दिसम्बर 2018 में मेघालय की एक 370 फीट गहरी संकरी कोयला खदान में 15 मजदूर फँस गये। उन्हें बचाने के लिए चले बचाव अभियान ने पूरे देश का ध्यान अपनी ओर खींच लिया। इस बचाव अभियान के दौरान आधुनिक उपकरणों के अभाव से जूझती राहत और बचाव एजेंसियों की बेबशी तथा जानलेवा खदानों से कोयला निकालने वाले मजदूरों की जिन्दगी की असलियत का पता चला।

मजदूरों की कब्रगाह बनीं इन 300 से 400 फीट लम्बी खदानों में मजदूर लेटकर घुसते हैं और कोयला निकालते हैं। 13 दिसम्बर को 15 मजदूर पूर्वी जयन्तिया हिल्स जिले के शान गाँव के पास एक संकरी गुफा के अन्दर कोयला निकालने के लिए गये थे। लेकिन खदान के अन्दर पानी भर जाने  के कारण उसी में फँस गये। किसी तरह एक मजदूर खदान से बाहर निकलने में सफल रहा। उसने बाकी मजदूरों के गुफा में फँसे होने की सूचना स्थानीय लोगों को दी। सरकारी बचाव एजेंसियों की लापरवाही और उपकरणों की भारी कमी के चलते बाकी के सभी मजदूर इस गुफानुमा खदान में ही दफ्न हो गये। उनके घरवाले आज भी उनकी लाश मिलने की आशा बाँधे हुए हैं।

मेघालय में कोयला खदानों में मजदूरों के जिन्दा दफ्न होने की यह पहली घटना नहीं है। इससे पहले भी 1992 में दक्षिण गारो हिल्स में एक संकरी गुफा में फँसकर 30 मजदूर अपनी जान गवाँ चुके थे तथा 2012 में भी 15 मजदूर गारो हिल्स में ऐसे ही हादसे का शिकार हुए थे।

इन खदानों में काम करने वाले मजदूरों में राज्य सरकार द्वारा अपनी जमीनों से खदेड़े गये आदिवासी तथा दो जून की रोटी की तलाश में दूसरे राज्यों से आये प्रवासी मजदूर हैं।

यहाँ कोयला खदान मालिकों द्वारा कोयला निकालने के लिए प्राचीन बर्बर तरीके का इस्तेमाल किया जाता है। अधिक कोयला निकालने के लालच में खदान मालिक मजदूरों को कोयला खदान में धकेल देते हैं, जहाँ मजदूर अक्सर दुर्घटनाओं का शिकार होते हैं।

स्थानीय मजदूर आन्दोलन और सामाजिक संगठन के दबाव के चलते 2014 में नेशलन ग्रीन ट्रिब्यूनल ने इन खदानों पर प्रतिबन्ध लगा दिया था। लेकिन इसके बावजूद भी अवैध रूप से इन कोयला खदानों से कोयले का खनन जारी है। स्पष्ट है कि कोयला खदान माफियाओं और राजनेताओं की साँठ–गाँठ के बिना यह सम्भव नहीं हो सकता।

मेघालय में ‘रैट होल’ (चूहा बिल) के नाम से चर्चित इन कोयला खदानों की संख्या लगभग  5 हजार है। इन खदानों के अधिकांश मालिक राजनीति पर अपनी पकड़ बनाये हुए हैं। मेघालय के विधानसभा चुनाव में 30 प्रतिशत उम्मीदवार ऐसे थे, जो इन कोयला खदानों के मालिक थे या कोयला परिवहन व्यवसाय से जुड़े हुए थे। इनमें से कुछ विजयी होकर विभिन्न मंत्रालयों में उच्च पदों पर आसीन हैं। हर पार्टी में ही ऐसे नेताओं व माफियाओं की भरमार है। यही वजह है कि नेशनल ट्रिब्यूनल द्वारा इन कोयला खदानों पर प्रतिबन्ध लगाने के बावजूद तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने भी इस प्रतिबन्ध के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अपील दायर की थी। राज्य में मौजूदा सत्तासीन नेशनल पीपुल्स पार्टी सह–भाजपा गठबन्धन की सरकार ने भी सत्ता सम्भालते ही कोयला खदानों पर प्रतिबन्ध हटाने की पैरवी सुप्रीम कोर्ट में की।

राज्य में कोयले का अवैध खनन करने वाले माफियाओं की पहुँच थाने से लेकर सत्ता तक है। इसका खुलासा बराक घाटी से पकड़े गये एक कोयला माफिया की डायरी से हुआ है। उसकी डायरी में बड़े नेताओं, विधायकों, प्रशासनिक अधिकारियों और पुलिस अधिकारियों के नाम दर्ज थे। ये सभी किसी न किसी रूप में इस अवैध खनन के कारोबार में संलिप्त थे।

पिछले तीन वर्षों में देशभर में कोयला, खनिज और तेल की खदानों में जिन्दा दफ्न होने वाले मजदूरों की संख्या 377 तक पहुँच चुकी है। ये वे मामले हैं, जो स्थानीय मजदूरों एवं सामाजिक संगठनों के चलते सामने आये हैं, वरना फिल्मी सितारों की शादी–बारात, बच्चों के हगने–मूतने की खबर रखने वाले मीडिया में न इनकी कोई खबर मिलती है और न ही ये स्थानीय प्रशासन की कारगुजारी के कारण दर्ज हो पाती हैं।

 थाईलैंड की एक गुफा में फँसे थाईलैंड के 12 खिलाड़ियों को निकालने के लिए मदद भेजकर वाहवाही लूटने वाली भारत की केन्द्र सरकार अपने देश के गुफानुमा खदानों में फँसे इन मजदूरों की जिन्दगी बचाने में नाकाम रही। अगर सरकार ने अरबों–खरबों रुपये मूर्तियों पर खर्चने के बजाय मजदूरों को खनन माफियाओं के चंगुल से आजाद कराने और उनके लिए रोजगार के सृजन में लगाया होता तो आज 15 नौजवान अपने परिवार के साथ होते।