जून के अन्त में स्विस नेशनल बैंक ने कालाधन सम्बन्धी एक रिपोर्ट जारी की जिसके अनुसार भारतीयों ने वर्ष 2017 में स्विस बैंकों में करीब 7000 करोड़ रुपये जमा किये, जो वर्ष 2016 की तुलना में 50 फीसदी ज्यादा है। स्विस नेशनल बैंक द्वारा अब तक जारी किये गये भारतीय कालाधन सम्बन्धी आँकड़ों के इतिहास में यह दूसरी बार है, जब भारतीय कालाधन जमा होने में इतना भारी उछाल आया। इससे पहले 2004 में भाजपा सरकार के कार्यकाल में ही स्विस बैंकों में भारतीय कालाधन में 56 फीसदी की बढ़ोतरी हुई थी।

स्विस बैंक की यह रिपोर्ट आने के बाद अरुण जेटली का बयान आया कि जरूरी नहीं कि विदेशों में जमा सारा पैसा कालाधन ही हो। इसके साथ ही कार्यवाहक वित्तमंत्री पीयूष गोयल ने कहा कि स्विस बैंकों में जमा रकम में 40 फीसदी राशि “रुपये बाहर भेजने की उदार योजना (लिबरलाइस्ड रेमिटेंस स्कीम–– एलआरएस) के तहत पहुँची है। वित्तमंत्री और कार्यवाहक वित्तमंत्री के बयान के अनुसार बैंकों में जमा कालाधन संरक्षण के अन्तर्गत ही विदेशों में भेजा गया है। जिसे उन्होंने उपरोक्त कानून का हवाला देकर कालाधन होने से मना किया है।

सरकार मुट्ठीभर पूँजीपतियों, कालाबाजारियों के हितों के लिए पूरी तरह मुस्तैद है। विदेशों से कालाधन वापस लाना तो दूर उल्टा कालाधन, सफेदधन बनकर विदेशों में पहुँचे इसके लिए अटलबिहारी वाजपेयी के नेतृत्ववाली भाजपा सरकार ने 4 फरवरी, 2004 को टैक्स में छूट के साथ 25000 डॉलर विदेश ले जाने या भिजवाने को कानूनी रूप दे दिया था। कांग्रेस के शासन में इस सीमा को 75000 डॉलर तक बढ़ाया गया और मोदी सरकार ने सत्ता में आते ही विदेश रुपये ले जाने की सीमा को दस गुना बढ़ाकर 2.5 लाख डॉलर कर दिया। नोटबन्दी के दौरान इस कानून का फायदा उठाकर सटोरियों, कालाबाजारियों, पूँजीपतियों ने अपने कालेधन को विदेशों में भेजा।

सरकार कालाधन को लेकर कितनी चिन्तित है यह तो उसकी कार्रवाइयों से ही स्पष्ट होता जा रहा है। 2014 के चुनाव से पहले ही स्विस बैंक अपने 268 भारतीय खाताधारकों की सूची सरकार को सौंप चुका था। इसके अलावा सरकार को दूसरे स्रोतांे से भी कालाधन रखने वालों के बारे में जानकारी प्राप्त हुई थी लेकिन सर्वोच्च न्यायालय के बार–बार कहने पर भी आज तक सरकार ने उन नामों को सार्वजनिक नहीं किया। नामों को सार्वजनिक करने के सवाल पर सरकार इन कालाबाजारियों–सटोरियों के सम्मान की चिन्ता करने लगती है। सरकार के कहे मुताबिक, नाम सार्वजनिक होने पर इन खाताधारकों की प्रतिष्ठा धूमिल होगी। 2014 में लोकसभा चुनाव का प्रचार करते वक्त नरेन्द्र मोदी कहते थे कि मैं कालाधन को सार्वजनिक कर दूँगा, कालाधन आने से हर देशवासी के खाते में 15–15 लाख रुपये आ जायेंगे, देश का बच्चा–बच्चा जानता है कि कालाधन कहाँ छिपा है, भाजपा सत्ता में आयी तो इस धन की पाई–पाई में लायी जायेगी आदि। लेकिन सत्ता में आने के बाद माननीय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के उपरोक्त बयान को उनकी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमितशाह ने चुनावी जुमला कहकर खारिज कर दिया।

