है क्योंकि मनुष्यों में यह बीमारी मच्छरों की विशाल आबादी के फैलाव का परिणाम है। उन्होंने जापानी एन्सेफलाइटिस और केएफडी (एक अन्य वायरस रोग) के लिए टीके का उत्पादन किया है, लेकिन कार्यान्वयन में कमी के कारण उनकी उपयोगिता सीमित है, और वे बहु-खुराक (मल्टीडोज) टीके हैं।
पर्याप्त कीट-विज्ञानशास्त्री जमीनी काम के लिए उपलब्ध नहीं हैं। जो थोड़े बहुत हैं वे जमीनी काम में नहीं बल्कि कीट-विज्ञान के आणविक पहलुओं पर प्रयोगशालाओं में काम करने के इच्छुक हैं। यह पहलू रोगों के नियंत्रण में राष्ट्रीय कार्यक्रम के लिए चिंताजनक है। यहां तक कि महामारीविद अपनी आरामकुर्सी के लिए ज्यादा चिंतित रहते है और कंप्यूटर के माध्यम से समस्या को हल करना चाहते हैं। यह प्रमुख अंतर था, जब रॉक फेलर यहां काम कर रहा था, जहां उसके शीर्ष वैज्ञानिक, सभी विदेशी, हर समय जमीनी काम में लगे रहते थे और जमीनी काम में अपने भारतीय समकक्षों के साथ खतरा उठाते थे। उस समय जापानी इंसेफेलाइटिस और केएफडी जैसी बीमारियों की समझ में प्रमुख प्रगति हुई। मैं उनके साथ जुड़ा हुआ था, 13 वर्षों तक जंगल के वातावरण में रहा और काम किया!
रॉकफेलर के जाने के बाद, हमारी सरकार को अधूरे कामों को जारी रखना चाहिए था, जैसे कि केएफडी के प्राकृतिक चक्र में चमगादड़ों की भागीदारी। अब, चमगादड़ (बैट) को कोविड-19 में महत्वपूर्ण दिखाया गया है। हमने बहुत समय खो दिया है। केएफडी में, तीन महत्वपूर्ण चक्र हैं: चमगादड़-चमगादड़ चक्र; छोटे स्तनपायी-छोटे स्तनपायी चक्र; और बंदर-मनुष्य चक्र। जब भी मानव बीमारी के साथ बंदर की मौत का एक प्रकरण बताया जाता है, जैसा कि पश्चिमी घाटों में अक्सर कई इलाकों में होता है, संस्था एक टीम को मौके पर भेजती है, जो नियमित अध्ययन करती है, लेकिन वह भी केवल तीसरे पहलू पर ही ध्यान केंद्रित करती है, यानी बंदर-मनुष्य चक्र, पहले दो पहलू, जो सबसे महत्वपूर्ण हैं, पूरी तरह से नजरअंदाज कर दिए जाते हैं क्योंकि इसमें गहन जमीनी काम शामिल है। वे वायरस के स्रोत में रुचि नहीं रखते हैं कि यह मूल संग्राहक चमगादड़ से छोटे स्तनधारियों और वहां से इंसानी आबादी तक कैसे फैलता है। वे जल्दबाजी में एक रिपोर्ट प्रकाशित करते हैं और संतुष्ट हो जाते हैं। यह एक त्रासदी है कि किसी भी क्षेत्र में बीमारी या वायरस की पूरी जांच नहीं की जाती है।
कोरोना वायरस महामारी
अब हमारे आसपास कोरोना वायरस, एक महामारी है जो दुनिया भर में हजारों लोगों की जिंदगी ले चुका है। आखिरकार जिम्मेदारी किसकी है? एक वायरस (केएफडी) के प्राकृतिक चक्र में चमगादड़ों की भागीदारी 1969 के प्रारंभ में मेरे द्वारा प्रकाशित की गई थी। इस बात का कोई सबूत नहीं है कि चमगादड़ों की संग्राहकता की स्थिति पर कोई गंभीर शोध कार्य किया गया है, खासकर जब खतरनाक वायरस जैसे इबोला, केएफडी , और यहां तक कि कोविड-19 को चमगादड़ों के साथ जोड़ा गया है। टाइम्स ऑफ इंडिया