निसार मैं तिरी गलियों के ऐ वतन कि जहाँ

चली है रस्म कि कोई न सर उठा के चले

जो कोई चाहने वाला तवाफ को निकले

नजर चुरा के चले जिस्म ओ जाँ बचा के चले–––

–फैज अहमद फैज

1 जुलाई को भारतीय न्याय संहिता (बीएनएस) और नये अपराधिक कानून देशभर में लागू कर दिये गये। इस नयी कानूनी व्यवस्था के अन्तर्गत पहला केस दिल्ली के एक रेहड़ी वाले पर दर्ज किया गया। दिल्ली पुलिस के अनुसार रेहड़ी चालक दिल्ली रेलवे स्टेशन के नजदीक पुल के नीचे रेहड़ी लगाकर आवागमन में बाधा डाल रहा था। इसकी वजह से रेलवे रेहड़ी वाले पर भारतीय न्याय संहिता की धारा 285 के तहत मुकदमा दर्ज किया गया। इस कानून के आधार पर सार्वजनिक मार्ग पर खतरा पैदा करने और बाधा डालने को लेकर केस दर्ज कर पाँच हजार रुपये का जुर्माना लगाया गया। पुराने कानून में इस तरह के मामलों पर दो सौ रुपये के जुर्माने का प्रावधान था।

दिल्ली पुलिस की इस कार्रवाई पर रेहड़ी वाले का कहना था कि वह सन 2007 से पुल के नीचे रेहड़ी लगाता आया है और उसकी रेहड़ी से किसी का रास्ता नहीं रुका। इससे पहले तक पुलिस ने इस पर कोई आपत्ति भी नहीं जतायी थी। अब अचानक पुलिस को यह अपराध क्यों लगने लगा। इस मामले के सुर्खियों में आने के बाद और सार्वजानिक आलोचना से घबराकर दिल्ली पुलिस ने बिना कुछ कहे मुकदमा रद्द कर दिया। यह बात यहीं तक नहीं रुकी, बल्कि गृह मंत्री अमित शाह को भी सफाई देनी पड़ी उन्होंने कहा कि “प्रावधान बहुत जल्दी लागू कर दिये गये। यह नया नहीं है––– प्रावधानों की समीक्षा के बाद पुलिस ने मुकदमा रद्द कर दिया।” इसके साथ ही यह भी कहा कि “यह भारतीय न्याय संहिता का पहला मुकदमा नहीं है। पहला मुकदमा मध्य प्रदेश में दर्ज हुआ है।”

इस घटना के साथ ही भारतीय न्याय संहिता और भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 तमाम सवालों और शंकाओं के घेरे में आ गयी और इसके साथ ही यह देश भर में लागू हो गयी।

प्रधानमंत्री मोदी ने पुराने कानूनों में बदलाव का उद्देश्य “गुलामी की मानसिकता और प्रतीकों को हटाना और नया आत्मविश्वासी भारत बनाना” बताया था। गृह मंत्री ने इन कानूनों को संसद में पेश करते समय कहा था कि “वह औपनिवेशिक युग के जुए से छुटकारा पाना चाहते हैं। ये सभी कानून (पुराने कानून) औपनिवेशिक युग के कानून थे, अब हमने औपनिवेशिक युग से छुटकारा पाने के लिए और अधिक आधुनिक कानून तैयार किये हैं।”

 पहले ही समाजशास्त्रियों, जननेताओं कानूनविदों और बुद्धिजीवियों ने इन कानूनों के चलते अभिव्यक्ति की आजादी, नागरिक स्वाधीनता और विरोध–प्रदर्शन के संवैधानिक अधिकारों के खत्म होने की चिन्ता जता दी थी। इसे सरकार ने नजरन्दाज कर दिया। हकीकत यह है कि अंग्रेजी दौर के नब्बे फीसदी कानूनों को ज्यों का त्यों ही रखा गया है और पुराने कानूनों के केवल पाँच फीसदी हिस्से में ही बदलाव किये गये हैं जिनमें जनता के प्रति कुछ नरमी थी। इन बदलावों ने पुराने कानूनों को जनता के लिए और भी खतरनाक बना दिया है। इस बदलाव की प्रक्रिया में विधि आयोग को भी शामिल नहीं किया गया, बल्कि सरकार ने अपनी विचारधारा और पार्टी समर्थक लोगों को इसका मसौदा तैयार करने में लगाया था। इनकी योग्यता पर भी अब सवाल उठ रहे हैं।