स्विस बैंक की रिपोर्ट आने के बाद सरकार की कालाधन रोकथाम को लेकर किये गये ढोंग–प्रपंचों की पोल खुलनी शुरू हो गयी तो पूँजीपरस्त और सरकारपरस्त मीडिया ने स्विस बैंक में कालाधन वृद्धि की रिपोर्ट को “जायज वृद्धि” ठहराने का भरपूर प्रयास किया । कानून की आड़ में तर्क पेश कर इसे जायज वृद्धि घोषित किया गया। हाल ही में एक प्रतिष्ठित अंग्रेजी दैनिक ने “सर्वोच्च सरकारी सू़त्रों” के हवाले से खबर दी कि स्विस बैंकों में भारतीयों का कालाधन 80 फीसदी तक कम हो गया है। इसके सम्बन्ध में स्विस राजदूत की पीयूष गोयल को लिखी चिट्ठी को भी प्रकाशित किया गया। हालाँकि इस चिट्ठी का एक अंश ही प्रकाशित किया गया है जिसमें वर्ष 2016–17 में कालाधन जमा होने में 44 फीसदी की कमी चिन्हित की गयी है। इस खबर को सरकार से सम्बन्ध रखने वाले तमाम अखबारों ने अपने मुखपृष्ठ पर प्रमुख स्थान दिया।

संसद में राष्ट्रपति के अभिभाषण के बाद 7 फरवरी 2018 में लोकतंत्र में धन्यवाद प्रस्ताव पर जवाब देते हुए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भ्रष्टाचार पर लगाम लगाने की अपनी सरकार की कोशिशों की तुलना स्वच्छ भारत अभियान से की। उन्होंने लोगों का ध्यान एक बार फिर पारदर्शिता लाने को लेकर अपनी सरकार की कोशिशों की ओर दिलाया। सरकार भ्रष्टाचार पर लगाम लगाने के लिए कितनी ईमानदार है, इसका उदाहरण हमें “पनामा पेपर्स” मामले में साफ–साफ दिखाई देता है। जिनमें अमिताभ बच्चन, ऐश्वर्या, डीएलएफ के मालिक, गौतम अडानी के बड़े भाई विनोद अडानी आदि से लेकर भाजपा नेता जयंत सिन्हा, भाजपा के राज्यसभा सदस्य आरके सिन्हा समेत 700 लोगों के नाम शामिल हैं। आज तक सरकार ने इन पर किसी भी प्रकार की कानूनी कार्रवाई करना तो दूर, उल्टा उन्हें पदमश्री और पदम् भूषण से सम्मानित किया। जबकि आइसलैंड के प्रधानमंत्री को ‘‘पनामा पेपर्स’’ में नाम आने पर जनता के विरोध के दबाव में इस्तीफा देना पड़ा और उन्हें 10 साल की सजा हो गयी। भारत में हर समस्या की जड़ को पाकिस्तान में खोजने वाला मीडिया इस मुद्दे पर चुप्पी साध गया। सरकारें कई फिल्मी नायकों, महानायकों, अरबपतियों, खरबपतियों, कालाबाजारियों, सटोरियों के नाम आने पर भी मौन साधे हुए है जबकि सर्वोच्च न्यायालय इस मुद्दे पर कई बार सरकार को फटकार लगा चुका है।

कालाधन रखने वालों पर कार्रवाई करने व नाम उजागर करने में सरकार कितनी पारदर्शिता बरतती है। इसके लिए वित्त मंत्रालय से नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक फाइनेंस एंड पॉलिसी की ओर से रिसर्च पेपर जारी करने के लिए किये गये आवेदन पर सरकार ने कोई भी जानकारी देने से साफ इनकार कर दिया।

सरकार की कालाधन को लेकर मंशा क्या है, यह नोटबन्दी के दौरान ही स्पष्ट हो गयी थी। जब तमाम सटोरिये, कालाबाजारी, घूसखोर भ्रष्ट नेता और पूँजीपति अपना कालाधन विदेशों में भेज रहे थे जबकि आम जनता अपनी मेहनत की कमाई को बचाने के लिए नोटबन्दी के दौरान बैंकों में लगी लाइनों में मर रही थी।