में 23 जुलाई, 2019 को एक भयावह हेडलाइन थी, "इबोला, अन्य वायरल बीमारियों के लिए भारत को तैयार हो जाना चाहिए"। इसने इंडियन जर्नल ऑफ मेडिकल रिसर्च में एक लेख के हवाले से लिखा है-- "चमगादड़ इस वायरस के प्राकृतिक संग्राहक माने जाते हैं ..." भारत चमगादड़ की प्रजातियों की एक विशाल विविधता का घर है ... ” लेकिन इबोला अभी तक भारत नहीं आया है, हालांकि इसके आने की पूरी संभावना है, लेकिन चमगादड़ में रुचि कम हो गई है।
शेडोंग प्रांत के विश्वविद्यालयों में उभरते संक्रामक रोगों के इटियोलॉजी और महामारी विज्ञान के प्रमुख प्रयोगशाला के एक प्रोफेसर वेइफ़ेंग शी ने कहा कि "कोविड 2019 एक बहुत ही कम अवधि के भीतर किसी स्रोत से उत्पन्न हुआ था और अपेक्षाकृत जल्दी से खोज भी लिया गया "। वायरस की उत्पत्ति के बारे में अधिक जानने के लिए, शोधकर्ताओं ने सार्स-कोवी-2 आनुवंशिक अनुक्रम की तुलना वायरल अनुक्रमों के एक पुस्तकालय में की और पाया कि सबसे निकट संबंधी वायरस दो कोरोना वायरस थे जो चमगादड़ों में उत्पन्न हुए थे, एक घोड़े के नाल जैसी चमगादड़ और दूसरी राइनोफस साइनिकस। कोई यह समझ सकता है कि स्वास्थ्य अधिकारी पूरी तरह से महामारी का मुकाबला करने में लगे हुए हैं। लेकिन एक शोध दृष्टि से, कहीं कुछ भी गंभीर नहीं लगता।
कोरोनो वायरस के प्राणीजन्य पहलू
बीबीसी के पर्यावरण संवाददाता ने 29 जुलाई को ग्लासगो विश्वविद्यालय के प्रोफेसर डेविड रॉबर्टसन के काम पर रिपोर्ट दी, जिन्होंने कहा है कि कोरोना वायरस कई दशकों से चमगादड़ों के बीच घूम रहा है। यह वास्तव में चौंकाने वाला है कि कोरोना वायरस के प्राणीजन्य पहलुओं पर किए जा रहे किसी भी काम का कोई सबूत नहीं है, खासकर तब जब इबोला जैसे वायरस को चमगादड़ से जुड़े होने के लिए स्वीकार किया गया है। चीन और दुनिया भर में नए कोरोना वायरस के प्रसार के साथ, वैज्ञानिक इसकी उत्पत्ति का पता लगाने का प्रयास कर रहे हैं। हालांकि, एक हालिया अध्ययन से पता चलता है कि विभिन्न प्रजातियों के चमगादड़ में से राइनोफस साइनिकस सबसे संभावित मेजबान हो सकते हैं। चूंकि 2003 में चमगादड़ों को सार्स के वाहक के रूप में दिखाया गया था, इसलिए न केवल कई गंभीर तीव्र श्वसन सिंड्रोम-संबंधी कोरोना वायरस (सार्स-कोवी) को चमगादड़ से अलग किया गया है, इन स्तनधारियों को मर्स, इबोला वायरस, मारबर्ग वायरस, हेंड्रा वायरस और निप्पा वायरस जैसे 100 से अधिक अन्य विषाणुओं के प्राकृतिक संग्राहक के रूप में मान्यता दी गई है।