नये कानूनों में पुलिस को दिये गये अधिकारों को लेकर सबसे ज्यादा सवाल उठ रहे है। इसमें मुकदमा दर्ज करने से दोष साबित होने तक पुलिस को अंग्रेजी दौर से ज्यादा ताकत दे दी गयी है। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो की 2022 की रिपोर्ट के अनुसार पिछले बीस सालों में पुलिस हिरासत में 1888 लोगों की मौत हुई, जिसमें पुलिसकर्मियों के खिलाफ 893 मामले दर्ज किये गये हैं और 358 के खिलाफ आरोप–पत्र दाखिल किये गये हैं। इसके बावजूद केवल 26 पुलिसकर्मियों को ही दोषी पाया गया। ये ऐसे मामले हैं जो किसी न किसी तरह से सामने आ पाये। ऐसे में पुलिस को और ज्यादा अधिकार देने का सरकार का क्या मकसद है?

पहले किसी भी शिकायत पर कार्रवाई करने से पहले पुलिस का एफआईआर दर्ज करना जरूरी था। गिरफ्तारी की ठोस वजहों को बताना भी जरूरी था। लेकिन अब न्याय सुरक्षा संहिता की धारा 173(3) में तीन से सात साल तक की सजा वाले अपराधों में भी एफआईआर दर्ज करना जरूरी नहीं होगा। केवल शिकायत पर ही सम्बंधित थाने का एसएचओ बिना एफआईआर दर्ज किये कार्रवाई शुरू कर देगा। इस दौरान मुकदमा दर्ज किये बिना ही पुलिस हिरासत की अवधि साठ से नब्बे दिनों तक की है। इसके बाद यदि मुकदमा दर्ज होता है तो पुलिस को गिरफ्तार व्यक्ति की सारी जानकारी इलेक्ट्रोनिक माध्यम से सार्वजानिक करना अनिवार्य है। इस पर सरकार का तर्क है कि इससे गिरफ्तार व्यक्ति को पुलिस नुकसान नहीं पहुँचा सकेगी। वास्तव में यह बेहद खतरनाक कानूनी प्रावधान है। भीमा कोरेगाँव मामले में राजनीतिक दुश्मनी के चलते निर्दाेष लोगों को झूठे आरोप लगाकर जेल में डाल दिया गया था। उन्हें बदनाम करने के लिए जिस तरह का ‘मिडिया ट्रायल चला’ और आम जनता में जो गलत धारणा बनायी गयी अगर उनके परिवार के बारे में जानकारी सार्वजानिक कर दी जाती तो उनके परिवार की भी बदनामी होती।

 सुप्रीम कोर्ट ने 2014 में उत्तर प्रदेश के एक मामले में के लिए किसी भी शिकायत पर एफआईआर दर्ज करना पुलिस का मुख्य कर्तव्य बनाया था। इससे पुलिस के बिना वजह लोगों को गिरफ्तार करने और जेल में प्रताड़ना देने पर लगाम लगने की उम्मीद बढ़ी थी। लेकिन मौजूदा बदलावों ने इस उम्मीद को खत्म कर दिया और पुलिस को एकतरफा कार्रवाई की छुट दे दी है।

 भारतीय न्याय संहिता में किसी आम आदमी के लिए पुलिस या किसी भी सरकारी अधिकारी की गलत कार्रवाई के खिलाफ शिकायत करना बेहद कठिन बना दिया गया है। अगर कोई नागरिक किसी पुलिस या सरकारी अधिकारी की किसी गलत कार्यवाही की शिकायत करता है तो पहले उसके सम्बंधित विभाग के वरिष्ठ अधिकारी से इसकी मंजूरी लेनी होगी तब उसके खिलाफ कोई शिकायत दर्ज करवा सकता है। क्या वरिष्ठ अधिकारी निष्पक्ष होकर शिकायतकर्ता का साथ देगा? कहना बेहद ही मुश्किल है क्योंकि बहुत सारे पुराने मामलों में देखा गया है कि वरिष्ठ अधिकारी की शह पर पुलिस ने गलत कार्रवाई की थी।

पिछले दस साल में मोदी सरकार की जनविरोधी नीतियों ने आर्थिक असमानता को बेहद ज्यादा बढ़ा दिया है। मुट्ठीभर धन्नासेठ देश की आधे से ज्यादा धन सम्पदा के मालिक बन बैठे है। बहुसंख्यक जनता को कंगाली की तरफ दखेल दिया है। ऐसे में जनता में सरकार, प्रशासन और व्यवस्था के खिलाफ आक्रोश पैदा होना लाजमी है। तीन काले कृषि कानूनों के खिलाफ किसानों का सड़कों पर आ जाना या लगातार निजीकरण का शिकार हो रही सार्वजानिक संस्थाओं के कर्मचारियों का हड़ताल करना इसके उदाहरण है। जनता के विरोध प्रदर्शनों ने जनविरोधी नीतियों को लागू करने की रफ्तार को धीमा करने पर सरकार को मजबूर किया। किसानों के आन्दोलन के आगे सरकार को झुकना ही पड़ा और कानून वापस लेने पड़े। ऐसे में सरकार का अपनी कानून व्यवस्था को पहले से ज्यादा चाक–चैबन्द करना जरूरी हो गया ताकि वह इन कानूनों का सहारा लेकर जनविरोधी नीतियों के खिलाफ उठ रही हर आवाज दबा सके।

भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (बीएनएसएस) की धारा 148(1) और 148(2) के अनुसार एक सब–इंस्पेक्टर किसी भी जनसभा को मौके पर ही गैर कानूनी करार दे सकता है और किसी भी बाहरी ताकत की सहायता से चाहे वह पुलिस या सेना से जुडा हो या ना हो, जनसभा को खत्म करा सकता है। सरकार समर्थक हिन्दुत्ववादी संगठनों ने सीएए और किसान आन्दोलन को खत्म करने के लिए प्रदर्शनकारियों पर हमले किये थे। उस समय मौजूद कानूनों के कारण ऐसे संगठनों पर कुछ लगाम थी। कानूनों में किये गये नये बदलावों से यही जाहिर हो रहा है कि जनता के आन्दोलनों को कुचलने के लिए ऐसे गुण्डावाहिनी संगठनों को कानून की लाठी थमा दी गयी है।

बीएनएसएस की धारा 150 जनान्दोलनो को लेकर पुलिस की कार्रवाई को स्पष्ट करती है। इसके अनुसार “अगर सार्वजानिक सुरक्षा को किसी ऐसी जुटान द्वारा स्पष्ट तौर पर खतरा पैदा होता है और किसी कार्यकारी मजिस्ट्रेट के साथ या किसी कमिश्नर या गजटेड अधिकारी से बात नहीं की जा सकती है, तो मौके पर मौजूद अधिकारी अपने अधीन हथियारबन्द बलों की मदद से ऐसे जुटान को हटा सकता है।” क्या वाकई यह एक आजाद हिन्दुस्तान में बना कोई कानून है? क्या इसके बाद पुलिस को एक आजाद देश की पुलिस कहना चाहिए? कानून की इस धारा में लगता है सरकार अपनी पुलिस को जनरल डायर से सीख लेने की बात कह रही है कि देखो कैसे निहत्थे लोगों की जनसभाओं को कुचलना है। देशद्रोह और आतंकवाद के नाम पर जनान्दोलनों को खत्म करने की खतनाक कार्रवाई को सरकार ने कानूनी जामा पहना दिया हैं।