चमगादड़ क्यों और कैसे इतने सारे वायरस ले जाने और फैलाने में सक्षम हैं? वुदान यान ने बताया कि (1) चमगादड़ की झुण्ड में रहने वाली जीवन शैली वायरस के फैलाव के लिए एक आदर्श स्थिति है; (2) चमगादड़ की प्रजातियों में जबरदस्त विविधता, जो सभी स्तनधारियों का लगभग 20 प्रतिशत है; (3) चमगादड़ दूर-दूर तक उड़ते हैं, वायरस को अधिकांश स्तनधारियों की तुलना में अधिक क्षेत्रों में ले जाते हैं; और (4) ऊंची उड़ान द्वारा निर्मित प्रतिरक्षा और शरीर का तापमान। शी झेंगली ने पहले ही चमगादड़ को कोविड-19 के संभावित संग्राहक के रूप में बताया था। उन्होंने वायरस को घोड़े की नाल जैसी चमगादड़ और राइनोफस साइनिकस (राजगोपालन, 2020) से अलग कर दिया है। कोरोनो वायरस के प्राणीजन्य पहलुओं पर किसी भी गंभीर दीर्घकालिक अध्ययन करने के लिए किसी भी शोध संगठन द्वारा कोई रुचि या प्रयास दिखाई नहीं देता है।
यह उचित समय है कि देश के प्रमुख बायोमेडिकल रिसर्च संगठन, आईसीएमआर, कोविड-19 सहित अन्य बीमारियों के व्यापक प्राणीजन्य पहलुओं पर विस्तृत और दीर्घकालिक अध्ययन शुरू करें। यह नीतियों और कामों के सफल विकास के लिए आवश्यक है जो लक्षित निगरानी और रणनीतिक रोकथाम के लिए भविष्य के प्राणीजन्य उदभव की संभावना को कम करते हैं, और सबसे ऊपर, चिकित्सा समुदाय के बाहर के कर्मियों को भी शामिल करके जिसमें पारिस्थितिकीविद्, वन्यजीव जीवविज्ञानी, पशु चिकित्सक और यहां तक कि प्रबंधन और सामाजिक वैज्ञानिकों को आपस में जोड़ा जा सकता है।
2 अगस्त को लिखे एक लेख में, द हिंदू नेचर माइक्रोबायोलॉजी से एक उद्धरण देता है-- "नॉवेल कोरोनवायरस (सार्स-कोवी-2) जो अब तक 170 लाख से ज्यादा को संक्रमित कर चुका है, और दुनिया भर में लगभग 7 लाख लोगों को मार चुका है, दशकों से चमगादड़ों में एकतरफा घूम रहा है। नॉवेल कोरोन वायरस के लिए चमगादड़ प्राथमिक संग्राहक रहे हैं। बैंगलोर स्थित नेशनल सेंटर फॉर बायोलॉजिकल साइंसेज के निदेशक प्रो सत्यजीत मेयर कहते हैं-- चमगादड़ों की कई प्रजातियां कई वायरस को अपने ऊपर टिकाये रखती हैं जो नए मेजबानों को पास की जा सकती हैं। जब हम उनके आवासों को नष्ट करते हैं, तो हम इस तरह के खतरों का सामना करेंगे। चमगादड़ों का अध्ययन करने वाले नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ वायरोलॉजी में विशेषज्ञ क्यों नहीं हैं?
दुर्भाग्य से, वर्षों से, भारत में विज्ञान प्रशासन की हालत अजीबो-गरीब हो गयी है। अब भी, हम विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) जैसे अंतर्राष्ट्रीय संगठनों की नकल करते हैं। वे अमूर्त निकाय हैं-- उनके वैज्ञानिकों को किस देश का कितना कोटा है इसके अनुसार नियुक्त किया जाता है। वे समितियों में मतदान करके सर्वसम्मति से काम करते हैं। समझौता कराया जाता है। डब्ल्यूएचओ की तरह, हम विभिन्न रिपोर्ट भी तैयार करते हैं। बुनियादी कच्चे डेटा को गांव और ब्लॉक स्तर पर एकत्र किया जाता है (परिणाम अक्सर फर्जी होते हैं), और ये जिले, राज्य और राष्ट्रीय स्तर पर पदानुक्रम में अलग-अलग स्तरों से गुजरते हैं जहां इसका निरीक्षण किया जाता है और अंत में डब्ल्यूएचओ को भेजा जाता है। जहां ये शुद्ध किये जाते हैं। यह एक अफ़सोस की बात है कि विकासशील देशों में नियंत्रण उपायों की योजना के लिए, इस तरह के डेटा ही आधार होते हैं।
कई बहुराष्ट्रीय दवा निर्माताओं को डब्ल्यूएचओ के अच्छे कार्यालयों के माध्यम से विकासशील देशों में अपने उत्पादों का परीक्षण करना आसान लगता है। नेचर पत्रिका ने एक बार लिखा था कि डब्ल्यूएचओ बहुराष्ट्रीय कंपनियों का सेल्स मैनेजर था। इसके अलावा उन्हें विकासशील देशों में प्रायोजित करने का काम भी करता है जैसे-- टीका परीक्षण, नए कीटनाशकों का परीक्षण, नई तकनीकों का अनुप्रयोग आदि। कल्पना कीजिए, एक संस्था ने किसी ख़ास अनुसन्धान के लिए एक बहुराष्ट्रीय कंपनी द्वारा निर्मित फाइलेरिया-विरोधी दवा का लम्बे समय तक अस्पताल आधारित परीक्षणों को अंजाम दिया, जिसकी हाल ही में पैरसिटोलॉजी टुडे (एक ब्रिटिश वैज्ञानिक पत्रिका) ने न सिर्फ निंदा की बल्कि बताया की यह यह खतरनाक भी है। अब केवल स्पॉन्सर (प्रायोजित) आधारित शोध होते हैं!
डब्ल्यूएचओ कीटनाशक मूल्यांकन योजना (डब्ल्यूएचओपीइएस) से अनुदान के तहत विदेशों की कई कीटनाशक कंपनियां भारत में अपने उत्पाद का परीक्षण करवाती हैं। प्रभावी रूप से और अच्छी तरह से परीक्षण किए गए देशी तरीके से उत्पादित जैव-कीटनाशकों को चलन में लाने तक का काम बहुत कठिन होता है। वे हर स्तर पर असंख्य बाधाओं का सामना करते हैं और शीर्ष स्तर पर किसी भी बाधा को दूर करने की कोशिश नहीं कि जाती है। आईसीएमआर का मुख्यालय एक बड़े प्रशासनिक कार्यालय की तरह दिखता है।
भारत की प्रकाशन वृद्धि दर
अब मैं "स्टेटस ऑफ इंडिया इन साइंस एंड टेक्नोलॉजी" के एक पेपर का संदर्भ देता हूं, यह भारत को स्कोपस इंटरनेशनल डाटाबेस 1996-2006 में आये परिणाम के आधार पर देखता है। यह पेपर राष्ट्रीय विज्ञान, प्रौद्योगिकी और विकासात्मक अध्ययन संस्थान के बी.एम. गुप्ता और एस.एम. धवन द्वारा लिखा गया है। इसकी सामग्री कई खुलासा करती है। केवल प्रकाशनों को ध्यान में रखा जाए, तो चीन की 21 प्रतिशत की तुलना में हमारी वार्षिक औसत विकास दर 7 प्रतिशत थी। भौतिक विज्ञान, जीवन विज्ञान और इंजीनियरिंग विज्ञान में भारत के राष्ट्रीय प्रकाशनों की हिस्सेदारी प्रत्येक विषय में वैश्विक औसत के बराबर रही है। लेकिन स्वास्थ्य विज्ञान में, इसका हिस्सा वैश्विक औसत से बहुत कम था।
प्रस्तुत आंकड़ों के एक विस्तृत अध्ययन से पता चला है कि भारत में विज्ञान और प्रौद्योगिकी में उच्च उत्पादकता वाले 35 संस्थायें थीं और अफसोस की बात है कि आईसीएमआर उनमें शामिल नहीं है। काम करने लायक भारतीय वैज्ञानिकों की एक सूची में आईसीएमआर से कोई शामिल नहीं था। लेखकों ने भारत के 50 पेपरों का उल्लेख किया, जो आईसीएमआर के अपने समकक्षों की तुलना में ज्यादा प्रशंसा के पात्र बने। इनमें से 28 पेपरों में भारतीय संस्थाओं के प्रमुख लेखक हैं जबकि शेष 22 पेपरों में एक प्रमुख लेखक विदेशी संस्था के थे। इन 50 बेहतरीन पेपरों में से 25 में भारतीय संस्थाओं की भागीदारी थी (आईसीएमआर शामिल नहीं) । यह उन लोगों के लिए बहुत दुखद है जिनकी आईसीएमआर में दिल से रुचि है और जिन्होंने आईसीएमआर के साथ जीवन भर काम किया है।