केन्द्र सरकार के साथ महाराष्ट्र में भाजपा की सहयोगी शिवसेना(शिन्दे) भी नक्सलवाद को खत्म करने के नाम पर ‘महाराष्ट्र विशेष सार्वजानिक सुरक्षा विधेयक, 2024’ बिल लेकर आयी है। केन्द्र की भाजपा सरकार से दो कदम आगे बढ़ते हुए महाराष्ट्र सरकार ने अपनी आलोचना करने के सभी लोकतान्त्रिक आधिकारों को खत्म करने का कानूनी मसौदा तैयार कर दिया है। राज्य के तमाम जनपक्षधर बुद्धिजीवी और सामाजिक कार्यकर्ता इसका विरोध कर रहे हैं। उनका मानना है कि सरकार इसका इस्तेमाल आदिवासियों, दलितों और वंचितों के आन्दोलन का दमन करने के लिए करेंगी।

इस कानून के लागू होते ही राज्य की पुलिस और दूसरी सुरक्षा एजेंसियों को किसी भी आरोपी को वारण्ट के बिना और उसके अपराध के बारे में बताये बगैर गिरफ्तार करने का अधिकार होगा। यहीं नहीं सरकार सन्देह होने पर या किसी भी तरह की भागीदारी की शंका पर उसकी पूरी चल–अचल सम्पति को जब्त कर सकेगी।

आतंकवाद और नक्सलवाद से निपटने के लिए युएपीए और मकोका जैसे बेहद सख्त कानून पहले से ही मौजूद हैं। इसके बावजूद महाराष्ट्र सरकार के इस विधेयक को विधानसभा में पेश करने पर विपक्षी पार्टियों ने जबरदस्त विरोध किया। विपक्ष भी समझ चूका है कि इन कानूनों से उसे भी दबाया जायेगा।

नव उदारवादी आर्थिक नीतियों को लागू हुए तीन दशक गुजर चुके है। उस समय जनता को जितने भी सब्जबाग दिखाए गये उन सबकी हकीकत आज हमारे सामने है। सरकार ने जनता के प्रति अपनी हर जिम्मेदारी से खुद को अलग कर लिया है। जनता अपने हाल पर जीने को विवश है। देश के तमाम संसाधन देशी–विदेशी पूँजीपतियों को सौंपे जा रहे हैं। ऐसे में विरोध की आवाज उठाना और व्यवस्था से सवाल करना लाजमी है। यह सरकार को नागवार है जिसे वह कुचलना चाहती है। इसके लिए सरकार रोज ब रोज अंग्रेज हुकूमत की तरह नये–नये काले कानून पारित कर रही है।

1919 में अंग्रेज हुकूमत ने आर्थिक शोषण को जारी रखने के लिए रोलेट एक्ट पारित किया था। इसमें अंग्रेज हुकूमत को उसकी शोषणकारी नीतियों के खिलाफ लिखने, बोलने, धरना–प्रदर्शन और आन्दोलन करने वालों के घर की बिना वारण्ट तलाशी लेने, गिरफ्तार करने, बिना आरोप या सुनवाई के अनिश्चित समय तक कैद में रखने के अधिकार दे दिये थे। इन कानूनों के बारे में जनता में एक कहावत प्रचलित थी– “न वकील, न दलील, न अपील”। रोलेट एक्ट के विरोध में ही जलियांवाला बाग में हुई जनसभा पर जनरल डायर ने गोलियाँ चलायी थी।

1928 में ऐसे ही कानून ‘पब्लिक सेफ्टी बिल और ट्रेड डिस्प्यूट बिल’ का विरोध करने पर भगत सिंह और उनके साथियों को अंग्रेज सरकार ने आतंकवादी कहा था। इन बिलों के द्वारा भी अंग्रेज सरकार ने जनता से हड़ताल करने और सरकार का विरोध करने के अधिकार छीन लिए थे।

आज सरकार काले कानूनों को लाकर अंग्रेज हुकूमत के इतिहास को दोहरा रही है। यह आजाद देश में फिर से गुलामी की दस्तक है। अब जनता की संगठित और मजबूत ताकत ही इस नयी गुलामी से छुटकारा दिला सकती है।