लेकिन अब हम कहां हैं? अब रुझान परियोजना और पेपर छापने के लिए अनुसंधान और प्रतियोगिता की ओर है, न कि समस्या को ध्यान में रखकर अनुसंधान की ओर। कठोर मेहनत के काम की जगह कृत्रिम, व्यावसायिक रूप से उपलब्ध और आसानी से संचालित होने वाली टेस्ट किट के साथ, कंप्यूटर से लैस वातानुकूलित प्रयोगशालाओं में आरामदायक शोध का रास्ता अख्तियार कर लिया गया है। अब जोर पेपर छपने की संख्या पर है, परियोजना से अनुदान राशि लेने पर है और अपने नीचे ज्यादा से ज्यादा पीएचडी की संख्या बढ़ाने पर है। अब सबकी सीमा तय है। हमारी समस्याओं को हल करने के लिए और अधिक साहस या जिज्ञासा के कोई मायने नहीं हैं। क्या हमने अब तक कोई स्वास्थ्य समस्या हल की है? अब कोई लम्बे खिंचने वाले शोध नहीं है। जमीनी काम तो बचा ही नहीं है। तमाम नियम क़ानूनों द्वारा वैज्ञानिकों पर बहुत सारे प्रतिबंध हैं। इकोलॉजी, एपिडेमियोलॉजी, एंटोमोलॉजी और ज़ूनोस जैसे विषयों पर कोई काम कैसे किया जा सकता है? हमारा देश कभी भी जैव चिकित्सा अनुसंधान के क्षेत्र में कैसे प्रगति कर सकता है?
हर जगह लाल-फीताशाही है। उदाहरण के लिए डॉ शिवा अय्यादुरई, जो एक भारतीय-अमेरिकी वैज्ञानिक थे, हमारे प्रधानमंत्री द्वारा भारत वापस आने के लिए किए गए आह्वान पर वे भारत लौटे। उन्हें उच्च प्रशासक अधिकारियों ने कुछ भी ढंग का करने न दिया। यह नेचर और कई विदेशी प्रकाशनों में खूब छापा गया था। भारतीय नौकरशाही के खिलाफ अपना सिर पीटने के बाद वह वापस संयुक्त राज्य अमेरिका चले गए। हिटलर के जर्मनी से कई वैज्ञानिकों ने गुणवत्तापूर्ण अनुसंधान करने की स्वतंत्रता के लिए जर्मनी छोड़ दी थी। यही भारत में हो रहा है।
चीन अब वैज्ञानिकों को लालच दे रहा है, उन्हें पद और महत्व दे रहा है। चीन अब स्टेम सेल अनुसंधान जैसे क्षेत्रों में नेतृत्वकारी भूमिका में है। ऐसा ही एक वैज्ञानिक जो चीन लौट आया और पीकिंग विश्वविद्यालय का डीन बन गया, उसने चीन की "आत्मा की खोज" को अमेरिका की "आत्म संतुष्टि" के साथ जोड़ा। क्या भारत को भी "आत्मा की खोज" नहीं करनी चाहिए? यह तर्क कि चीन अधिनायकवादी है जबकि हम अपने लोकतंत्र के माध्यम से अव्यवस्थित हैं, बहुत अच्छा नहीं है। हमें अच्छे नेतृत्व, समर्पण, अनुशासन और दृढ़ संकल्प की जरूरत है। क्या आईसीएमआर गुणवत्ता अनुसंधान में भारतीय विज्ञान संस्था या टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ फंडामेंटल रिसर्च जैसे प्रमुख संस्थाओं का अनुकरण कर सकता है?
यह एक यूटोपियाई सपना है।
डॉ पी.के. राजगोपालन वेक्टर कंट्रोल रिसर्च सेंटर, पांडिचेरी, इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च के पूर्व निदेशक रहे हैं।
(फ्रंटलाइन से साभार,अंग्रेजी से हिंदी अनुवाद - राजेश कुमार)
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